भूख / विकेश निझावन

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करमाँवाली तो मर गई लेकिन औलाद पीछे छोड़ गई। औलाद भी क्या पूरी जौंक। जैसे जिस्म के खून की आखिरी बूँद तक चूसकर रहेगी।

सत्या ने दोहत्थड़ माथे पर दे मारे - “हे करमाँवाली तू तो करमाँवाली ही निकली। अच्छे करम किए थे जो समय पर चली गई। नहीं तो आज वह सब तुझे सहना पड़ता जो मैं सह रही हूँ।” सत्या केवल एक बार नहीं सैंकड़ों बार इस वाक्य को दोहरा चुकी है।

शिबु पहले हँस देता है फिर चिल्ला उठता है- “तेरे को ही शौक चर्राया था इसे पालने का। ... अरी तू तो बेटी बना लेगी इसे लेकिन ये तेरे को माँ समझे तब न!”

“तो इसका क्या करती मैं? सत्या के आँसू अपने आप बहने लगते।”

“अरी! माँ मरी है न इसकी।  बाप तो ज़िंदा है।  अपने आप सँभालता।” 
“अपने आप कैसे सँभालता। मुआ खुद को तो सँभाल नहीं पाता। हर रोज नाली में गिरा पड़ा रहता है।”

“फिर दोगली बात क्यों करती है तू? अब इसे लिया है तो झेलना भी तो तुझे ही पड़ेगा। फिर हँस कर ही झेल ले।”

“अब क्या हँसूँ मैं। जब औलाद हो जाय न तब आदमी औलाद को देख कर हँसता है। अब औलाद राक्षसनी होए तो कोई क्या हँसे।” 
“शुभ-शुभ बोल भली मानस! तेरी अपनी कोख से जनी होती तो ऐसे शब्द न निकलते तेरे मुँह से।”  
“मेरी कोख से जनी होती तो अब तक इसका गला दबा गई होती मैं।” 

सत्या का यह रूद्र रूप देख शिबु हैरत में पड़ आया था। ऐसी पहले तो कभी नहीं थी सत्या। आज इसे क्या हो आया? शिबु चुप हो गया था। उसे लगा ज्यादा कहेगा तो यह औरत सच में आवेश में आकर इसका गला ही न दबा दे।

सत्या पाँव पटकती रसोई में चली गई थी। महीने का आखिरी दिन है, सारा राशन-पानी खत्म पड़ा है। सब जानते हुए भी सत्या ने एक बार फिर सभी डिब्बों को छान मारा। सबेरे थोड़े से चावल तो मिल गए थे; लेकिन दाल का एक भी दाना नहीं। बूँदी ने आँख खुलते ही कहा था- “आज दाल”भात खाऊँगी।”

“अब क्या रोटी हजम होनी बन्द हो गई या फिर गले में अटकती है?”
“मेरा पेट खराब है।”

“अरे मनोमन खाएगी तो पेट ही खराब होगा।”


सबेरे तो बात इतने से टल गई थी। लेकिन अब तो बूँदी ने हद कर दी। पेट खराब होने के बावजूद रात की बची तीन रोटियाँ निगल गई। सत्या उसके आगे से थाली उठाने लगी तो बूँदी बेबाक बोली थी, “और नहीं देगी क्या?”

“लो! यह सुन लो!” - सत्या ने मन ही मन कहा और बूँदी को घूरने लगी थी। कई बार व्यक्ति को दूसरे के चेहरे में अपना चेहरा दिखने लगता है। एकाएक सत्या को लगा वह उसे नहीं बूँदी उसे घूर रही है। और बूँदी की गोल-गोल आँखों मे जो गहराई है उसे देख तो कोई भी दहशत खाने लगे। सत्या ने सर झटका था-  “ले खा ले। मुझे खा ले।”  बूँदी की आँखें वैसी ही बनी रहीं।  बस होंठ हिले थे, “तुझे नहीं  दाल-भात खाऊँगी।” 

सत्या समझ गई जब तक इसे दाल-भात नहीं मिलेगा न इसका पेट भरेगा न इसकी नीयत। आँखें तो इसकी हमेशा से भूखी हैं। खा-पीकर भी बिटर-बिटर ताकती रहती है।

