भाषा और साहित्या / गणेशशंकर विद्यार्थी
श्रीमन् स्वागताध्यक्ष महोदय, देवियो और सज्जनो,
इस स्थान से आपको संबोधित करते हुए मैं अपनी दीनता के भार से दबा-सा जा रहा हूँ। जिन साहित्य के महारथियों से इस स्थान की शोक्षा बढ़ चुकी है, उनका स्मरण करके, और जिस प्रकार के साहित्य-मर्मज्ञों को इस आसान पर आसीन होना चाहिए, उनकी कल्पना करके मैं प्रतिक्षण यह अनुभव करता हूँ कि इतने भारी कार्य के भार को लेकर मैंने बड़ी भारी धृष्टता की है। मैं कार्य की गुरुता को पहले भी जानता था, किंतु समय और सुविधा की कमी से चिंतित गोरखपुरी मित्रों के प्रबल अनुरोध से मुझे इस बात के लिए तैयार होना पड़ा कि पूजनीय आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की अनुपस्थिति में उनके एक बहुत छोटे सेवक के नाते मैं गोरखपुर सम्मेलन की साधारण कार्यवाही को भले या बुरे, जिस ढंग से बने, इसे पूरा करा दूँ। जब सम्मेलन का समय आगे के लिए टल गया, तब मैंने चाहा भी कि इस बड़े काम से मुझे छुट्टी मिल जाये। किंतु अनेक कारणों से मेरा पीछे हट आना असंभव हो गया, इसीलिए आज मैं यहाँ इस प्रकार आपके सामने उपस्थित हूँ। कहाँ राजनीति का चंचल क्षेत्र और उसका नित्य का अस्थिर और उच्छृंखल पर्यटन, और कहाँ यह सुंदर सुललित साहित्य-सर, जिसमें पैठने के लिए बड़ी साधना और पुण्य की आवश्यकता है। अपनी असमर्थता, अपनी कमी का मुझे स्वयं जितना अधिक अनुभव था, आज इस अवसर पर, आपके समक्ष वह अनुभव और भी अधिक तीव्रता के साथ मुझे व्यथित कर रहा है। मैं आपके समक्ष कोई नयी बात नहीं रखने जा रहा। मैं जो कुछ कहूँगा वह भी बहुत त्रुटिपूर्ण होगा। मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप मेरी त्रुटियों पर ध्यान न दें, उनके लिए मुझे क्षमा करें, और जिस बड़े कार्य के लिए हम सब इस महान् देश के कोने-कोने से आकर बाबा गोरखनाथ की इस पुरी में एकत्र हुए हैं, उसकी सिद्धि ही के लिए हम कुछ विशेष् निष्कर्षों पर पहुँचें।
आज से उन्नीस वर्ष पहले, जबकि इस सम्मेलन (गोरखपुर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में 2 मार्च 1930 को विद्यार्थी जी द्वारा दिये गये अध्यक्षीय अभिभाषण की अविकल प्रस्तुति) का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात् भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वंतत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग-पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मगधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहाँ तक पहुँच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का, बादशाह शाहजहाँ के समय जन्म लेने वाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था। जिस भाषा में पद्य की रचना इतने ऊँचे दर्जे तक पहुँच चुकी हो, उसके संबंध में इस बात की सफाई देनी पड़े कि उसका उस समय गद्य रूप भी था, इससे बढ़कर कोई हास्यास्पद बात नहीं हो सकती। इस देश में गद्य में लिखने का बहुत प्रचार नहीं था। बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे गए, पहले संस्कृत में और फिर उसकी कन्या-भाषाओं में, किंतु थे अधिकांश पद्य में। ऐसा भासित होता है कि उस समय गद्य में लिखना हेय समझा जाता था। पद्य लिखने ही से विद्वता का अधिक परिचय प्राप्त हुआ करता था। अन्य देशों में भी पहले पद्य लिखने ही की बहुत परिपाटी थी। ग्रीस और रोम, ईरान और चीन में प्राचीन काल में गद्यात्मक रचनाएँ भी हुई, किंतु इनका इतना अधिक महत्व नहीं था, जितना पद्यात्मक रचनाओं का। इसी प्रकार भारतवर्ष में भी पद्यात्मक रचना का महत्व अधिक था। यह संभव है कि अन्य देशों की अपेक्षा यहाँ पद्यात्मक रचना और भी अधिक आवश्यक और गद्यात्मक रचना और भी अधिक अनावश्यक समझी गयी हो। किंतु पद्यों के बड़े-से-बड़े युग में भी गद्य का कोई मूल्य न रहा हो और उसका अस्तित्व नितांत लोप हो गया हो, इस बात की कल्पना करना भी हास्यास्पद है। इसीलिए उत्कृष्ट हिंदी-पद्य-रचना के समय के पश्चात् हिंदी के गद्य के स्वतंत्र अस्तित्व के सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ना इस देश का एक विचित्र व्यापार है। विचित्र व्यापार का एक बड़ा भारी कारण है। मैं जिस कारण की ओर निर्देश करूँगा, वह संभव है आपमें से अनेकों को मेरी निज की निरंतर विचारशैली का एक कारण-मात्र जँचे, किंतु मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं उस कारण को आपके सामने रखने में किसी प्रकार की संकीर्णता से काम नहीं ले रहा। मैं केवल एक सर्वमान्य बात को आपके सामने रख रहा हूँ, और मैं यह भी चाहूँगा कि आप में से जो सज्जन मुझसे इस विषय में मजभेद रखते हों, वे इसके विपरीत संसार-भर में कहीं से कोई भी उदाहरण निकालकर उपस्थित करने की कृपा करें। मैं जो कुछ कहने वाला हूँ, वह केवल इतना ही है कि राजनीतिक पराधीनता पराधीन देश की भाषा पर अत्यंत विषम प्रहार करती है। विजयी लोगों की विजय-गति विजितों के जीवन के प्रत्येक विभाग पर अपनी श्रेष्ठता की छाप लगाने का सतत प्रयत्न करती है। स्वाभाविक ढंग से विजितों की भाषा पर उनका सबसे पहले वार होता है।
भाषा जातीय जीवन और उसकी संस्कृति की सर्वप्रधान रक्षिका है, वह उसके शील का दर्पण है, वह उसके विकास का वैभव है। भाषा जीती, और सब जीत लिया। फिर कुछ भी जीतने के लिए शेष नहीं रह जाता। विजितों का अस्तित्व मिट चलता है। विजितों के मुँह से निकली हुई विजयीजनों की भाषा उनकी दासता की सबसे बड़ी चिन्हानी है। पराई भाषा चरित्र की दृढ़ता का अपहरण कर लेती है, मौलिकता का विनाश कर देती है और नकल करने का स्वभाव बना करके उत्कृष्ट गुणों और प्रतिभा सेनमस्कार करा देती है। इसीलिए, जो देश दुर्भाग्य से पराधीन हो जाते हैं, वे उस समय तक, जब तक कि वे अपना सब कुछ नहीं खो देते, अपनी भाषा की रक्षा के लिए सदा लोहा लेते रहना अपना कर्तव्य समझते हैं। अनेक यूरोपीय देशों के इतिहास भाषा-संग्राम की घटनाओं से भरे पड़े हैं। प्राचीन रोम साम्राज्य से लेकर अब तक के रूस, जर्मन, इटैलियन, आस्ट्रियन, फ्रेंच और ब्रिटिश सभी साम्राज्यों ने अपने अधीन देशों की भाषा पर अपनी विजय-वैजयंती फहरायी। भाषा-विजयी का यह काम सहज में नहीं हो गया। भाषा-समरस्थली के एक-एक इंच स्थान के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ हुई। देश की स्वाधीनता के लिए मर मिटने वाले अनेक वीर-पुंगवों के समयों में इस विचार का स्थान सदा ऊँचा रहा है कि देश की भौगोलिक सीमा की अपेक्षा मातृभाषा की सीमा की रक्षा की अधिक आवश्यकता है। वे अनुभव करते थे कि भाषा बची रहेगी तो देश का अस्तित्व और उसकी आत्मा बची रहेगी, अन्यथा फिर कहीं उसका कुछ भी पता न लगेगा।
