भूकंप / प्रेमपाल शर्मा
वह मेरा इतना गहरा दोस्त है कि मुझे लगातार यह भय बना रहता है कि मैं इस गहराई में अब डूबा कि तब। अब देखिए उसका फोन आया है कि मैं आना चाहता हूँ। 'अभी?' मैंने पूछा 'तो और क्या' उसका जवाब था। 'ऐं... ऐं... यदि शाम को आओ तो... कोई खास बात तो नहीं?'
'खास बात है तभी तो।'
'ठीक है फिर।' मुझे बलात कहना पड़ा।
अजीब आदमी हैं ये मित्र भी। मैंने फोन इतनी जोर से पटका कि मानों ये सब कारिस्तानी इसी की हो। न चाहने के बावजूद भी मेरे गुस्से का पहला शिकार यह बेचारा टेलीफोन ही होता है। एक दिन ऐसे ही पटकने पर एक मित्र को कहना पड़ा - 'सरकारी है भाई! तोड़ो। दूसरा आ जाएगा।' कुछ दिन तो उसकी बातें टेलीफोन छूते समय याद रहीं पर फिर बेताल ताल पर। इन पत्रकारों ने कभी कुछ करके खाना सीखा हो तब न। टेलीफोन विभाग से मुफ्त टेलीफोन, रेलवे से फोकट के पास। डिफेंस से बोतलें और मकान तो पत्रकार - कोटे से मिला ही हुआ है। गुस्सा तो मेरे जैसे बाबू को ही आएगा जिसे कोई बोलने का मौका ही नहीं दे - घर हो या दफ्तर।
मैंने एक नजर आज के महत्वपूर्ण कामों की सूची पर दौड़ाई। फाइलों को करीने से लगाया। घड़ी देखी - अब पहुँचने ही वाला होगा, यह सोचकर चपरासी को घंटी दी, 'भाई पानी-वानी भी भरकर रख दिया करो कभी?'
बाबूलाल बिना बोले कमरे के एक कोने में रखे पानी के जग तक गया, 'पानी रखा है साब।'
'तो गिलासों में भरकर रख लो।'
बाबूलाल ने पहले गिलासों की ओर देखा जो पहले से ही भरे रखे थे। फिर न जाने क्या सोचकर उठाकर निकल गया।
वह बोलता तो भी मेरा जवाब पहले से तैयार था। 'ये सुबह से भरे रखे हैं। ताजा पानी रख दो। कोई साहब आने वाले हैं।'
साहब बनने-बनाने का भी भारत सरकार में अपना ही मजा है। अपने-अपने दफ्तर में बाबू, दूसरों के यहाँ बड़े 'इत्ते बड्डे' साहब।
'जानते हो ये कौन हैं। अखबार वाली जो बड़ी-सी बिल्डिंग हैं उसी में हैं। कभी कोई काम हो तो बताना...।'
चपरासी ने उन्हें तुरंत नमस्ते ठोंकी। मित्र ने उसे भक्त-भाव से देखा।
'आपको डिस्टर्ब किया न।' उसने मुखातिब होते हुए दूसरी बार यह बात कही। हालाँकि इसमें अपराध भावना का दूर-दूर तक कोई लेश नहीं था।
'अरे कैसी बात करते हो। ये काम-वाम तो सारी उम्र चलता रहता है।' मैंने कुर्सी को कमर के बूते इधर-उधर खिसकाया। दरअसल ये डायलॉग दफ्तर में फेरी वालों की तरह आ टपकने वालों के साथ वार्ता के शुरुआती तकियाकलाम बन चुके हैं। वो आते ही डिस्टर्ब करने-होने की बात कहेंगे और मैं उसे तुरंत पत्ते पर ढलक आई बूँद की तरह गिरा दूँगा।
'और क्या हाल है? आज कल तो दिखाई ही नहीं देते। कहीं बाहर गए थे?'
गौर करें तो यह वाक्य भी दिल्ली का एक खास मुहावरा बन चुका है।
'कहाँ? महाराज! आप ही नहीं दिखाई देते। जब भी फोन करो साहब सीट पर नहीं हैं। कहाँ-कहाँ जाते हैं पता तो चले...' फिर वे 'हीं हीं' करके हँसने लगे...' भाभी जी से नहीं कहूँगा। यकीन मानो पर पता तो चले।'
'उसे तो खैर तुम जरूर बता दो जिससे उसे लगे कि हमारे ऊपर भी कोई मर सकता है। पर मरने की फुरसत मिले तब न।' ही-हीनुमा चेहरा आनन-फानन में थके हुए बाबू में तबदील हो गया। 'बड़ा काम है। पिछला तो पूरा सप्ताह ही मीटिंग में चला गया। और मीटिंग भी ऐसी फिजूल की कि बस क्या बताऊँ।'
'मुझे अपने यहाँ बुला लो। हमारे यहाँ तो कोई काम ही नहीं है।'
'और मैं तुम्हारे यहाँ।'
'ठीक है।' कहकर हम एक बार फिर हँसे।
'चाय मँगाता हूँ या बाहर चलकर ही पीएँ'
'बाहर ही पीते हैं।' उसने दीवार घड़ी की तरफ नजर डाली - 'अभी बैठना है?'
