भूख से मृत्यु पूरा देश शर्मिंदा / जयप्रकाश चौकसे

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भूख से मृत्यु पूरा देश शर्मिंदा
प्रकाशन तिथि : 07 जून 2018


कृषि प्रधान देश कहे जाने वाले भारत में भूख से मृत्यु की खबरें आ रही हैं। देश के हृदय प्रदेश में किसानों पर गोलियां दागी जाती हैं और रिकॉर्ड पैदावार के दावे के बाद भूख से मरने की खबर भी आ रही है। अत्यंत प्रचारित विकास युग में यह सब हो रहा है। राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया जा रहा है जबकि राष्ट्रवाद का असल अर्थ है अपने देश को खुशहाल बनाना और ऐसा विकास करना कि अमीरी और गरीबी की खाई समाप्त नहीं की जा सके तो कम से कम संकरी ही की जा सके।

सन् 1856 में अकाल पड़ा था और लॉर्ड क्लाइव ने कोई सरकारी सहायता उपलब्ध नहीं कराई। उनकी उदासीनता भी 1857 की क्रांति के पीछे का कारण रही है। उस महान क्रांति का प्रथम उद्देश्य तो स्वतंत्रता प्राप्त करना ही था। ब्रिटिश संसद ने लॉर्ड क्लाइव से उसके अमानवीय व्यवहार का स्पष्टीकरण पूछा था और उन्हें फटकार भी लगाई गई थी। क्या हमारी वर्तमान संसद में उन प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को सफाई देने के लिए बुलाया जाएगा जहां भूख से मृत्यु हुई है? एक व्यक्ति ने दस दिन तक भूख सही और फिर वह मृत्यु का निवाला बन गया। सत्यजीत रे की बंगाल के अकाल की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में उन्होंने रेखांकित किया था कि वह अकाल मनुष्य के लालच द्वारा निर्मित था। वह प्रकृति का कोप नहीं था। इसी को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने लहलहाती फसल को पार्श्व में रखा था। अमर्त्य सेन को नोबेल पुरस्कार इस बात के लिए दिया गया कि तीव्र गति से सामान एक जगह से दूसरी जगह भेजने की सुविधा पर अकाल से होने वाली मृत्यु को रोका जा सकता है। आज कुछ ही देर में अनाज कहीं भी भेजा जा सकता है।

दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर की पराजय के बाद अमेरिकी सैनिक विभाजित बर्लिन के एक हिस्से में थे और दूसरे हिस्से में मौजूद रूसी सेना ने उन्हें रसद नहीं पहुंचने दी। अमेरिका ने हवाई जहाज द्वारा रसद पहुंचाने का सिलसिला बनाए रखा। एक भी सैनिक को रोटी के अभाव में मरने नहीं दिया गया। इस विषय पर लिओन यूरिस की किताब का नाम है 'आर्मेगेडान'।

आज भारत में भूख से मृत्यु होना हम सबके लिए शर्म की बात है। अगर सारे साधन संपन्न लोग एक दिन का उपवास करें और उस दिन का अनाज सुविधाहीन को दे दें तो कोई व्यक्ति भूख से नहीं मर सकता। आंकड़ेबाज विशेषज्ञ बताएं कि 120 करोड़ लोगों का मात्र एक दिन का उपवास कितने टन अनाज बचा सकता है। सबसे अधिक शर्म की बात यह है कि भूख से मरने वाले एक व्यक्ति को राशन कार्ड होते हुए भी अनाज नहीं दिया गया क्योंकि कार्ड में उसके नाम लिखने में एक अक्षर का अंतर आ रहा था।

ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म 'धरती के लाल' और बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा जमीन' भी किसान और भूख से जुड़ी महान फिल्में हैं। मेहबूब खान की 'रोटी' का संदेश भी यही था कि भूख लगने पर अपार धनराशि काम नहीं आती, केवल रोटी ही प्राण बचा सकती है। दशकों बाद 'रोटी' नामक राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म बनी थी परन्तु समस्या को रोमेंटेसाइज कर दिया गया था। उस फिल्म का मकसद केवल पैसा कमाना ही था। साम्यवादी लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास की राजकपूर द्वारा बनाई गई 'आवारा' में नायक भूख के कारण अपराध करता है और उसे जेल भेज दिया जाता है। जेल में मिली रोटी की ओर देखकर राजकपूर कहते हैं 'ये कम्बख्त रोटी बाहर मिली होती तो मैं अंदर (जेल में) क्यों आता'?

बहरहाल एक दौर में जीतेन्द्र दक्षिण भारत में बनने वाली हिन्दुस्तानी फिल्मों के सुपर सितारा थे और अपने आप को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए फल और सूप का सेवन करते थे। एक दशक बाद उनकी आंधी थमी और मुंबई में अपने परिवार के साथ बैठकर उन्होंने पहली बार रोटी, दाल और सब्जी खाई। उस दिन को वे आज भी अपने जीवन का सबसे सुखद दिन मानते हैं। विनोबा भावे प्रतिदिन बीस किलोमीटर चलते थे और केवल दही खाते थे। जब बहुत उम्रदराज होकर उन्होंने प्राण तजने का निर्णय लिया तब उन्होंने पानी तक पीना छोड़ दिया फिर भी प्राण तजने में लंबा वक्त लगा क्योंकि दही खाना और मीलों प्रतिदिन चलने के कारण वे मजबूत व्यक्ति थे। भीष्म पितामह भी तीरों की शय्या पर कई दिन तक पड़े रहे, उन्हें सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा थी।

बहरहाल वर्तमान कालखंड में भूख से मृत्यु सरकार की विफलता को रेखांकित करती है। यह कोई अकाल का संकट नहीं है, कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। यह केवल निर्जीव व्यवस्था का नतीजा है। क्या भूख से मरने वालों की मृत्यु को संदिग्ध मानकर उनका पोस्टमार्टम किया जाएगा और बहुत पहले खाए किसी अनाज के दाने को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करेंगे कि यह मृत्यु भूख से नहीं वरन अपच से हुई है?