भूख न देखे टूटा थाल / ट्विंकल तोमर सिंह
सब्जी को रोटी के एक टुकड़े में लपेटकर बड़े साहेब ने मुँह में डालकर चबाना शुरू किया। जिस स्वाद की उन्हें आशा थी वो ज़ुबान पर अनुभव न हुआ तो वो खीजकर बोले, "आजकल किसी भी चीज़ में कुछ स्वाद ही नही रहा।"
फिर एक चम्मच कटोरी के अंदर डुबाई और चम्मच भर पीली दाल सुड़ककर मुँह के अंदर डाल ली। उनकी ज़ुबान ने फिर से सुस्वाद परीक्षा में भोजन को पास न किया। अबकी बार बड़े साहब की खीज़ पत्नी पर निकली। जब भोजन में स्वाद नहीं है, मतलब पत्नी ने ही भोजन बनाने में कुछ आलस्य बरता होगा।
" मीरा..." इनका स्वर थोड़ा तेज़ और रूठा हुआ- सा था। " गरम दाल को चम्मच से सुड़कते हुए साहब ने अपनी पत्नी को आवाज़ दी जो रसोई से भागते हुए सलाद ला रहीं थीं। जैसे ही वो निकट पहुँची , साहब ने पूछा- "आज अरहर दाल बिन खटाई की बना दी है क्या ?"
"क्या हुआ जी? सब कुछ डाला है कली खटाई, टमाटर धनिया मिर्चा सब। अब फसल में ही स्वाद न हो, तो कोई क्या करे ?" मीरा ने साहेब की थाली में बड़ी मुश्किल से जगह बनाते हुए सलाद परोसा। दो तरह की सब्जी, दाल, रोटी, चावल, अचार, चटनी, पापड़ सब पहले से ही थाली में जगह घेरे बैठे थे । फिर सलाद के टुकड़ों को यूँ जगह लेनी पड़ी, जैसे ट्रेन के ठसाठस भरे हुये जनरल डिब्बे में किसी स्टेशन पर और यात्रियों का चढ़ आना।
साहब ने मूली का एक सख़्त टुकड़ा उठाकर मुँह में डाल लिया। फिर थोड़ा नरम होते हुए बोले, "वही तो। बचपन वाला वो स्वाद रहा ही नही। मुझे अच्छी तरह से याद है, स्कूल जाने से पहले हम लोगों को अम्मा सिर्फ़ दाल चावल कटोरे में डाल के दे देतीं थीं। क्या स्वाद था वाह। अब नकली खाद, फ़र्टिलाइज़र, इंजेक्शन देकर फसल उगाएँगे तो कहाँ से सब्जी ,दाल ,चावल , रोटी में स्वाद आएगा। बस पेट भरने को खा लो। तृप्ति तो मिलने से रही। " - साहेब ने अबकी बार रोटी सब्जी में ढेर सी हरी धनिया की चटनी लगाकर कौर को मुँह के अंदर धकेला। शायद अबकी बार स्वाद मिल जाए।
स्वाद फिर भी नहीं मिला। "धनिया में भी अब महक नहीं रही।" उन्होंने मुँह बिचकाया।
अचानक मीरा का ध्यान गया कि मुनिया का बच्चा थोड़ी दूर पर ही खड़ा है और इधर ही ताके जा रहा है।
" अरे, मुनिया कितनी बार कहा है, अपने बच्चे को अपने पास बैठाया करो। जब साहेब खाना खाया करें तो इनसे दूर रखा करो।" मीरा ने मुनिया को कड़क स्वर में आवाज़ दी। फिर मन में बड़बड़ायीं- "चटोरा कहीं का, इनके खाने को नज़र लगा देता है। तभी तो इनको खाने में स्वाद नही आता।" मीरा के चेहरे पर गंदे-संदे, मैले- कुचैले , नाक बहाते बचवा के लिए घृणा का भाव स्पष्ट देखा जा सकता था।
मुनिया ने जैसे ही मेमसाहेब की आवाज़ सुनाई, हाथ में जो झाड़ू थाम रखी थी, उसे छोड़कर वह त्वरित गति से दौड़ते हुए आई, जैसे पल भर की भी देर हो गयी तो अनिष्ट हो जाएगा, भूकम्प आ जाएगा, मेमसाहेब अपनी तीसरी आँख खोलकर बचवा की ओर देख लेंगी और बचवा भस्म हो जाएगा। फौरन मुनिया ने बचवा को कस कर डपटा, "क्यों खड़ा है यहाँ?" फिर साहब, मेमसाहब को दिखाने के लिये एक हल्का सा चाँटा भी बचवा को रसीद दिया और उसे जबरदस्ती खींचकर गोद में उठा कर ले गई।
