भाषा की शक्ति / रामचन्द्र शुक्ल
भाषा का प्रयोग मन में आई हुई भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए होता है। इससे यह समझना कि संसार की किसी भाषा द्वारा मनुष्य के हृदय के भीतर की सब भावनाएँ ज्यों की त्यों बाहरी सृष्टि में लाई जा सकती हैं ठीक नहीं। किन्तु किसी भाषा की श्रेष्ठता निश्चित करने के लिए यह विचार करना आवश्यक होता है कि वह अपने इस कार्य में कहाँ तक समर्थ है अर्थात् हृदयस्थित भावनाओं का कितना अंश वह प्रतिबिंबित करके झलका सकती है। अभी तक मानव कल्पना में, ऐसे ऐसे रहस्य छिपे पड़े हैं जिनको प्रकाशित करने के लिए कोई भाषा ही नहीं बनी है। यद्यपि विचारों की सृष्टि भाषा से पहिले की है पर आगे चलकर जब भाषा खूब पुष्ट हो जाती है तब वह विचार करने का उन्नत ढंग बतलाने लगती है। जो जातियाँ हमसे उन्नत हैं उनके विषय में यह अवश्य समझना चाहिए कि उनके विचार करने का ढंग हमसे उन्नत है। अत: सब सुधारों से पहिले विचार करने की प्रणाली का सुधार आवश्यक है।
भाषा की बोधनशक्ति दो वस्तुओं पर अवलंबित है 'शब्दविस्तार' और 'शब्दयोजना'।
शब्दविस्तार
जिस भाषा में शब्दों की कमी है उसका प्रभाव मनुष्य के कार्यकलाप पर बहुत थोड़ा है। उस भाषा को बोलनेवाला बहुत सी बातों को जानता हुआ भी अनजान बना रहता है। यद्यपि शब्दों की बहुतायत से भाषा की पुष्टि होती है तथापि कई बातें ऐसी हैं जो उसकी सीमा स्थिर करती है। जिस जलवायु ने हमारे स्वभाव और रूप रंग को रचा उसी ने हमारे शब्दों को भी सृजा। ये शब्द हमारे जीवन के अंग समान हैं; इनमें से हर एक हमारी किसी न किसी मानसिक अवस्था का चित्र है। इनकी ध्वतनि में भी हमारे लिए एक आकर्षण विशेष है। निज भाषा के किसी शब्द से जिस मात्र का भाव उद्भूत होता है उस मात्र का समान अर्थवाची किसी विदेशीय शब्द से नहीं। क्योंकि पहिले तो विजातीय शब्दों की ध्वलनि ही हमारी स्वाभाविक रुचि से मेल नहीं खाती दूसरे वे विस्तार में हमारे मानसिक संस्कार के नाप के नहीं होते। आजकल हिन्दी की अवस्था कुछ विलक्षण हो रही है। उचित पथ के सिवाय उसके लिए तीन और मार्ग खोले गए हैं एक जिसमें बिना विचार के संस्कृत के शब्द और समास बिछाए जाते हैं, दूसरा जिसको उर्दू कहना चाहिए; इनके अतिरिक्त एक तृतीय पथ, भी खुल गया है जिसमें अप्रचलित अरबी, फारसी और संस्कृत शब्द एक पंक्ति में बैठाए जाते हैं। मैं यह नहीं चाहता कि अरबी और फारसी आदि विदेशीय भाषाओं के शब्द जो हमारी बोली में आ गए हैं, जिन्हें बिना बोले हम नहीं रह सकते, वे निकाल दिए जायँ। किन्तु क्लिष्ट और अचलित विदेशीय शब्दों को व्यर्थ लाकर भाषा के सिर ऋण मढ़ना ठीक नहीं। सहायता के लिए किसी अन्य विदेशीय भाषा के शब्दों को लाना हानिकारक नहीं; किन्तु उनकी संख्या इतनी न हो कि मिल्टन के शब्दों में, वे स्थानीय भाषा के अधीन रहकर काम करने के स्थान पर उसी को अधिकारच्युत करने का यत्न करने लगें। अब यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि अरबी वा फारसी के कौन शब्द हिन्दी में लिए जायँ और कौन न लिए जायँ। मेरी समझ में तो वे ही अरबी फारसी शब्द लिए जा सकते हैं जिनको वे लोग भी बोलते हैं जिन्होंने उर्दू कभी नहीं पढ़ा है, जैसेज़रूर, मुक़दमा, मज़दूर आदि। जो शब्द लोग मौलवी साहब से सीख कर बोलते हैं उनका दूर होना ही हिन्दी के लिए अच्छा है।
