भाषा की उन्नति / रामचन्द्र शुक्ल

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सर्वसाधारण की शिक्षा देशभाषाओं...द्वारा हो सकता है। देश (की भाषाएँ) जितनी ही अधिक उन्नत होंगी सर्वसाधारण के विचार भी उतने ही अधिक उन्नत होंगे। भाषा की उन्नति से हमारा मतलब दो बातों से है

1. एक तो भाषा रूपी कल की उन्नति, अर्थात उसकी अवतारण वा

प्रकाशन शक्ति की वृद्धि, जिससे हृदय का कोई भाव भी खींचकर बाहर निकाला जा सके, सृष्टि का कोई रहस्य भी हृदय के भीतर प्रत्यक्ष किया जा सके। यह उन्नति कुछ तो शब्दों की संख्या पर निर्भर रहती है, पर विशेषकर उनकी

योजना पर। शब्दों का भंडार भरापूरा रहने पर भी नवीन और स्वतन्त्र योजना के बिना भाषा जहाँ की तहाँ पड़ी रहती है, आगे नहीं बढ़ती। अत: उसकी वृद्धि ऐसे लेखकों के हाथ में पड़कर होती है जो अपनी भावनाओं के अनुसार भाषा को ले चल सकते हैं। जिन्हें किसी शब्द के पहिले एक बँधे हुए विशेषण के सिवाय

कोई दूसरा रखते डर लगता है, उनके किए कुछ नहीं हो सकता। जो कई भाषाओं की भिन्न भिन्न प्रदर्शन प्रणालियों को परखकर वस्तुओं के भिन्न भिन्न रूपों और गुणों से जानकार रहते हैं आरम्भ में वे भी अपनी भाषा द्वारा देशवासियों को

विस्तृत और सूक्ष्म दृष्टि प्रदान कर सकते हैं। अंगरेजी कई भाषाओं की वर्णन

प्रणालियों को लेकर अपनी इतनी उन्नति कर सकी है। जो पुस्तकें और भाषाओं से अनुवादित होकर अंगरेजी में जाती हैं वे नई बातों की जानकारी फैलाने के साथ ही साथ प्रच्छन्न रूप से अंगरेजी भाषा में नवीन नवीन वर्णन शैलियों की भी जड़ जमाती हैं। अंगरेजी भाषा पर पूर्वीय साहित्य का बड़ा भारी असर पड़ा है। संस्कृत और फारसी पुस्तकों के अनुवादों ने अंगरेजी...वर्णन शैली को प्रशस्त किया है। 19वीं शताब्दी के कई अंगरेज कवियों में जगह-जगह पूर्वीय वर्णन प्रणाली की छाया साफ दिखाई पड़ती है। इसी से संस्कृत आदि और भाषाओं के अनुवाद जहाँ तक अविकल हो सकते हैं, अंगरेजी में किए जाते हैं। पृथ्वी पर की अनेक जातियाँ ज्यों-ज्यों अपना व्यवहार एक दूसरे के साथ बढ़ाती जाती हैं त्यों त्यों उनकी भाषाओं की वर्णन प्रणालियाँ प्रशस्त होती जाती हैं। किसी वस्तु का कई रीति से वर्णन करना मानो उसे कई भिन्न भिन्न स्थानों से खड़े होकर देखना है। अच्छे लेखक वे हैं जो अपने पाठकों को ऐसे स्थान पर ले जाकर खड़ा कर देते हैं जहाँ से निर्दिष्टं वस्तु का अंग-प्रत्यंग प्रत्यक्ष हो जाता है। अत: वर्णन प्रणाली की प्रशस्तता वा उन्नति पहिली चीज है।

