भूगोल के दरवाजे पर / तरुण भटनागर
जब तक मैंने वहाँ के बाशिंदों को नहीं देखा था, पहले-पहल वह गाँव ठेठ ही लगा। यह बात थी उन्नीस सौ अस्सी की। वह गाँव इतना ठेठ लगा था, कि लगता है वह आज भी जस का तस है। रुका हुआ और अ-बदला।
छत्तीसगढ़ में वह समुद्र तल से सबसे अधिक ऊँचाई पर बसी जगह है। वहाँ के रहवासी हमारे यहाँ के नहीं जाने जाते हैं। उन लोगों को देख कर उस गाँव का ठेठपन चुकने लगता है और उसकी जगह अजीब सा बेगानापन घिर आता है। लंबे बीते समय ने यह जतलाया कि चपटी खोपड़ीवाले ये लोग दूसरों से अलग नहीं हैं, सिवाय इसके कि वे अलग दिखते है। ...और यह भी कि इस गाँव में बीते पचास सालों में और उस दिन जब मैं वहाँ गया था, बीत चुके छब्बीस सालों में, उन्होंने यह मानने की भरसक कोशिश की है, कि यह जमीन, यह आकाश, यह जंगल, दूर तक फैले हरे घास के मैदान, लोग, जानवर... सब उनके ही तो हैं। वे आज भी एक झूठा ढाँढ़स खुद को देते हैं, पर जैसे वे हमेशा जानते रहेंगे, कि उनके लिए सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। झूठ के जंग खाए फौलादी दरवाजे से बंद। अपनेपन का झूठ। जो कोई रास्ता नहीं सुझाता, बस बेहद अबूझ तरीके से उन लोगों को चहकाये रखता है।
मैनपाट। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का एक गाँव। समुद्र तल से लगभग पाँच हजार फिट ऊपर। पूरे छत्तीसगढ़ में इससे ऊपर कोई और गाँव नहीं है।
इतिहास बताता है, कि जब उन्नीस सौ पचास में उनसे उनकी जमीन, घर, परिवार, ... सबकुछ छीन लिया गया था, तब वे लाखों की संख्या में एक अनिश्चित आस के साथ हमारे यहाँ आए थे। उन्हें जहाँ-जहाँ बसने को जगह दी गई थी, मैनपाट भी उनमें से एक है। मैनपाट में उनका गाँव बसा था। जो आज भी वहाँ है, पर लोग इसे एक घूमने फिरनेवाली जगह के रूप में जानते हैं। यह एक हिल स्टेशन जाना गया। आज भी। और यह बात कम ही जानी गई, कि यह जगह पचास साल पहले बेघर कर दिए गए, बहुत दूर के और बिल्कुल अल्हदा से लोगों की जगह है। बिना दावे की जगह। एक जगह जो दशकों बीत जाने के बाद भी उनकी नहीं है और जो सैंकड़ों साल बीतने के बाद भी शायद उनकी ना हो पाए।
वे लोग एक खत्म कर दिए गए देश के लोग हैं। इस तरह खत्म कि याद भी नहीं आता। अगर पूछा जाय कि वह देश भारत का पड़ोसी था और इतना बड़ा कि आज का पाकिस्तान भी छोटा पड़ जाय, तो एकबारगी खयाल ना आए। यदि कहा जाय कि वह दुनिया का सबसे अधिक ऊँचाई पर बसा देश था और भारत से उसकी सबसे लंबी सीमा रेखा मिलती थी, तो थोड़ा अजीब लगे कि पता नहीं किस जगह की बात हो रही है।
उस दिन हम दस स्कूली बच्चे अपने स्काउट मास्टर और गाइड मास्टरनी के साथ मैनपाट आए थे। वह शाम थी और हमें वहाँ की प्राथमिक शाला के एक भवन में आगे पाँच दिनों तक रहना था। स्काउट मास्टर ने बताया था, कि इसे ‘आउटिंग’ कहते हैं। उस रात हमें उस गाँव के सिर्फ दो लोग मिले थे, जिन्हें मास्टर और हमारे आने का पता था। वे मुझे अजीब से लगे थे - पीला रंग, छोटी-छोटी आँखें, धँसे हुए गाल, उभरी गाल की हड्डी, चमकता चेहरा, सफाचट और अधकचरी दाढी-मूँछ, ठिगना कद, छोटे-छोटे खड़े काले बाल... इतनी ठंड में भी उन्होंने बहुत कम कपड़े पहर रखे थे। फिर उनमें से एक कुछ देर बाद एक केतली में चाय ले कर आया। मक्खनवाली तिब्बती चाय। जिसे पीते हुए मुझे उबकाई आई थी।
‘उस देश का नाम तिब्बत था।’ मास्टर ने बताया।
