भूख / डॉ. रंजना जायसवाल

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"माँ! कुछ खाने को दो न... दो दिन हो गए पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया, बहुत भूख लगी है।"

मोहन सुबह से खाने की रट लगाए था पर रमिया करती भी तो क्या...सारे बर्तन टटोल चुकी थी। मोहन के बापू भी न जाने कहाँ रह गए।

"तू चिंता न कर तेरे बापू आते ही होंगे। साहूकार से पैसे लेने गए हैं, फिर तेरी पसन्द की हर चीज़ बनाऊँगी"

"तीन दिन हो गए माँ बापू को शहर गए हुए.। कब आएंगे बापू?"

" इस साल बड़ी अच्छी फसल हुई है तेरे बापू कह रहे थे साहूकार अच्छा पैसा देगा...बस आते ही होंगे। तू चिंता न कर।

पर अब तो रमिया को भी चिंता होने लगी थी। तीन दिन हो गए थे मोहन के बापू को शहर गए हुए पर...मोहन भूख से बिलबिला रहा था। भूख तो उसे भी बहुत लगी थी पर...रमिया बगल वाली काकी से मुट्ठी भर आटा ले आई। सबका तो एक ही जैसा हाल था...रमिया ने आटे को पानी में घोलकर मोहन को दे दिया वह गुस्से से चीख उठा।

"नहीं अब और नहीं... कितने दिन हो गए भरपेट खाये हुए कुछ दो न माँ..."

मोहन की आँखें दर्द से भीग गई, तीन दिन में उसका चेहरा कितना छोटा-सा हो गया था। कुछ दिन पहले उसको टी बी निकल आई थी, डॉक्टर ने अच्छे से इलाज कराने को कहा था।

"रमिया! दवाई समय-समय पर देती रहना और इसे अच्छा खाना खिलाओ, देखो कमजोर शरीर बीमारियों का घर होता है।"

अच्छा खाना...कहाँ से लाती वह यहाँ जीने के लिए खाना मुहैया करना मुश्किल था फिर...आधी रात में मोहन की तबीयत बिगड़ती चली गई। रमिया दौड़ कर बगल वाले काका को बुला लाई, इतनी रात में वह कहाँ जाती...घबराहट से उसके हाथ पांव फूलने लगे। गाँव में हल्ला मचा गया, न जाने कौन भला मानुष वैध जी को ले आया। रमिया की झोपड़ी के आगे लोगों की भीड़ जमा होने लगी। बाहर एक अजीब-सा कोलाहल मचा हुआ था, पर अंदर सब कुछ शांत हो रहा था। वैध जी ने सबको चुप होने को कहा...मोहन की पतली-सी कलाई को थामे वैध जी उसके जीवित होने के सबूत को ढूँढने की कोशिश करने लगे। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।

मोहन की सांसे उखड़ने लगी पसलियाँ चलने लगी। मोहन की नब्ज डूब रही थी, वह बेहोशी में चिल्ला रहा था, " माँ देखो न बापू आ गए, बापू मेरे लिए कितना सारा सामान लाये हैं पूरी, कचौरी, जलेबी और वह बड़ी वाली बालूशाही भी...रमिया हाथ जोड़े आँखें मुदे अपने इष्ट को मनाने में जुटी थी पर न जाने क्यों आज ऊपरवाला भी निर्मोही हो गया था। सच कहते हैं मोहन के बापू गरीबों की सुनता कौन है। सूरज की पहली पौ फटने के साथ मोहन का जीवन डूब गया।

अखबार के पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था...इस साल रिकॉर्ड तोड़ फसल हुई, सरकार निर्यात करने की सोच रही, वही अखबार के तीसरे पन्ने पर दो खबरें और भी थी, भूख से बच्चे की मौत और उसी गाँव के एक शख्स ने गाँव के बाहर पेड़ से लटककर अपनी इहलीला समाप्त की। लाश दो दिन पुरानी बताई जा रही है। आंगन में बेटे और पति की लाश पड़ी थी, रमिया की आँखों के आँसू सूख गये थे। वह एकटक अपने पति और बेटे को देख रही थी। भगवान ने उसका सिंदूर और कोख उजाड़ दी थी। बेचारी...भीड़ में से एक आवाज आई। बेचारी ही तो थी वो...बचपन में गरीबी के कारण पिता को खोया और अब सन्तान और पति को...रमिया पत्थर हो गई थी। आँसू का एक कतरा उसकी आँखों से न टपका,

"रो ले बिटिया! कब तक ऐसे बैठी रहेगी...रो ले जी हल्का हो जायेगा।"

काकी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर हिलाया ...पर रमिया धप्प की आवाज के साथ जमीन पर लुढ़क गई। उसकी सांसे तो कब का टूट चुकी थी।