भाषा-संबंधी सबसे आधुनिक लड़ाई आयरलैंड को लड़नी पड़ी थी। पराधीनता ने मौलिक भाषा का सर्वथा नाश कर दिया था। दुर्दशा यहाँ तक हुई कि इने-गिने मनुष्यों को छोड़कर किसी को भी गैलिक का ज्ञान न रहा था, आयरलैंड के समस्त लोग यह समझने लगे थे कि अंग्रेजी ही उनकी मातृभाषा है, और जिन्हें गैलिक आती भी थी, वे उसे बोलते लजाते थे और कभी किसी व्यक्ति के सामने उसके एक भी शब्द का उच्चारण नहीं करते थे। आत्म-विस्मृति के इस युग के पश्चात् जब आयरलैंड की सोती हुई आत्मा जागी तब उसने अनुभव किया कि उसने स्वाधीनता तो खो ही दी, किंतु उससे भी अधिक बहुमूल्य वस्तु उसने अपनी भाषा भी खो दी। गैलिक भाषा के पुनरुत्थान की कथा अत्यंत चमत्कारपूर्ण और उत्साहवर्धक है। उससे अपने भाव और भाषा को बिसरा देने वाले समस्त देशों को प्रोत्साहन और आत्मोद्वार का संदेश मिलता है। इस शताब्दी के आरंभ हो जाने के बहुत पीछे, गैलिक भाषा के पुनरुद्वार का प्रयत्न आरंभ हुआ। देखते-देखते वह आयरलैंड-भर पर छा गयी। देश की उन्नति चाहने वाला प्रत्येक व्यक्ति गैलिक पढ़ना और पढ़ाना अपना कर्तव्य समझने लगा। सौ वर्ष बूढ़े एक मोची से डी-वेलरा ने युवावस्था में गैलिक पढ़ी और इसलिए पढ़ी कि उनका स्पष्ट मत था कि यदि मेरे सामने एक ओर देश की स्वाधीनता रक्खी जाए और दूसरी ओर मातृभाषा, और मुझसे पूछा जाये कि इन दोनों में एक कौन-सी लोगे, तो एक क्षण के विलंब के बिना मैं मातृभाषा को ले लूँगा, क्योंकि इसके बल से मैं देश की स्वाधीनता भी प्राप्त कर लूँगा।
राजनीतिक पराधीनता ने भारतवर्ष में भी उसी प्रकार, जिस प्रकार उसने अन्य देशों में किया, भाषा-विकास के मार्ग में रोड़े अटकाने में कोई कमी नहीं की। यद्यपि इस देश के मुसलमान शासक बहुत समय तक विजेता और विदेशी नहीं रहे और उनकी भाषा का विशेष प्रभाव देश के अन्य भागों पर बहुत कम पड़ा है, किंतु तो भी उनके कारण भारतीय भाषाओं का सहज स्वाभाविक विकास नही हो सका। सबसे अधिक हिंदी की हानि हुई। उसकी सत्ता देश के उत्तर, पश्चिम और मध्यवर्ती भाग में थी। यही प्रदेश शाही सत्ता के कारण, अरबी अक्षरों और फारसी साहित्य से इतने प्रभावित हुए कि उनका रंग-रूप ही बदल गया, और आज तक बहुत-से स्थानों में सत्यनारायण की कथा तक विधिवत् अरबी अक्षरों में पढ़ी जाती है। एक भाषा दूसरी भाषा के संसर्ग में आकर शब्दों और वाक्यों का सदा दान-प्रतिदान किया करती है। यह हानिकारक या अपमानजनक बात नहीं। प्रत्येक भाषा के विकास के लिए इस बात की आवश्यकता है। किंतु जब यह दान-प्रतिदान प्रभुता और पराधीनता की भावना से होता है, एक भाषा को दूसरी भाषा के शब्दों और वाक्यों को इसलिए लेना पड़ता है कि दूसरी भाषा को दूसरी भाषा के शब्दों और वाक्यों को इसलिए लेना पड़ता है कि दूसरी भाषा के लोग बलवान है, उनकी प्रभुता है, उनको प्रसन्न करना है, उनके सामने झुकना है, तो इससे लेने वालों की उन्नति नहीं होती, वे अपनी गाँठ का बहुत कुछ खो देते ही हैं और पर-भाषा की सत्ता स्वीकार करके अपनी परवशता और हीनता को पुष्ट करते हैा और अपने सर्वसाधारण जन से दूर जा पड़ते हैं। इस देश में विजेताओं के साथ फारसी के प्रदेश से ये बातें हुई। इसलिए बाबा गोरखनाथ, गंग कवि आदि के गद्य पर जोर देते हुए, हिंदी भक्तों को यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ती रही कि फारसी के आगमन और उर्दू के जन्म से पहले भी हिंदी गद्य-रूप में वर्तमान थी और उसका स्वतंत्र अस्तित्व था। फारसी से जो कुछ हुआ, वह उसका पासंग भी नहीं है जो अंग्रेजी के आगमन से इस देश में हुआ। हिंदी भाषा, जिसे सम्मेलन के मंच से स्वर्गीय पं. बद्रीनारायणजी नागरी भाषा और स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानंदजी आर्य भाषा के नाम से पुकारना उचित समझते हैं, अंग्रेजी के कारण जितने घाटे में रही और अब तक है, उतने घाटे में वह शाही समय में न थी और यदि उसे स्वाभाविक वायुमंडल मिलता, तो कभी न रहती।
अंग्रेजी शासन के आरंभ में फारसी अदालती भाषा थी। किंतु अदालतों और उनकी भाषा से सर्वसाधारण का उस समय इतना संबंध नहीं था। अंग्रेजी शासन ने फारसी के स्थान पर उर्दू को अदालती भाषा का स्थान दिया। उस समय उर्दू का कोई विशेष और स्वतंत्र अस्तित्व न था। मुसलमान जिस हिंदी को बोलते और लिखते थे और जिसमें वे फारसी के कुछ शब्दों का भी प्रयोग करते थे, वही उर्दू थी। हिंदी का उससे कोई संघर्ष नहीं था। उर्दू को उस समय पूरक भाषा का स्थान प्राप्त था। अर्थात् देश के जो लोग शुद्ध हिंदी नहीं बोल सकते थे, वे भी फारसी के कुछ शब्दों और शक्लों को लेकर हिंदी भाषा-भाषी थे। अंग्रेजी शासन ने उत्तर भारत में उर्दू को एक ऐसा स्थान देकर, जो उसे पहले प्राप्त न था, हिंदी और उर्दू के अर्थ के विवाद का सूत्रपात किया, और इस प्रकार बहुसंख्यक हिंदी भाषा-भाषी लोगों की सुविधा और विकास में बाधा उपस्थित कर दी। इसका यह फल हुआ कि उर्दू, देश की बोली, समझी और लिखी जाने वाली भाषा से, दूर की वस्तु हो गयी है। उसने अपने कोष को देश के भावों, शब्दों और वाक्यों से भरना छोड़ दिया, उसने अपने कोष को देश के भावों, शब्दों और वाक्यों से भरना छोड़ दिया, उसने हर बात में अपना रुख फारसी की तरफ किया। देश की भाषाओं की ओर देखने की अपेक्षा उसने अंग्रेजी भाषा की ओर देखना तक अधिक आवश्यक समझा और हिंदी भाषा-भाषियों पर दो-दो भाषाओं का-एक उर्दू के बदले हुए रूप का और दूसरे अंग्रेजी का-भारी बोझ व्यर्थ में पड़ गया। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उस समय उर्दू में, अर्थात् अरबी अक्षरों में लिखी जाने और फारसी शब्दों में मिश्रित हिंदी में, यथेष्ट साहित्य-ग्रंथ और साहित्य-सेवी वर्तमान थे और सर्वत्र पढ़े-लिखे लोग इस प्रकार की भाषा को शिरोधार्य समझते थे। हिंदी गद्य के खड़ी बोली में लिखे जाने का सूत्रपात हो चुका था। लल्लूलाल, मुंशी सदासुख, सदल मिश्र, इंशा आदि की सुंदर कृतियों का जन्म हो चुका था। आगे चलकर पाठ्य-पुस्तकों की आवश्यकता पड़ी और श्रीरामपुर के ईसाई पादरियों को अपने धर्म-प्रचार की। इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति भी हिंदी में की गयी। किंतु, सरकारी सहायता के कारण उर्दू हिंदी से एक नितांत अलग भाषा होती गयी, और साथ ही, अंग्रेजी का दबदबा दिन-ब-दिन बढ़ता गया। इसी कारण, हिंदी साहित्य सम्मेलन के जन्म के पहले और उसके पश्चात् भी कुछ समय तक, समय-समय पर हमें यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ी कि हिंदी भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व है, उसका अलग स्रोत और अलग विकास है, वह करोड़ों जनों की सोचने, बोलने और लिखने की भाषा है, और अलग विकास है, वह करोड़ों जनों की सोचने, बोलने और लिखने की भाषा है, और जो लोग उसकी अवहेलना करते हैं, वे देश में करोड़ों व्यक्तियों और उनकी आवश्यकताओं और वाद की अवहेलना करते हैं। अनेक मुखों से अनेक अवसरों पर यह बात कही गयी। काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने जन्म ही से इस मंत्र का उच्चारण किया। हिंदी के बड़े-बड़े आदमी, राजा शिवप्रसाद, बाबू हरिश्चंद्र, राजा लक्ष्मणसिंह, पं. मदनमोहन मालवीय, डॉ. सुंदरलाल, बाबू श्यामसुंदर दास आदि हिंदी के स्वतंत्र अस्तित्व के माने जाने के लिए सतत परिश्रम करते रहे। इस प्रांत में, सर एंटोनी मेकडेनल्ड ने हिंदी में भी अदालती कागज लिये जाने की आज्ञा प्रदान की। यह बात यथार्थ में हिंदी के विशेष पोषण के लिए नहीं थी। देश के लिए नहीं थी। देश के कितने ही राजनीतिज्ञ तो इस आशा में हिंदी का उतना हित नहीं पाते, जितना कि वे उसमें और कुछ देखते हैं। उनकी धारणा तो यह है कि इधर यदि हिंदी को कुछ बल मिला, उसकी कुछ उन्नति हुई, तो उसका कारण यह है कि अनेक कारणों से देश के जीवन के प्रत्येक खंड में अधिक व्यापकता और विशालता का शुभागमन हुआ है, कचहरियों में कुछ कागजों का हिंदी में लिया जाना या बे-मन से उसके अस्तित्व का स्वीकार कर लिया जाना उसका कारण नहीं।
हिंदी के अस्तित्व के लिए बहुत समय से संघर्ष है। संघर्ष उस समय था, जब गद्य रूप में हिंदी कुछ भी नहीं थी, और उस समय भी था, जबकि उस रूप में वह कुछ था भी, और इस समय भी है, जब कि गद्य और पद्य दोनों रूपों में हिंदी के अस्तित्व से कोई मुकर नहीं सकता। इस समय भी हिंदी को पूरा खुला हुआ मार्ग नहीं मिल रहा है। उसके निज के क्षेत्र पर केवल उसी का आधिपत्य नहीं है। अभी तक इस देश के करोड़ों बालक, जिनकी मातृभाषा हिंदी थी, कच्ची उम्र ही में साधारण-से-साधारण विषयों तक की ज्ञान-प्राप्ति के लिए विदेशी भाषा के भार से दाब दिये जाते थे। अब भी उच्च शिक्षा के लिए बालक ही क्या बालिकाएँ तक उसी भार के नीचे दबती हैं। उनकी मौलिक बुद्धि व्यर्थ के भार के नीचे दबकर हतप्रभ हो जाती है और देश और जाति को उसके लाभ से सदा के लिए वंचित हो जाते हैं। बाल्यकाल से अंग्रेजों की छाया में पढ़ने के लिए विवश होने के कारण हमारे अधिकांश सुशिक्षित जन अपनी संस्कृति, अपनी भूतकालिक महत्ता, अपने पूर्वजों की कृतियों से दूर तो पड़ ही जाते हैं, वे अपने और अपनों के भी पराये हो जाते हैं। बाल्यकाल से अंग्रेजों की छाया में पढ़ने के लिए विवश होने के कारण हमारे अधिकांश सुशिक्षित जनों के चित्त पर अंग्रेजी में ही करते हैं और अपने निकटस्थ जनों से अपनी बात कहते या लिखते हैं तो अंग्रेजी ही में। हिंदी में लिखी हुई अनेक सुशिक्षित सज्जनों की भाषा-शैली से इस बात का पता चल सकता है। उनका शब्द-विन्यास, उनके वाक्यों की रचना और उनका व्याकरण, सभी अंग्रेजों के ढंग के प्रतिबिंब हैं। हमारे सुशिक्षितों ही में ऐसे लोग मिल सकते हैं, जो आपस में, यहाँ तक कि पिता-पुत्र और पति-पत्नी तक, अकारण, हिंदी में पत्र-व्यवहार करने की अपेक्षा अंग्रेजी में उसे करना अधिक अच्छा मानते हैं। यदि उनका ध्यान मातृभाषा की ओर आकर्षित करें, तो बहुधा यह उत्तर सुनने को मिले कि हिंदी में अभी शब्दों और मुहावरों का उतना सुंदर भंडार नहीं है। हिंदी की इसी दरिद्रता की दुहाई देकर, उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का समावेश भी अनिवार्य सिद्ध किया जा सकता है। नि:संदेह हिंदी में अभी उपयुक्त शब्दों और वाक्यों की कमी है। कविवर रामनरेश त्रिपाठी का कहना है कि हम हिंदी में केवल 300 शब्दों ही के घेरे में घूमते रहते हैं। किसी भी विदेशी भाषा के शब्दकोष में इतनी दरिद्रता नहीं है, किंतु इस दरिद्रता का दोष जितना हमारे सुशिक्षितों पर है, उतना दूसरों पर नहीं। वे अपनी आवश्यकता को विदेशी भाषा से पूरी कर लिया करते हैं। वे विदेशी भाषा बोलना सुगम समझते हैं। यदि हिंदी पर कृपा भी करते हैं, तो बहुधा देखने में यह आता है कि उनकी बातों में अंग्रेजी शब्दों की भरमार होती है, और कभी-कभी तो उनके वाक्यों की हिंदी का परिचय केवल उनकी हिंदी-क्रियाओं से ही लगता है। यदि हमारे सुशिक्षित इस प्रकार भाषा की अनावश्यक और अपावन वर्ण-संकरता न करें, अपने भावों को उसमें व्यक्त करना आवश्यक समझें, तो कुछ ही समय में, हमारी भाषा की उपरिकथित दरिद्रता दूर हो जाये और हिंदी भाषा-भाषियों की शिक्षा और ज्ञान का मापदंड भी ऊँचा हो जाये। स्वर्गीय जस्टिस तैलंग ने मराठी भाषा पर इसी प्रकार अंग्रेजी भाषा की चढ़ाई देखकर सुशिक्षित महाराष्ट्र सज्जनों की एक ऐसी परिषद् की स्थापना की थी, जिसके सदस्य नित्य कुछ समय तक अंग्रेजी शब्दों और वाक्यों का प्रयोग नहीं करते थे और उनका स्थान शुद्ध मराठी प्रयोगों को देते थे।
संक्षेप में, जो लोग हिंदी को मातृभाषा मानते हैं, उनके सामने स्पष्ट ढंग से यह बात सदा रहनी चाहिए कि हिंदी की जो इधर उन्नति हुई, वह उसकी आगामी बाढ़ के लिए कदापि ऐसी नहीं है कि हम समझ लें कि अब गाड़ी चलती जायेगी, वह रुकेगी नहीं, अब हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी की स्वाभाविक गति के लिए, अनेक बाधाओं के हटाने की आवश्यकता है, किंतु उन सबके दूर होने में तो अभी बहुत समय लगेगा। इस बीच में कम-से-कम हम अवहेलना की बाधा को उपस्थित न होने दें और अचेत न हो जायें। साहित्यिक ढंग से, मातृभाषा के प्रचार और पुष्टि के लिए जहाँ और जिस प्रकार जो-कुछ हो सके, उसका करना हम सबके लिए नितांत आवश्यक है।
राष्ट्रभाषा हिंदी
