भाषा में भूसा, सरगम में शोर / श्याम बिहारी श्यामल

Gadya Kosh से
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अंधेरी में राह चलते कबीर पर सामने अपार्टमेंट के झरोखे से एक अर्द्धफिल्मी जीव की नजर पड़ गयी। पहले तो उसने अचकचाकर ताका, फिर आर्किमीडिज-टाइप रोमांच से भर मस्त-मगन हो खुशी से चीख पड़ा। कबीर ने घूमकर दृष्टि दौड़ायी तो उसने वहीं से हाथ जोड़ रुकने का आक्रामक अनुरोध किया।

देखते ही देखते वह कूदता-फांदता सामने आ गया, “ माफ करना बाबा जी! आप सचमुच कोई फकीर हो और कहीं बाहर से आये हो या कोई आर्टिस्ट हो और किसी शूटिंग में जा रहे हो ? “ कबीर सहमे-सहमे चुपचाप उसे ताकते रहे। उसके चेहरे पर धारदार मुग्धता और बेचैन उल्लास के मिले-जुले भाव बवंडर की तरह मचल रहे थे, “...देखने में तो मुकम्मल एंटिक पीस लग रहे हो... एकदम शताब्दियों पहले के बनारसी संत कबीर साहेब की माफिक...! “

घबराहट से भरे कबीर दुविधा में भी पड़ गये- यह आदमी जिस स्पीड और मिजाज का दिख रहा है, ऐसे में तो इसे विश्‍वास दिलाना भी मुश्किल है कि मैं कौन हूं! लिहाजा उन्होंने स्वयं को सहज बनाते हुए बगैर कुछ बोले मुस्कुराकर काम चला लेना चाहा। टक-टक निहारता हिलता-डुलता हुआ वह नीचे से ऊपर तक बारीकी से निरखता जा रहा था। सिर पर कसी दुपल्ली टोपी, इसमें तिरछा खुंसा झर्-झर् हिलता मोरपंख। लटके हुए दायें हाथ में शिथिल पड़ा इकतारा। कमर में लिपटी घिसी-घिसायी रंगउड़ी लुंगी और शेष बदन धूल-गर्दभरा, उघार। वह बुदबुदाता हुआ कबीर के इस रूप को आंखों से ही जैसे वीडियोबद्ध करता रहा, “ ह्वाट ए किउट मेकअप एंड एक्सक्लुसिव गेस्चर-पोस्चर... मजा आ जायेगा... “

“तुम हो कौन ? क्यों मुझे राह चलते रोक लिया ? कुछ बोलोगे या इसी तरह लगातार बेमतलब अभिनय ही करते रहोगे ? “ कबीर झुंझला उठे।

“पहले तो आप मेरे सवालों के जवाब दीजिये... “

“सवाल नहीं, तुमने राह चलते मेरे सामने मुसीबतें खड़ी कर दी है... अब इस पर न अविश्‍वास करना न चौंकने-चिल्लाने का कोई अभिनय... मैं सचमुच काशी का कबीर ही हूं... मुम्बई में पहली बार आया हूं... सोचा था आहिस्ते घूम-घामकर निकल लूंगा, लेकिन तुमने रोक-टोंक दिया... झूठ मैंने आज तक कभी नहीं बोला है लिहाजा तुम्हें सच्चा परिचय भी दे डाला है... “ पता नहीं गुस्से में या क्यों, उन्होंने बोलते हुए अपनी आंखें मूंद ली थी। जब पलकें उठायी तो उसे सामने साष्‍टांग पड़ा हुआ पाया। सामने जुडे़ हुए हाथ निकाले वह पेट के बल जमीन पर बिछा हुआ था।

कबीर को दया आ गयी, “ अरे, बेटे! यह क्या... ! मैंने तो तुम्हें कुछ और समझ लिया था, तूं तो श्रद्धालु किस्म का व्यक्ति लग रहा है... “ उन्होंने उसे उठाकर खड़ा कर दिया।

उसकी आवाज कांप रही थी, “ सद्गुरु, मैंने तो सुना था कि आपकी बानी उल्टी होती थी, आज यह जानकर मन को गहरा धक्का पहुंचा कि आपकी सोच-समझदारी वगैरह भी ऐसी ही हैं... “ अब कबीर के अचकचाने की बारी थी। उसने आगे अर्ज किया, “ आप तुरंत यहां से लौट जाइये... अभी मुम्बई का मिजाज सुनामी उथल-पुथलों से भरा हुआ है... ऐसे में यदि फिल्मवालों को आप हाथ लग गये तो पता नहीं वे कमबख्त आपको कैसे-कैसे और क्या-क्या उल्टे-सीधे काम करने के लिए विवश बना दें... इसलिए सद्गुरु लौट जाइये... जहां से आये हैं वहीं तुरंत लौट जाइये... “

