भूख / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
भूख यह शब्द इतना मार्मिक है कि सुनते ही भूख लगते उगती है। भला हो काव्यशास्त्र के आचार्यों का जिन्होंने भूख को गणना रसों में नहीं को है। अगर ऐसा हो जाता, तब तो रस-लोलुप व्यक्तियों की परेशानी हद से ज्यादा बढ़ जाती। पेट की भूख तो सारे संसार की समस्या है, भारत की भी (भले ही यहाँ किसी शादी में दो करोड़ रुपये खर्च हो जाएँ और उसमें भूखी-नंगी जनता का केद्रीय मंत्री भी आमन्त्रित हो) । भारत की समस्या को भयानक रूप से लम्बे भाषण देकर किसी हद तक सुधारने का प्रयास किया जा रहा है। इस सात्त्विक कार्यक्रम के तहत गरीबी और गरीब दोनों को हो परलोक भेजा जा रहा है। रोटी न मिले, तो कोई बात नहीं, विविध व्यंजन भोगी सुधारकों के मुख से भाषण तो मिल हो जाता है। नेता जब जनहित की अपच के शिकार हो जाते है, तब उस ऊल-जलूल भाषण देकर स्वास्थ्य लाभ करते हैं।
पद को भूख पेट की भूख से भी बदतर है। योग्यता वालों को भी प्रायः इसके लिए मुँह की खानी पड़ती है। रही बात अयोग्य व्यक्तियों की, वे जोड़-तोड़ करके कुसियों तक पहुँच ही जाते हैं। यह बात दूसरी है कि बाद में उन्हें भले कुर्सी समेत उठाकर कचरे की तरह फेंक दिया जाए।
बड़े बाबू जिस दिन छुट्टी पर होते हैं। उस दिन छोटे बाबू काजल कुमार 'शहीद' (शहीद हुए नहीं, अगर कभी बड़े बाबू न बन पाए, तो शहीद हो जाएँगे) के सिर में साइक्लोन घुमड़ने लगता है। चेहरा अपस्मार के रोगों की तरह अकड़ आता है और गर्दन ऊँट की तरह तन जाती है। शीत लहर चलने पर भी धूप का चश्मा चेहरे की आब बढ़ाने लगता है। जितना चिन्तन करते हैं, उतने ही बाल सफेद होते जाते हैं। फाइलों से उस दिन इनको विराग हो जाता है। बड़े बाबू के आने पर इनकी 'पुनः मूसको भव' (फिर से चूहा बन जाओ) वाली स्थिति हो जाती है, तब इनकी कातर दृष्टि किस दयालु के हृदय को द्रवित न कर सकेगी। यमराज को चाहिए कि वे इनकी इस आदत को अपने स्टेनो चित्रगुप्त को लिखवा दें और इन्हें लेने के लिए जब अपने दूत भेजें, तो साथ में एक कुर्सी भी भिजवा दें (किसी मृतक अधिकारी की) । इससे यह फायदा होगा कि प्राण निकलने में असुविधा होने से कुर्सी पर बैठने के लोभ में ये पहले ही अपने भौतिक और अनावश्यक चोले का त्याग कर सकेंगे।
जिनको अंटशंट खाने का अधिक शोक होता है, उन्हें अधिक बोलने की बुरी लत भी होती है। इसी अतिशयता के कारण इनकी योग्यता भी अयोगयता में बदल जाती है। दूसरों की बातों को सुनने का धैर्य इनमें नहीं होता, साथ ही दूसरों में भी इतना धैर्य नहीं होता, जो इनकी बेलगाम बातों को समाधिस्थ होकर सुन सके। इनके अनुसार सारा देश, सारा समाज विकृत है। इसके लिए इनकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं। इस बोलने की भूख में खाना-पीना और सोना सब कुछ भूल जाते हैं। ये किसी का अहित भले ही न कर पाएँ, पर लोग इनकी खाट जरूर खड़ी कर देते हैं; क्योंकि बोलने की भूख से इनका सारी कमजोरियाँ जाहिर हो जाती हैं। कब्र में भी शायद ये चुप न रहते पाएँ। इनकी बकवास के सताए हुए लोग इनके साये से भी दूर भागते हैं।
एक सज्जन बहुत बोलने वालों से भयभीत रहा करते थे। एक बार वे एक कब्रिस्तान से गुजरे। वहाँ एक शराबी कब्र खोद रहा था। वह नशे में खोदता हो चला गया। अँधेरा घिर आया, ठंड बढ़ गई। कब्र की गहराई इतनी अधिक हो चुकी थी कि उससे निकलना भी मुश्किल था। शराबी ने सज्जन की पदचाप सुनकर कहा-"अरे भाई! मैं इस कब्र में रह गया हूँ। मेरा बाहर निकलना मुश्किल है। ठण्ड भी लग रही है। मेहरबानी करके मुझे निकालते जाइए। इस पर सज्जन बोले–" लगता है दफ़्न करने वालों ने तुम पर मिट्टी नहीं डाली। तुम्हारे ऊपर मिट्टी डाल देते, तो ठंड नहीं लगती। " इतना कहकर वे चलते बने। उन्होंने समझा-कोई बकवादी मुर्दा होगा। आदमी को पास से गुजरता जानकर बोलने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।
रतिनाथ जी बेबी फ़ीडर से दूध पीते हैं। कारण पूछने पर बोले-बाल मनोविज्ञान पर एक पुस्तक लिख रहा हूँ। बेबी फ़ीडर से दूध पीकर बाल स्वभाव जाग उठता है, इससे पुस्तक लिखने में सरलता होगी। पहले बेचारे रोमाण्टिक कहानियाँ लिखा करते थे, जो सम्पातक के अभिवादन और खेद सहित वापस आ जाया करती थीं। जब एक प्रतिष्ठित पत्रिका से कहानी वापस आई तो 'खुल जा सिमसिम' की तरह उनको अक़्ल की एक 'विण्डो' खुल गई।
अगले दिन उन्होंने वह रचना डाक से फिर उसी पत्रिका में भेज दी। अपने नाम के स्थान पर लिख दिया कु। मधूलिका और साथ में एक प्रेम-पगा पत्र भी। रचना तुरन्त स्वीकृत हो गई। छपने पर पाठकों के प्रशंसा-पत्र और प्रेम-पत्र भी आने लगे। रतिनाथ जी. मधूलिका के नाम से निरन्तर लिखते हैं। उनके लेखन का पूरा लाभ उनकी मूर्ख सहपाठिनी मधूलिका अब तक प्राप्त कर रही है। रतिनाथ में बाल स्वभाव अब सचमुच जाग उठा है। इसी बाल सुलभता के वशीभूत होकर उन्होंने बाल मनोविज्ञान की पाण्डुलिपि हँसती हुई अँगीठी के कपोलों पर रख दी। जिन 50 पुस्तकों का रस लेकर उन्होंने पुस्तक लिखी थी, अपनी बाल सुलभता के कारण एक फेरी वाले को 30 पैसे किलो के हिसाब से बेच दी। इस पावन प्रयास के लिए अपना खटारा स्कूटर बेचकर लाइब्रेरी के डेढ़ हजार रुपये चुकाए। इसी के साथ उनकी बाल मनोविज्ञान पर शोध ग्रन्थ लिखने की भूख हवा हो गई।
"'( रचना-10मार्च, 1979, प्रकाशन-बाज़ार पत्रिका / जून 1979)"'