भूख का यथार्थ और कल्पना की रोटी / जयप्रकाश चौकसे

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भूख का यथार्थ और कल्पना की रोटी
प्रकाशन तिथि :15 अगस्त 2016


सदियों की गुलामी के बाद भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई और हमने हर क्षेत्र में कुछ प्रगति की। भाखरा नंगल, एटामिक एनर्जी कमीशन, सूचना प्रौद्योगिकी के अनेक केंद्र, कृषि क्षेत्र में विज्ञान का उपयोग, शिक्षा केंद्रों की स्थापना इत्यादि। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए ठोस नींव रखी गई परंतु सारी प्रगति के कुछ लाभ चुनिंदा लोगों को ही प्राप्त हुए और अधिकतम आबादी लगभग अछूती ही रही। विराट आर्थिक खाई ने प्रगति परिणामों को लगभग पूरी तरह लील-सा लिया। किसी भी देश के पुन: निर्माण में 69 वर्ष का समय बहुत नहीं होता परंतु इन 69 वर्षों में हमारा सामूहिक अवचेतन अपने बीहड़ और आदिम स्वरूप में परत-दर-परत उजागर होता गया। वह इस कदर उजागर हुआ कि यह शंका-सी होने लगी कि हजारों वर्ष पूर्व हम इतने विकसित थे या हमने अपने विगत को खूब रोमांटिसाइज करके प्रस्तुत किया और अपनी बनाई इस महान छवि पर यकीन भी करने लगे। इतने झूठ इतने अधिक लोग इतने लंबे समय तक नहीं बोल सकते। फिर प्रश्न उठता है कि इतनी समृद्ध विरासत के धनी हम लोग इतने भ्रष्ट क्यों हैं? नैतिकता का इस तरह लोप हो जाना तर्क से परे हैं।

देश की सारी समस्याओं के लिए नेताओं को ही दोष देना कहां तक सही है? उन्हें हमने ही चुना है और वे हमारे बीच से उभरे लोग हैं। हर कठिनाई के समय अखिल भारतीय छातीकूट प्रारंभ हो जाता है। सरल-सी बात हम अनदेखी करते हैं कि दोषारोपण के लिए जब एक उंगली उठाते हैं तो चार उंगलियां स्वयं की ओर होती है। नैतिकता का पतन क्यों और कैसे हुआ या हम सदैव ही ऐसे ही रहे हैं। हमारे महान आख्यान महाभारत के बारे में कहा जाता है कि संसार में घटित सारी घटनाओं का उद्‌गम महाभारत है और जो उसमें नहीं है, वह घटित हो ही नहीं सकता। यूरोप के दार्शनिक यह कहते हैं कि महाभारत एक घने जंगल की तरह है और इसमें हर कदम पर नए आश्चर्य घटित होते हैं। वह भावनाओं का कैलाइडोस्कोप है, जिसे घुमाते रहने पर दृश्य बदलते रहते हैं? महाभारत के रचयिता वेदव्यास ने मनोरंजक उपकथाअों के जाल रचे जिनके माध्यम से वे नैतिक पाठ पढ़ाते हैं परंतु हम उन कथाओं के मनोरंजन पक्ष में डूब गए अौर उनमें निहित नैतिकता के पाठ को अनदेखा किया। हमारे सारे महान आख्यानों के साथ हमने यही किया। भारत को कथावाचकों और श्रोताओं का देश कहा जाता है। हम श्रोताओं ने मनोरंजन पक्ष को मूल पाठ से अधिक महत्व दिया, हम उसकी रोचकता में खो गए। एक तरह से जंगल से गुजरते समय सुंदर फूल इत्यादि की ओर निहारते हुए रास्ते से भटक गए।

यह कहा जाता है की रामायण के एक कथा वाचक की प्रशंसा सुनकर स्वयं हनुमान सामान्य व्यक्ति की तरह वहां पहुंचे। प्रसंग था कि हुनमानजी वृक्ष पर बैठकर बंदिनी सीता को सफेद वस्त्र में देखते हैं और वाटिका में चहुं ओर रंग-बिरंगे फूल खिले हैं। श्रोताओं में बैठे हनुमानजी ने स्वयं को प्रकट किया और कहा कि वहां लाल फूल खिले थे और कथावाचक गलत वर्णन कर रहे हैं। कथावाचक ने कहा कि सीता माता की दशा देखकर हनुमान की आंखों में क्रोध से लहू आ गया और उन्हें रंग-बिरंगे फूल केवल लाल रंग के लगे। कथा वाचक ने घटनास्थल पर मौजूद पात्र को गलत बताया और स्वयं के वर्णन प अडिग रहा। हम कथावाचकों ने भी तथ्य और यथार्थ को गलत कहकर अपने गल्प को यथार्थ सिद्ध किया। हमने यथार्थ को गल्प और काल्पनिक को यथार्थ माना। संभव है कि इसी तरह हम करते आ रहे हैं। हम गल्प में आकंठ लीन रहे हैं।

महाभारत में पांडव का पक्ष न्यायसंगत है परंतु उनकी विजय में भी छलकपट का प्रयोग किया गया है। पवित्र साध्य के लिए अपवित्र साधन के प्रयोग को सही ठहराया है। इसके विपरीत महात्मा गांधी का विश्वास था कि अपवित्र साधन से साध्य भी कलुषित हो जाता है। उन्होंने चौरीचोरा हिंसा के बाद अपना सफल होता आंदोलन ही निरस्त कर दिया था। इस तरह भारत की कथा में नया नायक उभरा और उसने विजय दिलाई।

हम अनंत कथा श्रोताओं ने गांधी को काल्पनिक पात्र मान लिया। हमने गांधीवाद को देश की कथा की कल्पना माना और विस्मृत कर दिया। वर्तमान में एक मदारी कथा सुना रहा है, रोज नए वादे कर रहा है, मायाजाल बुन रहा है और अनंत श्रोता मंत्रमुग्ध हैं। सपनों में सपनों की रोटी खिलाई जा रही हैऔर हम तृप्त होकर डाकर भी ले रहे हैं। हमारी स्वंत्रता की अलसभोर में विभाजन की त्रासदी का श्याम रंग और मुक्त होने का उजास शामिल था। 'ये दाग दाग उजाला, ये शबगदीजा सहर वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं।' फैज अहमद फैज का यह शेर जन्म और फितरत से जुड़वां देशों का यथार्थ प्रस्तुत करता है।