मैनपाट मास्टर की पसंदीदा बात थी। वह मैनपाट पर चहक कर कहता था। यूं वह तिब्बत पर भी कहता था। वह मैनपाट और तिब्बत पर कहता तो लगता उसके मुँह से कोई और कह रहा है। वह तिब्बत पर अकसर काफी कुछ हाँकता रहता और हम चुप्पी साधे उसे घूरते रहते। वह कहता कि मैनपाट में, बिल्कुल पराए देश के लोग हैं। कि उस देश का नाम तिब्बत था। कि छब्बीस साल पहले चीन ने इस देश पर कब्जा कर लिया था। कि वह देश फिर खत्म हो गया। कि अब उस देश की जगह बस उस देश के खंडहर हैं। कि अब खंडहर भी नहीं हैं। कि खंडहरों में यादें होती हैं, इसलिए उन्हें भी मिटाया जा चुका है। कि उस देश में अब भी उतनी ही बर्फ पड़ती है और उतनी ही सूखी और सुइयों- सी भेदनीवाली हवा बहती है, जैसे पहले बहती थी...। कि वह बर्फ और वह हवा अपने उन लोगों को ढूँढ़ती है, जो वर्षों पहले बिना किसी वजह के जहालत के साथ और वहशियाना तरीके से बेघर कर दिए गए थे, वहाँ से भगा दिए गए। वे इस तरह बेघर किए गए कि वे उसका कारण नहीं पूछ सकते थे। क्योंकि पूछना अपराध हो गया था। कि जानने की कोशिश का मतलब मौत था। कि प्रश्न का जवाब बलात्कार था। कि उत्सुकता के मायने थे, कैदखाने की यातना या बर्फ के सूखे तूफान में अकड़ कर मर जाना। कि एक औरत को सिर्फ इसलिए मार डाला गया था, कि उसकी आँखों में उत्सुकता थी और एक चीनी सेना का अधिकारी उसकी आँखें देख कर अचकचा गया था।
कि बहुत बुरा हुआ और वे लाखों लोग थे। कि वे अपने देश में, अपने घर में थे। अपने देश, अपने घर में कोई पराया या अजनबी नहीं होता है। उन्हें तो जानबूझ कर इस अनजान जगह पर ढकेल कर अजनबी और पराया बनाया गया है, ताकि जब लोग उन्हें देखें तो सशंकित हों, अचंभित हों या उन पर हँसें और जब, वे लोगों को देखें तो किसी अनिश्चित से भय और संदेह से उनकी आँखें चौड़ी हो जाएँ। कि उन्हें बार-बार लगे कि, वे किसी पराए देश में चिड़ियाघर के अजूबे जीव-जंतुओं की तरह जी रहे हैं...। कि... कि ये लोग अच्छे हैं, पर लोगों ने नहीं समझा कि ये अच्छे हैं... नहीं तो बताओ क्या जरूरत थी इनको हमारे लिए मक्खन की चाय लाने की, बोलो-बोलो। ... मास्टर कई बेतुकी सी बातें कहता और फिर चुप हो कर इधर उधर ताकता। कभी अचानक चुप हो कर तुच्छ सी चीजों को ताकने लगता, तो कभी एकदम से बदल कर कोई नई बात चालू कर देता। उसके यूँ चुप हो जाने से मुझे लगता कि मास्टर के पास मैनपाट और तिब्बत की आधी कहानी है। शायद आधे से भी कम। लेकिन वास्तव में उसे बहुत कुछ पता था। उसने हमें जितना बताया था, उससे कई गुना बातें वह तिब्बत के बारे में कर सकता था। बहुत सारी बातें उसने कभी नहीं बताईं। हर बार उसकी गप्प किसी चुप्पी पर पहुँच कर अटक जाती थी या अचानक अकारण खत्म हो कर नए सिरे से कोई नई बात हो जाता था। हम सिर्फ अनुमान ही लगा पाते थे। उसके चुप होने में हम एक लंबी कहानी को तलाशते। कभी उसकी आवाज लडखड़ाती और अटक-अटक कर खत्म हो जाती। हम अनुमान लगाते कि अटकने और लड़खड़ाने में कौन सी कहानी है? इस तरह हर बार अधूरी छूट कर या अटक कर भी वह कहानी कभी खत्म नहीं हुई। मास्टर की अधूरी छूटी चुप्पी में शब्द बड़े तरतीब से लगे थे। तिब्बत की बार-बार अधूरी छूटती कहानी के कई कई मायने थे, जिन्हें तलाश कर कहानी के टूटे सिरे फिर-फिर जुड़ जाते थे।
दरअसल मास्टर पहले भी कई बार मैनपाट आया था। और यहाँ के एक तिब्बती मास्टर से उसकी अच्छी छनती थी। उसका नाम सुलू था। वह हजारों बार मैनपाट से नीचे उतर कर मास्टर से मिलने आता था और मास्टर भी सैंकड़ों बार मैनपाट की पहाड़ियों पर चढ़ता उतरता रहता था। सुलू हमें बड़ा अजीब लगता था।
वह हमें अजीब-अजीब चीजों के बारे में बताता और हम उन अटपटे नामों पर हँसते। कि उसका गाँव ग्यांत्से शहर के पास था। कि उसके पास एक सुंदर थांगका याने तिब्बतियन तस्वीर जैसा कुछ ह। कि साल का पहला दिन लोजार होता है। कि उसने अनि त्सान्खुंग नुनेरी और चान्गझू के मंदिर देखे हैं। कि सबसे अच्छा गोंपा जोखंग है और इसके बाद कुंबुम और दोरजे द्रक। कि हम सब बच्चों को अच्छे हीरो, याने गेजार के माफिक होना चाहिए। कि हम सब जब उसके घर आएँगे तो वह हमें मोमोस खिलाएगा। कि...। हम उसकी बात पर हँसते, उसके तिब्बतियन शब्द हमें हँसा देते।
