भिक्षावृत्ति का आधुनिकीकरण / गिरिराजशरण अग्रवाल
अभी सूरज ने पूरब के आवरण से अपना चेहरा पूरी तरह बाहर निकाला भी नहीं था कि टेलीफ़ोन की घंटी बज उठी। हम जो अभी रजाई में लिपटे-लिपटाए दिसम्बर के अंतिम सप्ताह की सर्दी का आनंद ले रहे थे, झुँझला ही तो उठे। क्रोध भाव में सोचा किस कमबख़्त ने आज सुबह-ही-सुबह हमारा मूड ख़राब करने की ठानी है और जहाँ तक हमारा सवाल है, हम ईमानदारी से यह समझते हैं कि दुनिया की क़ीमती-से-क़ीमती चीज़ चाहे जितनी ख़राब हो जाए, पर आदमी के मूड को ख़राब नहीं होना चाहिए, क्योंकि मूड के ख़राब होते ही सारे-का-सारा वातावरण ख़राब हो जाता है और ऐसा ख़राब कि कुछ पूछो मत।
टेलीफ़ोन की घंटी टनटनाती ही रही तो हम अपने शरीर से लिपटी हुई रजाई को इस तरह उतारकर एक तरफ़ फेंकते हुए बैड से नीचे उतरे, जिस तरह साँप अपनी केंचुली उतारकर फेंक देता है।
रिसीवर उठाकर कान से लगाया तो उस तरफ़ से आवाज़ आई, 'आप 287185 से बोल रहे हैं ना!'
'हाँ जी! बोल तो रहे हैं।' हमने उत्तर दिया, फरमाइए! आप किससे बात करना चाहते हैं? '
उत्तर मिला, 'आपसे 287185 से।'
अब हमें शरारत सूझी। बोले, 'इस नंबर पर तो कई सारे लोग हुआ करते हैं। आप नाम लेकर बताइए, आपको किससे बात करनी है?'
जवाब आया, 'बच्चा लोग को छोड़कर जो भी हो, खाने-खिलानेवाला, देने दिलानेवाला।'
हम टेलीफ़ोन करनेवाले के ये शब्द सुनकर-चक्कर में पड़ गए. खाने-खिलानेवाला, देने दिलानेवाला। 'हमने इन शब्दों को दोहराते हुए पूछा,' इससे तुम्हारा क्या अभिप्राय है, तुम कौन हो?
'हम हैं 555003.' जवाब सुनकर हमारा बिगड़ा हुआ मूड और ज़्यादा बिगड़ गया। ज़रा तुनककर बोले, 'हम आपका नंबर मालूम नहीं कर रहे हैं श्रीमान जी, नाम मालूम कर रहे हैं।'
'नाम तो उस सर्वशक्तिमान का होता है महाराज! हमारा-आपका क्या नाम! आज मरे कल दूसरा दिन। अलख निरंजन अलख निरंजन।'
हम टेलीफ़ोनकर्त्ता की बात सुनकर और ज़्यादा चक्कर में पड़ गए. सोचा, बात को उलझाए जा रहा है पट्ठा, नाम नहीं बताता, काम नहीं बताता, अजीब घनचक्कर आदमी है।
' अच्छा भई नाम नहीं बताते, काम तो बताओ. किस काम से टेलीफ़ोन कर रहे हो, सुबह-ही-सुबह।
'कुछ दान-पुण्य तो करते होंगे महाराज आप?' उधर से आवाज़ आई. हमने कुछ न समझते हुए ऑटोमेटिक प्रणाली से उत्तर दिया-'क्यों नहीं करते, अवश्य करते हैं, पिछले ही दिनों हरिद्वार से लौटे हैं, जी खोलकर दान-दक्षिणा दे आए.'
'बुरा न मानें महाराज!' टेलीफ़ोनकर्त्ता ने उत्तर दिया, 'आपने तो वही कहावत सिद्ध कर दी, घर आया नाग न पूजिए, बॉबी पूजन जाए. आप तो काफ़ी दकियानूसी आदमी मालूम पड़ते हो जी.'
दकियानूसी शब्द सुनकर हमें लगा, जैसे हमारा अपमान किया जा रहा हो। पूछा, 'तो आपकी राय में हमें क्या करना चाहिए था, हरिद्वार नहीं जाना चाहिए था क्या?'
आवाज़ आई, 'हरिद्वार जाने की कोई ज़रूरत नहीं थी। जो दान-दक्षिणा देनी थी, भेज देते टि्रपिल फाइव ज़ीरो-ज़ीरो थ्री पर।'
'यानी आपके टेलीफ़ोन नंबर पर?' हमने चौंककर पूछा।
उत्तर मिला, 'हाँ जी.'
