भिखारिन बुढ़िया / रूपम झा
दफ्तर जाने के रास्ते में ही तो बैठी रहती है वह बुढ़िया। सड़क के किनारे एक दुकान की दीवार से चिपक कर। हमेशा बड़बड़ती। आते-जाते मेरी नजर उस पर पड़ती रहती थी। बड़ी अजीब-सी थी वह। कभी-कभी अकेले में दीवारों से बतियाती। कभी हंसती-मुस्कुराती और अटपटे स्वर में कुछ गाती। दुबला-पतला शरीर। बढ़े हुए नाखून। कौवे के घोंसले की तरह उजड़े-उजड़े बाल। बड़ी डरावनी-सी थी बुढ़िया। बरसों आते जाते मुझे देखकर वह पहचान गई थी मुझे। मेरी नजर जब भी उस पर पड़ती वह मुस्कुरा देती। कभी जब किसी कारण से मैं देर से उधर से आती तो वह पूछ बैठती-आज घर जाने में देर हो गई? मैं जवाब में हूँ कहते हुए आगे बढ़ जाती थी। उस जगह को वह इतना अपना चुकी थी जैसे वही उसका अपना आंगन हो। वहीं खाना, वहीं सोना, वहीं रहना। एक दिन अचानक घर लौटते वक्त मैंने उसे वहाँ नहीं देखा। मेरे मन में एक सवाल उठा। कहाँ गई होगी बुढिया। आज यहाँ नहीं है वह। बार-बार मेरे मन में आती रही यही बात। कल फिर दफ्तर जाते वक्त मुझे वह वही दिखी। मेरे चेहरे पर एक छोटी-सी मुस्कान आई। मुझे उस पर दया आ गई. मैंने उसे गौर से देखा वह बीमार लगी। मैं अपने पर्स में हाथ देते हुए खुदरे पैसे देखने लगी तो 10 का एक सिक्का था। मैंने उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा रख लो। वह मेरी ओर देखते हुए बोली क्या है मैम साहब। मैंने कहा दस रुपये हैं। रख लो। वह मेरी ओर शांत भाव से देखने लगी और बोली-मैं रुपया लेकर क्या करुँगी? मुझे तो रोटी चाहिए, वह हो तो दीजिये।