भुच्चड़ / अनंत कुमार सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कई बार टोकने के बावजूद बस की गति में कोई ख़ास फ़र्क नहीं आया। इतनी धीमी चाल ! पता नहीं कैसे-कैसे चालक गाड़ी चलाने बैठ जाते हैं। दूरी कट ही नहीं रही है और मन बहुत तेज रफ्तार से उड़ रहा है। कई तरह की कल्पनाएँ, यादें, ढेर सारी अपेक्षाएँ और फिर स्वयं को योग्य, काबिल और धुन का पक्का साबित करने की जल्दी।

एम० ए० करने के दो साल बाद तक नौकरी नहीं मिलने पर गाँववाले मुझे काहिल, अयोग्य और बेकार समझने लगे थे। माँ, बाबूजी तो थे नहीं, भैया-भाभी की नज़र भी बदल गई थी और वे अजीब नज़रों से मुझे देखते थे। मैं हीनभावना का शिकार होता जा रहा था। न जाने कितनी परीक्षाएँ दीं, अनेक साक्षात्कारों में शामिल हुआ, लेकिन बेकार। ताने और व्यंग्यबाण तेज़ होने लगे। गाँव-घर में रहना मुश्किल हो गया, तब मैंने निर्णय लिया गाँव छोड़ने का। और यह निर्णय भी कि नौकरी मिलने पर ही गाँव का मुँह देखूँगा।

अभी दो माह पहले एक अर्द्ध-सरकारी संस्थान में बबूल के नीचे आम मिलने की तरह नौकरी मिल गई है। गाँव के कई लोग देख चुके हैं मेरी बदली हुई स्थिति। आज दस वर्ष बाद गाँव जा रहा हूँ। बस की यात्रा पहाड़ लग रही है। गाँव-घर को भर नज़र देख लेने की इच्छा बलवती हो रही है।

बचपन की भूली-बिसरी बातें उसी तरह स्मृतियों में ताज़ा हो उठी हैं, जिस तरह प्राइमरी स्कूल में गणेश गुरुजी की छड़ी और बिन्दाचरण गुरुजी की कनैठी के बाद बारहखड़ी या पहाड़े याद हो जाते थे। रोज़ ही जमती थी कबड्डी। चिक्का, हथौवल और फ़ुटबाॅल खेलने में बहुत मज़ा आता था। छोटी उम्र के लड़कों के साथ यह सब खेलना अच्छा नहीं लगेगा अब। लेकिन फ़ुटबाल तो खेला जा सकता है। उस तरह की उम्र नहीं रही अब। हमउम्र लोग उपलब्ध होंगे नहीं। बच्चों को खेलते हुए देखूँगा जी भरकर। समय से बस पहुँच गई तो गाँव के पछिआरी फ़ील्ड पर चला जाऊँगा शाम को। अपनी उम्र के ढेर सारे लोग तो नौकरी-रोज़गार के सिलसिले में बाहर ही हैं और जो हैं भी वे खेती-बाड़ी में लगे हैं। किसे फ़ुरसत होगी अब खेलने और खेल देखने की? हम लोग तो जमकर खेलते थे। दूसरे गाँव-पंचायत और प्रखण्ड की टीमों के साथ मैच भी होता था। गेंद पर निर्णायक प्रहार करने में मेरा जवाब नहीं था। कहीं से भी शॉट लगाने पर मेरी गेंद गोल में ही जाती थी। अब शायद ऐसा न हो। क़स्बे और छोटे शहरों में भी अब दंगल, फुटबाॅल की प्रतियोगिता देखने-सुनने को नहीं मिलती।

गाँव पहुँचते-पहुँचते सँझवत हो चुका है- दीया-बत्ती जल गई है। बिजली को तरसता मेरा गाँव लालटेनों, लैम्पों और ढिबरियों से घर- दरवाज़ों को प्रकाशवान कर चुका है। लोग जहाँ-तहाँ झुण्ड-के-झुण्ड बैठे हैं और रेडियो कान से लगाकर सुन रहे हैं। जिधर से मैं गुज़र रहा हूँ, लोग चौंक रहे हैं। पुराने लोग ही मुझे पहचान पा रहे हैं। बच्चे अजनबी की तरह मुझे ताक रहे हैं।