राजा शिवप्रसाद खिचड़ी हिन्दी का स्वप्न ही देखते रहे कि भारतेन्दु ने स्वच्छ हिन्दी की शुभ्र छटा दिखा कर लोगों को चमत्कृत कर दिया। लोग चकपका उठे। यह बात उन्हें प्रत्यक्ष देख पड़ी कि यदि हमारे प्राचीन धर्म, गौरव और इतिहास की रक्षा होगी तो इसी भाषा के द्वारा। स्वार्थी लोग समय समय पर चक्र चलाते ही रहे किन्तु भारतेन्दु की स्वच्छ चन्द्रिका में जो एक बेर अपने गौरव की झलक लोगों ने देख पाई वह उनके चित से न हटी। कहने की आवश्यकता नहीं कि भाषा ही किसी जाति की सभ्यता को सबसे अलग झलकाती है, वही उसके हृदय के भीतरी पुरज़ों का पता देती है जिसका निदान उन्नति के उपचार के लिए आवश्यक है। वही उसके पूर्व गौरव का स्मरण कराती हुई, हीन से हीन दशा में भी, उसमें आत्माभिमान का स्रोत बहाती है। किसी जाति को अशक्त करने का सबसे सहज उपाय उसकी भाषा को नष्ट करना है। हमारी नस नस से स्वदेश और स्वजाति का अभिमान कैसे निकल गया? हमारे हृदय से आर्य भावनाओं का कैसे लोप हो गया? क्या यह भी बतलाना पड़ेगा? इधर सैकड़ों वर्षों से हम अपने पूर्वसंचित संस्कारों को जलांजलि दे रहे थे। भारतवर्ष की भुवनमोहिनी छटा से मुँह मोड़कर शीराज़ और इस्फहान की ओर लौ लगाए थे; गंगा जमुना के शीतल शान्तिदायक तट को छोड़कर इफ़रात और दजला के रेतीले मैदानों के लिए लालायित हो रहे थे। हाथ में अलिफ़ लैला की किताब पड़ी रहती थी, एक झपकी ले लेते थे तो अलीबाबा के अस्तबल में जा पहुँचते थे। हातिम की मख़ावत के सामने कर्ण का दान और युधिष्ठिर का सत्यवाद भूल गया था; शीरीफरहाद के इश्क़ ने नल दमयन्ती के सात्विकऔर स्वाभाविक प्रेम की चर्चा बन्द कर दी थी। मालती, मल्लिका, केतकी आदि फूलों का नाम लेते या तो हमारी जीभ लटपटाती थी या हमको शर्म मालूम होती थी। वसन्त ऋतु का आगमन भारत में होता था, आमों की मंजरियों से चारों दिशाएँ आच्छादित होती थीं। पर हमको कुछ खबर नहीं रहती थी; हम उन दिनों गुलेलाला और गुले नरगिस के फ़िराक़ में रहते थे। मधुकर गूँजते और कोइलें कूकती थीं, पर हम तनिक भी न चौंकते थे। अव्े पर कान लगाए हम बुलबुल का नाला सुनतेथे।