'यार! अच्छा नहीं लगता ऐसे निकलना वैसे भी पार्लियामेंट सेशन है।'
कोई बात नहीं कहकर यार कुर्सी पर कमर लगाकर बैठ गया। 'मेरे बैठने से कोई दिक्कत तो नहीं है न।'
मेरी वक्त से पहले न चलने की कर्तव्यपरायणता ने शायद उसे ज्यादा ही धकिया दिया था।
'चलने को तो कोई बात नहीं पर और आधा घंटे की बात है।'
मुझे याद है उस दिन भी उनका ऐसे ही आना हुआ था। कहने लगे - 'प्रेसीडेंट हाउस जा रहा था। मैंने सोचा सक्सेना साहब से ही मिलते चलते हैं।'
'ये तो तुमने अच्छा किया पर प्रेसीडेंट...'
'मैंने बताया था न एक बार। प्रेसीडेंट के सेक्रेटरी मेरे जानने वाले हैं। हमारे गाजीपुर के ही हैं। उन्होंने कई बार कहा कि तुम आओ तो सही, काम हो जाएगा।'
'काम है क्या?' मेरे दिमाग से सचमुच फिसल गया था। वैसे भी हर मुलाकात पर कोई नया काम इस मित्र का गला दबाए रहता है।
'वही हीरोहोंडा की एजेंसी बैकू के नाम करानी है। यू.पी. रीजन से तो क्लियर हो गया है। यहीं अटका है उद्योग मंत्रालय में, उसे ये करा देंगे।'
'अरे भाई राष्ट्रपति के सेक्रेटरी हैं कोई मामूली बात है। ये तो उनके लिए बाएँ हाथ की सबसे दाहिनी अँगुली का काम है।'
'अब हो जाएगा।' उसने आश्वस्ति भाव से कहा। 'आपको पता है मैं तो कभी जाता-आता ही नहीं। उन्होंने आज खुद फोन करके आने को कहा। ऐसे हैं वे।'
'ऐसे हैं वे' कहते हुए उसकी आँखों से लगा कि मानों कह रहा है और 'एक तुम हो!'
'जरूर जाना चाहिए। काफी दिन हो गए वैसे भी इसे लटकते।' मैंने सोचते हुए हिसाब लगाया, 'अरे। पूरे दो साल। देखो वक्त कैसे निकल जाता है। चार महीने के लिए ही तो टिकी थी वो सरकार।'
'लेकिन काम बहुत किया उसने।'
मुझसे कोई उत्तर नहीं बना। न 'ना' न 'हाँ'।
'पर अपना कोई काम नहीं हुआ। अपना तो कोई काम ही नहीं होता। यार लोग मदद ही नहीं करते, सब बेकार हैं।' उसने दार्शनिक भाव से पलटा खाया। मुझसे अचानक कुछ कहते नहीं बना।
'एक बात तो बताओ। आप तो इतने सारे कोर्ट-कचहरी के मामले करते हो। मेरा भी कुछ कराओ न। सभी कर रहे हैं तुम कोर्ट में केस करो। तभी मामला निपटेगा। मैं आज इसलिए आया हूँ आपके पास।'
'टंडन जी से बात हुई थी इस बाबत?'
टंडन हमारे कामन मित्र हैं। मैं चाहता था उनका मत पता चल जाए तो मैं भी वैसा ही सुझाव दे दूँ।
'अभी कहाँ, मैंने सोचा पहले आपसे बात करूँ। मैंने पक्का कर लिया है बिना लड़े कुछ मिलने वाला है नहीं।'
'बिल्कुल सही बात है। ये तुम्हारे सीधेपन का फायदा उठा रहे हैं। संपादक को काम होगा तो याद आओगे तुम और फायदे दूसरों को। ये कहाँ की इनसाफी है।'
ये बातें सबको कितनी मीठी लगती है।
'इतनी छोटी-छोटी बातें हैं कि क्या बताऊँ। अभी सभी को रिवाल्विंग चेयर मिली है। मेरा नाम जान-बूझकर काटा गया। ये सब इसी 'सूखी' की चाल है। लोग बताते हैं कि जब वे लोग बदलने के लिए आए तो इसने मना कर दिया। बताइए?'