एकाएक शोर उठा और बढ़ता ही गया - ‘आउट...!’ आश्चर्य से मैं शोर की दिशा में देखने लगा। वहाँ अब ठहाके लगने लगे थे। आगे बढ़ने पर पछिआरे टोले के एक दरवाज़े पर अच्छी-ख़ासी भीड़ दिखाई पड़ने लगी। मैंने देखा, वहाँ गैसोमेक्स जल रहा है और टेलीविजन चल रहा है। उस दरवाज़े पर भी शोर हुआ। मैं रुक गया। कुछ लड़के टेलीविजन सेट के सामने नाचने लगे - ‘आउट...!’ ‘फिर आउट!’ अल्हड़ शोर हुआ। ‘हमारा मुकाबला केन्या करेगा?’ ‘आउट!’...मिली-जुली आवाज़ों को चीरती हुई यह मुख्य आवाज़ सुनाई पड़ी। मैं आगे बढ़ने लगा।

पूरवारी टोले के मुख्य दरवाज़े से आगे बढ़ने पर मेरा घर सबसे पूरब, किनारे पर है, मेरे घर से पहले सिराज भैया, बरमेश्वर चाचा, बालक बाबा और उसके पहले कृष्णा चाचा। वहीं पर घनु चाचा का बड़ा-सा मकान है।

जैसे ही मैं घनु चाचा के दरवाज़े से गुज़रने लगा, एकाएक चौंक गया। एकदम से चकचक कर रहा था दरवाज़ा। दो गैसोमेक्स जल रहे थे। बगल में दो ड्रम रखे हुए थे। ज़मीन पर दरी-जाजिम बिछी थी। उस पर चैता और होली होनेवाले दिन से भी ज़्यादा लोग सट-सटकर बैठे थे और सबका ध्यान टीवी के जगमगाते पर्दे पर था। भारत और केन्या के बीच क्रिकेट का खेल दिखाया जा रहा था।

मैं आश्चर्य से यह सब देखता आगे बढ़ता रहा। ‘‘अरे...अरे कहाँ जा रहे हो भाई? एक युग पर लौटे हो। पूरा समाज यहाँ बैठकर मैच देख रहा है। बैठ जाओ तुम भी। देश की प्रतिष्ठा का सवाल है।’’ घनु चाचा कह रहे थे और मैं उनका मुँह ताक रहा था।

‘‘बैठो आनन्द’’, घनु चाचा ने फिर कहा।

‘‘खाना खाकर आ जाऊँगा’’, मैंने बच निकलने की कोशिश की।

‘‘खाने-पीने का इन्तजाम तो यहाँ है ही। लिट्टी-चोखा में काम लगा हुआ है। गरम-ठण्डा का भी इन्तज़ाम है। पालीथिन, महुआ, आयुर्वेदिक और विलायती भी। तुम तो शायद पीते नहीं...आज चीख़ोगे तो चीख़ो...ख़ुशी का दिन है। नहीं पीनेवाले भी आज लुढ़क रहे हैं। आज तो भारत जीत ही गया, समझो। विश्व कप इस साल भारत ही लेगा- अन्तिम जीत हमारी होगी।’’

मैं आश्चर्य से घनु चाचा को देख रहा था और उनका लम्बा भाषण सुन रहा था। दिनभर हल, बैल, कुदाल, गाय-भैंस, पुआल, सानी-पानी से मतलब रखनेवाले निरक्षर घनु चाचा और विश्व कप क्रिकेट? कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए घनु चाचा और कैसे? ऐसा गुणात्मक परिवर्तन? एकदम चोला ही बदल गया। क्रिकेट?...भारत-पाकिस्तान-केन्या...? बाप रे ! ऐसा चमत्कार...आखिर किस तरह...?