अप्रचलित फारसी शब्दों के बिना हमारा कोई काम भी नहीं ऍंटकता क्योंकि उनके स्थान पर रखने के लिए हमें न जाने कितने संस्कृत क्या हिन्दी ही शब्द मिल सकते हैं। हाँ जिन विचारों के लिए हिन्दी वा संस्कृत शब्द न मिलें उनको प्रगट करने के लिए हम विजातीय अप्रचलित शब्द लाकर अपनी भाषा की वृद्धि मान सकते हैं। एक ही निर्दिष्ट वस्तु के लिए अनेक शब्दों के होने से भाषा की क्रिया में कुछ नहीं होती। जैसे सूर्य के लिए रवि, र्मात्तांड, प्रभाकर, दिवाकर और चन्द्रमा के लिए शशि, इन्दु, विधु मयंक आदि बहुत से शब्दों के होने से भाषा की बोधनशक्ति में कुछ भी वृद्धि नहीं होती, केवल ध्व।नि की भिन्नता वा नवीनता से हमारा मनोरंजन होता है और भाषा में एक प्रकार का चमत्कार आ जाता है जो कविता के लिए आवश्यक है। इन अनेक नामों में से साधारण गद्य में उसी शब्द को स्थान देना चाहिए जो सबसे अधिक प्रचलित है जैसे सूर्य चन्द्रमा। 'रवि उदय होता है', 'भास्कर अस्त होता है', 'विधु का प्रकाश फैलता है' ऐसे ऐसे वाक्य कानों को खटकते हैं और कृत्रिम जान पड़ते हैं। हाँ जहाँ 'प्रचंड मार्तंड की उद्दंडता, दिखाना हो वहाँ की बात दूसरी है पर मैं तो वहाँ भी ऐसे शब्दों की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं समझता। शब्दालंकार केवल कविता के लिए प्रयोजनीय कहा जा सकता है। गद्य में उसकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं। गद्य में तो उसके और और गुणों के अन्वेषण ही से छुट्टी नहीं मिलती। गद्य की श्रेष्ठता तो भावों की गुरुता और प्रदर्शन प्रणाली की स्पष्टता वा स्वच्छता ही पर अवलंबित है; और यह स्पष्टता और स्वच्छता अधिकतर व्याकरण की पाबन्दी और तर्क की उपयुक्तता से सम्बन्ध रखती है। सारांश यह कि आधुनिक शैली के अनुसार गद्य में वाक्य क्रम और अर्थ ही का विचार होता है नाद का नहीं।
शब्द योजना
यहाँ तक तो शब्द विस्तार की बात हुई। आगे भाषा के इससे भी गुरुतर और प्रयोजनीय अंश अर्थात् शब्दयोजना पर ध्यावन देना है। भाषा उत्पन्न करने के लिए असंख्य शब्दों का होना ही बस नहीं है। क्योंकि पृथक पृथक वे कुछ भी नहीं कर सकते। वे कल्पना में इन्द्रियकम्प द्वारा खचित एक एक स्वरूप के लिए भिन्न भिन्न संकेत मात्र हैं। कोई ऐसा पूरा विचार (Complete notion) उत्पन्न करने के लिए जो मनुष्य की प्रवृत्ति पर कोई प्रभाव डाले अर्थात उसकी भौतिक वा मानसिक स्थिति में कुछ फेरफार उत्पन्न करे हमें शब्दों को एक साथ संयोजित करना पड़ता है। जैसे कोई मनुष्य सड़क पर चला जाता है, यदि हम पीछे से उसको सुनाकर कहैं कि 'मकान' तो वह मनुष्य कुछ भी ध्याकन न देगा और चला जायगा, किन्तु यदि पुकारें कि 'मकान गिरता है' तो वह अवश्य चौंक पड़ेगा और भागने का उद्योग करेगा। शब्द योजना का प्रभाव देखिए! प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि वह इस कार्य में बड़ी सावधानी रक्खे। बहुत से शब्दों को जोड़ने ही से भाषा उत्पन्न नहीं होती; उसमें उपयुक्त क्रम, चुनाव और परिणाम का विचार रखना होता है। निश्चय जानिए कि शब्दों के मेल में बड़ी शक्ति है। एक भावुक मनुष्य थोड़े से शब्दों को लेकर भी वह वह चमत्कार दिखला सकता है जो एक स्तब्ध चित्त का मनुष्य चार भाषाओं का कोश लेकर भी नहीं सुझा सकता। कुछ दिन पहिले हमारी हिन्दी की स्थिति ऐसी हो गई थी कि उस का विचार-क्षेत्र में अग्रसर होना कठिन देख पड़ता था। बने बनाए समास, जिन का व्यवहार हजारों वर्ष पहिले हो चुका था, लाकर भाषा अलंकृत की जाती थी। किसी परिचित वस्तु के लिए जो जो विशेषण बहुत काल से स्थिर थे, उनके अतिरिक्त कोई अपनी ओर से लाना मानो भारतभूमि के बाहर पैर बढ़ाना था। यहाँ तक कि उपमाएँ भी स्थिर थीं। मुख के लिए चन्द्रमा, हाथ पैर के लिए कमल, प्रताप के लिए सूर्य, कहाँ तक गिनावैं। जहाँ इनसे आगे कोई बढ़ा कि वह साहित्य से अनभिज्ञ ठहराया गया अर्थात् इन सब नियत उपमाओं का जानना भी आवश्यक समझा जाता था। पाठक! यह भाषा की स्तब्धता है, विचारों की शिथिलता है और जाति की मानसिक अवनति का चिद्द है। अब भी यदि हमारे कोरे संस्कृतज्ञ पंडितों से कोई बात छेड़ी जाती है तो वे चट कोई न कोई श्लोक उपस्थित कर देते हैं और उसी के शब्दों के भीतर चक्कर खाया करते हैं, हजार सिर पटकिए वे उसके आगे एक पग भी नहीं बढ़ते। यदि कोई जाल वा धोखे से किसी की सम्पत्ति हर ले तो पंडित जी कदाचित् उसके सम्मुख उसके कार्य की आलोचना इसी चरण से करेंगेस्वकार्य्यं साधायेध्दीमान्। उनकी विचार शक्ति इन श्लोकों से चारों ओर जकड़ी हुई है; उसको अपना हाथ पैर हिलाने की स्वच्छन्दता कभी नहीं मिलती। ऐसी दशा में उन्नति के मार्ग में एक पग भी आगे बढ़ना कठिन होता है। समाज की यह एक बड़ी भयानक अवस्थाहै।
अलंकार
इसी प्रकार अनुप्रास से टँकी हुई शब्दों की लम्बी लरी इस बात को सूचित करती है कि लेखक का ध्याअन विचारों की अपेक्षा शब्दों की ध्वथनि की ओर अधिक है। आरम्भ ही में कहा गया कि भाषा का प्रधान उद्देश्य लोगों को भावों वा विचारों तक पहुँचाना है न कि नाद से रिझाना जो कि संगीत का धर्म है। शब्दमैत्री वा यमक दिखलाने के उद्देश्य से ही लेखनी उठाना ठीक नहीं। यदि आपकी कल्पना में सतोगुण की कोई मनोहारिणी छाया देख पड़ी हो तो आप उसे खींच कर संसार के सम्मुख उपस्थित कीजिए, यदि आपके हृदय में विचारों की रगड़ से कोई ऐसी ज्योति उत्पन्न हुई हो जिसके प्रकाश में जीव अपना भला बुरा देख सकते हों तो आप उसे बाहर लाइए, अन्यथा व्यर्थ कष्ट न उठाइए। हम देखते हैं कि इसी रुचि वैलक्षण्य के कारण हमारे हिन्दी काव्य का अधिक भाग हमारे काम का न रहा। वहाँ विचित्र ही लीला देखने में आती है। घनाक्षरी, कवित्ता, सवैया के 'कविन्दों' ने कुछ शब्दों का अंग भंग कर दो एक ('सु' ऐसे) अक्षरों की अगाड़ी पिछाड़ी लगाकर बलात् और निष्प्रयोजन उन्हें एक में नाथ रखा है। वर्णन शक्ति की शिथिलता के कारण रसों (Sentiments) के उद्रेक के लिए अत्यन्त अधिकता से नादवैलक्षण्य का सहारा लिया गया है। ऋंगार रस की कविता में 'सरस', 'मंजु', 'मंजुल' आदि शब्दों के हेतु कुछ स्थान खाली करना पड़ा हैमंजुल मलिंद गुंजै मंजरीन मंजु मंजु मुदित मुरैली अलवेली डोलैं पात पात।