हिंदी भाषा-भाषियों के उद्योग से हिंदी को राष्ट्रभाषा का पद प्राप्त नहीं हुआ। जैसी परिस्थिति थी, उसको देखते हुए बाबू हरिश्चंद्रजी और उनके समकालीन हिंदी विद्वान तो कभी इस बात को व्यावहारिक बात भी नहीं मान सकते थे कि देश के अन्य भाषा-भाषी-लगभग सभी समुदाय-हिंदी को इतना गौरवांवित स्थान देने के लिए तैयार हो जायेंगे। किंतु सार्वदेशिक आवश्यकताएँ बढ़ती गयीं और देश-भर के लिए काम करने वालों के सामने प्रकट और अप्रकट दोनों ही प्रकार से यह प्रश्न उपस्थित होता गया कि वह किस प्रकार अपनी बात को देश के दूर से दूर कोने के झोंपड़े-झोंपड़े तक पहुँचावें। भगवान बुद्ध ने धर्म के प्रचार के लिए पाली को अपनाया था, देश के वर्तमान कार्यकर्ताओं ने युग-धर्म के प्रचार और ज्ञान के लिए अनेक गुणों के कारण हिंदी को अपनाना आवश्यक समझा। नानक और कबीर, सूर और तुलसी राष्ट्रभाषा के लिए पहले ही क्षेत्र तैयार कर गये थे। उनकी वाणी और पद्य देश के कोने-कोने में उन असंख्यों श्रद्धालु नर-नारियों के कंठों से आज कई शताब्दियों से प्रतिध्वनित हो रहे हैं, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है। हिंदी के फारसी-मिश्रित रूप उर्दू ने भी एक विशेष दिशा में एक बहुत बड़ा काम किया था। देश-भर में जहाँ भी मुसलमान बसते हैं, वहाँ की भाषा चाहे कोई भी क्यों न हो, वे उर्दू के रूप में हिंदी समझते हैं और हिंदी बोलते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में फारसी के स्थान पर आसीन होने पर उर्दू हिंदी के मार्ग में किसी अंश में कुछ बाधा डालने वाली अवश्य सिद्ध हुई, किंतु अब वह ऐसी कदापि नहीं है और उसका जन्म हिंदी के विरोध के लिए नहीं, हिंदी की वृद्धि के लिए हुआ। मेरी धारणा तो यह है कि उर्दू के रूप में मुसलमान भारतीयों ने हिंदी की और भारतवर्ष की अर्चना की। उर्दू वह वाणी पुष्प है जिसे मुसलमानों ने इस देश के हो जाने के पश्चात् भक्ति-भाव से माता की अरदास करते हुए उसके चरणों में चढ़ाया। आज नहीं, जब यह राष्ट्र पूर्णराष्ट्र हो जाने के योग्य होगा, जब संसार के अन्य बड़े राष्ट्रों के समकक्ष खड़े होने में यह समर्थ होगा, उस समय, राष्ट्रभाषा के निर्माण में उर्दू और उसके द्वारा देश की जो सेवा मुसलमान भारतीयों से बन पड़ी, उसका वर्णन इतिहास में स्वर्णांकित अक्षरों में होगा। स्वामी दयानंद, आर्यसमाज और गुरुकुलों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में बड़ा श्रम किया। राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों से राष्ट्रभाषा के आंदोलन को बहुत बल मिला। सुदूर प्रांतों तक में राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि की आवश्यकता अनुभव होने लगी। कृष्ण स्वामी अय्यर, जस्टिस शारदाचरण मित्र, महाराज सयाजीराव गायकवाड़, जस्टिस आशुतोष मुकर्जी आदि ने आज से बहुत पहले इस दिशा में बहुत उद्योग किया था। अन्य भाषा-भाषियों ने देशभक्तियों और राष्ट्र-निर्माण के विचार से हिंदी को अपनाना आरंभ किया। मराठी और गुजराती की साहित्य-परिषदों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। महात्मा गाँधी के इस प्रश्न को अपने हाथ में लेने के पश्चात् तो राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार विधिवत् अन्य प्रांतों में होने लगा, और दक्षिण में, जहाँ सबसे अधिक कठिनाई थी, बहुत संतोषजनक काम हुआ है। राष्ट्रीय महासभा कांग्रेस ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लिया है, और अब देश के विविध भागों से आये हुए उसके प्रतिनिधि उसका अधिकांश कार्य हिंदी में करते हैं। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का स्थान निर्विवादरूपेण सुरक्षित है। उर्दूवालों को पहले चाहे जो आपत्ति रही हो, किंतु अब वे भी इसे मानने लगे हैं कि उर्दू हिंदी ही का फारसी-मिश्रित रूप है, और डॉ. अंसारी और मोहम्मद जफरअली ऐसे मुसलमान नेता तक हिंदी को राष्ट्रभाषा के नाम से पुकारना आवश्यक और गौरव की बात समझते हैं। इस द्रुत गति से, बहुत ही थोड़े समय में हिंदी को इस स्थान को प्राप्त कर लेना देश में नये जीवन के उदय का विशेष चिन्ह है। राष्ट्रभाषा का काम अभी तक केवल भारत ही में हुआ है, वृहत्तर भारत अभी तक उससे कोरा है। लाखों भारतवासी विदेशों में पड़े हुए हैं, वे अपनी वेशभूषा और भाषा भूलते जाते हैं। अभी तक वे इस देश के हैं और देश के नाम पर विदेशों में टूटे-फूटे रूप में हिंदी को अपनाते हैं। किंतु धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति का अधिकार उन पर से कम होता जाता है और संभव है कि कुछ समय पश्चात् वे नाममात्र ही के लिए भारतीय रह जायें। उनको अपना बनाये रखने और हिंदी का संदेश संसार के अनेक स्थलों में पहुँचाने का यही सबसे सुगम उपाय है कि उन तक राष्ट्र-भाषा हिंदी का संदेश पहुँचाया जाये।
साहित्य की गति
हिंदी साहित्य की गति इस समय किस ओर है और वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए उसे किस प्रकार का होना चाहिए, यह प्रश्न अत्यंत महत्व का है। पुराने समय में गद्य साहित्य की सृष्टि की ओर लोगों का विशेष ध्यान ही न था। उस समय का जो गद्य साहित्य है, यद्यपि उसका अधिकांश प्रतिशत श्रृंगार और भक्ति रस ही का है, किंतु है वह बहुत ऊँचे ढंग का और संसार के अनेक देशों के समकालीन साहित्य से तुलना में बहुत अच्छा ठहर सकता है। इधर लगभग एक शताब्दी के भीतर हिंदी साहित्य के रूप और रंग में पहले से बहुत अंतर पड़ गया है। न गद्य का वह रूप है और न पद्य का नितांत वैसा ही। जिस समय ईस्ट इंडया कंपनी की संरक्षता में हिंदी गद्य की कुछ पुस्तकें लिखी गयीं, लगभग उस समय के कुछ उपरांत से ही हिंदी के सेवकों को हिंदी अक्षरों की रक्षा और हिंदी भाषा और साहित्य की स्वतंत्र सत्ता की स्थापना करने के काम ही में अपनी शक्ति लगानी पड़ी। इस अवसर पर हिंदी के आकाश में कितने ही देदीप्यमान नक्षत्र उदय हुए। यदि उस समय बाबू हरिश्चंद्र, राजा शिवप्रसाद, पं. बद्रीनारायण उपाध्याय, पं. प्रतापनारायण मिश्र, पं. अंबिका दत्त व्यास और अन्य अनेक महान् आत्माओं ने अपनी प्रतिभा और ओज के बल से हिंदी की जड़ न जमायी होती, तो इस समय हम सबको हिंदी के उद्धार के लिए कदाचित् उसी प्रकार प्रयत्नशील होना पड़ता, जिस प्रकार नवजीवन के उदय होने पर आयरलैंड को अपनी खोयी हुई भाषा और साहित्य को खोज निकालने के लिए होना पड़ा था। साहित्य-पथ के उन दृढ़निश्चयी अग्रगामियों के कुछ समय पश्चात् हिंदी भाषा और साहित्य की ओर, सामाजिक, धार्मिक और शिक्षा संबंधी आंदोलनों के कारण, देश के अंग्रेजी पठित समाज का ध्यान गया और हिंदी लिखने में उन्हें पहले जो संकोच हुआ करता था, वह मिट गया। यह समय हिंदी लिखने में उन्हें पहले जो संकोच हुआ करता था, वह मिट गया। यह समय हिंदी में विविध विषयों पर पुस्ताकें के निकलने का था। इस युग में अनुवादों की बाढ़ आयी और जो कुछ लिखा गया वह विशेषाध्ययन या विशेष ज्ञान द्वारा बहुत कम लिखा गया। एक साहित्य-सेवी मित्र का तो कथन यहाँ तक है कि इन नवागंतुक साहित्य-प्रेमियों ने कुछ समय तक अपनी लेखन-शैली से भाषा और व्याकरण की ऐसी हत्या की कि कुछ न पूछिये, और यदि आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी 'सरस्वती' में अपनी खरी आलोचना द्वारा इन सहित्यिकों को भाषा और व्याकरण के संबंध में ठीक रास्ते पर न लगाते, तो बहुत समय तक हिंदी के क्षेत्र में बड़ी अस्त-व्यस्तता रहती। अब इस समय हिंदी में पहले का-सा दारिद्रय नहीं है। अनेक विषयों पर पुस्तकें और निबंध लिखे जाने लगे हैं। पहले की अपेक्षा भाषा और व्याकरण का अधिक विचार किया जाता है और प्रौढ़ विचार और नवीन दृष्टि से विषयों का प्रतिपादन, संपादन और प्रकाशन होने लगा है। संसार-भर में इस समय विचारों की क्रांति-धारा बह रही है। प्रत्येक देश के नर-नारी जीवन के समस्त व्यवहारों पर एक नए ढंग से सोचने-समझने के लिए विवश हो रहे हैं। इस देश पर भी इन बातों का प्रभाव पड़ रहा है। यहाँ भी हृदयमंथन आरंभ हो गया है। हिंदी के लेखक अँधेरे में भले ही भटकते हों, किंतु कोई यह नहीं कह सकता कि युग-धर्म की जो पहलेलियाँ अपने विश्लेषण के लिए सामने उपस्थित हैं उनकी ओर हिंदी का साहित्य क्षेत्र उदासीन है। किंतु समय नया है, समस्याएँ नयी हैं, उनसे उलझने या उनके सुलझाने वाले नये हैं, हिंदी का गद्य-साहित्य स्वयं नया है, इसलिए नये साहित्य-सेवी अपने नये विषयों के प्रतिपादन में सिद्धहस्त नहीं हैं और अपने उद्योग से वे अभी तक न कोई विशेष स्थायी साहित्य ही रच सके और न कोई ऐसी लीक खींच सके कि उस पर चलकर औरों के लिए उद्देश्य-सिद्धि का मार्ग मिले। अस्थिरता का समय है या ये कहिये कि हम एक अस्थायी युग के बीच में से होकर गुजर रह हैं, और यद्यपि इस समय हमारे नये साधनों में कच्चापन हैं, किंतु आगे चलकर, कुछ ही समय पश्चात् हमारे साहित्य-क्षेत्र में सिद्धहस्त लेखक और विशेषज्ञ सामने आ जायेंगे और हमारे साहित्य-उद्यान के चारों ओर जो घास-फूस इकट्ठा हो जायेगा, उसे चतुर और सहृदय समालोचक, ऐसे समालोचक, जो केवल शब्दों और व्याकरण के नियमों ही को न पकड़ेंगे, किंतु जो तत्वदर्शी के समान लेखक और विषय की आत्मा में प्रवेश करके, उनके गुण, उनके अंतर्भावों का विश्लेषण भी करेंगे-अलग करके उद्यान को सदा दर्शनीय और विचारणीय बनाये रखेंगे।
हिंदी में नाटकों की कमी है। दृश्य-साहित्य से समाज के जीवन पर बहुत प्रभाव डाला जा सकता है। उसकी ओर वर्तमान लेखकों की उदासीनता का क्या कारण है? ऐतिहासिक वार्ताओं पर नाटक की रचना के लिए तत्कालीन समाज और ऐतिहासिक वातावरण के पूर्ण अध्ययन की बड़ी आवश्यकता है। वर्तमान सामाजिक जीवन पर नाटक की रचना के लिए यह अनिवार्य है कि उसके आधार के सामाजिक जीवन का अत्यंत निकट से पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त किया जाये। जिनमें इतनी अध्यवसायशीलता हो और साथ ही हो मनोविज्ञान का अनुभव, वे नाटक और साथ ही उपन्यास लिखने में सफल हो सकते हैं।
देशभक्ति के भाव को लेकर पद्य-रचनाएँ अब पहले की अपेक्षा अधिक होती हैं। पहले के संकीर्ण क्षेत्र से निकलकर हिंदी कविता ने अब अधिक दिशा व भाव और भावनाओं के प्रांगण में पग रखा है। विश्व-वेदना से हृदय के अंतर्भाव उथल-पुथल होने लगे हैं। नये हिंदी कवि ब्रजभाषा और खड़ी बोली के झगड़े से अलग होते जाते हैं। वे अपने भावों को टकसाली शब्दों ही में बंद नहीं रखना चाहते। शब्दों के वे आगे बढ़ते जा रहे हैं। भाव का भी स्पष्ट होना आवश्यक है या नहीं, इस समय इस पर विवाद छिड़ा है। कहीं-कहीं सब प्रकार के छंदों से भी स्वच्छंदता प्राप्त कर ली गयी है। भाषा के साथ उसकी कविता का प्रसार होना भी आवश्यक है। कविता भरे हुए हृदय की भावनाओं का साहित्यिक रूप है। उसमें और गद्य में कुछ अंतर तो अब तक चला ही आता था, और उसकी मनोहरता के लिए यह आवश्यक है कि वह बहुत स्वतंत्र होती हुई भी स्वर और मात्राओं के बंधनों में बँधी रहे।
सज्जनो! हिंदी साहित्य के एक विशेष अंक पर भी मुझे अपना कुछ मत प्रकट करना आवश्यक जँचता है। इस समय 'घासलेटी साहित्य' की चर्चा बहुत जोरों से उठ रही है। मुझे इस बात के बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि घासलेटी साहित्य किस प्रकार के साहित्य को कहते हैं? जो साहित्य यथार्थ में सार्वजनिक कुरूचि की वृद्धि करने वाला है, वह नि-संदेह त्याज्य और भर्त्सनीय है। किंतु उसका त्याज्य और भर्त्सनीय होना उसके अस्तित्व और वृद्धि का अंत नहीं कर सकता। मेरी धारणा तो यह है कि हमें उससे तनिक भी घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है। वह तो अनिवार्य बुराई है। वह किस देश की बुराई नहीं है? वह किस देश में और किस भाषा में नहीं है? जिस प्रकार शरीर में अनेक सुंदर अवयवों और शक्तियों के होते हुए उसमें मल-मूत्र ऐसे गंदे पदार्थ भी होते हैं, उसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में प्रत्येक देश में गंदा साहित्य भी होता है। इस प्रकार का साहित्य कहीं भी भद्र समाज में आदरणीय नहीं समझा जाता। आप भी उसको आदरणीय या ग्राह्म नहीं समझ सकते। बस, इस साहित्य के प्रति आपकी ऐसी ही भावना यथेष्ट है। इससे अधिक इसके पीछे हाथ धोकर पड़ने में, मेरी विनम्र सम्मति से, हानि होगी। मानव-स्वभाव बहुत दुर्बल हुआ करता है। बुराई की ओर यह बहुत झुकता है। आपका हाथ धोकर पीछे पड़ना इस प्रकार के साहित्य का विज्ञापन करना होगा। इस प्रकार उसे आप साधारण लोगों में और भी अधिक प्रचलित करेंगे। पैसे के लाभ के लिए इस प्रकार के कला और विज्ञान से शून्य साहित्य की रचना और प्रकाशन करने वालों को छोड़कर, एक विशेष श्रेणी के साहित्य-सेवी ऐसे भी हैं जो लोक-कल्याण या रचना-कला की दृष्टि से, जो बात जैसी है, उसका वैसा ही चित्र खींचना आवश्यक समझते हैं। इसे वे प्रकृतिवाद (Realism) के नाम से पुकारते हैं। अपनी शैली के कलापूर्ण होने के प्रमाण में, वे पाश्चात्य् देशों के बहुत-से धुरंधर साहित्यिकों के नाम पेश करते हैं। फ्रांसीसी कहानी-लेखक मोपासाँ का नाम इस संबंध में बहुत लिया जाता है। इस संबंध में, मेरा विनम्र निवेदन यह है कि प्रकृतिवाद के संबंध में कुछ भ्रमात्मक धारणाएँ प्रचलित हो गयी हैं। फ्रांस के प्रसिद्ध साहित्य-सेवी अनातोले फ्रांस भी प्रकतिवादी थे। उनका ही यह कथन था कि किसी घटना का तद्वत् चित्र खींचने के लिए या किसी मनोभाव के तद्वत प्रदर्शित करने के लिए नेत्र और हृदय खोलकर उस प्रकार की घटनाओं या भावों में या उनके अत्यंत निकट से होकर निकलने की आवश्यकता है, और कितने व्यक्ति है जो साहित्य-क्षेत्र में अपने प्रकृतिवाद का प्रदर्शन करने के पहले ऐसा कर चुके हो? बहुधा होता यह है कि लेखक के मस्तिष्क से जो कलुषित भाव ऊपर ही रखे होते हैं, प्रकृतिवाद की आड़ में वह उन्हीं का अपनी कृति में प्रदर्शन कर दिया करता है। नि:संदेह मोपासाँ अपने कार्य में बहुत चतुर है, वह अद्वितीय है। किंतु, उसको अनुकरणीय मान लेने के पहले, इस बात को भी हृदयसंगम कर लेने की आवश्यकता है कि कला के संबंध में उसका आदर्श बहुत ऊँचा नहीं था। वह कला में सत्यं शिवं सुंदरम् के दर्शन नहीं करता था। वह कहा करता था कि संसार में कोई वस्तु या भाव नया नहीं है, साहित्यिक कोई नयी बात नहीं कह सकते, वे केवल किसी वस्तु या अवस्था को नयी विचारदृष्टि से देख सकते हैं, और यही बड़ी भारी बातें हैं।
