भाषा का सवाल: फ़िल्मी सदी का पैग़ाम / रविकान्त
हालाँकि फ़िल्म हिन्दी में बन रही है, लेकिन (ओंकारा के) सेट पर कम-से-कम पाँच भाषाएँ इस्तेमाल हो रही हैं। निर्देशन के लिए अंग्रेज़ी, और हिन्दी चल रही है। संवाद सारे हिन्दी की एक बोली में हैं। पैसे लगानेवाले गुजराती में बातें करते हैं, सेट के कर्मचारी मराठी बोलते हैं, जबकि तमाम चुटकुले पंजाबी के हैं। --- स्टीफ़ेन ऑल्टर, फ़ैन्टेसीज़ ऑफ़ अ बॉलीवुड लव थीफ़
पिछले सौ साल के तथाकथित 'हिंदी सिनेमा' में इस्तेमाल होनेवाली भाषा पर सोचते हुए फ़ौरन तो यह कहना पड़ता है कि बदलाव इसकी एक सनातन-सी प्रवृत्ति है, इसलिए कोई एक भाषायी विशेषण इसके तमाम चरणों पर चस्पाँ नहीं होता है। आजकल 'बॉलीवुड' का इस्तेमाल आम हो चला है, गोकि इसके सर्वकालिक प्रयोग के औचित्य पर मुख़ालिफ़त की आवाज़ें विद्वानों के आलेखों और फ़िल्मकारों की उक्तियों में अक्सरहाँ पढ़ी-सुनी जा सकती हैं। ग़ौर से देखा जाए तो बंबई फ़िल्म उद्योग के लिए 'बॉलीवुड' शब्द की लोकप्रियता और सिने-शब्दावली में 'हिंगलिश' की प्रचुरता एक ही दौर के उत्पाद हैं, और यह महज़ संयोग नहीं है। हालाँकि सिने-इतिहास में हमें शुरुआती दौर से ही अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़, मिसाल के तौर पर तीस और चालीस के दशक तक बड़ी मात्रा में प्रयुक्त दुभाषी फ़िल्मी नामों में, मिलते रहे हैं। लेकिन होता ये है कि एक दौर की लोकप्रिय या विजयी शब्दावली पूरे इतिहास पर लागू कर दी जाती है, जिससे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया, और उसके भाषायी अवशेष, इतिहास के कूड़ेदान में चले जाते हैं। मसलन अब एक स्थानवाची शब्द लें: एक शहर का बंबई से मुंबई बनना एक हालिया और औपचारिक/सरकारी सच है, एक हद तक सामाजिक भी, वैसे ही जैसे कि हम जिसे 'बंबई फ़िल्म उद्योग' कहते आए हैं, वह भी एक ऐतिहासिक तथ्य रहा है, लेकिन हमें इस बात की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि आज़ादी से पहले, बंबई के सर्वप्रमुख केन्द्र के तौर पर स्थापित होने से पहले, पुणे, कलकत्ता, लाहौर, मद्रास और कुछ हद तक दिल्ली भी सिने-उत्पादन के केन्द्र रह चुके थे।
यही बात 'हिन्दी' विशेषण पर लागू होती है, और भले ही हम सिने-भाषा के लिए 'ऑल काइन्ड्स ऑफ़ हिन्दी' कहकर अपनी ओर से दरियादिली का परिचय दे रहे होते हैं, पर दरअसल हम हिन्दी की आड़ में कई दशकों में फैले उर्दू के ऐतिहासिक वर्चस्व को या तो नज़रअंदाज़ कर रहे होते हैं, या फिर अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा की नुमाइश कर रहे होते हैं। ऐतिहासिक तौर पर फ़िल्म उद्योग के लिए 'हिंदी' विशेषण पर सर्वसम्मति न होने की वजह से भी 'बंबई फ़िल्म उद्योग' चल पड़ा, और अब 'बॉलीवुड' चल निकला है, और अगर तमाम तरह के सबूत और गवाहों के बयानात के बावजूद फ़िल्म एनसाइक्लोपीडिया में अगर सिर्फ़ पाँच फ़िल्में 'उर्दू' की औपचारिक कोटि में आ पायीं , यदि मुग़ल-ए-आज़म के निर्माता-निर्देशक ने सेंसर बोर्ड से हिन्दी नाम का सर्टिफ़िकेट हासिल करना उचित समझा, तो यह आज़ादी/बँटवारे के बाद के माहौल के एक त्रासद सामाजिक तथ्य के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें भाषा-विशेष को उसका अपना नाम देना न तो मुमकिन समझा गया, न मुफ़ीद। समझौते की एक कोशिश 'हिंदुस्तानी' नामक व्यक्तिवाची संज्ञा/विशेषण में देखने को मिलती है, जिसे न सिर्फ़ महात्मा गांधी और एक हद तक कॉन्ग्रेस का वरदहस्त मिला हुआ था, बल्कि जिस पर अंग्रेज़ बहादुर की सरकारी मुहर भी लगी हुई थी, और जो वाक़ई हिन्दी-उर्दू के दरमियान फैले विस्तृत 'नोमैन्स लैण्ड' की ज़बान थी। लेकिन हिन्दी-उर्दू के बीच छिड़ी हुई जंग में उसका हश्र तो वही होना था जो 'टोबा टेक सिंह' – व्यक्ति और जगह - का हुआ।
भाषायी इतिहास में यह जंग का रूपक भी कमाल का है: जिस तरह युद्ध में एक विजयी फ़ौज दुश्मन के एक भूभाग पर क़ब्ज़ा जमाकर अगले का रुख़ करती है, उसी तरह अगर हम हिन्दुस्तान में हिन्दी-उर्दू के बीच सिनेमा की पैदाइश से पहले से चल रही जंग की रणनीति को देखने की कोशिश करेंगे तो दिलचस्प परिणाम मिलेंगे। हिन्दी की फ़ौज ने पहले कचहरियों और दीगर सरकारी महकमों पर अपना क़ब्ज़ा जमाया, आहिस्ता-आहिस्ता छपाई यानि अदबी इदारों पर अपना प्रभुत्व क़ायम किया, फिर उसने अपना रुख़ पारसी नाटक, सिनेमा और रेडियो की ओर किया। तक़सीम-ए-हिंद इस जंग का एक ज़रूरी पड़ाव था, पाकिस्तान की सृष्टि एक पुष्टि थी कि जंग जायज़ थी। जायज़ और असमाप्त, सांस्कृतिक तौर पर जिसे जारी रहना था: तभी तो आज़ादी के बाद इन संथाओं की निर्मम साफ़-सफ़ाई की गई, ताकि पतनशील उर्दू-हिंदुस्तानी संस्कारों की कोई दुर्गंध तक शेष न बचे। सांस्कृतिक निर्मलता और राष्ट्रवादी बाड़ाबंदी की मुहिम में पाकिस्तानी सरकार का उत्साह भी भारत से बहुत ज़्यादा अलग नहीं था।
