भिखारी / विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
सरकारी दफ्तर में अपना काम निपटा, मैं जल्दी-जल्दी स्टेशन आया। गाड़ी एक घंटे बिलम्ब से आ रही थी। मैंने घर से लाये पराठें निकाले और खाने लगा। तभी एक भिखारी जो हड्डियों का ढांचा मात्र था मेरे पास आकर, हाथ फैला कर चुपचाप खड़ा हो गया। भिखारी के एक हाथ में पहले से ही मांगी गई, रोटियों से भरी एक बड़ी पालिथिन की थैली मौजूद थी। एक बार तो मुझे लगा कि इसने इतनी रोटियाँ मांग रखी है फिर ये, अब क्यों मांग रहा है? मैंने बेमन भिखारी को एक परांठा दे दिया। वह फिर सामने खाना खा रहे एक दम्पति के पास जाकर खड़ा हो गया। दम्पति ने उसे कहा-"यहाँ आके क्यों खड़े हुए हो, खाना खाने दो, आ जाते हैं ना जाने कहाँ-कहां से" वह भिखारी फिर, किसी तीसरे के पास जाके खड़ा हो गया भीख माँगने, इस बीच मेरा खाना पूरा हुआ मैं स्टेशन के बाहर प्याऊ पर ठण्डा पानी पीने गया तो मैं क्या देखता हूँ कि वही भिखारी कुत्तों, सुअरों को मांगी हुई रोटियां समभाव से खिला रहा है और वे सभी जानवर पूंछ हिला-हिला कर उस भिखारी के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं। इस दृश्य को देखकर कुछ देर के लिये तो मैं पानी पीना ही भूल गया फिर मैंने पानी पिया और वापस स्टेशन पर ट्रेन की प्रतिक्षा में आके बैठ गया। थोड़ी देर बाद वही भिखारी, मुझसे कुछ दूरी पर एक सवारी के पास खड़ा दिखाई दिया जो खाना खा रही थी ...