भीतर का सच / अशोक भाटिया

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बच्ची सो चुकी थी। विशाल खाना खाकर खाली था। उसने ब्रश किया, टी.वी. ऑन किया और बैड पर पसर गया। उधर रमा सुबह के लिए दही जमाने, सब्जी बनाने, कपड़े धोने वगैरा के बीच ताबड़तोड़ घूम रही थी। निबटकर वह बैडरुम में दाखिल हुई तो पति ने थोड़ा सरकते हुए भीतर का दरवाजा खोला।

‘आज तो कई दिन हो गए, विशाल ने चादर फैलाते हुए कहा।

‘इस वक्त तक तो मैं थककर चूर हो जाती हूँ।‘ रमा ने कमर सीधी करते हुए कहा। वह सोना चाहती थी, पर सोच रही थी- “ये नाराज़ हो गए तो जो थोड़ा बहुत काम करते हैं, वह भी छोड़ देंगे।‘’

‘अब तो ऋतु ढाई साल की हो गई।‘ विशाल ने रमा पर चादर फैलाते हुए कहा।

‘अभी बहुत छोटी है, थोड़ी और बड़ी हो जाए।‘

‘..................‘

‘मैं तो कहती हूँ, एक बच्चा ही काफी है। हम दोनों नौकरी-पेशा हैं। बच्चे पालने आजकल बड़े मुश्किल हैं।‘

‘जो आएगा, वह भी पल जाएगा....हमें क्या कमी है?‘

सुनकर रमा सोच में डूब गई। फिर भीतर की गंभीरता पर मुस्कान चिपकाकर बोली- ‘अच्छा एक बात बताओ। अगर हमारा पहला बच्चा लड़का होता, तो भी क्या दूसरे के बारे सोचते?‘

‘तो क्या तू कहना चाहती है कि मैं लड़के की चाह में ही दूसरा बच्चा चाह रहा हूँ? विशाल ने तुरन्त अपने पर लगे प्रश्न चिह्न को हटाना चाहा।

बात उलझ गई थी। थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा। रमा ने समझ के साथ हिम्मत जोड़ी और झटके में कह डाला- ‘आदमी लाख लबादा ओढ़कर आ जाए, औरत उसका मन ताड़ ही लेती है।‘

सुनकर विशाल मानो बार हिल गया। वह सोचने लगा कि इसे आज क्या हो गया है? उसने सहजता का लबादा ओढ़कर कहा- ‘तो चलो इसमें बुराई क्या है? लड़की तो है ही, लड़का भी हो जाए तो लाइफ में दोनों तरह का एक्सपीरियेंस हो जाएगा।‘

‘लेकिन यह तो किसी के बस का नहीं कि क्या होगा? कार्नर वाले देसराज ने इसी चक्कर में पांच लड़कियां पैदा कर लीं। अब पछता रहे हैं।‘ रमा बचना चाहती थी, पर विशाल के मर्म पर चोट पड़ी थी। ‘क्यों नहीं किसी के बस का?’ तिलमिलाते हुए वह बोला- ‘कई औरतें तो लड़कियों का ठप्पा लेकर आती हैं।’

रमा ने विशाल की बात में छिपा दोहरापन पहचान लिया था। उसने थोड़ा उधर खिसकते हुए कहा- ‘ऐसी बात नहीं। औरत तो मर्द का ही सूक्ष्म रुप होता है।‘

विशाल रमा को बरी करने के मूड में बिलकुल नहीं था। ‘मर्द तो सप्लाई कर सकता है, ग्रहण तो औरत को करना होता है। वह क्या ग्रहण करती है, इसी पर सब कुछ है।‘ वह एक रौ में कह गया।

दोनों के बीच सन्नाटे की बहुत चौड़ी नदी बन गई थी। तर्कों के तीर और सन्नाटे की आवाज़ें मिलकर स्थिति को और भी तनावपूर्ण बना रहे थे। विशाल ने मुंह उधर कर लिया था, तो रमा सामने दीवार पर टंगे अर्धनारीश्वर के चित्र पर नज़रें गड़ाए थी। रमा ने सोचा- औरत तो सिर्फ सांचा है।

थोड़ी देर बाद वह विशाल की तरफ मुड़कर बोली-‘साइंस तो आपने भी पढ़ी है। औरत के पास तो सिर्फ एक्स गुण होता है। पुरुष के पास एक्स और वाई दोनों होते हैं...।‘ वह गंभीर हो गई थी।

विशाल अभी उसकी पिछला तर्क ही पचा नहीं पाया था। उसने रमा की बात काटते हुए कहा- ‘हो सकता है, वाई गुण तूने लिए ही न हों।‘

‘ऐसे तो मैं भी कह सकती हूँ कि आपसे सिर्फ एक्स गुण ही आये हों।‘ रमा रौ में कह गई।

अब तक विशाल पूरी तरह जल-भुन चुका था। उसने मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया। रमा ने उसके हाथ पर हाथ रखते हुए बड़ों की तरह समझाया- ‘यह सब संजोग होता है, इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता, न आप न मैं...।‘

विशाल का मन अभी बड़ा नहीं हो पा रहा था, हालाँकि बात उसे जंच जरूर गई थी।