भूख / उमेश मोहन धवन
"हरप्रीते जरा रोट्टी दे दे फटाफट, भूख अब बरदाश्त नहीं हो रही"
"क्या बात है दार जी आज सात बजे ही भूख लग गयी, रोज तो आप रात नौ बजे तक खाते हो।"
"पता नहीं, आज दोपहर को थोड़ा कम खाया था न शायद इसीलिये। इतवार को सारा दिन घर पर रहो तो रूटीन ही बिगड़ जाता है। चंचल पुत्तर दिखायी नहीं दे रही, आगे वाले कमरे में है क्या? उस बुलाना तो जरा।"
"नहीं जी वह तो अपनी सहेली के घर गयी हुयी है। दोपहर तीन बज गयी थी, कहती थी कोई फंक्शन है वहां। शायद किसी का जनम दिन होगा। कहकर गयी थी कि छ: बजे तक आ जायेगी पर सात बज गये आयी नहीं अभी तक। चलो कोई नहीं, आ ही जायेगी। फंक्शनों में देर सवेर तो हो ही जाती है। ये लो जी आप खाना खाओ। आपकी पसंद की सब्जी बनायी है"
"अभी जरा रहने दे खाना थोड़ी देर। अभी तो भूख बड़े जोर की लग रही थी पर पता नहीं अचानक ऐसा लग रहा है कि जैसे भूख मर सी गयी हो।"
सरदार जी ने खाने की थाली से मुंह घुमा लिया और दरवाजे की तरफ देखने लगे