कविजी ने न जाने किस लोक में मुरैलियों को पत्तोंे पर दौड़ते देखा है। इसी प्रकार जहाँ वीर रस की चर्चा है वहाँ पुरुष वृत्ति अर्थात् द्वित्व और वर्ग का विस्तार है, जैसे, डरि डरि ढरि गए अडर डराय डर ढर ढर ढर के धाराधार के धार के। किन्तु इस 'खड्ड बड्ड' के बिना भी वीर रस का संचार किया जा सकता है, इस बात के उदाहरण शेखर कवि का 'हम्मीर हठ', भारतेन्दु की 'विजयिनी विजय वैजयन्ती' और नीलदेवी विद्यमान हैं। आज सैकड़ा पीछे कितने आदमी मतिराम, भूषण और श्रीपति सुजान के कविताओं को अनुराग से पढ़ते तथा उनके द्वारा किसी आवेग में होते हैं? पर वही सूर, तुलसी, रहीम और बिहारी आदि की कविता हमारे जातीय जीवन के साथ हो गई है। उनकी एक एक बात हमारे किसी काम में अग्रसर होने वा न होने का कारण होती है। इस भेदभाव का कारण क्या है? वही, एक में शब्दों का व्यर्थ आडम्बर और दूसरी में भावों की स्वच्छता तथा वर्णन की उपयुक्तता। वे 'चटकीले मटकीले' शब्द लाख करने पर भी हमारे हृदय पर अधिकार नहीं जमा सकते, निकल कर हवा में मिल जाना ही उनके कार्य का शेष होता है। क्योंकि सृष्टि के नियमानुसार स्ववर्गीय पदार्थ ही एक दूसरे में लीन होने को झुकते हैं, जल ही जल की ओर जाता है, इसी प्रकार चित्त की उपज ही चित्त में धंसती है।
प्रत्येक साहित्य के अर्थालंकार में, प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष, उपमा का प्रयोग बहुत अधिक होता है क्योंकि भौतिक पदार्थों के व्यापार, विस्तार, रूप, रंग तथा मानसिक अवस्थाओं की स्थिति, क्रम, विभेद आदि का सम्यक् ज्ञान उत्पन्न करने के लिए बिना उसके काम नहीं चल सकता। जन्म से लेकर मनुष्य का सारा ज्ञान सृष्टि के पदार्थों के मिलान वा अन्वय व्यतिरेक से उत्पन्न है। शिशु का ज्ञान संचय इसी क्रिया से आरम्भ होता है1 धरती पर गिरते ही वह वस्तुओं के सादृश्य और विभेद को परखने में लग जाता है। उपमा का प्रयोग जान वा अनजान में हम हर घड़ी किया करते हैं। छोटे छोटे विचारों को व्यक्त करने में भी हम बिना उसका सहारा लिए नहीं रह सकते। यहाँ तक कि हमारे सब अगोचर पदार्थवाची शब्द आरम्भ में इसी (उपमा) की क्रिया से बने हैं। यह भाषा की बनावट के इतिहास से प्रमाणित है। जब शब्दों का यह हाल है तब फिर इस प्रकार की अभौतिक भावनाओं का क्या कहना है उनका अनुभव तो हम पार्थिव पदार्थों ही के गुण और व्यापार के अनुसार करते हैं अर्थात् भौतिक वस्तुओं के गुण और धर्म को अभौतिक वस्तुओं में स्थापित करके ही हम आध्यातत्मिक विषयों की मीमांसा करते हैं। साधारण दृष्टान्त लीजिए 'दया ने प्रतिकार की इच्छा को दबा दिया।' उसके प्रेम से परिपूर्ण हृदय में प्रिय के दुर्गुणों के विचार की जगह न रही।2 पहिले में भौतिक पदार्थों के गुरुत्व और अपने से हलके पदार्थों को दबा कर उभड़ने से रोकने की क्रिया का आभास है; इसी प्रकार दूसरे में पदार्थों के स्थान छेंकने का धर्म स्थापित किया गया है। बात यह है कि इन नियमों से पार्थिव और आध्या्त्मिक दोनों सृष्टियाँ समान रूप से बद्धा हैं।