हमें उसकी और मास्टर की दोस्ती में कुछ बू आती थी। हम छोटे थे और यह मानते थे, कि हर छोटी आँखवाला और पीली त्वचावाला आदमी चीनी होता है। छोटी आँखवाले, ठिगने पीले लोगों के लिए हमारे पास कुछ शब्द थे - चीनी, ऐ चीनी, चीनी चाँउ, चाँउ...। सो हम सुलू को चिढ़ाते थे - चीनी, ऐ चीनी, चीनी चाँउ, चाँउ...। और... सुलू आगबबूला हो कर हमें मारने को दौड़ता। एक दिन सुलू यह सब मास्टर को बताते-बताते रुआँसा हो गया। हमें बड़ा अजीब लगा, क्योंकि हमने तब तक पैंसठ-सत्तर साल के किसी बुड्ढे को हमारे चिढ़ाने पर, इस तरह रुआँसा होते नहीं देखा था। अलबत्ता गुस्सा होते जरूर देखा था और उसके गुस्से का मजा लेने के लिए ही हम उन्हे चिढ़ाते थे। मास्टर ने हम सबको स्कूल के बरामदे में घुटने के बल टिका दिया। उसने हम सबकी हथेलियों पर बार-बार सटा-सट बैंत चलाई। हम रोने लगे। फिर सुलू आया और उसने मास्टर को कहा कि वह ऐसा ना करे।
...मास्टर ने हमें सख्त हिदायत दी कि हम उसे चीनी ना कहें। कि वह तिब्बती है, चीनी नहीं और ये दोनों चीजें बिल्कुल अलग हैं। मास्टर ने बड़ी सख्ती से बताया कि ये दोंनों चीजें अलहदा हैं और यह भी कि हर किसी को यह जानना चाहिए कि तिब्बती और चीनी दो अलग चीजें हैं। उसने यह भी बताया कि जब वह हमारी तरह छोटा था और स्कूल में पढ़ता था, तो स्कूल की किताब में लिखा होता था, कि तिब्बत एक देश है। उसमें लिखा था, कि हिमालय के उत्तर में एक बहुत सुंदर जगह है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। कहते हैं यह जगह पाँच किलोमीटर से भी ज्यादा ऊँची है, व्योम मंडल के सबसे पास और इसीलिए इसे देवताओं की भूमि भी कहते हैं। कि यह एक देश है। बिल्कुल दूसरे देशों की तरह, अलग और अपने आप में रचा बसा। किताबों में यह भी लिखा होता था कि, इस देश की राजधानी ल्हासा है। पर आज के छात्र यह सब नहीं जानते। क्योंकि वे दूसरी किताबें पढ़ते हैं। उनकी किताबों में तिब्बत का नाम ही नहीं है। मास्टर हमसे पूछता - ‘बताओ-बताओ है क्या? बोलो-बोलो’। हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’। मास्टर हमसे पूछता ‘क्या भारत के पड़ोसी देशों में तिब्बत का नाम आता है?’ हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’।
मास्टर हमारी सामाजिक विज्ञान की किताब उठा लेता। उसके सारे पन्ने एक साथ फुरफुराता पलटता - ‘देखो देखो इसमें तिब्बत कहीं भी नहीं है।’ फिर कुछ सोचता। थोड़ा सँभलता और हमें समझाने की कोशिश करता। वह कहता -
‘जमीन उसकी होती है, जो उस पर कब्जा कर लेता है। जमीन ही क्या, रोड, पुल, नाले, नदियाँ, मकान, जंगल, पहाड़,... यानी वह सबकुछ जो दीखता है। वह सब जो हम रोज देखते हैं, वास्तव में उसका है, जिसने उस पर कब्जा कर लिया। इसी तरह कोई भी देश उसका होता है, जो उसे जीत लेता है। किसी देश को जीतने के कई तरीके होते हैं। पर सबसे आसान है, जबरदस्ती घुस आओ और ताकत के बल पर कब्जा कर लो। फिर वहाँ के लोगों को वहाँ से खदेड़ दो। जैसा कि तिब्बत में हुआ।’
मास्टर बताता कि इस तरह एक देश दूसरे देश को जीत लेता है। जीतने के साथ ही उसे एक और अधिकार मिल जाता है। वह है, किताबें लिखने का अधिकार। कि यह दुनिया का कायदा है, किताबें वही देश लिखेगा जो जीत चुका हो। हर किताब किसी विजेता ने ही लिखी है। जैसे तुम्हारी यह सामाजिक विज्ञान की किताब। दुनिया कि तमाम किताबों की तरह तुम्हारे पाठ्यक्रम की यह किताब भी किसी विजेता ने ही लिखी है। हारे हुए देश या तो किताब लिखते ही नहीं हैं और अगर लिखते हैं तो उनकी किताबें चलती नहीं हैं। कम से कम पाठ्यक्रम में तो आ ही नहीं सकतीं। चूँकि हर किताब किसी जीते हुए देश ने लिखी है, इसीलिए उसमें हारे हुए देशों और जगहों के बारे में कुछ भी नहीं होता है। जैसे तुम्हारी यह सामाजिक विज्ञान की किताब। मास्टर उसके पन्ने फरफराता और बहुत धीरे से फुसफुसाते हुए कहता, तिब्बत एक हारा हुआ देश है और इसलिए इस किताब में वह नहीं है। तुम पाठ्यक्रम में हारे हुए देशों का नाम नहीं ढूँढ़ सकते। क्योंकि वे वहाँ हैं ही नहीं। चूँकि किताबों का लेखक एक विजेता है इसलिए उसने हारे हुए देश या परास्त हो चुकी