भूख / अशोक भाटिया
रेलगाड़ी में एक आदमी भीख माँग रहा था। एक बाबू ने आस-पास देखते हुए भिखारी की तरफ एक अठन्नी बढ़ाकर कहा, ‘‘बाबा, चवन्नी वापस कर दो।‘‘
आस-पास के यात्री सोचने लगे,‘‘कितना अमीर और महान् है।‘‘
दुआएँ देता हुआ भिखारी आगे बढ़ गया। कुछ आगे एक भारी-भरकम सेठ ने उसे दो रूपये का नोट देकर कहा, ‘‘लो बाबा, एक रूपया वापस कर दो...।‘‘
यात्रियों ने सेठ को आदर और आश्चर्य से देखा।
रटी हुई दुआएँ देता भिखारी आगे बढ़ गया। वहां एक आदमी खाना खाने लगा था। उसने कहा, ‘‘बाबा, मेरे पास रोटी है। तुम्हें भूख लगी होगी। आओ, बैठकर खा लो...।‘‘
सुनकर भिखारी ठिठक गया। पहली बार किसी ने ऐसा कहा था। लोगों ने सुना तो सोचने लगे, ‘‘बेवकूफ ! खरदिमाग ! इस भिखारी को पास बिठाएगा ! गन्दे कपड़े, मैला सिर...!‘‘
उस आदमी ने अनमने भिखारी को अपने पास बिठा लिया। भिखारी की आँखें भीग गई थीं। संकोच में उसने दो कौर खाए और उठ गया।
‘‘बस बाबा, इतने में ही भूख मिट गई ?‘‘
भिखारी भर्राए स्वर में बोला, ‘‘बाबू, सच कहूँ, सारी भूख मिट गई है। आज तक मुझे किसी ने इतना नहीं दिया।‘‘