'हाँ मुझे बताया था किसी ने। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। ये बड़ी ओछी बातें हैं।'
'और तो और इसने मेरा टी.ए. बिल भी कम करा दिया। कहती है जब मैं स्कूटर का लेती हूँ तो इन्हें टैक्सी का क्यों मिले। अरे कल तो गजब हो गया। मैं तो छुट्टी पर था। हमारा संपादक पंद्रह दिन की छुट्टी जा रहा है तो इस बुढ़िया ने मौके का फायदा उठाकर यह लिखवा लिया कि वही काम देखेगी। सीनियरटी के हिसाब से तो मेरा हक बनता है।' बनता है ना?
'तुम्हारा संपादक मूर्ख तो नहीं है कहीं। जब तुम सीनियर हो तो ऐसा क्यों। इसका मतलब है वह उसके हाथों खेल रहा है। वो जो चाहती है करा लेती है।' मैं आवाज में गुस्सा मिलाकर बोल रहा था। 'तुम्हारी कभी कोई ऐसी-वैसी बात हुई है संपादक से।'
'नहीं तो' उसने मुँह भींचते हुए 'ना' में सिर हिलाया।
'वही तो मैं सोच रहा हूँ कि तुमने इसके कितने काम कराए। मकान दिलवाया। विश्वविद्यालय के कला विभाग में आनरेरी मैंबरशिप दिलवाई। वरना जब ये नागपुर से आया था इसे कोई पूछता था। और भलाई का अंजाम देखो!'
'सच कह रहा हूँ मैं कल रात सोया भी नहीं हूँ। सुबह तो मेरी नाक से खून जा रहा था। मैं बहुत दुखी हूँ।'
'वही तो मैं सोच रहा हूँ। तुम्हारी आँखें भी सूजी हुई हैं। मैं टंडन जी से आज ही बात करता हूँ। क्योंकि इस बारे में उनका अनुभव भी बहुत मायने रखता है। मैं रात को फोन करूँगा।'
'मैंने तो आपको कह दिया। सचमुच मैं आपको कहकर बड़ा हल्का हो जाता हूँ।'
'कोई बात नहीं। कोई न कोई रास्ता तो निकलेगा।' मैं कुर्सी पर पीठ लगाकर बैठ गया।
'एक आप जैसे ही दोस्त हैं झा साहब। आप तो शायद मिले हो उनसे। मैंने आपका जिक्र किया था तो वे कह रहे थे कि जानते हैं तुम्हें। वे तो कह रहे थे कि कोर्ट में चले जाओ। जैसा चाहो आर्डर दिलवा देंगे।'
मैं अचंभित था, 'कैसे?'
'उनके एक मित्र के छोटे भाई हैं हाईकोर्ट में जज। पहले वे पटना में थे अब दिल्ली आ गए हैं। उन्होंने मिलने के लिए कहलवाया भी है।'
मैं चारों खाने चित्त था। कोर्ट-कचहरी में बाबू की हैसियत से साबका तो मेरा भी पड़ा है पर ऐसा केस नहीं याद पड़ा जिसमें बिना किसी प्रत्यक्ष अन्याय के कोर्ट में मामला पहुँचा हो। कुल इतनी सी ही तो बात है कि 15 दिन संपादक की अनुपस्थिति में कौन काम देखे। 'मैं तुम्हें एक सलाह दूँगा। जल्दबाजी में कई बार काम खराब भी हो जाता है। हाईकोर्ट में अपना आदमी है ये तो अच्छी बात है पर पहले अपना आवेदन तो बनाओ कि आपके साथ अन्याय कैसे हुआ, कब हुआ है। वगैरा-वगैरा। और आप क्या चाहते हैं न्यायालय से।'
'शायद उन्होंने पूरी बात नहीं सुनी थी। सिर्फ अंतिम शब्दों को पकड़ते हुए बोले कि यही जब संपादक छुट्टी जाएगा तो काम मैं देखूँगा। मैं सीनियर हूँ। कल को जब संपादक बनने की बात आएगी तो इस बुढ़िया का हक मुझसे पहले नहीं बनेगा।'
मुझे सहमति में सिर हिलाना पड़ा। 'वैसे ऐसा पहली बार हुआ है या इससे पहले भी हो चुका है?'