जगहों के बारे में उसमें नहीं लिखा है। ऐसी जगहें वहाँ हो ही नहीं सकतीं। पाठ्यक्रम ही क्या दुनिया कि किसी भी किताब में हारे हुए देशों का नाम नहीं मिल सकता। तुम्हें किसी भी किताब में हारे हुए देशों के गीत और कहानियाँ नहीं मिलेंगी। किसी भी किताब में हारे हुए देश के लोगों के बारे में कुछ भी नहीं लिखा होता है। किसी भी किताब में नहीं मिलेगा कि हारे हुए देश के लोग कौन हैं, वे कहाँ रहते हैं, क्या पहरते हैं, कैसे रहते हैं... कहीं कुछ भी नहीं मिल सकता है। तुम पूरा बाजार छान मारो, चाहे अंबिकापुर चले जाओ, चाहे उससे भी आगे रायपुर या दिल्ली, या उससे भी आगे, तुम्हें एक किताब नहीं मिलेगी जिसमें लिखा हो कि एक देश है, जिसका नाम तिब्बत है। तुम बड़ी से बड़ी लाइब्रेरी में एक भी किताब नहीं ढूँढ़ सकते जिसमें लिखा हो कि तिब्बत एक देश है और दूसरे देशों की ही तरह उसकी अपनी राजधानी है, अपनी मुद्रा है। तुम एक किताब नहीं ला सकते जिसमें लिखा हो कि भारत की सबसे लंबी सीमा रेखा जिस देश से मिलती है, उसका नाम तिब्बत है। हारने का मतलब सिर्फ हारना नहीं होता है, इसका मतलब है स्मृति में से मिटा दिया जाना... हार मतलब वह चीज जो कभी दर्ज नहीं की जा सकती है, जैसे तिब्बत कभी किताबों में दर्ज नहीं किया जा सकता है। जिन जगहों का नाम किताबों में नहीं हो सकता है, उन्हीं जगहों को हम साधारण भाषा में हारी हुई जगहें कहते हैं। इसी तरह हारे हुए लोग वे लोग होते हैं, जो अब तक किताबों में नहीं आ पाए। किताबें विजेताओं के गलत बखानों से भरी पड़ी हैं। उनमें सच नहीं है। उनमें विजेताओं की वीरता के अतिशयोक्तिपूर्ण गीत हैं। उनके किस्से झूठ हैं। हाँ किताबों की बातें सरासर झूठ हैं...।
मास्टर कहीं और देख रहा होता और हम मास्टर को। फिर मास्टर कहते कहते एकदम से रुक जाता और हमारी तरफ मुड़ कर कहता, कि यह कितना भयंकर है, कि वह और सुलू ऐसे लगते हैं जैसे दो बिल्कुल अलग अलग प्रजाति के जानवर।... पर यह गलत है, कि तिब्बत का नाम किताबों से भी हटा दिया जाय। लाखों लोग, विशाल जमीन पर किताबों में एक शब्द नहीं। ठीक है, तिब्बत ग्लोब में नहीं है। मास्टर कहता कि, एटलस में भी नहीं है। नहीं है, दुनिया जहान के नक्शों में। नहीं है देश-दुनिया में। चर्चा में भी नहीं है। रोज के रेडियो में भी नहीं है। मास्टर कहता कि वह रोज सुबह पेपर में तिब्बत को ढूँढ़ता है, पर वह कभी उसे मिला नहीं। कि तिब्बत पर कहीं कोई फिल्म नहीं दीखी। संयुक्त राष्ट्र संघ की सूची में भी नहीं है तिब्बत। नहीं है, ओलंपिक के झंडाबरदार खिलाड़ियों की परेड में। नहीं है, डाक टिकटों में। कि तिब्बत की कोई मुद्रा नहीं, नहीं उसका कोई झंडा। कहीं नहीं, किसी देश में नहीं तिब्बत का कोई राजदूत, कोई एंबेसडर। संसार में कहीं नहीं तिब्बत का कोई दफ्तर... । वह उन्नीस सौ अस्सी था और मास्टर बड़े एकांतिक चेहरे के साथ कहता था, कि तिब्बत पर कहीं कोई कविता नहीं। कहते हैं, कविता विजेता की होती है। कि कविता चीन की होती है। कि जो चीन की नहीं वह कविता नहीं। मास्टर कहता कि कभी सुना नहीं तिब्बत का कोई गीत। नहीं पता चलती है, उसकी कोई कहानी। पर यह गलत है, कि उसका नाम किताबों से भी हटा दिया जाय। यह बिल्कुल गलत है, कि यह पढ़ाया जाय कि तिब्बत नाम का कोई देश नहीं। यह गलत है, कि सामाजिक विज्ञान की किताब में तिब्बत को लिखना गलत माना जाय।’
मास्टर ने हम सबको कहा, कि हम सब अपनी-अपनी सामाजिक विज्ञान की किताबों में तिब्बत का नाम लिख लें। मास्टर ने हमें डराते हुए, सख्ती से कहा और कक्षा सात की सामाजिक अध्ययन की किताब में एशिया के देशों और उनकी राजधानी की लिस्ट में सबसे नीचे हम सब बच्चों ने अपनी आड़ी-ढेढ़ी हैंडरायटिंग में पेन और पेंसिलों से लिख लिया - देश का नाम - तिब्बत, राजधानी - ल्हासा। मास्टर ने कक्षा सात की सामाजिक विज्ञान की कुल जमा दस किताबों को बार-बार चैक किया। हर किताब में लिखा था, देश - तिब्बत, राजधानी - ल्हासा ।