महाराष्ट्र साहित्य सम्मेलन इन्हीं के उद्योग...।

2. दूसरी उन्नति प्रत्येक विषय के ग्रन्थों की बढ़ती है। जब हम अच्छी

समुपयोगी कल प्रस्तुत कर चुके तब हमें उससे भरपूर काम लेने और अच्छा-

अच्छा माल तैयार करने का उद्योग करना चाहिए। तैयारी के समय देश की माँग और आवश्यकता का ध्या न रख लेना भी बहुत जरूरी है। हिन्दी में अभी जिन जिन विषयों के अभाव हैं उनका पूरा करना भिन्न भिन्न वर्ग के लोगों के हाथ में है। आधुनिक विज्ञान, दर्शन, शिल्प, शासन शास्त्र आदि के पारगामी जो

हमारे प्रसिद्ध देशी भाई हैं हिन्दी की उनसे प्रार्थना है कि वे अपने अपने विषयों के अच्छे सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ या तो स्वयं लिखा करें या उनकी तैयारी में सहायता

दिया करें। मुझे पूरा भरोसा है कि केवल ऐसे लोगों को छोड़ जिन्हें यह सूझ

रही है कि इस देश में सब विद्याओं और कलाओं का प्रचार अंगरेजी ही के

द्वारा होगा और किसी के.......................पर सोचने की बात है कि क्या

भारतवर्ष के प्रत्येक श्रेणी के स्त्री.-पुरुष कभी एकदम अंगरेजी बोलने लगेंगे ? अथवा जो थोड़े से लोग अंगरेजी लिखे पढ़े हैं उन्हीं से हमारी राजनीतिक, सामाजिक और औद्योगिक सब आवश्यकताएँ पूरी हो जायँगी। क्या सब दिन इस बात की

जरूरत बनी रहनी चाहिए कि हम पहिले एक विदेशी भाषा सीखने का श्रम उठाएँ तब जाकर कहीं किसी वैज्ञानिक वा औद्योगिक विषय का आरम्भ करें। निश्चय समझिए कि विज्ञान और कला आदि जब तक दूसरे की भाषा में हैं तब तक वे दूसरे की सम्पत्ति हैं। फिर हम क्यों न इन विषयों को अपनी पूँजी और अपना सहारा बना लें। इनके बिना पृथ्वी पर की कोई जाति अब अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती।

मैं हर्ष से फूले अंग नहीं समाता जब देखता हूँ कि अमेरिका और इंग्लैंड की उच्च शिक्षा पाए हुए हमारे कुछ दूरदर्शी और विद्वान देश भाई इस बात को समझ रहे हैं। पंडित सत्यदेव ने, जिनके लेख 'सरस्वती' में बराबर देखने में आते हैं, अमेरिका के शिकागो नगर में 'हिन्दी साहित्य समिति' स्थापित करके बड़ी दूरदर्शिता का काम किया है। इस समिति का प्रभाव यह पड़ेगा कि जो भारतवासी अमेरिका में वैज्ञानिक शिक्षा पाने जायँगे वे अपना सम्बन्ध अपनी देशभाषा से बनाए रख सकेंगे और उसके प्रति अपने कर्तव्यम को समझते रहेंगे। बाबू महेश चरण सिंह अमेरिका से विज्ञान और कृषि की ऊँचे दरजे की शिक्षा प्राप्त करके लौटे हैं। इन्होंने रसायन शास्त्र की एक पुस्तक लिखकर हमारी आशाओं के लिए एक अच्छा आधार खड़ा कर दिया है। इसी प्रकार हम प्रत्येक विभाग के विद्वानों से कुछ न कुछ आसरा रखते हैं। जापान की राजधानी टोकियो में एक हिन्दी विद्यालय का खुलना कुछ कम आशा बाँधने वाली बात नहीं है। सुनते हैं कि जापानी लोग भी नागरी अक्षरों के गुण को कुछ-कुछ पहिचानने लगे हैं। वे देख रहे हैं कि उनकी भाषा भी नागरी अक्षरों में बड़ी सफाई के साथ लिखी जा सकती है।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जनवरी, 1910 ई.)