उपमा का कार्य सादृश्य दिखलाकर भावना को तीव्र करना है। जिस वस्तु के लिए हम कोई शब्द नहीं जानते उसका बोध हम उपमा के ही द्वारा करा सकते हैं, जैसे जो मनुष्य हारमोनियम का नाम नहीं जानता वह उसकी चर्चा करते समय यही कहेगा कि वह सन्दूक के समान एक बाजा है। यदि किसी वस्तु का विस्तार इतना बड़ा है कि हम उसे निर्दिष्ट शब्दों में नहीं बतला सकते तो हम चटपट उतने ही वा उससे बहुत अधिक विस्तृत किसी अन्य पदार्थ की ओर इंगित करते हैं, जैसे'हरियाली चारों ओर समुद्र के समान लहराती देख पड़ी।' 'ज्वालामुखी से भाप और राख उठकर बादल के समान आकाश में छा गई।' हम यह न देखने जायँगे कि समुद्र का विस्तार हरियाली के फैलाव से नाप में न जाने कितने वर्ग मील बड़ा है। इसकी हमें कोई आवश्यकता नहीं। यह बात निरीक्षण के समय हमारी दृष्टि की पहुँच के बाहर की है अत: जब तक हम विवेचन शक्ति का सहारा न
1. देखिए Lock's Essay on the Human Understanding.
2. Brown's philosphy of the Human mind.
लें यह हमारी प्राप्त भावनाओं में अन्तर नहीं डाल सकती। निरीक्षण के समय हमारी दृष्टि की पहुँच के भीतर इन दोनों (हरियाली और समुद्र) का अन्त नहीं होता यही इनमें समानता है। यदि किसी महाविशाल पिंड के आकार आदि का परिज्ञान कराना रहता है तो उसकी तुलना हम समान आकार वाले किसी छोटे पदार्थ से करते हैं, तदनन्तर उस छोटे पिंड में उस आकार के गुण धर्म को परख कर हम उनकी स्थापना बड़े पिण्ड में करते हैं, जैसे स्कूल में लड़कों से कहा जाता है कि लड़को! पृथ्वी नारंगी के समान गोल है, पर यह कोई नहीं कहता कि नारंगी पृथ्वी के समान गोल है, क्यों, क्योंकि ऐसी उपमा से हमारा कुछ काम नहीं निकलता। पदार्थों के व्यापार, गुण् और स्थिति को स्पष्ट करके उनका तीव्र अनुभव कराना उपमा का काम है और कुछ नहीं। अतएव एक ही वस्तु के लिए पचीसों उपमाओं का तार बाँध देना, उपमा कथन के हेतु ही किसी वस्तु को वर्णन करने बैठ जाना और उससे किसी अंश में समानता रखने वाले पदार्थों की सूची तैयार करना उचित नहीं है। जैसे प्रभातकालीन सूर्य मंडल को देख यही बकने लगना कि यह थाली के समान है। अथवा शोणित सागर में बहता हुआ स्वर्ण कलश है वा स्वर्गलोक की झलक दिखलाने वाली गोली खिड़की है किंवा होली की महफिल में रखे हुए लैम्प का ग्लोब है। वाणी का सदुपयोग नहीं कहा जा सकता। मेरा अभिप्राय यह है कि उपमा का प्रयोग आवश्यकतानुसार ही होता है, उसका अनावश्यक और अपरिमित प्रयोग प्रलाप है। पर हमारे हिन्दी कवि उपमा के पीछे ऐसा लट्ठ लेकर पड़े कि उन्होंने केवल उपमा ही के बहुत से कवित्ता और सवैये कह डाले, जैसे
भोजन ज्यों घृत बिनु, पंथ जैसे साथी बिनु,
हाथी बिनु दल जैसे दारू बिनु बान है।
राव जैसे रानी बिनु, कूप जैसे पानी बिनु,
कवि जैसे बानी बिनु, सुर बिनु तान है।