ऐसा क्यों है? सत्या कई बार सोचने लगती। उनके तो पूरे परिवार में ऐसी नीयत किसी की न थी। करमाँवाली को तो अम्मा जोर-जबरदस्ती करके ही खिलाती थी। दादके परिवार पर ही न गई हो। करमाँवाली ने कभी ऐसी बात नहीं बताई थी। बल्कि तारीफ़ ही करती थी सभी की।

करमाँवाली न बूँदी को जनती न उसकी जान जाती। यह बात एक के मुँह से नहीं कइयों के मुँह से फूटी थी। करमाँवाली की सास ने भी यही कहा था। लेकिन ससुरजी ने डपट दिया था, “ऐ कलमुँहियों! औरत जात होकर छोकरी पर कलंक लगाती हो।”

करमाँवाली का सबसे ज्यादा धक्का ससुरजी को ही लगा था। एक तो करमाँ वाली चली गई दूजे बूँदी पर होने वाले तानों की बौछार वे सहन नहीं कर पाए। चार रोज़ बाद फिर से उस घर से एक और अर्थी उठी थी।

सत्या पाँव पटकटी हुई शिबु के पास आई थी, “थोडी-सी मूँग की दाल ले आ।”

“तुझे पता है आज महीने का आखिरी दिन है।”   

“यह तो इसे बता मुझे क्या कहता है। इसका मुँह बन्द कर तो जानूँ। बोल दे इसे चावल खाने हैं तो बनाय देती हूँ।”

शिबु पूरे दस मिनट गर्दन झुकाए बैठा रहा। सत्या सोच रही थी अभी वह ताव में आ जाएगा। लेकिन एक झटके से वह वहाँ से उठा और बाहर को निकल गया। सत्या सोच में पड़ गई। नाराज़ होकर बाहर चल गया होगा। अब तो न आता रात तक वापिस। इस मुई ने तो हमारी जिन्दगी भी नरक बना डाली।

लेकिन शिबु जितनी फुर्ति से गया था उतनी फुर्ति से लौट भी आया। लिफाफा सत्या की ओर बढ़ाते हुए बोला- “ले दाल-भात बना दे।”

सत्या एकटक शिबु के चेहरे की ओर देखने लगी। जरा रुक कर बोली- “कभी मेरे लिए भी ऐसा किया होता।”

“बच्ची के लिए क्यों मन में जलन पैदा करती है! जा रसोई में और दाल-भात बना।” 

सत्या पाँव पटकती हुई रसोई में चली गई। शिबु बूँदी की ओर देखने लगा। बूँदी की आँखों में एक खालीपन था जिसका आभास शिबु को बराबर होता है। जरा उसके पास सरकता हुआ बोला- “तू स्कूल जाएगी क्या?”

बूँदी एकटक शिबु के चेहरे की ओर देखने लगी। शिबु को उसकी आँखें पिघलती सी लगीं। शिबु पुनः बोला- “बोल तो स्कूल में पढ़ने के लिए जाएगी क्या?”

बूँदी ने हाँ में सर हिला दिया। शिबु मुस्कराया। बोला- “ठीक है कल तुझे सरकारी स्कूल में दाखिल करवा आऊँगा।”

“नहीं वहाँ नहीं जाऊँगी। बूँदी एकाएक बोली।”
“क्यों?”

“अंग्रेजी स्कूल मे जाऊँगी।”

शिबु अवाक रह गया। सोचने लगा सत्या तो इसे स्कूल भेजने के नाम से ही बिफर उठेगी। और फिर अंग्रेजी स्कूल में... ।

शिबु को ही कहाँ यकीन आ पा रहा था।

एक बार फिर पूछ लिया- “अंग्रेजी स्कूल में तो बच्चे तेरा नाम सुन कर हँसेंगे।”