दिलचस्प यह है कि हम छोटे-मोटे डेटाबेस से छिटका-छाँव सबूत का इस्तेमाल कर, जहँ-तहँ खद्योत प्रकाश करते हुए चाहे जो साबित कर डालें, और सिनेमा के लंबे इतिहास को अगर समग्रता में न सही, उसके वृहत्तर कलेवर में देखें, तो मानना पड़ेगा कि लोकप्रिय कलाओं में उस मिली-जुली, बिचौलिया, ज़ुबान का क़ायम रहना इस बात की भी ताईद करता है कि नाम बदल देने से ज़बान की रियाज़तें अचानक नहीं बदल जातीं, बल्कि धीरे-धीरे बदलती हैं और इन पर शुद्धतावादी हुक्मरानी अक्सर चलती नहीं है। यही वजह है कि पाकिस्तान में आज भी आपको शास्त्रीय संगीत के हिंदू धार्मिक बोल सुनने को मिल जाएँगे , वहाँ की ग़ज़लों और क़व्वालियों के करोड़ों मुरीद यहाँ मिल जाएँगे, और कहने की ज़रूरत नहीं बच जाती कि इन सबको जगह देने वाले 'हिन्दी' सिनेमा को यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ सब जगह सराहा जाता रहा है। दिवंगत पंडित नरेन्द्र शर्मा ने यहाँ पुनर्प्रकाशित अपने लेख में एक मार्के की बात कही थी कि सिनेमा लोक-संस्कृति का धरोहर-व्यवसाय है। चिर-नवीनता उसकी फ़ितरत है, और नवइयत की सतत तलाश उसे नानाविध सामाजिक-सांस्कृतिक-भाषायी स्रोतों से सामग्री उठाने पर मजबूर करती है। यहाँ यह सवाल फिर सिर उठाता है कि सिनेमा ने हिन्दी पर उर्दू को तरजीह क्यों दी? वजह बहुत साफ़ है: छपाई तकनीक के आगमन के बाद हिन्दी आहिस्ता-आहिस्ता खड़ी बोली की चाल पर चलते-चलते कुछ ज़्यादा ही खरी व औपचारिक हो गई थी, उसने लोकभाषा और लोकसंस्कृति में रचे-बसे जनमनरंजन के पारंपरिक मंचों से हर-संभव दूरी बनाने की कोशिश की, क्योंकि वह अभिनव साहित्य सृजन और पत्रकारिता करके राष्ट्र को आज़ादी दिलाना चाहती थी। उसकी सोद्देश्यता और सार्थकता नैतिकता के ऊँचे टीले पर आसीन तो हुई, पर एक निरक्षर देश में तमामतर बोलियों की जनसांख्यिकीय सत्ता उसके आसन को लगातार डाँवाडोल भी किए रही। इस असुरक्षाबोध के चलते जब उसने अपनी बोलियों से मुँह चुरा लिया, तो फिर उर्दू को विदेशी कहकर ख़ारिज करना कौन-सा बड़ा काम था।
लेकिन जहाँ एक ओर छपाई के औपचारिक, भाषायी कार्यकर्ताओं की निगहबानी में पनपे उच्च-भ्रू, बाज़ार पर क़ब्ज़ा जमाना जितना आसान साबित हुआ, वहीं लोकसंस्कृति की अपेक्षाकृत खुली, मौखिक और फिसलन-भरी ज़मीन पर ग्रामीण ख़ित्तों में बोलियों का अस्तित्व बदस्तूर क़ायम रहा, और उर्दू की मौजूदगी नागर क्षेत्रो में। यह मोटा-मोटी विभाजन करते हुए हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उर्दू की जड़ें बोलियों में भी गहरे धँसी हुई थीं - उन बोलियों में भी जिनकी शास्त्रीय या सुगम संगीत के हलक़ों में गहरी पैठ नहीं मानी जाती थी। अंतर समझने के लिए हम ब्रजभाषा और मेरी मातृभाषा मगही या भोजपुरी की तुलना कर सकते हैं। फ़्रंचेस्का ओरसीनी ने हमें बताया है कि जनमनरंजन साहित्यिक विधाओं के छप-उत्पादों में दोनों ज़बानों में विशेष फ़र्क़ नहीं दिखाई देता, उनमें आमद-रफ़्त जारी है। हम यह भी जानते हैं कि राधेश्याम कथावाचक, बलभद्र नारायण दीक्षित पढ़ीस से लेकर मनोहर श्याम जोशी तक के लेखकों ने संस्कारत: गुरु-गंभीर हिंदीवालों से क्रमश: पारसी नाटक, रेडियो और फ़िल्मों को संजीदगी से लेने, उसे आदर देने की वकालत करने, और उसके लिए लिखने की अपील करने की ज़रूरत महसूस की। वैसे ही जैसे पिछली सदी के आख़िरी दशक में अपने इंतिक़ाल से ठीक पहले राही मासूम रज़ा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जाकर वहाँ सिनेमा पढ़ाने की गुहार लगा रहे थे। तीस और चालीस के दशक में रविशंकर शुक्ल जैसे नेताओं ने हाय-तौबा भी मचाया कि कैसा अँधेर छाया हुआ है कि हिंदू शास्त्रों पर बनी फ़िल्मों में उर्दू का धड़ल्ले से इस्तेमाल करके हमारी भाषा-संस्कृति को बर्बाद किया जा रहा है, हमें जागना होगा, रेडियो को 'बुख़ारी बिरादरान' की ज़्यादतियों से आज़ाद करना होगा, भाषा की 'शुद्धि' के लिए संगठित होना होगा। ख़ुद बुख़ारी साहब बताते हैं कि किस तरह तीस के दशक में न्यू थिएटर्स के मालिकान ने पूरन भगत बनाते हुए मुख्य किरदार में एक मुसलमान को लेने पर आपत्ति दर्ज की थी, लेकिन जब निर्देशक देवकी बोस अड़ गए तो बतौर समझौता उस मुसलमान अभिनेता को 'कुमार' नाम देकर रुपहले पर्दे पर उतारा गया। और कुमार इतना लोकप्रिय हुआ कि सारे अभिनेता - क्या हिंदू क्या मुसलमान – बुख़ारी साहब के अल्फ़ाज़ में नत्थू कुमार या खैरू कुमार बन गए। इसे वे ग़ुलाम भारत में मुसलमानों की संस्कृति, उनकी अस्मिता को हाशिए पर डाले जाने की मिसाल मानते हैं। पूरन भगत (1933) से लेकर दिल से (1998) तक सिनेमा ने अच्छी-ख़ासी दूरी तय कर ली है - दिलचस्प ये है कि अली हूसैन मीर व रज़ा मीर अपना एक लेख ही दिल से के मशहूर गाने से शुरू करते हैं: 'है यार वो एक ख़ुशबू की तरह, है जिसकी ज़ुबाँ उर्दू की तरह' और कहते हैं कि हिन्दी सिनेमा और उर्दू के बीच एक क़ुदरती और दोस्ताना रिश्ता रहा है।
