भीतर का आदमी / गोवर्धन यादव
दुनिया का सबसे जटिल और उबाऊ कोई काम हो सकता है तो वह है किसी का इन्तजार करना। इन्तजार करता आदमी ठीक उस सुप्त ज्वालामुखी की तरह होता है जिसके अन्दर विचारों का लावा दहकता रहता है, तरह-तरह की तरंगे-लहरें उठती रहती हैं और जब सहनशीलता कि सारी हदें पार हो जाती है तो अचानक फ़ट पड़ता है।
इन दिनों अमरकांत के मन के अन्दर इन्तजार का एक ज्वालामुखी अन्दर ही अन्दर सुलग रहा था। वह हैरान और परेशान है कि सुनीता अब तक क्यों नहीं लौटी, जबकि उसे आज दस बजे घर पहुँच जाना चाहिए था। इस समय दिन के ग्यारह बज रहे हैं। इन्तजार करते-करते उसकी आँखें पथराने लगी और मन के आंगन में शंका और कुशंकाओं के जहरीले नाग फ़न उठाए बिलाबिलाने लगे थे। जाने से पूर्व उसने कहा भी था कि एस.एम.टी. की बस से रवाना होगी, जो ठीक पौने दस बजे यहाँ पहुँच जाती है। कहीं ऎसा तो नहीं कि बस कैंसिल हो गई या फिर उसका टायर पंकचर हो गया। कुछ तो हुआ है, अन्यथा अब तक उसे आ ही जाना चाहिए था। अधीर होकर उसने फ़ोन घुमाया। वह जानना चाहता था कि उसे आने में विलम्ब क्यों हो रहा है अथवा उसका अभी लौट आने का मन नहीं हो रहा है? । फ़ोन की घंटी बज रही थी लगातार। फिर फ़ोन पर एक आवाज़ उभरती है "सब्सक्राइबर इज नॉट आन्सरिंग" । उसे आश्चर्य हुआ कि आख़िर वह फ़ोन क्यों नहीं उठा रही है। फ़ोन रिचार्ज होने लिए स्वीचबोर्ड पर टंगा है या फिर संभव है कि फ़ोन इस समय उसकी पहुँच के बाहर है, या फिर वह अपना पर्स ले जाना भूल गई? शायद इसलिए वह फ़ोन अटैण्ड नहीं कर पा रही होगी। उसने फिर से नम्बर मिलाया और इन्तजार करने लगा। इस बार भी वही रटा-रटाया जवाब सुनने को मिला। उसकी खीज बढ़ती जा रही थी। उसने अधीर होकर एस.एम.टी के संचालक संतु को फ़ोन लगाया और बस की लोकेशन जानना चाहा कि बस आई भी अथवा नहीं। फ़ोन पर एक स्वर गूंजा-"भाईसाहब...बस तो अपने निर्धारित समय पर कभी की आ चुकी। क्या कोई आने वाला था उससे?" । "हाँ भाई हाँ... मेरी पत्नी उस बस से आने वाली थी और वह अब तक घर नहीं पहुँची, बस उसी का इन्तजार कर रहा था" । "हो सकता है कि भाभीजी को बस-स्टैण्ड में आने में देर हो गई हो और बस जा चुकी हो। (उसने समझाते हुए कहा) हर पन्द्रह मिनट पर एक बस यहाँ के लिए रवाना होती है, हो सकता है कि वे किसी दूसरी बस से रवाना हो चुकी हों और थोड़ा इन्तजार कर लीजिए" । एक सांत्वना देने वाला स्वर गूंजा था उस तरफ़ से।
तभी उसने महसूस किया कि उसके अन्दर बैठा एक अजनबी आदमी उछ्लकर उसके सामने वाली कुर्सी में आकर धंस गया है। अमरकांत इस समय कपड़े बदलकर जुराब पहनने के लिए झुका हुआ था। उसे सामने देखकर उसने पूछा-" तुम यहाँ कैसे घुस आए, जबकि दरवाज़ा अन्दर से बंद है? अखिर तुम हो कौन, क्या नाम है तुम्हारा, कहाँ रहते हो और क्या चाहते हो मुझसे? । उसने एक साँस में कई प्रश्न उछाल दिए थे।