“मैं अपना नाम बदल लूँगी।”
“क्या रखेगी?”
“बिंदिया।” 
“वाह!” -शिबु हँस पड़ा। उसकी हँसी सुन सत्या बाहर आ गई। सत्या को देखते ही शिबु के चेहरे के भाव बदल जाते हैं। शिबु को खुद पर हैरानी होती है। बूँदी का रिश्ता तो सत्या से ही है। लेकिन उसका व्यवहार बिल्कुल सौतेला है। शिबु इस निर्णय पर पहुँचा था कि रिश्ते खून से नहीं स्वभाव से होते हैं। 

सत्या दाल-भात चढ़ा आई थी। उसकी भीनी-भीनी गंध शिबु और बूँदी तक पहुँची थी। बूँदी बिटर-बिटर सत्या के चेहरे की ओर देखने लगी तो सत्या बिफर उठी- “अब उठ यहाँ से और दाल-भात खा ले।”

शिबु और बूँदी दोनो ही रसोई में आ अपने-अपने पीढ़े पर बैठ गए। सत्या दाल-भात परोसने लगी तो शिबु बोला- “कल कुछ दाल-सब्जी ले आऊँगा। वापसी पर लाले का उधार भी चुकता कर आऊँगा।”

सत्या कुछ नहीं बोली तो शिबु पुनः बोला- “एक बार पिछला उधार चुकता हो जाए तो अगला उधार मिलना आसान हो जाता है।”

शिबु की इस बात का अर्थ सत्या समझ नहीं पायी। यह कोई नई या खास बात तो नहीं है। ऐसा तो होता ही है। जरा रूककर शिबु बोला- “अब तू चलना-फिरना कम कर दे।”

“उससे क्या होगा?

“पहले ही पाँच साल होने को आ रहे हैं। फिर से कोई गड़बडी हो गई तो मुश्किल हो जावेगी।” 
“एक बार डाक्टरनी से दिखला लूँ।”
“ये भी काई पूछने वाली बात है।”
“एक बार गई तो थी।” 
“बूँदी को कल से स्कूल छोड़ आने की सोच रहा हूँ।” 

सत्या ने कुछ नहीं कहा तो शिबु ने बात को दोहराया- “कल बूँदी को स्कूल में दाखिल करवा आता हूँ।”

“ठीक है! यह सामने नहीं होगी तो मैं भी थोड़ा आराम कर लिया करूँगी। स्कूल भी कौन सा दूर है। सबेरे काम पर जाते हुए इसे रास्ते में छोड़ दिया करना।” 
“सरकारी स्कूल में नहीं अंग्रेजी स्कूल में डालूँगा इसे।” 
“अंग्रेजी स्कूल में! सत्या फटी आँखों से शिबु के चेहरे की ओर देखने लगी, “तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? जानता है वहाँ फीस कितनी है?”
“तू उसकी चिन्ता मत कर। वो नुक्कड़ वाली मास्टरनी है न मैंने उससे बात कर ली है। कह रही थी कि आधी फीस करवा देगी।” 
“आधी भी करवा दे तो हर महीने सौ रूपया तो जाएगा ही। ऊपर से कपड़े-लत्ते अलग!”
“अरी इतना तो मैं कर ही लूँगा। आदमी घर में जानवर भी रख ले तो दो वक्त का खाना तो उसे भी खिला देता है।” 
“लेकिन जानवर को स्कूल तो नहीं भेजना पड़ता।” 
“हाँ यह तो इन्सान की औलाद है।” 
“मैं तो इसे जानवर से भी बद्तर जानूँ।” 
“शुभ-शुभ बोला कर भलीमानस! परमात्मा सब कुछ सुने है। अब अपनी औलाद भी आने वाली है। तू मन में शांति रख।” 

सत्या मुँह बिचका कर खड़ी हो गई। सत्या के भीतर जाते ही शिबु बूँदी से बोला- “अंग्रेजी स्कूल में जाना है तो अपने-आप को थोड़ा सुधार।”

बूँदी को यह बात समझ में आई या नहीं गोल-गोल आँखों से वह शिबु को घूरती रह गई थी।


रात सोने से पहले शिबु को पान खाने की आदत है। रोटी खा कर तोंद पर हाथ फेरता बोला- “जरा नुक्कड़ पर से पान लेकर आता हूँ। इसे लेजा कर सुला दे। सबेरे जल्दी उठना होगा।”

शिबु की नींद सुबह जल्दी ही उखड़ गई। कुछ देर तो वह खुली आँखों से छत की ओर ताकता रहा। छत पर जैसे कोई फिल्म चल रही थी। अजीब-अजीब तस्वीरें उसकी आँखों के आगे आने लगीं। सत्या के लड़की हुई है। एकदम से बूँदी की शक्ल। सत्या उसे गालियाँ निकाल रही है, “मुई! तुझे इसी पर जाना था क्या? इससे भला तेरा क्या रिश्ता?”