इस इतिहास में क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि मूक सिनेमा वैसा भी मूक नहीं था। एक तो उसमें इंटरटाइटल होते थे, जो किसी न किसी भाषा/लिपि में होते थे, दूसरे, हर शो में संगीत-मंडली होती थी, जो सिनेमा के दौरान गीत-संगीत बजा-बजा कर साउन्डट्रैक भरती थी, तीसरे अगर हबीब तनवीर की सद्य:प्रकाशित गवाही लें तो रायपुर-जैसे छाटे शहरों में चुन्नीलाल जैसे पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर टाइप के सिनेमा हॉल मालिक-टिकट काटने-फाड़ने और दर्शकों को अपने हॉल में बिठाने वाले कमेंटेटर भी होते थे, जो पर्दे पर चल रहे सिनेमा का आँखों देखा हाल सुनाते थे, उनमें अपेक्षा और उत्तेजना का संचार करते थे, बाक़ायदा माँ-बहन की गालियों के साथ! तो सिनेमा का एक भाषायी वजूद तो ख़ामोश ज़माने में भी था ही, जिस दौर में मध्यवर्गीय 'भले' घर की लड़कियाँ फ़िल्में नहीं देखती थीं, न उनमें काम करती थीं। या तो वे उन ख़ानदानों से आती थीं, जो पढ़े-लिखे, अमीर, इसलिए इन लोकापवादों से बेपरवाह हों, या जिनमें गीत-संगीत-नृत्य की रिवायत रही हो: 'बाई' 'जान' व 'देवी' अक्सर उनके नामों के आगे लग जाता था , वैसे ही जैसे कि रूबी मेयर्स को सुलोचना नाम दिया गया था। भाषा के हवाले से दिलचस्प है कि जब तीस के दशक की शुरुआत में फ़िल्में बोलने लगीं तो कई यहूदी, ईसाई घराने की, या अंग्रेज़ी तालीम पाकर बड़ी हुई सिने-तारिकाएँ जो उर्दू-हिन्दुस्तानी-हिन्दी नहीं बोल पाती थीं, उनके लिए फ़िल्मों में बने रहना दुष्कर हो गया। लिहाज़ा कइयों ने कड़ी मेहनत करके ज़बान सीखी। वैसे ही जैसे लता मंगेशकर ने बाक़ायदा उस्ताद रखकर उर्दू सीखी थी, क्योंकि नौशाद साहब ने ग़ज़ल सुनने का इसरार करके दरअसल उनका तलफ़्फ़ुज़ जाँचना चाहा था, और दिलीप कुमार उर्फ़ युसुफ़ ख़ान ने पहली ही मुलाक़ात में यह जानने पर कि वह फ़िल्मों में काम करना चाहती हैं, पूछा था कि उर्दू जानती हो। वग़ैरह-वग़ैरह। ये सब मैं प्रकारांतर से और अन्यत्र लिख चुका हूँ, मुझसे बड़े विद्वानों ने काफ़ी-कुछ और मुझसे बेहतर कहा है।
लिहाज़ा इस आलेख में मैं कुछ अलग क़िस्म की सामग्री, कुछ ऐसी फ़िल्मों की चर्चा करना चाहता हूँ, जिनमें भाषा की समस्या को फ़िल्मकार ने अलग से रेखांकित करने की चेष्टा की है। परंपरागत तौर पर चूँकि हमारे यहाँ भाषा की सामग्री बहुधा साहित्यिक है, इसलिए साहित्य का ज़िक्र भी बना रहेगा। आइए नेहरूवादी युग में बनी, ओम प्रकाश निर्देशित हास्य फ़िल्मचाचा ज़िंदाबाद (1959) की कास्टिंग से बात शुरू करते हैं। ख़ुद ओम प्रकाश, मि. वर्मा, पेशे से ठेकेदार, खलनायक हैं, बात-बात में, यानि बतौर तकियाकलाम 'आई बेग योर पार्डन' फ़रमाते हैं। तो जैसा कि उस ज़माने में दस्तूर था, कई फ़िल्में या तो भारत के आदमक़द नक़्शे से शुरू होती थीं, या कहीं न कहीं इसमें नक़्शा आता था। निर्माण, प्रगति, पंचशील, योजनाबद्ध विकास और एकता देश के प्रमुख सरोकार थे। मुख़्तलिफ़ क्षेत्रों से भाषाई आधार पर नये राज्यों की माँगें उठ रही थीं, राज्यों का पुनर्गठन हो रहा था। तो कास्टिंग के पसेमंज़र में पर्दे पर इन राज्यों के टुकड़े तैरते हुए आते हैं, और अपनी जगह पर बैठ जाते हैं। नक़्शा जब पूरा हो जाता है तो हमें अविभाजित भारत दीखता है, लेकिन दो सीमाएँ साफ़ हैं: राज्यों को एक-दूसरे से अलग करती पतली सरहदें जो जल्द ही एक-दूसरे में घुलमिल जाती हैं, लेकिन दूसरी मोटी सीमा-रेखाएँ जो भारत को पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान से अलग करती हैं वह ख़ास तौर पर नुमायाँ हो जाती हैं। कास्टिंग चल ही रही है, निर्देशक का नाम भी उसी तरह उड़कर आता है, और तीन हिस्सों में बँट जाता है: 'ओम' हिन्दुस्तान में रह जाता है, 'पर' (जिसे आप रोमन में 'पार' पढ़ने से ख़ुद को रोक नहीं पाते) पश्चिमी पाकिस्तान चला जाता है, 'काश' पूर्वी पाकिस्तान में जा चिपकता है! कितनी सारगर्भित बातें हैं, क्या कलात्मक अभिव्यक्ति है: एक दिल के टुकड़े हज़ार हुए, कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा! ज़ाहिर है कि विभाजन की याद ताज़ा है, लेकिन उसको लेकर हँसा भी जा सकता हैऔर हँसकर सीखा भी जा सकता है। मुख़्तसर में जज और कर्नल (अनीता गुहा व किशोर कुमार के पिता, कई पीढ़ियों की गहरी दोस्ती) आमने-सामने रहते हैं, लेकिन चूँकि नायक-नायिका एक-दूसरे से प्यार नहीं करते हैं, और इनके वालिदैन इनकी शादी करवाने पर आमादा हैं, तो ये आपस में मंत्रणा कर उनके बीच फ़र्क़ पैदा करवा देते