उस जंगली आदिवासी क्षेत्र में बसे उस अनजाने गाँव के उस तुच्छ से मिडिल स्कूल में ये दो शब्द बड़े धैर्य से और मास्टर के डर से लिखे गए थे। देश - तिब्बत, राजधानी – ल्हासा। संसार की एकमात्र किताब में मास्टर के डर से लिखे दो शब्द थे, जिन्हें मास्टर बार-बार घूरता जैसे कोई माँ अपने नवजात को घूरती है। मास्टर ने बताया था कि, सातवीं कक्षा की ये दस किताबें दुनिया की एकमात्र किताबें हैं, जिनमें तिब्बत का नाम हो पाया है। वे एकमात्र किताबें हैं, जिनमें लिखा है - देश - तिब्बत, राजधानी - ल्हासा। दुनिया में ऐसी कोई और किताब नहीं है, जिसमें ये दो शब्द लिखे हों। तिब्बत ही क्या वे तो एकमात्र ऐसी किताबें हैं, जिनमें किसी हारे हुए देश का नाम हो पाया है।
वह दिन था, कि फिर हमने कभी सुलू को चीनी कह कर नहीं चिढ़ाया।
बचपन में तिब्बत एक बात थी, एक पाठ था, जो हमने कई बार सुना, एक-सा बार-बार सुना पाठ, गहन सन्नाटे में, मास्टर को ताकते, एक दूसरे का चेहरा घूरते और उन शब्दों को तौलते जो अकसर समझ नहीं आए। तिब्बत एक अनुमान था, अँधेरे में उँगलियों की टटोल था तिब्बत, मास्टर की उन बातों का जो कहीं खो जाती थीं, अचानक छूट कर खत्म हो जाती थीं। उन दिनों तिब्बत एक अनिवार्यता थी, मास्टर को सुनने की अनिवार्यता, जो मास्टर के डर से उस गाँव की कक्षा सात में फैल जाती थी । इस तरह तिब्बत कुछ और था और मास्टर के लाख बताने के बाद भी वह हम बच्चों के लिए एक देश नहीं हो पाया था। हम मान नहीं पाए थे कि तिब्बत एक देश है। वह तो हमारे बचपन में किताब में लिखे दो शब्द थे। तिब्बत मतलब मास्टर के डर से सामाजिक विज्ञान की किताब में लिखे दो शब्द। तिब्बत मतलब, देश - तिब्बत, राजधानी - ल्हासा।
मास्टर एक दिन सुलू को हमारी कक्षा में लाया था। उसने उसे हमारी सामाजिक विज्ञान की किताब में लिखे ये दो शब्द उसे दिखाए थे। उसने बताया कि हम सबने अपनी अपनी किताबों में यह लिखा है। देश - तिब्बत, राजधानी- ल्हासा। सुलू ने इन दोनों शब्दों को छू कर देखा था। सुलू ने बहुत देर तक अपनी उँगलियाँ देश - तिब्बत, राजधानी - ल्हासा पर टिकाए रखे थीं। फिर वह कक्षा के खाली ब्लैकबोर्ड को देखने लगा था। मास्टर ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया था। सुलू की आँखों में पानी की एक बूँद उभर आई थी। मास्टर ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया था। हम सब कुछ देर तक उन दोनों को देखते रहे थे। मुझे सुलू को सुबकता देख कुछ अजीब सा लगा था। बाद में मैं देर तक अपनी किताब में देश - तिब्बत, राजधानी - ल्हासा को देखता रहा था। मैंने उसे उसी तरह छुआ भी जैसे सुलू ने छुआ था, पता नहीं मुझे क्या हुआ, मैंने अपने दोस्तों को चिल्ला कर कहा – ‘हाँ, हम सुलू को कभी चीनी कह कर नहीं चिढ़ाएँगे। कभी नहीं।’
उस दिन मास्टर हमें सुलू की वजह से ही मैनपाट आउटिंग के लिए ले गया था, पर उसे एक और विशेष काम से वहाँ जाना था। बस हमें इतना ही पता था, कि उसे सुलू से कुछ बात करनी थी। और उस बात को करने के लिए वह सबसे पूछ रहा था कि वह, कब और कैसे उससे वह बात करे? मास्टर की सुलू से दोस्ती बड़ी पुरानी थी, लगभग पंद्रह साल पुरानी और करीब दो दिन पहले से एक दूसरा तिब्बती मास्टर से कहता फिर रहा था कि, वह सुलू से बात करे। कि बस वही वह बात कर सकता है। कि उसकी बात का असर होगा। बस वही बात मास्टर को करनी थी।
उस रात जब उस बेस्वाद मक्खन की चाय और बिस्कुट खाने के बाद हम सब सोने की तैयारी कर रहे थे, तब वह दूसरा तिब्बती आया था। फिर मास्टर, गाइडवाली मास्टरनी और वह तिब्बती काफी देर तक बात करते रहे। कमरे में पुआल बिछी थी और पुआल पर दरी पड़ी थी, हम सब दरी में अपने-अपने कंबलों में घुसे थे और वे तीनों लालटेन के किनारे बैठे बात कर रहे थे। उन दिनों मैनपाट में लाइट नहीं थी।
‘तुम्हें कब से पता है?’