प्रचार और उन्नति के कुछ उपाय
हिंदी के प्रचार और उन्नति के लिए, पहले के सहज और स्वाभाविक ढंग की अपेक्षा अब अधिक क्रमबद्ध शैली को ग्रहण करने की आवश्यकता है। एक भाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी इस समय जिस स्थान पर पहुँच चुकी है, वहाँ से उसका सतत आगे बढ़ सकना उसी समय संभव है, जब उसके प्रचार और उन्नति के लिए नये और अधिक व्यापक साधनों से काम लिया जाए।
(अ) हिंदी के प्रचार का सबसे बड़ा साधन है हिंदी-प्रांतों में लोकशिक्षा को आवश्यक और अनिवार्य बना देना। कोई घर ऐसा न रहें, जिसके नर-नारी, बच्चे और बूढ़े तक तुलसीकृत रामायण और साधारण पुस्तकें और समाचार-पत्र न पढ़ सकें। यह काम उतना कठिन कदापि नहीं है, जितना कि समझा जाता है। यदि टर्की में कमालपाशा बूढ़ों और बच्चों तक को थोड़े से समय के भीतर साक्षर कर सकते हैं और सोवियत शासन दस वर्ष के भीतर रूस में अविद्या का दीवाला निकाल सकता है, तो इस देश में भी, सब प्रकार की शक्तियाँ जुटकर, बहुत थोड़े समय में, अविद्या के अंधकार का नाश कर प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने और लिखने के योग्य बना सकती हैं। देश के अंतरतर में रहने वाले लोग तक शिक्षा के महत्व को सहज में समझने लगे हैं और इस समय जो लोक-सेवक ग्राम-संगठन के आवश्यक कामों में अपना समय और शक्ति लगाये हुए हैं, उनका अनुभव है कि बहुत थोड़े से प्रयास से, देहात के लोगों में साक्षर होने की अभिलाषा उत्पन्न की जा सकती है। हम जितनी साक्षरता बढ़ावेंगे उतना ही भाषा और साहित्य का कल्याण होगा। जब करोड़ों निरक्षर साक्षर बन जायेंगे, तब उनकी बौद्धिक आवश्यकताओं की प्रेरणा से हिंदी भाषा और साहित्य के सौष्ठव में स्वत: बहुत वृद्धि हो जायेगी। किसी समय, शरीर और स्वास्थ्य की त्रुटियों के दूर करने के लिए, जर्मनी में यह आंदोलन उठाया गया था कि जर्मन लोग भोजन में शक्कर अवश्य खायें। आलू और केले के अपने व्यापार की वृद्धि को क्षति न पहुँचने देने या उसे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए इंग्लैंड में 'खूब आलू खाओ' 'खूब केले खाओ' का आंदोलन चल चुका है। निरक्षरता को दूर करने के लिए रूस में बड़े-बड़े चित्रों द्वारा झोंपड़े-झोंपड़े तक में यह विचार पहुँचाकर कि निरक्षर व्यक्ति आँख पर पट्टी बाँधे हुए उस व्यक्ति के समान है, जो चट्टान की कगार पर खड़ा हुआ पग बढ़ाते ही नीचे खड्ड में गिरने के लिए तैयार है, साक्षरता का आलोक देश के कोने-कोने में पहुँचाया गया। इस देश में हिंदी और देश के हित के लिए इसी प्रकार से सुसंयत और व्यापक आंदोलन उठाया जाना चाहिए। लोक-शिक्षा के काम में हिंदी के समाचारपत्रों से बहुत बड़ी सहायता मिल सकती है। यदि वे इस आंदोलन को आंदोलन के ढंग से उठा लें और अपने कलेवर में साधारण आदमियों के नित्य के जीवन और नित्य की आवश्यकताओं का अधिक सजीव चित्रण करें, तो वे नि:संदेह अधिक लोकप्रिय होंगे और अपना प्रचार बढ़ाते हुए देश के करोड़ों आदमियों की सुषुप्त बुद्धि के जागरण और हिंदी के कहीं अधिक प्रचार का श्रेय प्राप्त करेंगे।
(आ) जिन स्थानों में हिंदी को स्थान मिल चुका है, या जहाँ उसका स्थान मिलना और न मिलना दोनों एक समान है, वहाँ उसका प्रसार बढ़ाने और उचित स्थान की प्राप्ति के लिएपूरा यत्न करना आवश्यक है। सरकारी और अर्धसरकारी कार्यों एवं स्कूलों में अब भी हिंदी को उचित स्थान प्राप्त नहीं है। मातृभाषा को पाठ्यक्रम में स्थान प्राप्त नहीं है। मातृभाषा को पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिये, इस दृष्टि से, स्कूली पुस्तकों में बहुत-सी त्रुटियाँ हैं। इसी देश में यह बात देखी जा सकती है कि छोटे-छोटे बच्चों के मस्तिष्क पर अनावश्यक रूप से परायी भाषा का बोझ पड़ता है। यहीं यह देखा जा सकता है कि उच्च शिक्षा कहीं भी, यहाँ तक कि हिंदू विश्वविद्यालय तक में, मातृभाषा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती। यहीं यह संभव है कि लड़कियों तक को उच्च शिक्षा के लिए एक विदेशी भाषा अवश्य पढ़नी पड़े। और, इस पर भी, यह अनोखी बात यहीं देखी जा सकती है कि मातृभाषा में भी, गणित, रेखागणित, भूगोल आदि की जो पुस्तकें पढ़ायी जाती हैं, उनके अंक और उनके पारिभाषिक शब्द अंग्रेजी में होते हैं। अपने अस्वाभाविक वातावरण के कारण हम इस प्रकार की बहुत-सी अधोगति को दूर नहीं कर सकते, किंतु तो भी बहुत कुछ कर सकते हैं, और उसके करने से हमें कदापि नहीं चूकना चाहिए। रेल के बहुत-से कामों में हम हिंदी को अच्छा स्थान दिला सकते हैं, और कम-से-कम, यह तो करा ही सकते है कि स्टेशनों पर लगे हुए नामपटों और समय-सूचक-पत्रों में हिंदी की हत्या तो न होने पाये। पंजाब और सिंध में हमारी धार्मिक संस्थाएँ बहुत सहज में हिंदी के प्रयोग को स्वीकार कर सकती हैं। देश के अन्य प्रांतों में हिंदी का जो काम हो रहा है, वह तो बढ़ेगा ही, हमें परदेशों में अपने भाइयों के पास भी अधिक बल के साथ हिंदी का संदेश भेजना चाहिए। वहाँ अपने आदमियों में हिंदी ही का एकछत्र राज्य था, किंतु अब दशा बदलती जाती है और ऐसा भासित होता है कि मातृभाषा के विस्मरण के साथ-साथ ही वे देश और उसकी संस्कृति का भी विस्मरण कर बैठेंगे। अमेरिका, अफ्रीका, फीजी, गयाना, बर्मा आदि में अपने भाइयों तक हिंदी का संदेश पहुँचाना भारतवर्ष की संस्कृति की रक्षा करना है। युवकों को इस काम के लिए आगे बढ़ना चाहिए। वे किसी प्रकार भी घाटे में न रहेंगे। वे इस प्रकार हिंदी और देश की सेवा कर सकेंगे और संसार-भ्रमण करके अपने मानसिक क्षितिज को भी अधिक विस्तृत कर सकेंगे।