"मुझे यह जानकर आश्चर्य हो रहा है कि तुम मुझे नहीं जानते जबकि मैं तुम्हारा ही अश्क हूँ और तुम्हारे ही भीतर रहता हूँ। मुझे आने-जाने के लिए कोई रोक नहीं सकता। मैं कहीं से भी तुम्हारे सामने प्रकट हो सकता हूँ। मेरे भाई, सच मानो...मैं तुम्हारा सच्चा हमदर्द हूँ। तुम्हारे बारे में सब कुछ जानता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि तुम इस समय अपनी बीबी सुनीता का बेसब्री से इन्तजार कर रहे हो। ठीक कहा न मैंने" । उसने अपनी आँखों को गोल-गोल नचाते हुए कहा।
अमरकांत की इच्छा हुई कि उसका टेंटुआ पकड़कर दबा दे ताकि हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा पा जाए क्योंकि वह किसी कुशल जासूस की तरह पिछले माह से उसका पीछा करता आ रहा है और उसकी हर छॊटी-बड़ी बातों और हरकतों को जान जाता है। अपने गुस्से पर नियंत्रण करते हुए उसने अहिस्ता से कहा—"-बंद करो अपनी बकवास और यहाँ से उड़न-छू हो जाओ. वैसे ही मुझे आफ़िस जाने में विलंब हो गया है। मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं है कि मैं तुम्हारी बकवास सुनता रहूँ। समझे तुम" । इतना कहकर उसने ताला जड़ दिया। ऎसा करते हुए उसे प्रसन्नता हो रही थी कि उसने उसे भीतर बंद कर दिया है।
बाहर निकलकर उसने अपनी मोटरसाइकिल निकाली। इस समय घड़ी में दिन के साढ़े ग्यारह बज चुके थे, जबकि उसका आफ़िस ग्यारह बजे से शुरू होता है। उसने जेब से मोबाइल निकाला और तत्काल आफ़िस मैनेजर को फ़ोन लगाते कहा कि किसी आवश्यक कार्य के चलते उसे आफ़िस आने में विलंब हो गया है। वह ठीक बारह बजे से पहले आफ़िस पहुँच जाएगा और आधे दिन की कैजुअल-लीव के लिए आवेदन दे देगा।
उसकी मोटरसाइकिल आफ़िस की ओर बढ़ रही थी लगातार। तभी उसने महसूस किया कि वही अजनबी, लगभग हवा में तैरता हुआ उसके साथ चला आ रहा है। उसे देखकर उसका माथा ठनका। वह सोचने पर मजबूर हो गया कि जिसे मैंने ताले में बंद कर दिया था, बाहर कैसे निकल आया? । वह कुछ और सोच पाता कि उस अजनबी ने कहा-"दोस्त...बुरा मान गए? । इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात ही नहीं थी। मैं अब भी कह रहा हूँ कि इन्तजार-विन्तजार छॊड़ॊ। वह नहीं आने वाली। मैं तुमसे कब से आगाह कर रहा हूँ कि औरत जात पर विश्वास करना नीरी बेवकूफ़ी है। पिछली बार भी तो ऎसा ही हुआ था और इस बार भी वही हो रहा है।, लेकिन तुम हो कि उसे सती सावित्री समझे बैठे हो।"
वह सरासर उसकी बीबी पर लांछन मढ़ रहा था। सुनते ही उसके क्रोध का पारा चढ़ने लगा था। अब वह गुस्से में फ़ट पड़ा था। उसने लगभग चीखते हुए कहा-" बंद करो अपनी बकवास...तुम कौन होते हो मेरी बीबी पर लांछन मढ़ने वाले? ।
"फिर तुम नाराज हो गए. सच्ची बात कहना बुरा है क्या। फिर एक हमदर्द झूठ का सहारा भला क्यों कर लेगा? । वह कहकर गई थी कि तीन दिन बाद लौट आएगी...फ़िर क्यों नहीं लौटी? तुम बार-बार फ़ोन लगा रहे हो और फ़ोन का हरदम स्वीच ऑफ़ रहना, क्या इस बात का संकेत नहीं है कि उसे तुम्हारी कोई फ़िक्र नहीं है। फ़िक्र रही होती तो फ़ोन लगाती, बतियाती और अपने न आने का कारण भी बतलाती। न तो उसने तुम्हारा फ़ोन उठाया और न ही पलट कर फ़ोन लगाया। मतलब साफ़ है। उसे अपनी नाटक कम्पनी मिल गयी होगी और वह अपने किसी लवर की बाहों में महारानी बनी झूल रही होगी तभी तो..."