हैं, नफ़रत के बीज बो देते हैं, पार्टीशन करवा देते हैं। नक़्शे के मार्फ़त फ़िल्म जो दार्शनिक उठान लेकर चलती है, आख़िर तक उसका निर्वाह करती है। कई तरह के द्वंद्व उभरते हैं: तहज़ीबो-तमद्दुन के, संस्कार के, भाषा के, आधुनिकता और प्राचीनता के, देसी और विदेसी के, पौर्वात्य और पाश्चात्य के, शास्त्रीय और लोकप्रिय के - लेकिन यह सवाल भी कि इनकी बिना पर क्या विभाजन उचित है? क्या मोहब्बत न की जाए क्योंकि हम बुनियादी तौर पर एक-दूसरे से अलग इंसान हैं? उपसंहार गीत में इसका जवाब है। वह गाड़ी जो दोनों पिताओं की दुश्मनी में तोड़ दी गई है, नायक-नायिका और उनके दोस्त बनाने में लग जाते हैं, और एक सामूहिक गीत चलता है; बोल राजेन्द्र कृष्ण के, संगीत मदन मोहन का:
किशोर/अनीता: बड़ी चीज़ है प्यार मोहब्बत ऐसी-तैसी झगड़े की हो जाए सरकार मोहब्बत, ऐसी तैसी झगड़े की
किशोर: प्यार है दो नैनों की भाषा ना उर्दू ना हिन्दी
अनीता: ना कोई ज़ेर-ज़बर का झगड़ा न स्याही ना बिंदी
दोनों: दिल से दिल का तार मोहब्बत, ऐसी-तैसी...
किशोर: पर्ले दर्जे के ज़िद्दी थे लैला-मजनूँ के अब्बा
अनीता: इसीलिए तो गोल हो गया दोनों ही के घर का डब्बा
दोनों पिता: कर लो बरख़ुरदार मोहब्बत/किशोर: चकई के चकधुम मकई के सतवा कर लो, बरख़ुरदार मोहब्बत/अनीता: नी धप ध पमप मगरेसा...
इस हैप्पी एंडिंग के बाद तीन देवियाँ (1965) का सिर्फ़ एक दृश्य लेते हैं। तीन देवियाँ हैं - एक सीधी-सादी दफ़्तर की कर्मचारी (नंदा), एक फ़िल्मी हीरोइन (कल्पना), और एक सोशलाइट संस्कृतिकर्मी (सिम्मी)। तीनों सांगीतिक साज़ो-सामान बेचने वाली आय. एस. जौहर की दुकान में काम करने वाले देव दत्त आनंद (देवानंद) से एक-एक कर मिलती हैं, और इश्क़ करने लगती हैं, आख़िर में नायक को एक का मुश्किल चुनाव करना है। दिलचस्प ये भी है कि हमेशा काम पर देर से आने के कारण देव से परेशान मालिक जौहर जब उसकी काव्य-प्रतिभा की पहचान करता है, तो ख़ुश होता है, उसकी कविताएँ छपवाता है, जिससे उसकी दुकान की शोहरत भी बढ़ जाती है, देव तो मशहूर हो ही जाता है। यानि छप-माध्यम से प्रसारित कविता, संगीत के सामान को बेचने का ज़रिया या विज्ञापन बन जाती है। बहरहाल, सिम्मी पहले उसके कवि-रूप को एक पार्टी में आज़माती है, और वहाँ हिट होने के बाद (उस ज़माने में नायक कई दफ़े कवि होता था: मेरे ख़याल से जिस फ़िल्म में नायक बतौर कवि/शायर आया हो, मेरी याददाश्त की आख़िरी ऐसी फ़िल्म साजन (1991) थी, आपने उसके बाद की कोई देखी हो तो मुझे ज़रूर बताएँ।) चट से कश्मीर में हो रहे एक मुशायरे में देव को न्यौता देती है। कवि सम्मेलन की तफ़सील में जाना ज़रूरी है, क्योंकि वह हिन्दी-उर्दू के सवाल से रूबरू है। सबसे पहले उर्दू के एक शायर को दावत दी जाती है:
सिम्मी ऐलान करती है: अब जनाब रशीद उद्दीन वाहिद लखनवी आपके सामने अपनी एक ग़ज़ल पेश करेंगे। वे शेरवानी में सजे आते हैं: कमर झुकी हुई, लंबी-सी दाढ़ी है महफ़िल को आदाब बजाते हैं। फ़रमाते हैं:
ऐ गुल हाए उल्फ़त हमने पाए जख़्म हाय ग़म
भई मज़ा ही आ गया हमको तो अल्ताफ़-ए-अज़ीज़ा का
उड़ाया मिस्ल-ए-ख़ाकस्तर निशाँ से बेनिशाँ करके
मम्नून हूँ मैं दामन-ए-उम्र-ए-ग़ुरेज़ाँ का।
और वाहवाही लूटते हैं, शुक्रिया अदा करके जाते हैं। (मतलब समझ में नहीं आया? कोई बात नहीं, फ़िल्म वहीं तो आपको ले जाना चाह रही है।)
सिम्मी: अब आपके सामने श्री नर्मदाशंकर जी अपनी रचना सुनायेंगे। वे आते हैं, धोती-कुर्ता-पगड़ी में, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। वाहिद लखनवी साहब की तरह ही उम्र की ढलान पर हैं। गीत के बोल हैं:
प्रीत का अवसान निश्चित, शलभ का गुंजन मधुर है,
मेरे जीवन की अरुणिमा, तेरे काजल की डगर है।
विरह का हर पल विप्लव, मिलन की हर पल अमर है,
मेरे जीवन की डगर पर, तेरी स्मृतियों का नगर है।। (वाह-वाह होती है। व्याकरण की अशुद्धियाँ आपने ग़ौर की होंगी।)
सिम्मी: अब सुनिये आप ही के गीत के श्री देव दत्त को:
देव: दोस्तो, मै न कोई उर्दूदाँ हूँ, न संस्कृत का कोई विद्वान, मौजूदा ज़माने की सीधी-सादी बोली जो लाखों-करोड़ों की समझ में आ जाए वही मेरी ज़ुबान है, जो लाखों-करोड़ों लोगों को भा जाए वही मेरी कविता है। मेरा दिल न हिन्दू है न मुसलमान है, न सिख न ईसाई, मेरा दिल इंसान है, मेरा दिल हिंदुस्तान है! (तालियाँ, तालियाँ)
ऐ चश्मे-तमाशा झूम ज़रा.....(वाह वाह! यानि लोगों को पहले से इस नज़्म के बारे में पता है)
ऐ चश्मे तमाशा झूम ज़रा, अब वक़्त-ए-नज़ारा आ पहुँचा,
कश्मीर में दो दिन जीने को कश्मीर का मारा आ पहुँचा।
फ़िरदौस के गुम हो जाने का कुछ ग़म न करे आदम से कहो
आख़िर को तुम्हारी जन्नत में फ़रज़ंद तुम्हारा आ पहुँचा। (वाह-वाह, तालियाँ)
एक साहब: साहबज़ादे, कहाँ के रहने वाले हो?