(इ) हिंदी में अच्छे और आवश्यक ग्रंथों को लिखाने और प्रकाशित कराने के लिए भी संगठित प्रयत्न होना चाहिए। हिंदी विद्वानों की सुसंगठित मंडली सदा भाषा और साहित्य के क्षेत्र की त्रुटियों पर विचार करे। यह संभव नहीं है कि कोई भी मंडली सब प्रकार की पुस्तकों को लिख या प्रकाशित कर सके, इसलिए, इस प्रकार की मंडली लेखकों और प्रकाशकों से संबंध स्थापित करे। जिन विषयों पर लिखे जाने की आवश्यकता हो, उन पर लिखने के लिए लेखकों को और प्रकाशित करने के लिए प्रकाशकों को उत्साहित करे। ऐसे लेखक भी इस समय हैं, जो किसी आवश्यक विषय पर ग्रंथ लिखे बैठे हैं, किंतु यद्यपि उनका ग्रंथ है तो अच्छा और खोजपूर्ण, किंतु वह चलेगा नहीं, इसलिए कोई प्रकाशक उसके प्रकाशन का साहस नहीं करता। इस प्रकार की मंडली किसी भी ऐसे ग्रंथ को प्रकाशकों की कमी के कारण व्यर्थ न पड़ा रहने दे। उसके उद्योग से या तो उस ग्रंथ का कोई प्रकाशक खड़ा हो जाये, या फिर सम्मेलन-ऐसी कोई संस्था अपनी ओर से उसका प्रकाशन करे।
सद्-साहित्य की वृद्धि के लिए, साहित्य मंडली प्रकाशित होने वाले ग्रंथों के विषय की आलोचना-प्रत्यालोचना भी करे। अनुवाद का काम बे-सिर-पैर का हो रहा है। अनावश्यक और व्यर्थ के अनुवाद अपने-आप समाप्त हो जायेंगे, किंतु यदि सुविज्ञजन समय-समय पर उन पर अपना मत प्रकट किया करें, तो बहुत-से श्रम और शक्ति की बचत हो जाये कि किसी समय बँगला से अनुवाद की झड़ी लगी थी, अब अंग्रेजी से हम बहुत कुछ लेते हैं। व्यर्थ की वस्तु कहीं से भी लेने की आवश्यकता नहीं, अच्छी को कहीं से छोड़ना भी नहीं चाहिए। विदेशी भाषाओं में केवल अंग्रेजी को अपना आधार मान बैठने के कारण हमने अपनी दृष्टि को बहुत संकुचित बना लिया है और हम संसार-भर की वस्तुओं को केवल अंग्रेजी चश्मे से देखने लगे हैं। अंग्रेजी में जो कुछ नही है, उसे हम नहीं जानने पाते। उसमें जो कुछ तोड़ा-मरोड़ा हुआ है, उसे हम उसी प्रकार के विकृत रूप में देखते हैं। अंग्रेजी और बँगला के शब्दों और वाक्यों के लेने तक, के विरुद्ध नहीं हूँ, किंतु अपनी भाषा के व्यक्तित्व की रक्षा का विचार रखते हुए मैं कुछ लेना चाहता हूँ, उसे खोकर नहीं। हमारे अनुवादकों को विदेशी भाषाओं में फ्रेंच और जर्मन भाषा के भंडार तक पहुँचने का यत्न करना चाहिय। घर में हमें संस्कृत, पाली और उर्दू की ओर भी दृष्टि डालनी चाहिए। संस्कृत और पाली के अनेक ग्रंथ और उनका पौराणिक बौद्ध और जैन साहित्य हिंदी के रूप में आकर हमारे बौद्धिक जीवन के लिए बहुत श्रेयस्कर हो सकता है। आयुर्वेद के समस्त ग्रंथों के हिंदी में होने और लोक-कल्याण के लिए उनकी शिक्षा बहुत व्यापक रूप से हिंदी में होने की आवश्यकता है। विज्ञान, पुरातत्व, इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र और विविध धर्मों के ऐतिहासिक उत्थान और पतन पर मौलिक और अनुवादित बहुत-सी पुस्तकें हिंदी में होनी चाहिए। अभी पिछले मास ही में, महिला विद्यापीठ के उपाधि-वितरण-उत्सव पर अध्यक्षा महोदया ने कहा था कि हिंदी में स्त्री-साहित्य की बहुत कमी है और उसकी वृद्धि के लिए यत्न होना चाहिए। स्त्रियों ने हिंदी की बहुत रक्षा की। उन दिनों में जब उत्तरी भारत में हिंदी का ज्ञाता होना लज्जाजनक तक समझा जाता था, लाला हरदयाल के कथनानुसार उन कठिन दिनों में भी हिंदी यदि बची रही तो केवल स्त्रियों के कारण और माताओं, बहनों और पत्नियों को पत्र लिखने के लिए पुरुषों को विवश होकर नागरी अक्षरों का परिचय प्राप्त करना पड़ता था। अब इस युग में तो उनके लिए जो साहित्य आवश्यक है, उसकी कमी न रहनी चाहिए। साइमन कमीशन के साथ देश-भर की शिक्षा की दशा की जाँच करने के लिए, हर्टान कमेटी बैठी थी। उसकी रिपोर्ट हाल ही में प्रकाशित हुई है। वह कमेटी कहती है कि देशी भाषाओं में बाल-साहित्य की बहुत कमी है, और यह भी एक कारण है जिससे लोक-शिक्षा को प्रोत्साहन नहीं मिलता। हिंदी के साहित्य-सेवियों का इधर भी ध्यान जाना चाहिए। इधर हिंदी में स्त्री-साहित्य और बाल-साहित्य के रूप में कुछ पुस्तकें निकली भी हैं, किंतु अभी बहुत सुरुचि और सुचयन के साथ निकलने की आवश्यकता है। उर्दू की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। उससे अब हिंदी को बहुत लाभ पहुँचा सकता है। उसके नजीर, हाली, दाग, गालिब, आजाद और अकबर सहज में हमारे हो सकते हैं और उनकी कृतियों से हम लाभ उठा और गर्व कर सकते हैं। हिंदी और उर्दू के शब्द और वाक्य-रचना में कोई अंतर नहीं है। हाली और रतननाथ सरशार ऐसे उर्दू साहित्य-सेवियों के ग्रंथों के मुहावरे बहुत लाभ के साथ हिंदी में ग्रहण किये जा सकते हैं। हिंदी भारतीय राष्ट्र की समस्त निधि की रक्षिका होनी चाहिए। इसलिए प्राचीन विशाल भारत पर भी उसमें साहित्य होना चाहिए। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर की 'बृहत्तर भारत' संस्था के कारण हमें प्राचीन विशाल भारत के दर्शन होते जा रहे हैं। वह अत्यंत दिव्य है। वह अत्यंत गौरवान्वित करने वाला है। श्रीमान कपूरथला-नरेश हाल ही में स्याम देश के अंगकोर नामक स्थान के खंडहरों में प्राचीन विशाल भारत के गौरव-स्वरूप कुछ सुंदर मंदिरों और उनमें खिंचे हुए शताब्दियों पुराने रामायण और महाभारत संबंधी चित्रों और मूर्तियों को लगभग 2-3 मील के घेरे में अब तक बने हुए देखकर आश्चर्य से चकित हो गये थे। उनके ये शब्द हैं, प्राचीन रोम और ग्रीस के सबसे अधिक सुंदर वैभवशाली स्मारकों से भी बढ़कर यह सुंदर और शोभाशाली हैं, और संसार-भर में इनसे बढ़कर अद्भुत कोई वस्तु मैंने आज तक नहीं देखी। कपूरथला-नरेश संसार-भर में कई बार भ्रमण कर चुके हैं। उनकी यह राय है। जावा, सुमात्रा, बाली, स्याम, तिब्बत, नेपाल, अफगानिस्तान आदि में पता नहीं हमारी संस्कृति का कितना वैभव छिपा पड़ा है। जो कुछ पता लगता जाए, उसका हिंदी द्वारा परिचय हमारी भाषा को जितना ऊँचा करेगा, कम-से-कम उतना ही ऊँचा वह हमारे मन को भी करेगा।
नागरी लिपि पर जो आक्रमण हो रहे हैं, उनसे भी इसकी रक्षा के लिए यत्न होना चाहिए। पहले तो हिंदी का राष्ट्रभाषा माना जाना ही कठिन था, किंतु अब जब यह कठिनाई नहीं रही, तब रोमन अक्षरों की श्रेष्ठता और सुविधा प्रकट करके देश के काम में उनके व्यवहृत किए जाने की बात उठायी जा रही है। यह चर्चा पहले तो विदेशी लोगों द्वारा चली, किंतु अब तो अपने आदमी भी टर्की के कमालपाशा के अनुकरण के बहुत अभिलाषी हैं। अभी हाल ही में पंजाब के कमिश्नर मि. लतीफी ने रोमन लिपि में भारतवर्ष की राष्ट्रलिपि के बना दिए जाने के लिए समाचारपत्रों में लेख लिखे, और कुछ समय पहले, सर्वदल सम्मेलन की लखनऊ की एक बैठक में, जबकि देश की लिपि पर विचार हुआ तब, देश में कुछ मुख्य कार्यकर्ता बड़े आग्रह के साथ इस बात के लिए तैयार थे कि रोमन लिपि राष्ट्रलिपि मान ली जाये। नागरी लिपि सर्वथा दोषशून्य नहीं है, और हिंदी के टाइप में तो सुविधा और शुद्धता की दृष्टि से बहुत-से सुधार वांछनीय हैं, किंतु केवल इन त्रुटियों के कारण देश और राष्ट्र पर गौरव करने वाले किसी व्यक्ति को मन में रोमन लिपि का सबसे बड़ा आकर्षण यह कहा जाता है कि उसके द्वारा हम इस संसार के और भी निकट हो जायेंगे और उसकी बहुत-सी समान सुविधाओं से लाभ उठाने वाले बन जायेंगे। किंतु स्वतंत्र अस्तित्व को मिटा देने वाले इस मोह के कारण हम अपनी इस आशा और विश्वास को क्यों छोड़ दें कि तीस करोड़ आदमियों की लिपि से संसार एक दिन परिचय प्राप्त करने और उसे विशेष स्थान देने के लिए लालायित होगा।
