भूख / अमृतलाल नागर
रचनाकार | अमृतलाल नागर |
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भाषा | हिन्दी |
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कथा प्रवेश
बर्मा पर जापानियों का कब्जा हो गया। हिन्दू स्तान पर महायुद्घ की परछाई पड़ने लगी। हर शख्स के दिल से ब्रिटिश सरकार का विश्वास उठ गया। ‘कुछ होनेवाला है, -कुछ होगा !’-हर एक के दिल में यही डर समा गया। यथाशक्ति लोगों ने चावल ज़मा करना शुरू किया। रईसों ने बरसों के खाने का इन्तज़ाम कर लिया। मध्यवर्गीय नौकरीपेशा गृहस्थों ने अपनी शक्ति के अनुसार दो-तीन महीने में लगाकर छः महीने तक की खुराक जमा कर ली। खेतिहर भूख से लड़ने लगा।
व्यापारियों ने लोगों को कम चावल देना शुरू किया। हिन्दू और मुसलमान, व्यापारी और धनिक वर्ग, अपनी-अपनी कौमों को थोड़ा-बहुत चावल देते रहे। खेतिहार मजदूर भीख मांगने पर मजबूर हुआ। शुरू में भीख दे देते थे; फिर अपनी हीन कमी का रोना रोने लगे। दया-दान की भावना मरने लगी। भूख ने मेहनत मजदूरी करने वाले ईमानदार इन्सानों को खूंख्वार लुटेरा बना दिया। भूख ने सतियों को वेश्या बनने पर मजबूर किया। मौत का डर बढ़ने लगा।
मौत का डर आदमियों को परेशान करने लगा, पागल बनाने लगा। और एक दिन चिर आशंकित, चिर प्रत्याशित मृत्यु, भूख को दूर करने के समस्त साधनों के रहते हुए भी, भूखे मानव को अपना आहार बनाने लगी। तब आशावादी मानव कठोर होकर मृत्यु से लड़ने लगा। उपन्यास का प्रारम्भ यहीं से होता है।
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