देव: मैं आवारा सिफ़त, अब क्या बताऊँ, जहाँ बैठूँ मेरी महफ़िल वही है
मोहब्बत है जहाँ भी इस ज़मीं पे, मैं शायर हूँ, मेरी महफ़िल वही है। (वाह-वाह!)
महफ़िल: हुज़ूर तरन्नुम में कहिए। तो देव तरन्नुम पर ही एक शे'र चिपका देते हैं।
महफ़िल: ज़रा गाकर कहिए देवदत्त, सुना है आप गाते भी हैं। तो देव मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में, सचिन देव बर्मन की धुन पर, मजरूह सुल्तानपुरी की ग़ज़ल छेड़ देते हैं :
कहीं बेख़याल होकर यूँ ही छू लिया किसी ने
कई ख़्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेख़ुदी ने....
और लोग झूम उठते हैं। देव के बरक्स जो शायर/कवि हैं, ज़ाहिरा तौर पर कमज़ोर हैं, बूढ़े हैं, वैसे दिलकश नहीं हैं, पुराने कवियों की जो रूढ़ छवि है, उसमें फ़िट बैठते हैं। लेकिन जो बात सबसे अहम है वो ये कि देव संवाद और संप्रेषण का उस्ताद है, वह जानता है कि शे'र चुनते और पढ़ते हुए अपने श्रोता से अंतर्क्रिया करनी होती है, उसे सही जगह पर सही शे'र जड़ना आता है, वह सबकी ज़बान बोलनेवाला सबका शायर है। इसीलिए वह मुशायरा लूट ले जाता है। फ़िल्म की कहानी के हिसाब से अहम है कि मुशायरा रेडियो पर प्रसारित हो रहा है, और बाक़ी दोनों देवियाँ अपनी-अपनी जगह पर रेडियो से चिपकी हुई सुन रही हैं।
चलिए, आगे बढ़ने से पहले कुछ पीछे लौटें और सन सैंतालीस की एक लगभग गुमनाम फ़िल्म दिल की रानी (स्वीटहार्ट) पर थोड़ा वक़्त बिताएँ। इसकी रोमन कास्टिंग खुलती हुई किताब के पन्ने पर होती है, जो छप-संस्कृति को सलामी देने की तरह है। वैसे फ़िल्म के डिज़ाइन और संवाद की अदायगी पर पारसी थिएटर का असर साफ़ है। राज कपूर-मधुबाला की इस फ़िल्म में नायक, प्रत्युत्पन्नमति आशुकवि, कविराज कहलाता है। फ़िल्म शुरू ही होती है धोती-कुर्ता में सजे कवि माधव के गीत 'ओ दुनिया के रहनेवालो बोलो कहाँ गया चितचोर' के रेडियो-प्रसारण से, ट्रांसमीटर मीनार के ज़रिए उड़ती तरंगें मधुबाला के ड्रॉइंग रूम तक जाती हैं, वह रेडियो-सेट से चिपकी हुई है, जब घोषणा होती है कि 'यह बंबई है, अभी आपको कवि माधव अपना बनाया गीत सुना रहे थे', तो निकल पड़ती है। निकलते-निकलते घर के दूसरे हिस्से में उसके पिताजी ठाकुर संग्राम सिंह अपने मुंशी से अख़बार की मंद बिक्री का रोना रो रहे हैं। वह बताती है कि उसने मसले का निदान ढूँढ लिया है, उससे मिलने जा रही है। मर्द इस बात पर ध्यान नहीं देते। रास्ते में पाती है कि जिसे देखो वही गीत गा-गुनगुना रहा है: झाड़ू लगाने वाले बच्चे-बच्चियाँ, ताँगेवाले, गृहिणियाँ, जूते चमकाने वाले, और जिनके जूते पॉलिश हो रहे हैं, वे भी। क्या हिंदू क्या मुसलमान सब एचएमवी की दुकान में लाइन लगाकर रिकॉर्ड ख़रीद रहे हैं। लगता है कि कवि की प्रसिद्धि ने वर्ग और लिंग की हदें तोड़ दी हैं। हलाँकि निजी ज़िंदगी में 'जाति' उसे आगे ठीक-ठाक सताने वाली है। जब वह उसके घर पहुँचती है तो नायक उसे देखते ही कहता है 'चितचोर' और उसी नाम को टेक बनाकर उसकी तारीफ़ में धाराप्रवाह काव्यात्मक क़सीदे पढ़ता है, कहता है वही तो वह चितचोर है जिसके विरह में वह अब तक कविताएँ लिखता रहा है। 'मैं हूँ गर कविराज तो तू भी है कविरानी, व्याकुल है मन कहने को अपनी प्रेम कहानी'। वह सवाल पूछती जाती है, और राज जवाब देता जाता है। जुगलबंदी चल निकलती है। व्यावहारिक धरातल पर आकर वह पूछती है: यहाँ कोई टेलिफ़ोन है? तो राज कहता है: देखो वो है टेलिफ़ोन/कोने में निराश प्रेमी-सा बैठा है वो मौन/छूते ही वो बोल उठेगा, ऐ मेरे चितचोर'! इसी तरह घर का नंबर भी कविता करके ही बताता है। ग़ौरतलब है कि कविता तुकबंदी होते हुए भी हास्यास्पद नहीं बताई गई है। बहरहाल, संग्राम सिंह चूँकि सगर्व राजपूत है, इसलिए कविता को राजपूतोचित कर्म नहीं मानता है। उसकी प्रसिद्धि की वजह ये है कि उसने पुलिस की नौकरी करते हुए गांधी और नेहरू को गिरफ़्तार किया था, और फिर शर्मसार होकर नौकरी छोड़ दी। और मलाल यह कि अहसान फ़रामोश जनता ने उसे ऐसे महान त्याग के बाद भी चुनाव नहीं जितवाया। तो वह बाक़ायदा बंदूक़ से लैस होकर आता है, जब उसकी बेटी टेलिफ़ोन पर कहती है कि उसने उसके अख़बार को उबारनेवाला कविरत्न ढूँढ लिया है। नायक के घर पर आकर वह उससे शिकार पर कोई कविता सुनाने का आदेश देता है।
नायक: मैं शिकार के सख़्त ख़िलाफ़ हूँ।
ठाकुर: बनिये हो क्या?