'हाँ जी.' शब्द सुनकर हम और ज़्यादा अचरज में डूब गए. साहस करके पूछा, 'मगर यह तो बताइए आप हैं कौन?'
बोले, 'हम हैं भिखारी, भिक्षु, बिलकुल असली, ख़ानदानी, बल्कि पुश्तैनी।'
हमने विश्वास न करते हुए थोड़ा झिझककर पूछा, 'आप भिखारी हैं तो यह टेलीफ़ोन?'
अभी हमारा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि उधर से जवाब मिला, 'अरे भाई, जब मदारी, अधिकारी, खिलाड़ी ये सब टेलीफ़ोन रख सकते हैं, तो भिखारी लोग क्यों नहीं रख सकते?'
बात पते की थी। हमें इसकी काट में कोई और बात नहीं सूझी। महज बात में बात जोड़ने के लिए हमने कहा, 'पर भिखारी लोग तो द्वार-द्वार जाकर ही भीख माँगा करते हैं महाराज! दानदाता के द्वार पर जाएँगे, एक हाथ में कमंडल होगा, एक हाथ में चिमटा कड़ा। चिमटा कड़ा बजाते हुए हाँक लगाएँगे, अलख निरंजन, जय शंकर भगवान की, ऐसे में दान देनेवाले को भी मज़ा आएगा और लेनेवाले को भी।'
'किस युग की बात कर रहे हो महाराज!' टेलीफ़ोन ने हमारी परंपरावादी सोच पर चोट करते हुए कहा, 'हमें लगता है पिछली शताब्दी के जंगल से निकलकर आए हो, अभी-अभी। अरे भाई, अब दुनिया बदल गई है, अब भिखारी लोग द्वार-द्वार भटककर अपना समय बर्बाद नहीं करते हैं।'
'समय बर्बाद नहीं करते हैं तो क्या करते हैं?' हमने जिज्ञासापूर्वक जानने का प्रयास किया। उत्तर मिला, 'हम दानदाताओं से निवेदन करते हैं कि आप दान की धनराशि अथवा सामग्री अमुक टेलीफ़ोन नंबर पर भेज दें।'
'भेज दें?' आश्चर्य में डूबे ये दो शब्द हमारे अधरों से निकले। उधर से आवाज़ आई, 'बिलकुल। उदाहरण के लिए आप हमीं को लें। हम बोल रहे हैं, फ़्लैट नंबर तीन सौ छत्तीस, साधू लेन वैस्ट से। आप कृपया दान की धनराशि उक्त फ़्लैट नंबर पर अपने सर्वेंट से भिजवा दें।'
'सर्वेंट के हाथ?' हमने और ज़्यादा आश्चर्य से पूछा। । 'हाँ-हाँ! पुण्य के काम में आपका नौकर भी भागीदार हो जाए तो क्या बुराई है इसमें?'
'पर अपना नाम तो बताए भिक्षु महाराज।' हमने संतोषजनक परिचय लेना चाहा टेलीफ़ोनकर्त्ता का।
'फिर वही नाम की रट लगाई आपने?' टेलीफ़ोनकर्त्ता ने लगभग डाँटते हुए हमसे कहा, 'जब आपके द्वार पर कोई भिखारी आता है तो क्या उसका नाम पूछते हैं आप?'
हमने उत्तर दिया, 'जी नहीं, कभी नहीं पूछते, जल्दी-से-जल्दी भिक्षा देकर चलता करना चाहते हैं उसे। पर टेलीफ़ोन पर भीख माँगनेवाले किसी भिक्षु से यह हमारी पहली भेंट है, इसलिए थोड़ा गड़बड़ा गए हैं।'
'कोई बात नहीं, कोई बात नहीं।' भिक्षु महाराज उधर से बोले, 'हम आपको बताते हैं कि भीख लेने-देने के लिए टेलीफ़ोन सिस्टम सबसे उत्तम व्यवस्था है।'
हमने पूछा, 'वह कैसे?'
