भुतहा गांव और महानगर के बीहड़ / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 13 दिसम्बर 2013
हिंदुस्तान में सिनेमाघर नगरों में बने और उनमें ग्रामीण फिल्में दिखाई गई तथा एक फार्मूले का जन्म हुआ कि गांव पवित्र है। शहर पाप है। गांव में सादगी और सत्य है। शहर में तड़क-भड़क और झूठ है। नगरों में ग्रामीण सिनेमा की सफलता का सिलसिला अनेक दशकों तक चला, क्योंकि इस सोच को धार्मिक आख्यानों में भी प्रतिपादित किया गया था। विगत कुछ वर्षों से सिनेमा ने ग्रामीण पृष्ठभूमि को नकार दिया है और नगरीय फिल्में बन रही है। सलीम जावेद ने मदर इंडिया और गंगा जमना के पात्र व नाटकीय प्रवाह को 'दीवार' में महानगरीय परिवेश में प्रस्तुत किया गोयाकि 'मदर इंडिया' का बिरजू, गंगा बनने के बाद महानगर में छलांग लगाता है और 'दीवार' सफल होती है। आर्थिक उदारवाद के परिणामस्वरूप मल्टीप्लेक्स आए। कॉरपोरेट संस्कृति फिल्म निर्माण में प्रवेश कर गई और सिनेमा का अर्थशास्त्र ही बदल गया।
ताजा सेन्सस की रिपोर्ट कहती है कि 43,447 गांव ऐसे हैं जिनमें कोई आबादी नहीं रहती क्योंकि वहां के लोग निकट के बड़े गांव या कस्बे में रहने चले गए हैं। इन गांवो को सेन्सस भूतिया गांव कहती है। आजादी के बाद अनेक शहरों और गांवों से बेहतर अवसर की तलाश में अनगिनत लोगों ने महानगरों की ओर पलायन किया था और उसी पलायन का एक स्वरूप आर्थिक उदारवाद के बाद 'भुतहा गांवों' के रूप में सामने आया है।
पचास प्रतिशत ग्रामीण आबादी एक लाख बीस हजार गांवों में सिमट गई है और शेष ग्रामीण जनता चार लाख अस्सी हजारों गांवों में छितरी पड़ी है। दो हजार से कम आबादी वाले गांवों का प्रतिशत घटकर चालीस रह गया है और दस हजार आबादी वाले गांवों का प्रतिशत बढ़कर पचास हो गया है। हरियाली से घिरे छोटे गांव विलुप्त होते जा रहे हैं और मध्यम नगरों में सीमेंट के जंगल इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि इनके आस-पास की खेती की जमीन तीस करोड़ रुपया एकड़ से बिक रही है अर्थात हमारे विकास का मॉडल खेती वाली जमीन को निगल रहा है जिसके अनगिनत घातक सामाजिक परिवर्तन हम देख नहीं पा रहे हैं। मसलन खेती की जमीन को करोड़ो में बेचने वाले मोटर सायकिल और जीपों में सवार होकर रात में निकट के नगर में 'आखेट' पर निकलते हैं और यह अय्याशी का आखेट है, उन्हें शराब और लड़कियां चाहिए। कृषि प्रधान भारत में अब सीमेंट के बीहड़ उभर आए हैं और अनाज उपजाना गैरजरूरी सा होता जा रहा है।
सारी नीतियां अमीरी और गरीबो की खाई को बढ़ाने की है और जनता अनुपयोगी चीजें खरीदकर बाजार को मजबूत बना रहीं हैं। यह सब इसलिए हुआ कि सारा विकास शहरोन्मुख रहा है और गांवों में अस्पताल, शिक्षा इत्यादि की सुविधाएं नहीं पहुंचाई गई हैं। आप इंग्लैंड और यूरोप के हरियाली से भरे साफ सूथरे गांव देखिए तो जानेंगे कि हमने क्या खोया है और इस प्रक्रिया में होरी और हीरामन अब जन्म ही नहीं लेते।
इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि हमारे महानगर भी पश्चिम की तरह नहीं हैं, बस उनमें अनेक छोटे गांव और कस्बे बसे है गोयाकि आर्थिक कारणों से हुए पलायन ने महानगरों को गांवों का समूह बना दिया और महानगरीय दृष्टिकोण से गांव वालों को उनकी जमीन से ही उखाड़ दिया। कुछ दशकों बाद किसान खोजने पर करोड़ रुपये का इनाम रखा जायेगा। हमारी सारी नीतियां केवल मुनाफखोरी को उत्साहित करती हैं। हमारी शहरीकरण की प्रक्रिया ने केवल गंदगी, बीमारी और जहालत को बढ़ाया है और हम एक 'भुतहे देश' के भयावह यथार्थ की ओर बढ़ रहे हैं।
भारतीय सिनेमा में पलायन प्रेरित विचार और पात्र हमेशा मौजूद रहे हैं। पलायन स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसमें संस्कृतियों का विकास और विनाश दोनों होते है, हमने विकास के मुखौटे में विनाश को चुना है