भूख / जगदीश कश्यप
वह पूरी ताकत से भाग रहा था. जब वह रुका तो उसने अपने को किसी बड़े नगर में पाया. कई बार रो पड़ने के बावजूद किसी ने भी उसे अपने पवित्र घर में घुसने नहीं दिया था. अब वह गांव की ओर दौड़ रहा था.
उसे अच्छी तरह मालूम था कि पीछा करने वाली डायन उसे मां-बाप को भी निगल गई थी. पूरी की पूरी जिंदगी उसने इस डायन की कैद से छुटकारा पाने में बरबाद कर दी थी. किसी तरह वह एक रात को चुपचाप भाग निकला था.
उसने एक झोपड़ी का द्वार खटखटाया. खस्ता हालत में खड़ा टट्टर उसके जरा-सा धकेलते ही खुल गया. लेकिन सामने देखते ही वह भय से चीख पड़ा. एक बूढ़े की लाश के पास खड़ी वह क्रूरता से मुस्करा रही थी —
‘ये बुढ्ढा भी वर्षों पहले मेरे चंगुल से निकल भागा था. एक हफ्ते तक मैंने इसे खाट से उठने नहीं दिया.’
उसके यह सोचते ही कि वह तीन दिन से भूखा है, उसके पेट में कुछ ऐंठन-सी हुई. फिर भी वह मुड़ भागा वह मुस्कराती रही.
जैसे ही वह एक मोड़ पर रुका, वह सामने खड़ी थी. तुरंत ही उसने ढेर-सा खून उगला और उसके कदमों में गिर पड़ा.