"मैंने कहा न! अपनी बकवास बंद करो और मेरा पीछा छोड़ॊ।"
"ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी. मेरा काम तो तुम्हें आगह करने का था, सो मैंने कर दिया। अच्छा तो अब मैं तुमसे बिदा लेता हूँ" । कहकर वह अदृष्य हो गया।
आफ़िस पहुँचकर उसने टेबल की ड्राज से कोरा काग़ज़ निकाला। दरखास्त लिखा और चेंबर में घुसते हुए उसने आफ़िस मैनेजर को दिया और अपनी सीट पर आकर जम गया।
अजनबी के द्वारा लगाए गए लाछंनो से उसका दिल छलनी-छलनी हो गया था। बार-बार उसकी नजरों के सामने सुनीता किसी अपराधी की तरह आकर खड़ी हो जाती। उसकी डबडबाई आँखें देखकर साफ़ जाहिर होता है कि वह अपराधी नहीं है। संभव है कि उसकी फ़ेमिली में कोई बीमार पड़ गया हो, यह भी तो संभव है कि वह ख़ुद बीमार पड़ गई हो। यह भी संभव है कि उसका फ़ोन चोरी चला गया हो। निश्चित ही कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा, जिसकी वज़ह से वह अपने आने अथवा न आने के कारण नहीं बतला पाई. तरह-तरह के विचार उसे उद्वेलित कर जाते। उसे इस बात का तनिक भी ध्यान नहीं रहा कि इस समय वह आफ़िस में बैठा है और उसे अपना काम निपटाना चाहिए.
आफ़िस मैनेजर ने प्यून भेजते हुए उसे तत्काल अपने कैबिन में हाज़िर होने की सूचना भिजवाई. "अभी आता हूँ" कहकर वह अपनी जगह बुत बना बैठा रहा। उसे आता न देख ख़ुद मैनेजर उसके चेंबर में जा पहुँचा। वह अपने ही बनाए हुए चक्रव्यूह में इतना अधिक उलझा हुआ था कि उसे पता ही नहीं चल पाया कि मैनेजर साहब ठीक उसके सामने वाली कुर्सी पर विराजमान है।
"क्यों क्या बात है मिस्टर अमरनाथ! जब काम करना ही नहीं था तो आफ़िस क्यों चले आए? । शकल-सूरत देखकर तो लगता है तुम आज मैंटली डिसटर्ब हो। घर जाओ और किसी डाक्टर से चेकअप करवाओ. जब तक तुम ठीक नहीं हो जाते, तुम्हें आफ़िस आने की ज़रूरत नहीं...समझे" डांटते हुए वह उसके केबिन से बाहर निकल गया।
उसका मन किसी काम से जुड़ नहीं पा रहा था। उसने जेब से सिगरेट के पैकेट में से एक सिगरेट निकाली और माचिस चमकाते हुए उसे सुलगाया। गहरे कश खिंचते हुए उसे कुछ राहत-सी महसूस हुई. यह उसकी पांचवीं सिगरेट थी। अब तक वह चार सिगरेट फ़ूंक चुका था। किसी तरह समय पास करते हुए वह पांच बजने का इन्तजार करने लगा। पांच बजते ही उसने अपना केबिन छोड़ा। मोटरसाईकिल निकाली और घर की ओर बढ़ चला।