'हुआ तो पहली बार ही है पर अन्याय अन्याय है। मान लो मैं चुप ही रह जाऊँ तो ऐसे तो हर बार ही होता रहेगा। आपको पता नहीं है ये महिला बहुत चालू चीज है। सभी लोग कहते हैं इसके बारे में।'
'ठीक कह रहे हो तुम। उसकी चाल-ढाल से ही लगता है।' एक सरासर अवैध आरोप मैं गढ़ रहा था। 'अच्छा तुम छोड़ो ये सारी बातें। बस दो पेजों में सारी रामायण लिखकर दे दो। मैं और टंडन जी मिलकर बैठेंगे। तुम भी साथ रहना।'
'एडवोकेट को भी साथ ले आऊँ। एक आप जैसा ही शुभचिंतक है... हमारे अखबार में लिखता है। बहुत होशियार आदमी है।'
'पहले हम तय कर लेते हैं। कोर्ट की लड़ाई तो आखिर उसे लड़नी ही है।' कहकर मैंने बात की गठरी बना दी। 'और सुनाओ घर पर सब ठीक है? आजकल तो राजनीति में भी बड़े धमाके करा रहे हैं।'
'कुछ भी नहीं। मेरा तो सबसे मन भर गया है। लैफ्ट हो या राइट सब एक जैसे हैं। मैंने तो खबरें भी पढ़नी बंद कर दी हैं। सब जनता को मूर्ख बना रहे हैं। मैं आपको एक चीज तो बताना भूल ही गया। मेरी कविता उड़िया में छप रही है। पत्र आया था दिखाऊँ। लिखा है - तुम्हारी यह अकेली कविता टालस्टाय के 'वार एंड पीस' के बराबर है।'
उसके चेहरे पर यकायक रोशनी लौट आई थी। वह थैले को बार-बार उल्टे-पल्टे जा रहा था - पत्र की तलाशी में।
'कोई बात नहीं... रहने दो।' मुझे उसके चेहरे पर आई परेशानी को देख कहना पड़ा। 'अच्छी कविता है तुम्हारी। मैंने पढ़ी है।'
मेरी निगाहें उसके चेहरे पर उस निशान को खोज रही थीं जो उसने बताया था कि जब वह छोटा था और अकेला समुद्र के किनारे खड़ा था तो एक जवान महिला ने अँधेरे में उसे इतनी जोर से भींचा था कि अभी भी दर्द होता है। मुझे अभी भी वह भाव याद है जो मेरे मन में उस वक्त तैरा था कि हमें किसी ने आज तक क्यों नहीं ऐसे भींचा और क्या यह सच हो सकता है? अँधेरे में भींचा जाना आश्चर्य नहीं था। आश्चर्य था 'कसम से अभी भी दर्द होता है।' सत्रह साल के बाद भी दर्द।
'तब तुम गुलाब के फूल रहे होंगे।' मैंने कहा था।
वह सचमुच गुलाब बन गया। 'ऐसे गाल थे कि बस। मुझे गाँव का सबसे सुंदर छोकरा कहते थे। कहते थे क्यों... अभी भी हूँ।' उसने बत्तीसी दिखाई।
'अरे इसमें भी पूछने की बात है? ये जुल्फें! ये अदा! इस पर कौन नहीं मर जाएगा?'
'मैं वही तो सोचता हूँ कि फिर अभी तक क्यों नहीं मरी। मैं आपसे एक बात पूछूँ। पूछ सकता हूँ न? सचमुच आपसे न जाने क्यों ऐसी बातें पूछने का मन करता है। आप भी कहेंगे कि क्या आदमी है।'
'अरे कैसी बातें करते हो। वो दोस्त ही क्या जिससे कोई बात कहने में झिझक आती हो।'
'मुझे सचमुच ये नहीं पता कि प्यार क्या होता है। लोग मोहब्बत, आशिकी न जाने क्या-क्या कहते हैं। आखिर ये होता क्या है?'
मैंने सिर्फ दाँत चमकाए जैसे गाँव में एक भैंस दूसरी भैंस के ताजा गोबर को सूँघकर आकाश की ओर मुँह करके दाँत चमकाती है। 'धत्'।
'ईमान से।' मुझे आज तक समझ नहीं आया कि लोग प्यार-प्यार क्या करते रहते हैं। मैंने ये बात अपनी पत्नी से कही तो वह भी हँसने लगी।
'अच्छा। घर आकर पूछूँगा।'
'कब आ रहे हो? अब तो तुमने उधर आना ही बंद कर दिया। क्या नाराजगी है?'