रंग जैसे केसर बिनु, मुख जैसे बेसर बिनु,
प्यारी बिनु रैनि ज्यों सुपारी बिनु पान है।
भूषण कवि का 'इन्द्र जिमि जृम्भ पर, बाड़व सुअंबु पर' वाला कवित्ता इसी श्रेणी का है। न जाने कैसे लोग ऐसे पद्यों को सुनते हैं और ऊबते नहीं।
अकेले वा पृथक रूप में उपमा इस योग्य नहीं कि उसे भरने के लिए हम एक प्रबन्ध वा पुस्तक लिख डालें। यही बात सब अलंकारों के लिए कही जा सकती है। किसी वस्तु को उसकी सीमा के बाहर घसीटना उसको उसके गुण से च्युत करना है। यह बात हमारी हिन्दी कविता में प्रत्यक्ष देखने में आती है। एक साधारण दृष्टान्त लीजिए। भौंरे प्राय: लोगों के पीछे लग जाते हैं। इस प्राकृतिक व्यापार से महाकवि कालिदास ने अपने 'अभिज्ञान शाकुन्तल' में शकुन्तला के मुख का लावण्य दिखलाने का काम लिया है, जैसे
शकुन्तला(ससंभ्रमम)अम्मो
सलिलसेअसंभमुग्गदोणोमालिअं
उज्झिअ वअणं मे महुअरो अहिबट्टइ।
(इति भ्रमरबाधां रूपयति)
बेचारे कालिदास ने तो पहिले प्रकृति के एक वास्तविक व्यापार का आरोप किया तब उस पर अपनी उक्ति ठहराई पर हमारी हिन्दी के एक अलंकार कला कुशल कवि अपनी नायिका का सर्वाक्ष्सौन्दर्य्य झलकाने के लिए बहुत से अप्राकृतिक व्यापार स्वयं गढ़ लेते हैं और होठों को बिम्ब आदि बनाकर यह विचित्र स्वाक्ष् खड़ा करतेहैं
आनन है अरविन्द न फूल्यो अलीगन भूले कहा मँड़रात हैं।
कीर कहा तोहि बाई चढ़ी, भ्रम बिम्ब के ओठन को ललचात हैं।
दास जू व्याली न, बेनी बनाइए, पापी कलापी कहा हरखात हैं।
बाजत बीन न, बोलति बाल कहा सिगरे मृग घेरत जात हैं॥
हमारी समझ में तो कीर को नहीं कविजी को बाई चढ़ी थी जो व्यर्थ इतना बक गए। हमने आज तक किसी नायिका को ऐसी आफत में फँसते नहीं देखाहै।
किसी नायिका भेद के भक्त ने अकेली नवोढ़ा ही का आदर्श दिखलाया है; किसी नखसिख निहारने वाले ने 'अलक' और 'तिल' ही पर शतक बाँध है। आप ही कहिए कि इतने संकुचित स्थान में भीतरी और बाहरी सृष्टि के कितने अंश का व्यापार दिखलाया जा सकता है और पाठक का ध्याऔन बिना ऊबे हुए कब तक उसमें बद्धा रह सकता है।
धर्म वा व्यापार के पूर्णतया प्रत्यक्ष न होने के कारण जब किसी वस्तु की भावना धुधँली वा मन्द होती है तब उसको तीक्ष्ण और चटकीली करने के लिए समान धर्म और गुणवाले अन्य अधिक परिचित पदार्थों को हम आगे रखते हैं। किन्तु काव्य की उपमा में एक और बात का विचार भी रखना होता हैवह यह कि सादृश्य दिखलाने के लिए जो पदार्थ उपस्थित किए जायँ वे प्राकृतिक और मनोहर हों, कृत्रिम और क्षुद्र नहीं, जिससे ज्ञान दान के अर्थ जो रूप उपस्थित किए जायँ वे रुचिकर होने के कारण कल्पना में कुछ देर टिकें और हमारे मनोवेगों (Sentiments) को उभाड़ें जो हमें चंचल करके कार्य में प्रवृत्त करते हैं। उपमान और उपमेय में जितनी ही अधिक बातों में समानता होगी उतनी ही उपमा उत्कृष्ट कही जायगी।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जनवरी, 1912)