रास्ता चलते हुए उसने अपनी रिस्टवाच पर नज़र डाली। शाम के छः बजे थे। अभी से घर जाकर क्या करेगा, इस सोच के चलते उसने अपनी मोटरसाईकिल का रुख पार्क की ओर मोड़ दिया। गाड़ी एक ओर रखते हुए वह पार्क के भीतर जाकर एक बेंच पर बैठ गया। अभी पार्क में ज़्यादा भीड़ नहीं थी। एक्का-दुक्का बच्चे घसरपट्टी पर खेल रहे थे। चारों तरफ़ हरियाली छाई हुई थी।चारों तरफ़ रंग-बिरंगे फ़ूल खिले हुए थे, जिन पर तितलियाँ मंडरा रही थी। शीतल हवा बह निकली थी। यहाँ आकर उसे कुछ राहत-सी महसूस हुई, बावजूद इसके अफ़सर की डाँट का असर अब तक कम नहीं हुआ था। मन अब भी कसैला था।
देर तक बैठे रहने के बाद उसने अपने घर की तरफ़ रुख किया। ताला खोला। घर में प्रवेश किया। अन्दर अन्धकार का साम्राज्य छाया हुआ था। उसने लाईट आन कर दिया। पल भर में रोशनी चारों तरफ़ फ़ैल गयी। जूतों को एक ओर उतारते हुए वह सीधे ड्राईंग रुम में जाकर एक कुर्सी में धंस गया। देखता क्या है कि वही अजनबी आदमी सामने वाली कुर्सी में बैठा हुआ उसे घूरते हुए मुस्कुरा रहा था। उसे देखते ही वह बमक गया था। "तुम यहाँ...बंद घर में आख़िर तुम घुसे कैसे...निकलो...निकलो...इसी समय तुम घर के बाहर निकल जाओ... जीना हराम कर रखा है तुमने मेरा...नहीं निकले तो मैं तुम्हारा गला घोंट दूगां...जान से मार डालूंगा... समझे" । देखते ही वह लगभग फ़ट-सा पड़ा था और वह बेशर्म अब भी मुस्कुरा रहा था।
"तुममें इतनी हिम्मत है तो मार डालो मुझे... मैं देखता हूँ तुम अपने ही वजूद को कैसे मार सकते हो...लो मैं सामने खड़ा होता हूँ...घोंट दो तुम मेरा गला और मार डालो मुझे...लेकिन एक बात याद रखना... मैं मर जाऊँगा लेकिन झूठ नहीं बोलूंगा। मेरी बात अब भी मान लो, वह नहीं आने वाली... नहीं आने वाली। तुम्हारी जरा-सी भी फ़िक्र होती तो अब तक आ गई होती... (कुछ देर बाद) । क्यों...गला घोंट देने के लिए तुम्हारे हाथ उठ क्यों नहीं रहे हैं जबकि मैं ठीक तुम्हारे सामने खड़ा हूँ...मैं जानता हूँ तुममे इतनी हिम्मत ही नहीं है कि तुम मेरा गला घोंट दो...अरे...जिसने एक चींटी तक नहीं मारी वह किसी इनसान को कैसे मार सकता है...बुजदिल कहीं के... चलता हूँ सुबह फिर मिलूंगा" इतना कहकर वह घर के बाहर निकल गया था।
उस आदमी के चले जाने के बाद उसने राहत की सांस ली।
दिन भर की माथपच्ची के चलते उसका मिज़ाज अब तक गर्माया हुआ था। सिर में भारीपन अब तक तारी था। उसने अपने कपड़ॆ उतारे। बाथरूम में जाकर शावर के नीचे जा खड़ा हुआ। शावर आन किया, शावर से शरीर पर पड़ने वाली शीतल बूंदें उसे अच्छी लग रही थी। देर तक उसके नीचे खड़े रहने के बाद अब वह तरोताजा महसूस करने लगा था।