‘‘बैठ जाओ बेटा’’, तीसरी बार अधिकारपूर्वक उनके आग्रह करने पर बेमन से मैं दरी पर ही बैठ गया।

‘‘गाँव में चार जगह बैट्री चार्ज होकर आई है। चारों जगह भीड़ है टीवी देखनेवालों की। लेकिन ख़ानदानी होने का अपना अलग महत्व होता है। बाप-दादा ज़मींदार थे। हम भी तो उनके ही संस्कार लेकर पैदा हुए हैं। अपनी संस्कृति कैसे भूल जाएँगे हम लोग? इस दालान पर सार्वजनिक इन्तज़ाम है। किसी को रोक-टोक नहीं। इतनी भीड़ कहीं नहीं होगी। देख रहे हो न...अढ़ाई सौ आदमी होंगे’’, घनु चाचा कह रहे थे।

‘‘पाकिस्तान वाले दिन तो इससे भी ज़्यादा थे। और उस दिन के जश्न की तो पूछो मत। दो घण्टे तक पटाखे छूटते रहे गाँव में। विलायती शराब की पचासों बोतलें ख़ाली कर लुढ़का दी गयीं। होश-हवास खो बैठे थे लोग। रात भर हरिकीर्तन और लोकगीत के साथ डिस्को-डांस होता रहा’’, तुलसी बाबा ने जोड़ा।

‘‘उस दिन का नज़ारा देखते तो दंग रह जाते’’, घनु चाचा फिर शुरू हो रहे थे। उनकी बातों को अनसुना करते हुए भी हाँ-में-हाँ मिलाना था। मुझे घुटन महसूस होने लगी लेकिन मैं लाचार था।

‘‘देख रहे हो न, अब भी लोग आ रहे हैं’’, घनु चाचा ने आते हुए लोगों की तरफ़ इशारा किया। मैंने देखा, दस वर्ष से तीस वर्ष के लोगों की संख्या ज़्यादा थी। वैसे हर वय के लोग मौजूद थे और बहुत उत्साह में थे।

‘फिर आउट..ऑल आउट।’ एकाएक भीषण शोर हुआ। बीस-पच्चीस लड़के खड़े होकर नाचने लगे।

केन्या की पारी समाप्त हुई..., 225 रनों पर सिमट गई पूरी टीम।

अब अवकाश का समय था। कुछ लड़के वहाँ से तेज़ी से निकले और देखते-ही-देखते बोतलें खनकने लगीं। खुले आकाश में भी पूरा वातावरण शराब की तीखी गन्ध से भर गया।

कुछ लड़के ड्रम के पास पहुँच गए। बर्फ़ में दबाकर रखी पेप्सी की छोटी-छोटी बोतलें ओपनर से खोली जा रही थीं और कुछ लोगों में बाँटी जा रही थीं। कुछ लिहाज़ रखनेवाले लोग दरवाज़े से लगे कमरे में गए और ओपन सीक्रेट ढंग से शराब की चुस्की लेने लगे। सब कुछ देखकर मेरी आँखें बेतरह फैलने लगीं। सोचने-समझने की शक्ति जाती रही और शरीर मानो काठ हो गया। फ़ुटबाल, चिक्का, कबड्डी, हथौवल खेलने या देखने का अरमान पता नहीं कितनी गहराइयों में दब गया !

घनु चाचा ने पेप्सी की एक बोतल मेरे हाथ में थमा दी। मैं चौंक-सा गया।

‘‘चाचा ! मुझे अभी सर्दी है...स्नोफिल बढ़ा हुआ। मैं नहीं पीऊँगा। मैं पीता भी नहीं हूँ पेप्सी’’, मैंने कहा। घनु चाचा ने मुझे ऐसे देखा मानो मैं झूठ बोल रहा हूँ या मैं शहर में रहते हुए भी अनाड़ी का अनाड़ी ही रह गया- निरा देहाती-का-देहाती ! एकदम भुच्चड़।