बोले, 'वह कहावत तो आपने सुनी ही होगी महाराज, जिसमें महाज्ञानियों ने कहा है-गुप्तदान महादान! तो श्रीमान जी, यह बात तो आप मानेंगे ही कि टेलीफ़ोन से ज़्यादा दान को गुप्त रखने का कोई और तरीक़ा नहीं हो सकता है, इस आधुनिक युग में। न देनेवाले को पता कि वह दान किसको दे रहा है, न लेनेवाले को पता कि दान का धन किस व्यक्ति की ओर से आया। आपका सर्वेंट आएगा और अमुक नंबर के फ्लैट के मुख्य द्वार पर लगी दान-पेटिका में आपके दान की धनराशि डालकर चला जाएगा। क़िस्सा ख़त्म, अलख निरंजन। अलख निरंजन।'
टेलीफ़ोन वाले भिक्षु ने सुबह-ही-सुबह भीख लेने-देने की इस नई तकनीक की पूरी जानकारी देते हुए हमें बताया, 'दानदाताओं की इच्छानुसार हम उन्हें कई और प्रकार की सुविधाएँ भी प्राप्त करा रहे हैं।'
'जैसे क्या-क्या?' हमने अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए भिक्षु महाराज से पूछा।
उत्तर में आवाज़ आई, 'उदाहरण के लिए यदि आप अपने दान की धनराशि हमें नहीं देना चाहते, किसी और स्थान के मंदिर को भेजना चाहते हैं तो पूरा नाम-पता लिखकर धनराशि हमारे ऊपर बताए गए पते पर भेज दें। हम बहुत मामूली कमीशन काटकर आपकी धनराशि कूरियर सर्विस से आपके मनचाहे स्थान पर भेज देंगे।' इतना कहकर भिक्षु महाराज ने अपनी बात और आगे बढ़ाई. बोले, ' यह तो आप जानते ही हैं कि आज के व्यस्ततम मशीनी युग में किसी के पास इतना समय नहीं रहा है कि वह पुण्यलाभ कमाने के लिए इधर-उधर भागा-पि रे, हमने आप जैसे दयालु सज्जनों की सुविधा के लिए अत्यंत साधारण से कमीशन पर आपका दान आपकी इच्छानुसार विभिन्न स्थानों पर कूरियर सर्विस से भेजने की व्यवस्था की है। आप हमारी सेवाओं से लाभ उठाएँ।
टेलीफ़ोनकर्त्ता की बातचीत से हमें अंदाज़ा हो गया कि दुनिया सचमुच इलैक्ट्रोनिक एज में पूरी तरह प्रवेश कर चुकी है। भिक्षा-व्यवसाय का भी आधुनिकीकरण हो गया है। अब तक तो बड़े व्यापारी और सट्टेवाले ही टेलीफ़ोन पर करोड़ों का माल इधर-से-उधर करते आए थे, अब टेलीफ़ोन के माध्यम से भिक्षा का भी आदान-प्रदान होने लगा।
एक क्षण चुप रहने के बाद टेलीफ़ोनकर्त्ता ने फिर कहा, 'तो श्रीमान् जी! आपकी सेवा में निवेदन है कि आप अपने दान की धनराशि अपने हाउस सर्वेंट के हाथ वैस्ट साधू लेन स्थित हमारे फ़्लैट पर भेज दें और यदि आप कोई अन्य धनराशि किसी और व्यक्ति अथवा स्थान पर भेजने के इच्छुक हों तो उसका नाम-पता भी लिख कर भेजें। कमीशन काटकर अर्जेंट सर्विस द्वारा भेज दी जाएगी। ईमानदारी और गोपनीयता दोनों की गारंटी.'
हमने पूरी बात ध्यानपूर्वक सुनकर टेलीफ़ोनकर्त्ता से कहा, 'खुला दान देकर लोगों के जिस अहंकार की संतुष्टि होती है, वह इस आधुनिक टेलीफ़ोन-व्यवस्था से नहीं होगी। यह बात तो ठीक है पर वह दान-दान नहीं होता, उसका कोई पुण्य भी नहीं होता। टेलीफ़ोन से आवाज़ आई,' सचमुच पुण्य कमाना है और गुप्त दान महादान के सिद्धांत पर अमल करना है तो हमारी टेलीफ़ोन सुविधा से लाभ उठाएँ, पुण्य भी मिलेगा और सुविधा भी होगी। '
'ठीक है, ठीक है, हमने पिंड छुड़ाने के लिए उत्तर दिया और विषय बदलते हुए पूछा,' यह तो बताइए महाराज! आपको हमारे ही टेलीफ़ोन नंबर पर काल करने की क्या सूझी है और वह भी सुबह-ही-सुबह? '
