भीख / सेवा सदन प्रसाद
चर्चगेट स्टेशन पर लंबी 'क्यू' थी। लोग बस का इंतजार कर रहे थे। क्यू का मैं आखिरी व्यक्ति था। वैसे मुंबई में 'क्यू' को जल्द अंत नहीं होता है। अपनी व्यवस्तता की वजह से ही लोग 'क्यू' में खडे़-खड़े ही पेपर, मॅगजीन या नॉवल पढ़ने में लीन थे।
तभी एक भिखारी आया। हाथ में एक पीतल की छोटी-सी थाली थी और उसमें भगवान की मूर्ति। थोड़ा-सा सिन्दूर और चावल भी था। अगरबत्ती जला रखा था। वह लोगो से याचना करने लगा और लोग बड़ी श्रद्धा से रूपये, दो रूपये देने लगे। अंत में वह मेरे पास भी आया। मैने गौर से उसे देखा और थाली में रखी भगवान की मूर्ति को निहारा। इंसान की इस चतुराई पर भगवान भी हैरान दीखा। भिखारी मेरे समक्ष ढीठ की तरह खड़ा रहा। वह इस इंतजार में था कि कब मैं पर्स से पैसे निकालू।
मैं भी अपनी जिद पर कायम रहा। थोड़ी देर के बाद उस भिखारी से पूछा - 'तुम विकलांग तो नहीं हो फिर भी भीख क्यूँ मांगते हो - वह भी भगवान की मूर्ति लेकर।
भिखारी तब बेधड़क जवाब दिया - "साहब, बिना सिफारिश के कहीं भी नौकरी नहीं मिलती... मजदूरी के लिए भी पहचान एवं जमानत की ज़रूरत है। भीख भी यूँ ही नहीं मिलती। अगर भगवान की तस्वीर न हो तो मुझ असहाय पर कौन तरस खायेगा।?"
तब मैं सोचने लगा कि लोग भीख किसे दे रहे हैं - भिखारी को या भगवान को।