नहाने के बाद उसे भूख लग आयी थी। आफ़िस जाने के पहले उसने सुनीता कि मनपसंद शिमलामिर्च की भरवां सब्जी, चार परत वाले पराठें, फ़्राई चांवल, दही और पापड तल कर रखे थे। उसे पक्का यक़ीन था कि वह दस बजे तक घर आ जाएगी, सो साथ बैठकर खाना खाएंगे। इन्तजार करते-करते ग्यारह बज चुके थे और उसके आफ़िस का टाईम भी हो चला था। भूख लगभग समाप्त-सी हो गई थी और वह सीधे आफ़िस चला गया था। सुबह का बनाया हुआ भोजन ठंडा पड़ चुका था। स्टोव्ह में उसने खाना गरम किया। खाने बैठा तो खाया नहीं गया। "परसी हुई थाली का अनादर नहीं करना चाहिए" , उसे माँ के शब्द याद आ गए. भारी मन से उसने किसी तरह दो पराठें हलक के नीचे उतारे और हाथ धो लिए.
खाना खाकर वह बिस्तर पर आकर पसर गया। बिस्तर पर आते ही सुनीता के साथ बिताए गए एक-एक पल जीवन्त हो उठे। शरीर में एक उत्तेजना-सी फ़ैलने लगी। सांसे फ़ूलने-सी लगी। आँखों में एक नशा-सा चढ़ने लगा था। खाली बिस्तर पाकर उसका सारा नशा पल भर में काफ़ूर हो गया। सब ओर से ध्यान हटाते हुए उसने बिस्तर पर ही पड़े-पड़ॆ टीव्ही। ऑन किया। बाबी फ़िल्म चल रही थी। अब वह उसमें मज़ा लेने लगा था। फ़िल्म देखते-देखते कब वह नींद की आगोश में चला गया, पता ही नहीं चल पाया।
सुबह सोकर उठा तो पूरा शरीर भारी-भारी-सा लगा, किसी तरह उसने बिस्तर छॊड़ा। फ़्रेश होकर नहाया, तब जाकर कुछ अच्छा-सा लगा। कुर्सी में धंसते हुए उसने फ़ोन उठाया। नम्बर डायल किया, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। फिर दूसरा एक विचार मन में आया कि सुनीता के पापा को फ़ोन लगाकर जानकारी ली जाए. "ऎसा करना उचित नहीं होगा" सोचते हुए फ़ोन रख दिया। अब उसने निर्णय ले लिया था कि वह सुनीता को लेकर ज़्यादा कुछ नहीं सोचेगा। उसे जब आना होगा तब आ आएगी।
बाहर खटर-पटर की आवाज़ सुनकर सहसा उसका ध्यान खिड़की पर गया। वह दूसरा आदमी कांच में से भीतर तांक-झांक कर रहा था। "शायद डर के चलते अब वह अन्दर आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा होगा" उसने सोचा और वह किसी और अन्य काम में मशगूल हो गया।
अचानक उसके फ़ोन की घंटी टनटना उठी। उसने यह सोचते हुए लपककर फ़ोन उठाया कि सुनीता का ही फ़ोन होगा। लेकिन दूसरी तरफ़ से आती आवाज़ किसी मर्द की थी। कुछ कहने से पहले उन्होंने अपना परिचय देते हुए बतलाया–"दामादजी... मैं दामोदर बोल रहा हूँ...मंजू का पिता। शायद आप मुझे नहीं जानते। जानेगें भी कैसे? आपका यहाँ आना काफ़ी कम ही रहा है न! इसलिए आपसे मेरा परिचय नहीं हो पाया। मंजू और सुनीता बचपन की सहेलियाँ हैं। आप यह समझ लें की दो जिस्म और एक जान है वे दोनों। जिस दिन सुनीता जाने की सोच रही थी, उसी दिन मंजू को डेलेवरी के लिए हास्पिटल में भरती किया गया। डाक्टर ने बतलाया कि बच्चा उसकी अंतड़ियों