नायक: राजपूत होकर भी कवि हूँ। वह जीवों में जान फूँकता है। प्रेम करता है।
ठाकुर: ऐसे ही कवियों ने प्रेम और प्यार का गीत गाकर हमारे देश को बर्बाद कर दिया है....एक दिन मैं सिनेमा में गया तो देखा हीरो-हीरोइन कमर लचकाकर गा रहे थे: कदर तूने ना जानी...उनको महाराणा प्रताप और लक्ष्मीबाई बनाना था।
यूँ कहकर वीर-रस-आग्रही ठाकुर अपनी बेटी को घर लाकर नज़रबंद कर देता है, यहाँ तक कि उसके रेडियो सुनने पर भी पाबंदी लगा दी जाती है। बाक़ी की कहानी 'मासूम' नायक के दोस्त(श्याम सुंदर) द्वारा नायिका की वफ़ा का इम्तिहान लेने, ठाकुर-मुंशी द्वारा चालें चलने और अंतत: नायक-नायिका-दोस्त के हाथों मात खाने की कहानी है, और हमारे अपने विश्लेषण के लिए ग़ैर-ज़रूरी है। बस दो बातें याद रखें: पहली ये कि कवि-नायक और नायिका अपने काव्यात्मक उद्गार में बग़ैर भेदभाव के कबीर, तुलसीदास, ग़ालिब और मीर को उद्धृत करते हैं। नायक-नायिका एक बार फिर संकीर्ण सामाजिकताओं से ऊपर उठने की कोशिश करने में कामयाब होते हैं। दकियानूस और अवसरवादी उच्च-भ्रू पिता एक बार फिर हास्यास्पद साबित होता है। एक और बात नोट करते चलें कि बात चूँकि सन 47 की है, सत्ता का हस्तांतरण हो चुका है, हिंदी की ताजपोशी हो चुकी है इसलिए नायक भी कविराज ही बनता है, और बुख़ारी बंधुओं की पाकिस्तान-विदाई के बाद रेडियो अब हिंदी कवि के लिए खुल गया है।
जिस तरह दिल की रानी में कविता को छप-माध्यम की ज़रूरत और रेडियो-ग्रामोफ़ोन जैसे बाक़ी माध्यमों पर उसकी मौजूदगी साफ़ है, और इसमें आप बदलते वक़्त की निशानियाँ पढ़ सकते हैं, उसी तरह आपसी अनेकता की समस्या से निबटकर गोवा को आज़ाद कराने वालों की कहानी पर बनी ख़्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म सात हिन्दुस्तानी (1969) में आप अमिताभ बच्चन को राँची के शायर अनवर की भूमिका में देखते हैं। लेकिन यहाँ मैं अमिताभ बच्चन-जया भादुड़ी की एक शुरूआती फ़िल्म एक नज़र (1972) की मिसाल लेना चाहूँगा, जिसमें बदलते वक़्त के साथ नागरी और उर्दू दोनों लिपियों में शायर का छपना उसकी सार्विक अपील का सबूत बन कर उभरता है। अमिताभ बच्चन आकाश नामक कवि है, जो काफ़ी मशहूर यूँ साबित होता है कि एक रिसाला जो हिंदी और उर्दू दोनों में मंज़िल नाम से शाया होता है, दोनों ही में वह अभी ताज़ादम छपा है, और छपते ही एक रुपये क़ीमत वाली उस पत्रिका की प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक जाती हैं, हर वर्ग, समुदाय, लिंग व संप्रदाय के लोग घर से लेकर ढाबे तक उसको पढ़-सुन-सुना-गुनगुना रहे हैं। जब कुर्ता-पायजामा-शॉल-वेष्ठित आकाश पान खाने जाता है, तो पानवाला भी उसी की ग़ज़ल गा रहा है, और जब वह पान की गिलौरी मुँह में ले जा रहा होता है, तभी एक कोठे से उस ग़ज़ल के गाने की आवाज़ आती है। अमीना बेगम की सरपरस्ती में बड़ी होकर अपने मुजरे का मुहुर्त करने वाली शबनम (जया भादुड़ी) को हम हिंदी मंज़िल से उसी ग़ज़ल की मश्क़ करते देखते हैं। आवाज़ की जादू से खिंचा आकाश कोठे पर जाता है - वह तो पहले से मुरीद थी ही। इस तरह एक असंभव प्रेम कहानी शुरू हो जाती है, जिसमें कई क़ानूनी दाँव-पेंच लड़ाने के बाद वकील-मित्र रज़ा मुराद प्रेमियों को मिलवा पाता है। वैसे तो आम तौर पर फ़िल्म में मजरूह के बोल हैं, लेकिन मीर की मौजूदगी भी है: 'पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है' वाली ग़ज़ल में।
आइए अब इसी दशक से मध्यधारा की एक फ़िल्म लें: राजश्री प्रोडक्शन की अँखियों के झरोखे से (1978) की कास्टिंग मूलत: नागरी में है। कहानी में बैरिस्टर पुत्र अरुण प्रकाश माथुर(सचिन) को कॉलेज में नई-नवेली आई साधारण घर की लिली फ़र्नांडिस (रंजीता) से अकादमिक धरातल पर मुँहकी खानी पड़ती है, जिसे वह बक़ौल रंजीता खेल-भावना से स्वीकार नहीं करता है। छात्र-संघ के चुनाव के लिए दोनों भाषण के लिए आमने-सामने हैं, लेकिन अरुण के दोस्त हो-हुल्लड़ मचाते हैं, जिस पर ग़ुस्सा होकर लिली पहले तो अरुण की ख़ूब ख़बर लेती है, वह भी अंग्रेज़ी में, ये कहते हुए कि उसे चुनाव में दिलचस्पी नहीं है, लेकिन उसकी हर चुनौती वह उठाएगी। अबकी मौक़ा है कॉलेज में काव्य प्रतियोगिता का। विषय है पुराने हिंदी कवियों का कविता पाठ। पहला प्रतियोगी जिस भावना की बात करेगा, दूसरे को भी