मास्टरनी बहुत उत्सुक थी, उसकी आँखें फैली थीं और माथे पर एक गहरी सीधी लकीर उभर आई थी।
‘तीन दिन पहले मुझे यह पत्र मिला था। तिब्बतियन में लिखा है। मैं हमेशा की तरह सुलू को इसे पढ़ कर सुनाना चाहता था।’
मास्टर ने कहा। मास्टर को तिब्बतियन आती थी और हमने कई बार उसे सुलू के सामने बैठे तिब्बतियन में लिखी किताब या पत्र पढ़ते देखा था। सुलू अपढ़ था और उसके पत्रों का मतलब उसे समझाना मास्टर का एक महत्वपूर्ण काम था।
‘पाँच साल बीत गए। हे भगवान। पाँच साल और किसी ने उसे अब तक कुछ नहीं बताया।’
मास्टरनी ने अचरज से मास्टर को देखा और मास्टर ने हाँ में गर्दन हिलाई। मतलब पता है। पर क्या पता है? मैं कंबल में पड़े-पड़े उस बात को, उस फुसफुहाट में जानने की कोशिश करता रहा। वह बात जिसका ओर-छोर समझ नहीं आ रहा था। वे तीनों हम सबके सोने के बाद भी फुसफुसा रहे थे, मानो हम उनकी बात जान जाएँ तो अनर्थ ही हो जाए।
...फुसफुसाहट से एक बात समझ आ गई थी, कि मैनपाट के कुछ लोग तिब्बत जा रहे थे। कि कोई बहुत बड़ा आदमी है, जिसका नाम है दलाई लामा। और उसी ने यह व्यवस्था कराई है, कि गाँव के दस लोग एक बार तिब्बत हो आएँ। वह दूसरा तिब्बती उन दस लोगों की लिस्ट बना रहा है। वह, वह लिस्ट बार-बार मास्टर को दिखाता है। मास्टरनी भी उस लिस्ट को उलट-पलट कर देखती है। ...फिर तीनों फुसफुसाने लगते हैं। उस दूसरे तिब्बती की बात से यह भी लगा कि, वह नहीं चाहता है कि सुलू भी तिब्बत जाए। उसने सुलू को समझाया है, कि वह ना जाए। पर सुलू जिद पर अड़ा है। कहता है, वह जाएगा। हाँ, वह जरूर जाएगा। वह तिब्बती कहता है, कि लिस्ट में गाँव के सबसे बुजुर्ग ऐसे दस लोगों का नाम भेजना है, जो तिब्बत जाना चाहते हों। सुलू अगर जिद पर अड़ा रहता है, तो उसे ले जाना पड़ेगा और अगर वह नहीं जाता है, तो यह मौका किसी दूसरे तिब्बती को मिल जाएगा। दूसरे को मौका तभी मिलेगा जब सुलू जाने से इंकार कर दे। क्योंकि वह सबसे बुजुर्ग है और उसका हक बनता है। सो वह चाहता है कि मास्टर उसे समझाए। मास्टर समझायेगा तो वह मान जाएगा। मास्टरनी कहती है, क्या अंतर पड़ता है, सुलू को ले जाने में... ले जाओ। खामखाँ जिद करते हो...। फिर तीनों खुसुर पुसुर करने लगते हैं। तीनों की बात सुनते-सुनते मुझे नींद आ गई।
सो अगले दिन सुबह, मैं और मास्टर पानी लेने के लिए निकले थे। हैंडपंप थोड़ा दूर था। आगे-आगे धोती-कुरता पहरे, सर पर अँगोछा लपेटे मास्टरजी और पीछे-पीछे बाल्टी लोटा लिए, दूसरे हाथ में छाता पकड़े मैं। हैंडपंप के पास वह तिब्बती फिर मिल गया। मास्टर ने उससे कहा - चलो अच्छा आज बात कर ही लेते हैं। वह तिब्बती हमें गाँव की ओर ले गया। आगे-आगे वह तिब्बती उसके पीछे मास्टर और मास्टर के पीछे मैं।
वह तिब्बती हमें गाँव की आखरी सीमा पर ले गया। वहाँ दूर-दूर तक घास का मैदान था। तीन-चार पत्थर खपरैल के घर थे, जिसके सामने रंग बिरंगे स्कर्ट ब्लाउज और गाउन पहनी तिब्बती औरतें, बेचने के लिए तैयार किए तरह-तरह के स्वेटर सुखा रही थीं और मैदान में दूर-दूर तक कुछ बच्चे, चीखते चिल्लाते पतंग उड़ा रहे थे। दूर एक गोंपा था, जिससे एक लंबी भोंपूनुमा आवाज आई थी। उसके चारों ओर रंगीन कपड़ों के हजारों तिकोने टुकड़े, हजारों रंग नीले आकाश पर लहरा रहे थे। चीखते चिल्लाते बच्चों के बीच, उनकी हरकतों पर ताली बजाता एक बूढ़ा इधर उधर डोल रहा था। वह सुलू था।