में फ़ंस गया है, अतः तत्काल आपरेशन करना होगा, सुनीता भी उसके साथ ही थी। खैर किसी तरह डिलेवरी हुई. पोता पैदा हुआ लेकिन मंजू की ब्लिडिंग नहीं रुक पा रही थी। उसकी जान खतरे में थी, उसे तत्काल नागपुर ले जाया गया। मैं ठहरा एक अपाहिज, चल-फ़िर नहीं सकता। घर में अन्य कोई मेंबर न होने के कारण सुनीता को उसके साथ जाना पड़ा। करीब सप्ताह भर उसे वहाँ रुकना पड़ा। इतना सुनने के बाद भी आपके मन में एक प्रश्न ज़रूर उठ खड़ा हो गया होगा कि सुनीता ने आपको फ़ोन क्यों नहीं लगाया? मैं भी आपको फ़ोन पर इस बाबत सूचना नहीं दे पाया। हालात ही कुछ ऎसे बन पड़े थे जिसका बयान मैं नहीं कर सकता। अगर सुनीता न होती तो शायद ही मेरी बेटी की जान बच पाती? बेटा...मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ...मुझे माफ़ कर दो। (अपनी व्यथा-कथा सुनाते हुए दामोदर जी फ़बक कर रो पड़े थे। उनके सिसकने की आवाज़ फ़ोन पर स्पष्ट रूप से आ रही थी) । बेटा...तुम्हें अकारण इतने दिनों तक कष्ट उठाना पड़ा, मुझे माफ़ कर दो। मेरा विश्वास है कि आप सुनीता को भी माफ़ कर देगें।"
"इतनी बड़ी घटना घट गई और आपने मुझे सूचित करना तक उचित नहीं समझा? काश मुझे इस बाबत सूचना मिल जाती तो मैं भी वहाँ चला आता...आपकी मदद करता...आपका सहायक ही सिद्ध होता"
"आपकी शिकायत उचित है बेटे, लेकिन हालात ही कुछ ऎसे बन पड़े थे कि हम सबकी सांसे थम-सी गई थी। ज़िन्दगी और मौत के बीच झुलती मेरी बच्ची यदि आज जीवित है तो उसका सारा श्रेय सुनीता बेटी को जाता है। मेरा आपसे पुनः अनुरोध है कि आप उसे माफ़ कर देगें"
इसके बाद कहने-सुनने को कुछ बचा ही नहीं था। हफ़्ता-दस दिन के भीतर दिल के आंगन में ज़मीं कलुषित भावनाओं की काई पिघलकर, आँखों के रास्ते बहने लगी थी। सुनीता के प्रति उठे नफ़रत के ज्वारभाट अब तिरोहित होने लगे थे। मन में एक अजीब शांति-सी महसूस होने लगी थी और सुनीता के प्रति प्यार के बादल उमड़-घुमड़कर उसके दिल और दिमाक पर छाने लगे थे। दूसरे ही पल, उसे उस भीतर के आदमी पर क्रोध आने लगा था। "यह तो अच्छा ही हुआ कि वह उसकी बातों में नहीं आया वरना अनर्थ हो जाता। शंका कि एक छॊटी-सी चिंगारी उसके आशियाँ को जलाकर ख़ाक कर देती" उसने सोचा।
दिल और दिमाक पर छाया बोझ उतर गया था। अब वह अपने आपको तरोताजा-सा महसूस करने लगा था। उसने झट से शेव किया, नहाया और आफ़िस चला गया।
फ़ोन पर सूचना देते हुए सुनीता ने बतलाया कि वह लौट आयी है। बात को आगे बढ़ाते हुए उसने शाम को जल्दी घर आने का आग्रह भी किया था उसने।
