भाषा ही संसार का संस्कार और व्यवस्थापन है / जयप्रकाश मानस

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

डायरी;5 फरवरी, 2014

भाषा ही संसार का संस्कार और व्यवस्थापन है।

भाषा ही संसार का संस्कार और व्यवस्थापन है। भाषा की गहन शक्ति ही है, जो न केवल विचारों को आकार देती है, बल्कि मानव सभ्यता के संपूर्ण ताने-बाने को संरचित करती है। भाषा मात्र संवाद का माध्यम नहीं - संस्कृति का वह जीवंत धागा है, जो अतीत को वर्तमान से और वर्तमान को भविष्य से जोड़ता है। यह संसार के अनुभवों, संवेदनाओं और सपनों का वह कैनवास है, जिस पर मानव मन अपनी छवि उकेरता है।

शब्द केवल ध्वनियाँ नहीं, बल्कि एक गहरी संवेदनशीलता के वाहक़ हैं, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भों को संनादित करते हैं। भाषा को 'संस्कार' के रूप में देखना एक गहरे दृष्टिकोण पर विश्वास करना है। संस्कार, अर्थात् वह शुद्धीकरण और परिष्करण, जो व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाता है। भाषा के माध्यम से ही हम अपनी पहचान, मूल्यों और विश्वासों को परिभाषित करते हैं। यह वह प्रक्रिया है, जो अराजकता को व्यवस्था में बदलती है, जैसा कि टी.एस. एलियट ने अपनी कविता Four Quartets में कहा, "Words strain, / Crack and sometimes break, under the burden…" – शब्द दबाव में तनते हैं, टूटते हैं, परंतु उसी टूटन में अर्थ की नई संभावनाएँ जन्म लेती हैं।

भाषा का 'व्यवस्थापन' केवल संरचना या नियमों तक सीमित नहीं है। यह मानव चेतना का वह अनुशासन है, जो विचारों को तार्किकता और संवेदना के बीच संतुलन प्रदान करता है। रिल्के ने अपनी कविता में भाषा को एक ऐसी शक्ति माना, जो "अदृश्य को दृश्यमान बनाती है।" भाषा के बिना संसार एक अव्यवस्थित शून्य में परिवर्तित हो जाता, जहाँ न संवेदना का आदान-प्रदान संभव होता, न ही सभ्यता का विकास। यह भाषा ही है, जो हमें मीर के इस शे’र की तरह आत्म-चिंतन की ओर ले जाती है:

"मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो, उनने तो

कश्का खींचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया।"

यहाँ भाषा न केवल व्यक्तिगत आस्था को व्यक्त करती है; बल्कि सामाजिक सीमाओं को तोड़कर एक व्यापक मानवीय संवेदना का निर्माण करती है - भाषा की साधारणता में उसकी असाधारण शक्ति को रेखांकित करती है। भाषा वह उपकरण है, जो हमें सामाजिक अन्याय, दमन और विसंगतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की शक्ति देता है। पाब्लो नेरूदा ने कहा है - "कविता एक विद्रोह है।" और यह विद्रोह भाषा के बिना संभव नहीं। भाषा वह हथियार है, जो न केवल क्रांति को जन्म देती है, बल्कि उसे व्यवस्थित भी करती है। अधिनियमित करती चलती है।

भाषा केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि वह जीवंत प्राण है, जो संसार को संस्कारित और व्यवस्थित करता है। यह वह सेतु है, जो मानव मन को विश्व की आत्मा से जोड़ता है। भाषा ही हमें उस अनंत संभावना की ओर ले जाती है, जहाँ शब्द न केवल संसार को समझाते हैं, बल्कि उसे पुनर्सृजित भी करते हैं।

-0-