एकाएक सत्या शिबु की ओर पलटी- “देखा जी! इस पर तो इसकी परछाई पड़ गई। कम्बखत सारा दिन आसपास जो मंडराती रहती थी। अगर कल को यह भी पेटू निकली तो कहाँ से खिलाएंगे इन दोनों को?”

“हर कोई अपनी किस्मत साथ लेकर आता है।” 
“जिस तरह से मैं लेकर आयी थी।”

सत्या की बात पर शिबु टूट सा गया। कितना समझा ले इस औरत को इसकी जुबान वैसी की वैसी रही।

शिबु यह ख़्वाब एक बार नहीं बीसियों बार देख चुका है। ख़्वाब भी हकीकत में बदल जाते हें यह शिबु ने आज जाना। काम पर से लौट रहा था तो रास्ते में ही शान्ति मिल गई। दूर से ही चिल्लाती बोली थी, “ऐ शिबु! घर जा रहा है तो लड्डू लेते जाना। तेरे घर में ल्क्ष्मी आई है रे!”

शिबु के पूरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई। उसके घर में लक्ष्मी आई है। उसकी बेटी हुई है। कहीं भीतर तक शिबु प्रफुल्लित हो आया था। अम्मा तो पिछले पाँच साल से पोता-पोती देखने को बैठी थी। लेकिन उसकी किस्मत में यह खुशी देखना नसीब नहीं था।

पिछली बार जब तीसरे महीने ही सत्या को अस्पताल ले जाना पड़ा तो अम्मा रूआँसी होती बोली थी, :हे भगवान्! कैसी कच्ची कोख घड़ी है इसकी।” अम्मा के ये शब्द बड़े अजीब लगे थे शिबु को।

शिबु ने कदम तेज-तेज रखने शुरू कर दिये। पहले एक बार सत्या और लक्ष्मी को देख ले फिर लड्डू भी ले आएगा।

घर पहुँचा तो दरवाजे पर ही बूँदी मिल गई। शिबु अपने भीतर की खुशी को समेट ही नहीं पा रहा था।

“तू कब आई स्कूल से?” शिबु ने सवाल किया था परन्तु जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही वह भीतर चला गया।

सत्या चारपाई पर लेटी थी लक्ष्मी उसकी बगल में पड़ी हुई थी। शिबु ने लपककर लक्ष्मी को उठाया और चूम लिया। सत्या मुस्करा रही थी। तनिक शिबु ने सत्या के चेहरे की ओर देखा लेकिन बच्ची को पुनः गौर से देखने लगा।

“तेरे पर गई है न ? सत्या दबे से बोली।”             
“नहीं तेरे पर गई है।” शिबु मजाक के लहजे में बोला। 
“अरे अभी तो आई है।” काकी भीतर आती हुई बोली- “अभी तो ये कई रंग बदलेगी।” 

बच्ची को सत्या की बगल में लिटा शिबु बाहर आ गया। बूँदी वैसे ही दीवार से सट कर खड़ी थी।

“ऐ! तू यहाँ क्यों खड़ी हे? भीतर जा। देख तेरी छोटी सी बहन आई है।” 
“मुझे भूख लगी है।” 
“सुबह से कुछ खाया नहीं क्या?”
“खाया था।” 

“मैं तेरे लिए लड्डू लेने जा रहा हूँ न!”