उसी भावना से जवाब देना होगा। नाम केवल अरुण प्रकाश माथुर का आया है। पुराने कवियों में युवाओं की घटती रुचि का रोना रोते हुए प्रोफ़ेसर-निर्णायक पूछते हैं: फिर ये प्रतियोगिता होगी कैसे? क्या अरुण प्रकाश का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं? तभी एक सिख लड़का खड़ा होता है, तो लोग हतप्रभ रह जाते हैं.... क्या आप?!? तो वह पंजाबी में लिली का नाम प्रस्तावित कर देता है। इसके पीछे अरुण की ख़ुराफ़ात है, वह सोचता है कि हिंदी की 'प्राचीन' ज़मीन की अंत्याक्षरी में तो लिली मात खा ही जाएगी। अरुण ही नहीं, लिली की शुभचिंतक हिंदू सहेलियाँ भी मशविरा देती हैं कि लिली दुश्मनों के इस जाल में न फँसे। लिली न सिर्फ़ प्रतियोगिता का पहला गोला दाग़ती है, उसका स्वर निर्धारित करती है, बल्कि अरुण के हर दोहे का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देकर उसकी हेकड़ी भी दुरुस्त करती है। सचिन का अंगविक्षेप अकड़ने से शुरू होकर सिकुड़ने तक पहुँचता है, फिर लिली के प्रति आदर-भाव और आख़िर में प्रेम-प्रस्ताव में बदल जाता है। दोहावली की उसकी यह छोटी यात्रा 'अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाए' से लेकर 'जो दिल देखा आपना, मुझसे बुरा ना कोय' और वो तब भी रूठी दीखती है, तो 'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय' तक पहुँचती है। वह दोस्ती का हाथ बढ़ाता है। नेताजी दोनों को समान रूप से विजेता मानते हुए संयुक्त पुरस्कार देते हैं।
इस दृश्यावली में दिलचस्प ये भी है कि एक प्रोफ़ेसर साहब भी लिली की प्रतिभा पर अविश्वास करते हैं, और जब वह नाम प्रस्तावित होने पर हिचक रही होती है तो उत्साहवर्धनस्वरूप कहते भी हैं कि 'यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है कुमारी लिली कि आप भिन्न धर्मावलंबी होते हुए भी हिन्दी कविता में इतनी रुचि रखती हैं'! ये उसी तरह की बात है गोया कोई किसी से कहे, 'आप मुसलमान हैं? लगते तो नहीं हैं'! फ़िल्म का पैग़ाम बहुत साफ़ है: हिन्दी बहुसंख्यक समाज अल्पसंख्यकों की एक ख़ास रूढ़ छवि लेकर जीता रहा है, और नायक जिस तरह अपना अहम त्यागकर ज़मीन पर आता है, उसे भी इस नायक से सीख लेनी ही चाहिए। हिंदी हिंदुओं की बपौती नहीं है। दूसरी बात, प्रोफ़ेसर साहब की 'पेट्रॉनाइज़िंग' उक्ति के ठीक बाद रहीम से दोहावली का शुरू होना एक 'काव्यात्मक न्याय' का अहसास कराता है।
चलिए हिंदी से हटकर अब थोड़ी बात संस्कृत की करते हैं - इसलिए कि 19वीं-20वीं सदी में हिन्दी कार्यकर्ताओं ने संस्कृत से सीधा ख़ून का रिश्ता गाँठने की ख़ूब कोशिश की है - धर्मेन्द्र-हेमा मालिनी अभिनीत और बासु चैटर्जी निर्देशित दिल्लगी (1978) के ज़रिये। अगर आपको याद हो तो इस फ़िल्म में धर्मेन्द्र संस्कृत का व्याख्याता है, और हेमा मालिनी रसायन शास्त्र की। एक जितना रसमय, दूसरी उतनी ही रुक्ष। ये नाटक कराता है, वो बतौर वॉर्डेन लड़कियों को अनुशासित करती है। वह कालिदास से सरस प्रेम-प्रसंग सुनाता रहता है, तो हेमा किसी छात्रा के रजिस्टर में उसका प्रेमपत्र पाकर परेशान हो जाती है। वह लोकप्रिय है, तो वह खड़ूस समझी जाती हैं। उस पर तुर्रा ये कि धर्मेन्द्र उसको पटाने में लग जाता है। काफ़ी नैतिक उहापोह, हेमामालिनी द्वारा कालिदास के पारायण, और मानसिक उठापटक से गुज़रने के बाद सफल भी होता है। एक बार फिर इश्क़ की जीत होती है। दिलचस्प ये है कि पहली नज़र में लगती स्टीरियोटाइपिंग एक हद तक ही निभाई गई है, बल्कि संदेश उल्टा है। यानि खादी के कुर्ते पायजामे और काले फ़्रेम के चश्मे वाला संस्कृत का आचार्य धर्मेन्द्र ज़्यादा प्रगतिशील है, जबकि रसायनज्ञ और शिफ़ॉन की साड़ी पहनने वाली नायिका पल-पल अपने प्रदत्त संस्कारों से जूझती है। आपको दाद देनी पड़ती है कि साहब देखिए हिंदी सिनेमा ने कैसी गहरी, इतिहाससम्मत बात कह दी - वर्जनावादियो, अपने अतीत में झाँको तो तुम्हें एक खुली, अकुंठ दुनिया के दर्शन होंगे। भाषायी रियाज़त के लिहाज से मुझे इस फ़िल्म में दो चीज़े ग़ौरतलब लगती हैं: एक तो वह क्षण जब हेमा ख़ुद धर्मेन्द्र से प्यार करने लगने के बाद अरेन्ज्ड मैरेज का स्वांग रचाती है, और छुट्टियों में घर आकर एक प्रेम-पत्र लिखने की ज़रूरत महसूस करती है, तो उसे लगता है कि वह उस ख़त से बेहतर नहीं