सुलू ने मास्टर से हाथ मिलाया, उस दूसरे तिब्बती को देखा और यूँ प्रदर्शित करने लगा मानो जानता हो, कि मास्टर उससे क्या बात करने आया है।
‘यह सही कहता है।’
‘तो तुम भी मानते हो मास्टर। बताओ मैं क्यों ना जाऊँ। मैं सबसे बूढ़ा हूँ और मैंने तिब्बत जाने के लिए इंतजार किया है। पिछले पच्चीस सालों का इंतजार। मैंने पच्चीस सालों से अपना घर, अपना परिवार नहीं देखा...।’
मास्टर कुछ कहते कहते रुक गया। सुलू कहता रहा ।
‘पच्चीस साल। क्या तुम गिन सकते हो? पच्चीस सालों को कोई नहीं गिन सकता। कोई अपने घर के लिए, अपने परिवार के लिए पच्चीस साल नहीं गिन सकता। पर मैंने गिना और फिर भी तुम कहते हो कि वहाँ जाना बेमतलब है। अंततः बेमतलब।’
सुलू मास्टर को घूरने लगा। मास्टर ने मुँह बिचकाया और वह पत्र मुट्ठी में भींच लिया।’
‘यह तुम्हारे लिए था। मैंने ही मास्टर को कहा था, कि वह तुम्हें सबकुछ सच-सच बता दे।’
उस तिब्बतियन ने मास्टर के हाथ में भिंचे उस पत्र की ओर इशारा करते हुए कहा। सुलू ने मास्टर के हाथ से वह पत्र छीन लिया और उसे उलट पलट कर देखने लगा।
‘मुझे यह तीन दिन पहले मिला था। मैं कुछ डर गया था और सोच रहा था कि जल्द ही यह पत्र तुम्हें पढ़ दूँगा ।’
मास्टर अटकते हुए बोल रहा था। वह दूर दिखते गोंपा पर नजर गड़ाए था और लगातार बोल रहा था।
‘वहाँ अब कोई नहीं है। मेरा मतलब तिब्बत में, तुम्हारे गाँव में अब उनमें से कोई नहीं है। अर्सा बीता जब चीनी सेना ने वह गाँव खाली कराया था। कहते हैं, कि बहुत से लोग मारे गए थे। उनके पास खाने को नहीं था, रहने को नहीं था... उनके कपड़े, अनाज सब जला दिए गए थे। उन्हें कहा गया था, कि वे दुबारा वहाँ नहीं आएँ... आएँगे तो सेना उन्हें मार डालेगी। उन लोगों का कुछ पता नहीं चला। ...बाद में कुछ लोगों ने पता भी करना चाहा था, कि वे सब कहाँ हैं, खास कर तुम्हारा बेटा और उसका परिवार... लेकिन फिर उनमें से कोई नहीं मिला और एक दिन... उनको तुम्हारा पता चला और फिर यह पत्र आया दलाई लामा के मार्फत...। वे सब मारे गए। तुम्हार बेटा, बहू और दो बच्चे... वे गुमे नहीं थे, जैसा कि लोग समझते रहे... वे सब मारे गए। कुछ लोग कहते हैं, कि वे सब काफी दिनों तक बियावान बर्फ के रेगिस्तान में भटकते रहे थे...। शायद वे बर्फ के तूफान में मर गए। यह सब पाँच साल पहले हुआ था। अब तुम्हारा वहाँ जाना बेमानी है। यह ठीक कहता है सुलू तुम नहीं जाओगे तो यह चांस किसी और को मिल जाएगा।’
उस पत्र में कुछ और भी था जो मास्टर ने सुलू को नहीं बताया। मास्टर अचानक चुप हो गया था। वह अब भी लगातार गोंपा को देखे जा रहा था। उस तरफ देखने को कुछ भी नहीं था।
सुलू खड़ा रहा। उस पत्र को बहुत गहरे देखते, उन शब्दों को जो उसके लिए हमेशा से अर्थहीन रह आए थे। वह मुड़ा। मैंने उसे दूर जाते देखा। मैंने उसे उकड़ूँ बैठते और अपना सिर घुटने के बीच अपनी हथेलियों से दबाते हुए देखा। थोड़ी देर बाद हम सबको उसकी चीख-चीख कर रोने की आवाज सुनाई देती रही। गाँव के कुछ बुजुर्ग उसकी तरफ दौड़े। औरतें और बच्चे बातें और हल्ला गुल्ला छोड़ कर उसको एकटक देख रहे थे। सब कुछ शांत था, बस सुलू चीख चीख कर रो रहा था। उसका रोना मैनपाट की पहाड़ियों पर से गूँज कर वापस आ रहा था। सुलू और मैनपाट की पहाड़ियों के अलावा वहाँ और कोई शोर नहीं था। गोंपा के रंग बिरंगे तिकोने आकाश पर फरफरा रहे थे। लोग बुत बने खड़े थे।