और भी बहुत-सी दिशाओं में हमें अपनी शक्ति लगानी पड़ेगी। हमारी संस्थाओं में और उनके कार्य के ढंग में जो त्रुटियाँ हों, उनको भी दूर करना आवश्यक है। इस महायज्ञ में सबकी और सब प्रकार की शक्तियों का संयोजित होना आवश्यक है। कुछ कर सकने योग्य कोई भी भारतीय ऐसा न बचे, जो अपनी शक्ति-भर भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा की भीतरी और बाहरी वृद्धि के काम में हाथ बँटाने के लिए आगे न बढ़े। मनुष्य के भाग्य का नक्षत्र उसे अपने जीवन के लक्ष्य की ओर प्रेरित किया करता है। मनुष्य के समूह जातियों और राष्ट्रों का रूप धारण करके दैवी बल की प्रेरणा से अपने हिस्से के विश्व-वृत्त की पूर्ति करते हैं।
भाषा और उसके साहित्य के जन्म और विकास की रेखाएँ भी किसी भी विशेष ध्येय से शून्य नहीं हुआ करतीं। हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का भविष्यत् भी बहुत बड़ा है। उसके गर्भ में निहित भवितव्यताएँ इस देश और उसकी भाषा द्वारा संसार-भर के रंगमंच पर एक विशेष अभिनय कराने वाली हैं। मुझे तो ऐसा भासित होता है कि संसार की कोई भी भाषा मनुष्य जाति को उतना ऊँचा उठाने, मनुष्य को यर्थाथ बनाने और संसार को सुसभ्य और सद्भावनाओं से युक्त बनाने में उतनी सफल नहीं हुई जितनी कि आगे चलकर हिंदी भाषा होने वाली है।
हिंदी को अपने पूर्व संचित पुण्य का बल है। संसार के बहुत बड़े विशाल खंड में सर्वथा अंधकार था, लोग अज्ञान और अधर्म में डूबे हुए थे, विश्वबंधुत्व और लोक-कल्याण का भाव भी उनके मन में उदय नहीं हुआ था, उस समय जिस प्रकार, इस देश से सुदूर देश-देशांतरों में फैलकर बौद्ध भिक्षुओं ने बड़े-बड़े देशों से लेकर अनेकानेक उपत्यकाओं, पठारों और तत्कालीन पहुँच से बाहर गिरि-गुहाओं और समुद्र-तटों तक जिस प्रकार धर्म और अहिंसा का संदेश पहुँचाया था, उसी प्रकार अदूर भविष्यत् में उन पुनीत संदेशवाहकों की संतति संस्कृत और पालि की अग्रजा हिंदी द्वारा भारतवर्ष और उसकी संस्कृति के गौरव का संदेश एशिया महाखंड के प्रत्ये मंत्रास्थल में, एशियाई महासंघ के प्रत्येक रंगमंच पर, सुनावेगी। मुझे तो वह दिन दूर नहीं दिखायी देता, जब हिंदी-साहित्य अपने सौष्ठव के कारण जगत्-साहित्य में अपना विशेष स्थान प्राप्त करेगा और 'हिंदी' भारतवर्ष ऐसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा की हैसियत से न केवल एशिया महाद्वीप के राष्ट्रों की पंचायत में, किंतु संसार-भर के देशों की पंचायत में एक साधारण भाषा के समान केवल बोली भर जाएगी, किंतु अपने बल से, संसार की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर भरपूर प्रभाव डालेगी और उसके कारण अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रश्न बिगड़ा और बना करेंगे। संसार की अनेक भाषाओं के इतिहास, धमिनयों में बहने वाले ठंडे रक्त को उष्ण कर देने वाली उन मार्मिक घटनाओं से भरे पड़े हैं, जो उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए घटित हुई। फ्रांस की किरचों की नोंक छाती पर गड़ी हुई होने पर भी रूर प्रांत के जर्मनों ने अपनी मातृभाषा के न छोड़ने की दृढ़ प्रतिज्ञा की और उसका अक्षर-अक्षर पालन किया। कनाडा के फ्रांसीसियों का अपनी मातृभाषा के लिए प्रयत्न करना किसी समय अपराध था, किंतु घमंडी मनुष्यों के बनाये हुए इस कानून का मातृभाषा के भक्तों ने सदा उल्लंघन किया। इटली, आस्ट्रिया के छीने हुए भू-प्रदेशों के लोगों के गले के नीचे जबर्दस्ती अपनी भाषा उतारना चाहती थी, किंतु वह अपनी समस्त शक्ति से भी मातृभाषा के प्रेमियों को न दबा सकी। आस्ट्रिया ने हंगरी को पददलित करके उसकी भाषा का भी नाश करना चाहा, किंतु आस्ट्रिया-निर्मित राज-सााभा में बैठकर हंगरी वालों ने अपनी भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषा में बोलने से इंकार कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका के जनरल बोथा ने केवल इस बात के सिद्ध करने के लिए कि न उनका देश विजित हुआ और न उनकी आत्मा ही, बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते हुए भी, बादशाह जार्ज से साक्षात् होने पर अपनी मातृभाषा डच में बोलना ही आवश्यक समझा और एक-दो भाषिया उनके तथा बादशाह के बीच में काम करता था।
यद्यपि हिंदी के अस्तित्व पर अब इस प्रकार के खुले प्रहार नहीं होते, किंतु उन ढके-मुँदे प्रहारों की कमी भी नहीं है, जो उस पर और इस प्रकार देश की सु-संस्कृति पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं। साहस के साथ और उस अगाध विश्वास के साथ, जो हमें हिंदी भाषा और उसके साहित्य के परमोज्ज्वल भविष्यत् पर है, हमें इस प्रकार के प्रहारों का सामना करना चाहिए और जितने बल और क्रियाशीलता के साथ हम ऐसा करेंगे, जितनी द्रुत-गति के साथ हम अपनी भाषा की त्रुटियों को पूरा करेंगे और उसे 32 करोड़ व्यक्तियों की राष्ट्रभाषा के समान बलशाली और गौरवयुक्त बनावेंगे, उतना ही शीघ्र हमारे साहित्य-सूर्य की रश्मियाँ दूर-दूर तक समस्त देशों में पकड़कर भारतीय संस्कृति, ज्ञान और कला का संदेश पहुँचावेंगी, उतने ही शीघ्र हमारी भाषा में दिए गए भाषण संसार की विविध रंगस्थलियों में गुंजरित होने लगेंगे और उनसे मनुष्य-जाति मात्र की गति-मति पर प्रभाव पड़़ता हुआ दिखायी देगा, और उतने ही शीघ्र एक दिन और उदय होगा और वह होगा तब, जब इस देश के प्रतिनिधि उसी प्रकार, जिस प्रकार आयरलैंड के प्रतिनिधियों ने इंग्लैंड से अंतिम संधि करते और स्वाधीनता प्राप्त करते समय अपनी विस्मृत भाषा गैलिक में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, भारतीय स्वाधीनता के किसी स्वाधीनता पत्र पर हिंदी भाषा में और नागरी अक्षरों में अपने हस्ताक्षर करते हुए दिखायी देंगे।
o (गोरखपुर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में 2 मार्च 1930 को विद्यार्थी जी द्वारा दिये गये अध्यक्षीय अभिभाषण की अविकल प्रस्तुति)