भूकंप / प्रियंका गुप्ता
अभी वह ऑफिस जाने की तैयारी में लगा ही था कि सहसा बदहवास-सी पत्नी कमरे में आई, "जल्दी बाहर निकलिए... । बिलकुल भी अहसास नहीं हो रहा क्या...भूकंप आ रहा। चलिए तुरंत।" वह उसकी बाँह पकड़ कर लगभग खींचती हुई उसे घर से बाहर ले गई।
पत्नी को यूँ रुआंसा देख कर जाने क्यों ऐसी मुसीबत की घड़ी में भी उसे हँसी आ गई। बाहर लगभग सारा मोहल्ला इकठ्ठा हो गया था। एक अफरा-तफरी का माहौल था। कई लोग घबराए नज़र आ रहे थे। कुछ छोटे बच्चे तो बिना कुछ समझे ही रोने लगे थे।
सहसा उसे बाऊजी की याद आई। वह तो चल नहीं सकते खुद से...और इस हड़बड़-तड़बड़ में वह उनको तो बिलकुल ही भूल गया। वह जैसे ही अंदर जाने लगा कि तभी उसके पाँव मानो ज़मीन से चिपक गए। बाऊजी की ज़िन्दगी की अहमियत अब रह ही कितनी गई है। वैसे भी उनका गू-मूत करते-करते थक चुका था वो...और उसकी पत्नी भी। ऐसे में अगर भूकंप में वह खुद ही भगवान को प्यारे हो जाएँ तो उस पर कोई इलज़ाम भी नहीं आएगा।
अभी कुछ पल ही बीते थे कि सहसा पत्नी की चीख से वह काँप उठा। उनका दुधमुँहा बच्चा अपने पालने में ही रह गया था।
अंदर की ओर भागते उसके कदम वहीं थम गए। एक हाथ से व्हील चेयर चलाते बाहर आ चुके पिता कि गोद में उसका लाल था।
जाने भूकंप का दूसरा तेज़ झटका था या कुछ और...पर वह गिरते-गिरते बच गया था।