उस दूसरे तिब्बती ने तिब्बत जानेवाले लोगों की लिस्ट में से सुलू का नाम काट कर किसी और का नाम लिख दिया था। लिखते समय उसकी उँगली काँप रही थी।
मैनपाट में वह हमारा आखरी दिन था। मास्टर का काम हो गया था और उसके कहे अनुसार काम खत्म होते ही हमें एक पल भी वहाँ नहीं रुकना था। हम उसी रात लौट आए।
घर लौट कर मैंने माँ को बताया था, कि मैनपाट में बिल्कुल अलग तरह के लोग रहते हैं। बिल्कुल अलग किस्म के लोग। एकदम अलग। और तो और वहाँ के बूढ़े बिल्कुल बच्चों की तरह रोते हैं। सुलू तो ऐसे रो रहा था जैसे बच्चे रोते हैं, चिल्ला-चिल्ला कर...। चीख-चीख कर। सच माँ वो बिल्कुल अलग तरह के लोग हैं। बिल्कुल अलग। ना कभी सुने। ना कभी जाने। ...उनको देख कर भी अजीब लगता है, कि वे हैं। कि ये वही हैं। यकीन ही नहीं होता।
सुलू फिर बहुत दिनों तक नहीं दिखा।
कुछ दिनों बाद छत्तीसगढ़ के उस जंगली, आदिवासी और सुदूर के उस अनजान से गाँव में, एक तुच्छ सी घटना हुई। उस साल मिडिल स्कूल की वार्षिक परीक्षा में सातवीं कक्षा के सामाजिक अध्ययन के पेपर में एक प्रश्न आया। प्रश्न था, भारत के सीमावर्ती देशों का नाम लिखो? हम सबने किताबों, गाइडों, कुंजियों, नोटबुकों, ... से इस प्रश्न का जो जवाब रटा था, उसमें तिब्बत का नाम नहीं था। हमने वैसा ही लिखा। हमने भारत के पड़ोसी देशों में तिब्बत का नाम नहीं लिखा। रटे हुए उत्तरों में तिब्बत कहीं नहीं था। किताबों से पढ़े जवाबों में वह हो भी नहीं सकता था। मास्टर ने हमारी इस गलती पर हम सबके एक-एक नंबर काट दिए।
बरसों बीते। 26 साल से भी ज्यादा। तिब्बत कहीं नहीं दीखा। बहुत तलाशता हूँ, पर जैसे वह कहीं नहीं है। ना एटलस में। ना ग्लोब में। ना किताबों में। ना खबरों में। ना बातचीत में।...
तिब्बत आज भी वैसा ही है, जैसा बचपन में था। तिब्बत का मतलब आज भी एक सुदूर जंगली गाँव में बड़े अपनेपन से सुनी गई एक कहानी है। एक बेहद अपरिचित, अनजान किस्सा है तिब्बत, जो कभी भी विश्व के नक्शे पर नहीं आ पाया।
तिब्बत मतलब एक गप्प, मास्टर की आग्रहभरी पुकारवाली गप्प, जो अब तक कोई खबर नहीं हो पाई। तिब्बत एक गप्प, जो शायद किसी मीडिया के कमरे में पड़ा हो कागजों में लिपटा, जिसे कभी शायद खोला जाय। तिब्बत मतलब मास्टर का पढ़ाया एक गलत पाठ। तिब्बत एक गलत पाठ, जो लगता है, शायद कभी किसी किताब में आ जाए और परीक्षा में बटोर ले जाए अपने हिस्से के अंक।
बचपन में मैंने तिब्बत को कई बार मैनपाट की पहाड़ियों और सातवीं कक्षा के सामाजिक विज्ञान के बीच चहलकदमी करते देखा था। तब मुझे पता नहीं था, कि यह तिब्बत है और यह सामाजिक विज्ञान। तिब्बत याने कुछ बच्चों के बचपन की पहली कहानी, जिसके एक सिरे को वे बड़े हो कर दुनिया के नक्शे में, भूगोल में टटोलते रहे थे। एक अधूरी कहानी जो भूगोल के दरवाजे पर बरसों से पड़ी है। तिब्बत याने एक अनजान मिडिल स्कूल के कक्षा सात में लटका एक खाली ब्लैक बोर्ड। वही कक्षा सात जहाँ मैं आज भी पढ़ रहा हूँ।
अकसर जब मैं कोई किताब पढ़ रहा होता हूँ, तो लगता है जैसे मास्टर अचानक आ गया है। उसने मेरे हाथ से किताब छीन ली है और किताब को फरफराते उलटते-पलटते, बहुत आहिस्ते से सँभल कर कह रहा है - मत पढ़ो यह किताब। विश्वास करो, जो विजेता है, जो जीत चुका है, उसी ने यह किताब लिखी है। वही तो किताबें लिखता है। हर किताब किसी ना किसी विजेता ने ही तो लिखी है।