सुनीता के आगमन की बात सुनते ही उसके मन के सूने आंगन में वसन्त उतर आया था, कोयल कुहकने लगी थी और लाखों फ़ूल एकाएक खिल उठे थे। "जी अच्छा जी" कहते हुए उसने फ़ोन काट दिया था।
पहाड़-सा भारी दिन कैसे कट गया, पता ही नहीं चल पाया। पांच बजते ही वह अपने केबिन से बाहर निकला। मोटरसाईकिल स्टार्ट की और अब वह किसी फ़िल्मी हीरों की तरह गीत गुनगुनाता, सीटी बजाता घर की ओर चला जा रहा था।
रास्ता चलते उसने सोचा-सुनीता ने उसे इतने दिनों तक ख़ूब तड़पाया है, इन्तजार करवाया है, क्यों न थोड़ा विलंब से घर पहुँचा जाय। इस ख़्याल के आते ही उसने अपनी मोटरसाईकिल की दिशा बदल दी। यहाँ-वहाँ के चक्कर लगाने के बाद अब वह पालिका-मार्केट में जा घुसा। उसने सुनीता के पसन्द की तरह-तरह की मिठाइयाँ खरीदी, मोगरे के फ़ूलों का गजरा खरीदा, एक बुके लिया और लौट पड़ा।
उसकी चाल में एक विश्व विजेता की-सी उछाल थी और मन किसी पंछी की तरह चहचहा रहा था। घर पहुँचते ही उसकी अंगुली कालबेल पर जा पहुँची। कालबेल के बजते ही जल-तरंग की स्वर-लहरी तरंगित होने लगी। सुनीता ने दरवाज़ा खोला। एक मादक मुस्कुराहट बिखेरते हुए सुनीता ने उसका स्वागत किया। अमरनाथ ने गुलदस्ता देते हुए उसे अपनी बाहों में क़ैद कर लिया और ढेरों सारा चुम्बक उसके गालों पर जड़ दिया। बाहों के घेरे में दोनों देर तक अविचल खड़े रहे।
दामोदर जी से सारी हक़ीक़त जान चुकने के बाद शिकवे-शिकायत की बात छॆड़ना उसे उचित नहीं लगा। वह जानता था कि ऎसा किए जाने से हसीन रात खराब हो सकती है। किचन से उठकर दोनों बेडरूम में चले आए.
कमरे में प्रवेश करते ही सबसे पहले उसकी नज़र बिस्तर पर पड़ी। चादर पर सुर्ख लाल गुलाब की महकती पंखुड़ियाँ बिखरी हुई थी। पूरे कमरे में फ़्रेशनेस का छिड़काव कर दिया गया था और एक कोने में फ़्रेगनेंट अगरबत्ती सुलग रही थी। मन ही मन वह सुनीता कि तारीफ़ किए बिना न रह सका था। शायद सुनीता जानती थी कि रात को किस तरह खुशनुमा और रंगीन बनाया जा सकता है। उसने सोचा।
बिना समय गवाएँ उसने उसे अपनी बाहों में उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया और वह उस पर झुकने ही वाला था कि उसे भीतर के आदमी की याद हो आयी। अमरकांत नहीं चाहता था कि वह किसी विलियन की तरह बीच में टपककर कीमती पलों को बर्बाद कर दे। उसने देखा खिड़की पर पड़ा पर्दा खुला रह गया है, संभव है कि अन्दर तांक-झांक करने लगे। उसका शक सही निकला। पता नहीं वह कब आ धमका था और पर्दे की ओट से अन्दर झांक रहा था। वह चुपचाप से उठा। पर्दे को ठीक किया और कमरे में जल रही बत्ती बुझा दिया। अब वह निश्चिंत होकर स्वर्गीय आनन्द ले सकता था।