भाषा एक संस्कार है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
एक पुरानी कथा है। एक राजा शिकार खेलने के लिए वन में गया। शेर का पीछा करते-करते बहुत दूर निकल गया। सेनापति और सैनिक सब इधर-उधर छूट गए। राजा रास्ता भटक गया। सैनिक और सेनापति भी राजा को खोजने लगे। सभी परेशान थे। एक अंधा भिखारी चौराहे पर बैठा था। कुछ सैनिक उसके पास पहुँचे। एक सैनिक बोला, "क्यों बे अंधे! इधर से होकर राजा गया है क्या?"
"नहीं भाई!" भिखारी बोला। सैनिक तेज़ी से आगे बढ़ गए।
कुछ समय बाद सेनापति भटकते हुआ उसी चौराहे पर पहुँचा। उसने अंधे भिखारी से पूछा, "क्यों भाई अंधे! इधर से राजा गए हैं क्या?"
"नहीं जी, इधर से होकर राजा नहीं गए हैं।"
सेनापति राजा को ढूँढने के लिए दूसरी दिशा में बढ़ गया।
इसी बीच भटकते-भटकते राजा भी उसी चौराहे पर जा पहुँचा। उसने अंधे भिखारी से पूछा - "क्यों भाई सूरदास जी! इस चौराहे से होकर कोई गया है क्या?"
"हाँ महाराज! इस रास्ते से होकर कुछ सैनिक और सेनापति गए हैं।"
राजा चौंका-"आपने कैसे जाना कि मैं राजा हूँ और यहाँ से होकर जाने वाले सैनिक और सेनापति थे?"
"महाराज! जिन्होंने "क्यों बे अंधे" कहा , वे सैनिक हो सकते हैं। जिसने "क्यों भाई अंधे" कहा वह सेनापति होगा। आपने "क्यों भाई सूरदास जी!" कहा, आप राजा हो सकते हैं।आदमी की पहचान उसकी भाषा से होती है और भाषा संस्कार से बनती है। जिसके जैसे संस्कार होंगे, वैसी ही उसकी भाषा होगी।"
जब कोई आदमी भाषा बोलता है , तो साथ में उसके संस्कार भी बोलते हैं। यही कारण है कि भाषा शिक्षक का दायित्व बहुत गुरुतर और चुनौतीपूर्ण है। परम्परागत रूप में शिक्षक की भूमिका इन तीन कौशलों - बोलना, पढ़ना और लिखना तक सीमित कर दी गई है। केवल यांत्रिक कौशल किसी जीती-जागती भाषा का उदाहरण नहीं हो सकते हैं। सोचना और महसूस करना , दो ऐसे कारक हैं ; जिनसे भाषा सही आकार पाती है। इनके बिना भाषा गूँगी एवं बहरी है, इनके बिना भाषा संस्कार नहीं बन सकती, इनके बिना भाषा युगों-युगों का लम्बा सफ़र नहीं तय कर सकती; इनके बिना कोई भाषा किसी देश या समाज की धड़कन नहीं बन सकती। केवल सम्प्रेषण ही भाषा नहीं है। दर्द और मुस्कान के बिना कोई भाषा जीवन्त नहीं हो सकती। सोचना भी केवल सोचने तक सीमित नहीं। सोचने में कल्पना का रंग न हो , तो क्या सोचना। कल्पना में भाव का रस न हो, तो किसी भी भाषा का भाषा होना बेकार। भाव, कल्पना और चिन्तन भाषा को उसकी आत्मा प्रदान करते हैं।
भाषा-शिक्षक ख़ुद ही पूरे समय बोलता रहे, यह शिक्षण की सबसे बडी कमज़ोरी है। प्रायः यह देखने में आता है कि बहुत से बच्चों को वर्ष में एक बार भी भाषा की कक्षा में बोलने का अवसर नहीं मिल पाता है। बिना बोले भाषा का परिष्कार एवं संस्कार कैसे हो सकता है? बच्चों के आसपास का संसार बहुत बड़ा एवं व्यापक है। दिन भर बहुत कुछ बोलने वाले वाले बच्चों को कक्षा में मौन धारण करके बैठना पड़ता है। यह किसी यातना से कम नहीं। बच्चों के भी अपने कच्चे-पक्के विचार हैं। उन्हें अभिव्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिए। अभिव्यक्ति का यह अवसर ही भाषा को माँजता और सँवारता है। "ख़ामोश पढ़ाई ज़ारी है" की स्थिति भाषा के लिए शुभ संकेत नहीं है। हमें इस प्रवृत्ति में बदलाव लाना पड़ेगा। दुनिया के अधिकतर झगड़े भाषा के ग़लत प्रयोग, ग़लत हाव-भाव के कारण पैदा होते हैं। बिगड़े सम्बन्ध भाषा के सही प्रयोग से सुलझ भी जाते हैं। 90 प्रतिशत अंक पाने वाले बहुत से बच्चे भी कमज़ोर अभिव्यक्ति के चलते अपनी बात सही ढंग से नहीं कह पाते। अतः आज के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि बच्चों को बोलने का भरपूर मौका दिया जाए; तभी अभिव्यक्तिकौशल में निखार आएगा।
छोटी कक्षाओं से ही इस दिशा में बल दिया जाना चाहिए। संवाद, समूह-गान, एकालाप, कविता पाठ, कहानी -कथन, दिनचर्या-वर्णन के द्वारा बच्चों की झिझक दूर की जा सकती है।
पाठ्य-पुस्तकें केवल दिशा -निर्देश के लिए होती हैं। उन्हें समग्र नहीं मान लेना चाहिए। अतिरिक्त अध्ययन के द्वारा भाषा की शक्ति बढ़ाई जा सकती। बच्चों को निरन्तर नया पढ़ने के लिए प्रेरित करना ज़रूरी है। यह तभी संभव है, जब शिक्षक भी निरन्तर नया पढ़ने की ललक लिये हुए हों।
भाषा के शुद्ध रूप का बच्चों को ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए निरन्तर अभ्यास ज़रूरी है। अशुद्ध शब्दों का अभ्यास नहीं कराना चाहिए। कुछ शिक्षक अशुद्ध शब्दों को लिखवाकर फिर उनका शुद्ध रूप लिखवाकर अभ्यास कराते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है। बच्चों को दोनों प्रकार के शब्दों का बराबर अभ्यास हो जाएगा। वे सही और ग़लत दोनों का समान अभ्यास करने के कारण शुद्ध प्रयोग करने में सक्षम नहीं हो पाएँगे। संशोधित किये गए सही शब्दों की सूची अलग से बनवानी चाहिए। इससे यह पता चल सकेगा कि कौन छात्र किन-किन शब्दों की वर्तनी ग़लत लिखता रहा है। निर्धारित अन्तराल के बाद वर्तनी की अशुद्धियों में क्या कमी आई है। श्रुतलेख के माध्यम से अशुद्धियों में आई कमी का आकलन किया जा सकता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि सभी कौशलों का निरन्तर अभ्यास भाषा को प्रभावशाली बनाने की भूमिका निभा सकता है।
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