बचवा मुनिया की गोद में टँगा था। मुनिया आगे बढ़ती जाती थी, बचवा पीछे देखता जाता था। उसकी दृष्टि साहब की थाली पर ही चिपकी हुई थी। उससे विलग हो ही नहीं पा रही थी, जैसे कि फेविकोल का मज़बूत जोड़। और कहीं ये जोड़ होता हो, न होता हो, यहाँ अवश्य मिल जाएगा।
मुनिया कोने में ले जाकर अपने बाबू को पुचकारने लगी - "भूख लगी है न बचवा। बस अभी झाड़ू- पोछा लगा लूँ फिर घर चल कर तुझे अच्छा- सा खाना देतीं हूँ। ठीक है मेरा राजा?" बचवा की लार अभी तक बह रही थी और आँखों में एक अज़ीब से लालच में डूबी हुई भूख थी। साहेब की थाली अब सामने नहीं थी, मगर मन से उसकी तस्वीर अभी तक धुंधली नहीं पड़ी थी। मुनिया का मन भर आया। वह अपने दो साल के बच्चे के मन की बात अच्छी तरह समझ रही थी, जो अभी ठीक से बोल भी नही पाता था।
तभी साहब के डकार लेने की आवाजें आने लगीं। उनका भोजन समाप्त हो चुका था। मीरा मेमसाब डाइनिंग टेबल से खाने पीने का सामान हटाकर रसोई में रखने लगीं। मुनिया झाड़ू- पोछा निपटाने के बाद बेसिन में बर्तन धोने के लिए आ गई। उसने देखा कि बचा हुआ भोजन मेमसाब छोटे बर्तनों में परोसकर फ़्रिज़ में रखने की तैयारी कर रहीं हैं। मुनिया के अंदर की ममता ने उसे हाथ पसारने पर मजबूर कर दिया। उसके अंदर की माँ ने बड़े संकोच से साथ कहा- "मालकिन, अगर दाल- चावल बचा हो,तो थोड़ा- सा दे दीजिए। बचवा भूखा है शायद। आज सुबह जल्दी में उसे कुछ खिला नहीं पाई थी।"
मीरा ने अपने स्वर में बनावटी मिश्री घोलते हुए कहा,"अरे हाँ..हाँ.. क्यों नही। एक आदमी भर का खाना मैं हमेशा ज़्यादा बनाती हूँ। इसके भर का हो ही जाएगा।"
"कमीने ने वैसे ही उनके खाने पर नज़र लगा दी है। अग़र इसे नही दूंगी तो उनका खाना कहाँ पचेगा भला?" मन में वितृष्णा से बुदबुदाते हुये मीरा महरी के लिये अलग से रखे हुये बर्तनों में दाल चावल परोसने लगीं।
मुनिया ने फौरन अपने हाथ धोए, जल्दी से आँचल में हाथ पोंछा ,लपककर थाली ले ली। फिर उसने दाल चावल साना , कौर बनाकर बचवा को खिलाने लगी। बचवा लपक- लपकके खाने लगा,जैसे उसे अमृत मिल गया हो। दो कौरों के बीच का इंतज़ार भी उसे सहन नही हो रहा था।
भूख तो मुनिया को भी बड़ी जोर की लगी थी, पर बचवा का पेट भरना जरूरी था पहले। चार- पाँच कौर बचवा को खिलाने के बाद मुनिया से रुका नहीं गया। उसने बीच में एक कौर अपने मुँह में भी डाल ही लिया। कौर मुँह में रखते ही उसे ये समझ में नहीं आया कि साहब क्यों कह रहे थे खाने में स्वाद नही है ? सादे दाल चावल में भी कितना तो स्वाद है। घी,नमक,छौंका सबका अनुपात बराबर तो है।
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