लिख सकती जो उसने अपनी छात्रा से ज़ब्त किया था, लिहाज़ा उसी से चेप देती है। ध्यान रहे कि उस ख़त को लेकर उसने पूरे कॉलेज में हंगामा खड़ा कर दिया था, और छात्राओं की गिरती नैतिकता को उनके ख़राब परिणामों से जोड़ा था। मज़े की बात है कि ज़ब्त करने के बाद उसने वह ख़त उस वक़्त प्रेम कर रही अपनी प्राध्यापिका-सहेली-सहकर्मी को भी नक़ल करने के लिए नहीं दिया था। दर्शकों को क्या पता कि वह उसे अपने इस्तेमाल के लिए सँजोकर रख रही है! उससे भी ज़्यादा मज़े की बात ये है कि धर्मेन्द्र उनकी सुहाग रात पर उसको यह कहकर ख़ूब शर्मसार करता है कि दरअसल वह ख़त उस संग्रह से है, जिसका संपादन ख़ुद धर्मेन्द्र ने संस्कृत के प्रेम-पत्रो को आधार बनाकर किया था! हासिले-फ़साना ये कि संस्कृत को अगर आमजन की ज़ुबान में पेश किया जाए तो उसकी अकूत संपदा अब भी जादू जगा सकती है। जिसकी मिसाल ख़ुद धर्मेन्द्र है, क्योंकि जब वह फ़िल्म में अभिज्ञानशाकुंतलम नाटक खेलता है तो उसकी पंजाबियत उसके संस्कृत उच्चारण पर हावी हो जाती है। मैंने असली धर्मेन्द्र के बारे में जितना पढ़ा-सुना है, उससे पता चलता है कि उनकी गति उर्दू में कहीं ज़्यादा है।
मैं बातें बनाते जा सकता हूँ लेकिन नया पथ का धैर्य टूट रहा है, और अंक छूटनेवाला है। इसलिए अब मैं एक आख़िरी फ़िल्म चुपके-चुपके की याद दिलाकर आपसे छुट्टी लेना चाहूँगा। वाजिब भी है क्योंकि हमने ओमप्रकाश की फ़िल्म से बात शुरू की थी, और इसमें धर्मेन्द्र, अमिताभ, शर्मीला टैगोर मिल-जुलकर न सिर्फ़ उनकी वकीली चतुराई का ग़ुब्बारा फोड़ते हैं, बल्कि उनके भाषाई शुद्धतावाद की भी अच्छी ख़बर लेते हैं। आपको याद ही होगा कि ड्राइवर बने प्रोफ़ेसर धर्मेन्द्र ओमप्रकाश के इसरार के बाद रोज़ाना की बातचीत के लिए ऐसी हिन्दी पेलते हैं कि ओमप्रकाश को आत्मसमर्पण करना पड़ता है। और यही मेरे ख़याल से 'हिंदी' सिनेमा का स्थायी भाव रहा है, भाषा को लेकर: भैया शुद्धता की ज़िद में अति मत करो। शब्दों की ज़ात पूछकर उन्हें जात-बाहर मत करो। भाषा में अल्फ़ाज़ का आवागमन जनगणना से तय नहीं होता, न ही उद्गम से। इसीलिए आपको किशोर कुमार द्वारा गाए गए बेहद लोकप्रिय गीतों - 'प्रिय प्राणेश्वरी, आप हमें आदेश करें तो प्रेम का हम श्रीगणेश करें' या 'ज़रूरत है, ज़रूरत है, ज़रूरत है, एक शिरीमती की, कलावती की, सेवा करे जो पती की' 'या फिर 'गुणी जनो, भक्त जनो, हरिनाम से नाता रे जोड़ो रे, माया से मुँह मोड़ो रे' - में तत्सम प्रधान शब्दों के साथ निहायत रचनात्मक खेल मिलता है, अमूमन उसी तरह जिस तरह पड़ोसन सहित उनकी ज़यादातर फ़िल्मों में शास्त्रीय बनाम लोकप्रिय का मानीख़ेज़ मुक़ाबला देखने को मिलता है। वैसे ही जैसे कि गाढ़ी उर्दू का मज़ाक उड़ाती हुई आपको अच्छी-ख़ासी फ़िल्में मिल जाएँगी।
ख़याल रहे कि इस लेख में मैंने उर्दू शायरी से लबरेज़, उर्दू शायरों के नायकत्व वाली फ़िल्मों की चर्चा जानबूझकर नहीं की है - जिसकी एक काफ़ी लंबी सूची बनती है, और जिसमें प्रदीप कुमार, भारत भूषण से लेकर राजेश खन्ना, जीतेन्द्र और राज बब्बर तक अमूमन हर बड़े सितारे, और कई बड़ी, कामयाब और अच्छी फ़िल्मों का नाम आएगा। उन महान तवायफ़-फ़िल्मों का नाम आएगा, जिन्हें फ़िल्म व्यापार और फ़िल्म अध्ययन में 'मुस्लिम सोशल' की विधा की फ़िल्में माना जाता रहा है। उन असली शायरों के नाम तो आएँगे ही जिनके असंख्य गीत हम पिछले सत्तर-अस्सी सालों से गाते आ रहे हैं। लेकिन वह किसी और मौक़े के लिए रहने देते हैं। फ़िलहाल तो पर्दे पर विद्या बालन की फ़िल्म घनचक्कर का ताज़ा हिट हिंग्लिश गाना 'लेज़ी लैड, लेज़ी लैड, लेज़ी लैड, सैंया' को टेलिविज़न-प्रोमो के साथ गुनगुनाते हैं और अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ की गिनती करते हुए सोचते हैं....ये कहाँ आ गए हम यूँ ही साथ-साथ चलते....!
रविकान्त
एसोसिएट फ़ेलो, सीएसडीएस
(इस लेख पर राय-मशविरा देने के लिए प्रभात, सौम्या, संजीव, मुरली बाबू-रेखा जी, फ़ातिमा नूर, राकेश पांडेय और शाहिद अमीन का बहुत-बहुत शुक्रिया। ग़लतियों की जवाबदेही मेरी है। मूलत: नया पथ: हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ बरस, जनवरी-जून, 2013, (पृ. 61-72) में प्रकाशित। फिर काफ़िला, जानकीपुल, रचनाकार, चवन्नी छाप जैसे चिट्ठों पर भी।)