'बात यह है जी,' उधर से भिक्षु महाराज बोले, ' हमने टेलीफ़ोन डायरेक्टरी से नगर के सारे प्रतिष्ठित उद्योगपतियों, व्यावसायियों के पते नोट कर लिए हैं। इस काम पर तैनात किया गया लिपिक सुबह सूरज निकलने से पहले ही अपनी ड्यूटी पर आ जाता है और नंबरवार एक-एक को टेलीफ़ोन करके उसे दान देने के लिए प्रेरित करता है। वह उद्योगपतियों-व्यावसायियों को बताता है कि धंधा शुरू करने पूर्व दान की धनराशि निकाल देनी चाहिए. इससे उनका कारोबार फले-फूलेगा और दिन दूनी रात चोगुनी तरक़्क़ी होगी।
'लेकिन आज तो आप स्वयं टेलीफ़ोन कर रहे हैं महाराज।' हमने पूछा।
'हाँ! मजबूरी आ पड़ी है।' उधर से आवाज़ आई, 'आज लिपिक महोदय को हलका-सा जुकाम हो गया है। इस कारण वह छुट्टी पर चले गए हैं, इसलिए हमें स्वयं टेलीफ़ोन करने पर विवश होना पड़ गया है।'
'पर यह हलका-सा जुकाम कोई ऐसी बीमारी तो नहीं है जी, जिसमें छुट्टी लेने की विवशता आ पड़े।' हमने छुट्टी के इस अनुचित कारण पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा।
'जुकाम, छुट्टी का उचित कारण आप लोगों के लिए नहीं है महाराज।' हमारी बात का उत्तर देते हुए भिक्षु महाराज बोले, 'पर भिक्षा व्यावसाय से जुड़े व्यक्तियों के लिए तो है ही।'
बात हमारी समझ में आ गई. पूछा, 'टेलीफ़ोन द्वारा भिक्षा वसूल करने के काम में कुछ सफलता भी मिल रही है आपको?'
उत्तर मिला, 'सफलता मिल रही है पर तनिक धीमी गति से। दानदाता अपनी पुरानी मानसिकता धीरे-धीरे ही छोड़ेंगे। भिखारी को सामने देखकर उनके अहम् को जो संतोष मिलता है, उसके नशे से मुक्त नहीं होना चाहते हैं, ये दानदाता; पर धीरे-धीरे बात उनकी समझ में आ रही है। हम उन्हें समझा रहे हैं कि दान को महादान बनाओ और महादान बनाने के लिए उसे पूर्णतया गुप्त रखो और गुप्त रखने के लिए जो व्यवस्था हमने की है उससे उत्तम व्यवस्था कोई और हो नहीं सकती।'
'आप मखौल तो नहीं कर रहे हैं हमसे?' इस बातचीत पर विश्वास न करते हुए हमने भिक्षु महाराज से पूछा।
'मखौल की इसमें क्या बात है जी?' भिक्षु महाराज ने उत्तर दिया, 'दान-दक्षिणा का आधुनिकीकरण नहीं हो सकता है क्या?'
हमने उत्तर दिया, 'अवश्य हो सकता है। यदि ऐसा है तो आप अपने किसी व्यक्ति को क्यों नहीं भेज देते दान लेने के लिए.'
जबाव में एक व्यंग्य-भरा ठहाका सुनने को मिला हमें। बोले भिक्षु महाराज, 'फिर तो बात वही की वही रही, हम आएँ या हमारा आदमी, आमना-सामना तो होगा ही ना और जब आमना-सामना होगा तो दान गुप्तदान नहीं रहेगा और जब गुप्तदान नहीं रहेगा तो महादान भी नहीं रहेगा, दान को सार्थक करने के लिए यह ज़रूरी है कि आप अपने हाउस सर्वेंट के द्वारा अपने दान की धनराशि वैस्ट साधु लेन में हमारे फ्लैट में पहुँचा दें।'
'मगर भिक्षु महाराज आप तो ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, जैसी अपहरणकर्त्ता फिरौती लेने के लिए प्रयोग करते हैं।' हमने खीजकर टेलीफ़ोनकर्ता से पूछा।
आवाज़ आई, 'गिड़गिड़ाने के दिन लद गए भिखारियों के. आप दान देकर एहसान तो नहीं करते। पुण्य कमाते हैं ना, पुण्य आप कमाएँ और हाथ हम जोड़ें, यह कैसे हो सकता है भला!' एक क्षण चुप रहकर वही आवाज़ फिर आई, ' हमारे पास ज़्यादा समय नहीं है महाराज! कई और दानदाताओं को भी टेलीफ़ोन करना है अभी। आप तुरंत दान की धनराशि साधु लेनवाले हमारे पते पर भेज दें। यह कहते हुए भिक्षु महाराज ने टेलीफ़ोन बंद कर दिया।
हम चक्कर में पड़ गए. क्या करें क्या न करें। सोचा पिंड छुड़ाए लेते हैं दान भेजकर, भगवान जाने कौन है वह व्यक्ति। कहीं भिक्षु के वेश में कोई छिपा रुस्तम न हो।