“मुझे विवश बना देगा कोई? वह भी उल्टे-सीधे किसी काम के लिए ? “

“हां सद्गुरु! हां! विवश तो ऐसा बना देंगे वेलोग कि आप खुद वही सब करने को बेताब हो जायेंगे जो वे आप से कराना चाह रहे होंगे... अब चूंकि आप महान संत और यह इकतारा-धारी महाकवि रहे हैं इसलिए यह हो सकता है वे आपसे नीति में नकार और भाषा में भूसा भरवाने का एक्सपेरीमेंट कराने लगें... “

“अरे, क्या फालतू बात कर रहे हो... ऐसा भला कोई क्‍यों कराना चाहेगा... “

“बाबा, आपने शायद गौर नहीं किया हो... यह सब वे अपने तईं करने में पहले से जुटे हुए भी हैं... इसीलिए तो मुझे डर है कि वे आपको पा जायेंगे तो इसे फाइनल टच दे देंगे और करोड़ों-अरबों पीटकर रख लेंगे... सोचिये जरा, आप जैसा कोई संत यदि अपने वास्तविक स्वरुप में परदे पर उल्टी-सीधी हरकत करता दिखने लगे तो क्या बॉक्स आफिस पर सोने की वर्षा नहीं होने लगेगी ? “

“अरे मेरे प्यारे बच्चे! तूं मुझे डरा मत! जो कहना है साफ-साफ बता... “

“सदगुरु, देखिये, क्या पैमाना है कि मुम्बई में आज जिगर की आग को बीड़ी जलाकर मापा-तौला जा रहा है... ससुर बेटे और बहू के साथ बेहिचक ठुमके पर ठुमका लगा रहा है... और इस तरह राम-कृष्‍ण और बुद्ध-गांधी के इस देश में उसे ही उसी मिलेनियम का महानायक घोषित किया जा रहा है जिसमें आप से लेकर तुलसी, रैदास, मीरा और अकबर, शाहजहां से लेकर गांधी-नेहरु, लोहिया-जयप्रकाश आदि न जाने कितने-कितने महापुरुषों की महान जीवन-यात्राएं इतिहास में बाजाप्ता चमचमा रही हैं... “

कबीर हक्का-बक्का थे। उसकी बानी जैसे मूसलधार बरस रही थी, “...ये फिल्म वाले लोगों का अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए कुछ भी कर सकते हैं... संगीत में ये कैसा कुकांड कर रहे हैं जरा गौर कीजिये... पहले जहां सुरीले स्वर की गहरी तलाश होती थी वहीं आज ये चुन-चुनकर ढेंचू-ढेंचू आवाज सामने ला रहे हैं... कभी कानों में पड़ जाये तो लगेगा कि धोबीघाट पहुंच गये हैं... कहां तो एक जमाने में वीणा और सितार से आत्मा के तार छू लिये जाते थे, आज ये कमबख्त ड्रम पीट-पीटकर श्रोता की खोपड़ी पर हथौड़े पर हथौड़ा बरसाकर रख दे रहे हैं... लंद में फंद और अलाय में बलाय ऐसा फेंट रहे हैं कि फिल्म का एक अदना नाम समझने में दिमाग चक्करघिन्नी होकर रह जा रहा है... सुनिये एक ऐसा ही ताजा नाम- जब वी मेट!... “

कबीर मुंह फाड़े टुकुर-टुकुर ताके जा रहे थे। उसने सवाल किया, “ जब वी मेट का मतलब समझे ? नहीं न! मैंने समझ लिया है, आपको बताता हूं... इसमें ‘जब’ हिन्दी का शब्द है और ‘वी मेट’ अंग्रेजी का पद यानि‍ ‘जब हम मिले’... “

“वाह भई! यह जानकर हम हिले! “

अचानक वह बेसाख्ता ठठा पड़ा, “ वाह, सद्गुरु! यह सुन हम खिले! बहुत सही कमेंट किया आपने! वैसे हिलाने के लिए तो इन फिल्मवालों ने भूसा भरकर भाषा और शोर ठूंस-ठूंसकर संगीत तक को जड़ से हिलाकर रख छोड़ा है... इनकी यह खासियत तो देखिये कि उटपटांग काम के प्रति वे ऐसा आकर्षण जगा दे रहे हैं कि लोग बेवकूफियां करने के लिए गिड़गिड़ाते हुए झोली फैलाकर चांस मांगते फिर रहे हैं... किसी को अपने कपड़े उतार-उतारकर फेंकने के लिए बस एक चांस चाहिए तो किसी को ढेंचू-ढकच रेंकने के लिए महज एक मौका! ...आलम तो यह है कि जो कुछ पहले लाठी-डंडे के बल पर कैदकर विवश बना जबरन कराया जाता था वही आज करने वाले और वालियों की कतारें 'एक मौका' के व्‍यग्र इंतजार में फुदक रही हैं...”

“ टुन्टुन्-टुन्...टुन्टुन्-टुन्... “ कबीर ने हाथ ऊपर उठा इकतारा टुनटुनाया, “...यह सब जानकर भी मुसीबत नहीं चूमना... ऐहि नगरिया में मुझे अब नहीं घूमना! ...जानलेवा है इस मायानगरी की फंतासी... लौट चलूं अब मैं अपनी काशी... टुन्टुन्-टुन् टुन्टुन्-टुन्...”