'नाराजगी से क्या पूँछ उखाड़ूँगा भाई मेरे! बस जान को इतने सारे पचड़े पड़े रहते हैं कि साँस भी पता नहीं कैसे आती-जाती है।'
'15 अगस्त को तो तुम्हें आना ही है सपरिवार।'
'कोई खास बात?'
'खास ही समझो। आप भी भूल जाते हो सक्सेना जी। उस दिन आजादी के बाद के सबसे प्रखर पत्रकार का जन्म हुआ था जिसे लोग 'दूसरी आजादी' भी कहते हैं।'
'ओ हो। पक्का।' सोचा तब की तब देखी जाएगी अभी से सिर क्यों खुजलाऊँ।
टहलते हुए हम बस स्टैंड पर आ गए।
बस स्टैंड पर अप्रत्याशित भीड़ थी। प्रति मिनट मानो देश की आबादी सीधे वहीं शामिल हो रही हो। 'मामला क्या है। जरा पूछें तो।'
'आज संत बाबा फड्डा सिंह का जन्मदिन है। उसी की रैली के लिए आई.टी.ओ. पुल रोक दिया गया है। उधर से पिछले दो घंटे से बस नहीं आ रही। और जब आ ही नहीं रही तो जाएगी कहाँ से।'
बात भी सही थी।
'तुमने प्रेस कौंसिल की 'हूजहू' देखी। उसमें अपना भी नाम है। पृष्ठ पाँच सौ इक्यानवे पर। दिखाऊँ?' उसने फिर थैले को पलटे अंदाज से थामा।
'अच्छा! मजा आ गया। देखूँगा।'
वह मुस्कराया गर्वीले अंदाज से।
'सिटीजन अवार्ड का तो तुम्हें पता ही होगा।'
'हाँ बधाई हो! अरे मैं तो तुम्हें बधाई देना ही भूल गया। सुना तो था।'
सच तो यह था कि मैंने सुना भी नहीं था। दिल्ली में लगभग तीनों पहर ही कोई-न-कोई पुरस्कार मिलता रहता है। 'इसमें कुछ 'नामा' भी है?'
'नामा तो मुझे चाहिए भी नहीं।' उसने संन्यासी की सी मुद्रा बनाई। 'पैसे के लिए तो अपन कोई काम करते ही नहीं हैं।'
'आज तो कमाल हो गया। एक बस नहीं।'
शायद उसने सुना नहीं। वह कहीं दूर से आती बस का नंबर पढ़ने की कोशिश कर रहा था। 'ये तो गाजियाबाद की है। अबकी बार तो सर्दी भी नहीं पड़ी।' उसने टाँगें बदलीं।
उसने कहा तो कुछ कहने के लिए मुझे भी कहना पड़ा।
'गर्मी भी कहाँ पड़ी?'
इस पर वह तुरंत सहमत हो गया।
धीरे-धीरे मौसम की बातें भी खत्म हो चुकी थीं।
'और सुनाओ।' मेरी चुप रहने की कोशिश भी कामयाब नहीं हो पा रही थी। वह बोले जा रहा था। मैं एक सेकेंड उसके चेहरे को देखता और फिर सामने बस की दिशा में देखने लगता। दिन भर की थकान के चलते मुझे हाँ-हाँ करना भी भारी पड़ने लगा था।
मैं कैसे भी उसके चंगुल से भाग छूटना चाहता था।
एक मन तो हुआ कि थ्री-व्हीलर लेकर निकल जाऊँ। 'आज मुझे जल्दी पहुँचना था और यहीं सात बच गए।'
'तो चलो स्कूटर से चलते हैं। मैं आगे निकल आऊँगा आप बस अड्डा उतर जाना।'
मुझे फिर परास्त होना पड़ा।
'और कोई खास बात? ' मैंने फिर से बात की बीड़ी जलाई।
'नहीं और तो कुछ नहीं। महाराष्ट्र में आज भूकंप आया है न। दो-तीन हजार लोगों के मरने की खबर है।'
'तीन हजार। कब आया? तुमने कहाँ सुना? और क्या-क्या...' मैं भौचक था।
'दफ्तर में लोग बात कर रहे थे। मैं तुम्हारी तरफ आने की जल्दी में था इसलिए देख नहीं पाया। पर बुरी खबर है न?'
'बुरी। यह बुरी है या भयानक। च्च...च्च इससे ज्यादा बुरी खबर क्या हो सकती है। हे भगवान।'
'अच्छा। मैं चलता हूँ। मेरी रेडलाइन आ रही है।'
इससे पहले कि मैं इस खबर के भूकंप से अपने को संतुलित कर पाता वह बस में चढ़ गया था और शीशे से दाँत निकालकर टाटा कर रहा था।