बूँदी भीतर आ गई थी। जाने क्यों सत्या के सामने जाने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। बूँदी ने ज़हर नाम की चीज़ सुनी हुई है। और उसने यह भी सुना हुआ है कि ज़हर की एक बूँद से ही व्यक्ति की मौत हो जाती है। बूँदी को उस ज़हर का आभास सत्या की आँखों में होने लगा है। सत्या की आँखों के इस ज़हर से तो वह सच में मर जाएगी। क्या वह मर जाएगी? नहीं-नहीं! वह सत्या की आँखों का ज़हर नहीं पिएगी। वह सत्या के सामने ही नहीं जाएगी।


सत्या की आँखों में यह ज़हर कहाँ से आया?

बूँदी का मन तो हुआ यह सवाल सत्या के आगे रख दे। या फिर शिबु से ही पूछ ले। लेकिन डॉक्टर ने बोला है, “सत्या को अभी परेशान नहीं करना।” वैसे जब से लक्ष्मी आई है तभी से सत्या की आँखों मे यह ज़हर उतरा है। इसका मतलब उसके लिए ज़हर सत्या नहीं लक्ष्मी है।

लक्ष्मी जब भी रोने लगती है सत्या उसे छाती से सटा लेती है। बूँदी जब-जब रोई तब तो सत्या ने ऐसा नहीं किया। बल्कि उसे और भी परे धकेल दिया। सत्या ने उसे छाती से क्यों नहीं लगाया?

आज बूँदी स्कूल से लौटी तो सत्या उसे देखते ही उसकी ओर लपकी, “क्यों री कलमुँही! आ गई मुँह काला करवा क। मरी अपनी नाक तो कटवाई हमारी भी नाक कटवाएगी क्या!”

एक पल के लिए तो बूँदी की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन अगले ही पल वह समझ गई कि मैडम आई होगी। अभी बात पूरी तरह से स्पष्ट हो पाती शिबु भीतर आता हुआ सत्या पर गरजा, “क्यों री! आज तेरी अपनी औलाद आ गई तो इसे बिल्कुल पराया समझ लिया। अरी लोग कहते हैं मौसी आधी माँ होती है । लेकिन तू तो इसके साथ सौतेली से भी बढ़ कर निकली।”

“बस-बस रहने दे तू। सत्या भी अपनी पूरी ताकत के साथ गरजी” - “अरे तू कुछ जानता भी है क्या?”

“क्यों क्या बात हो गई? आज एक चपाती और ज्यादा खा गई क्या?”

“नहीं रे! इसकी मास्टरनी आई थी आज। बता कर गई है कि रोज स्कूल में बच्चों की रोटी चुरा कर खाती है। और डाल इसे अंग्रेजी स्कूल में।”

शिबु हैरान हो आया। सत्या की बात पर उसे यकीन ही नहीं हो पा रहा था।

भीतर से लक्ष्मी के रोने की आवाज़ आयी तो सत्या सर झटकती भीतर को चली गई। शिबु बुंदी के करीब आ गया और उसके सर पर हाथ फेरता बोला” क्या ये सच कह रही है?”

बूँदी ने शिबु की आँखों में आखें डालीं और हाँ में सर हिलाया।

अब तक सत्या भी बाहर आ गई थी। लक्ष्मी को छाती से चिपकाए वहीं फर्श पर बैठती बोली, “सुन लिया न अब तो? अब बोले कि इसका पेट क्यों नहीं भरता?”

बूँदी एकटक सत्या की ओर देखने लगी। सत्या फिर चीखी, ऐ...! यों घूर-घूर कर क्या देख रही है मुझे? अब बोलती क्यों नहीं तू? क्या मैं तुझे रोटी खाने को नहीं देती? क्यों नहीं भरता तेरा पेट...क्यों नहीं मिटती तेरी भूख?”

“मेरी भूख मिट सकती है।” बूँदी एकाएक सत्या की ओर देखती हुई बोली। शिबु पास आ गया था। सत्या आँखें फैलाती बोली, “कैसे ?... कैसे मिट सकती है तेरी भूख?” जाने क्यों सत्या की आवाज़ दब सी गई थी। 
“अगर ... अगर तू मुझे अपना दूध पिलाए तो....।”  

बूँदी ने ये क्या कह दिया? सत्या का मुँह खुला का खुला रह गया। शिबु अपनी पिघलती आँखों को बचाने की कोशिश करने लगा था।