भूगोल को समझना / ज्ञान चतुर्वेदी
भूगोल मुझे कभी समझ में नहीं आया। स्कूल में भूगोल को लेकर मेरा स्पष्ट दृष्टिकोण था कि भाड़ में जाने दो स्साले को। गाँव के हमारे स्कूल में नकल की उचित तथा लगभग विधि-सम्मत सुविधा थी तथा भूगोल वाले मास्साब दूर के रिश्ते में हमारे मामा लगते थे, सो भी भूगोल कोई विशेष समस्या रही नहीं कभी। परीक्षा में पास होने लायक भूगोल की चिटें हमने तैयार कर ही ली थीं और वस्त्रों में जिस जगह छिपाकर हम उन्हें रखकर परीक्षा में नकल के महती उद्देश्य के साथ बैठते थे, उस जगह का उल्लेख किसी भूगोल की किताब में नहीं था। सो, जब मास्साब अक्षांश-देशांश रेखाएँ, लाल सागर, भूमध्य रेखा, कर्क रेखा, दक्षिणी गोलार्द्ध, उत्तरी गोलार्द्ध, अमेजन का कछार, सुन्दरवन का डेल्टा, पठार, घाटियाँ, वन आदि के अकादमिक तिलिस्म में भटकते फिरते थे, तब हम होनहार छात्रगण पीछे की टाटपट्टी पर बैठे इस सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करते रहते थे कि प्रार्थना के समय बटोरे गये अधजली बीड़ी के टुकड़ों में से बड़ा टुकड़ा किसको मिलेगा ? स्कूल के इण्टरवल में हम वहाँ छुपकर सामूहिक धूम्रपान करते थे, जहाँ का भूगोल हमारे भूगोल के मास्साब को भी ज्ञात नहीं था। मुझे पता नहीं कि भूमध्य रेखा से वह जगह कितनी दूर थी कि जहाँ हमारा सरकारी मिडिल स्कूल स्थित था और मुझे यह नहीं पता था कि हम अपने हेडमास्टर साहब के हाथों पृथ्वी के गोलार्ध में पिट रहे थे अथवा दक्षिणी गोलार्द्ध में-परन्तु यह बात स्पष्ट है कि जब मुझे भूगोल पढ़ना तथा समझना चाहिए था, तब मैं नितान्त अभौगोलिक किस्म की हरकतों में मुब्तिला था।
मैं ही क्यों, मेरे समस्त मित्रों की यही स्थिति थी। दरअसल हमलोगों की दिलचस्पी गाँव के भूगोल में ही इस कदर थी कि शेष पृथ्वी का भूगोल हमें उसी प्रकार अप्रासंगिक प्रतीत होता था कि जिस प्रकार हमारे आलोचक प्रवरों को अपनों की रचनाओं के अलावा अन्य लेखकों की रचनाएँ लगती हैं। किसी को सन्नाकर पत्थर मारने के उत्तरदायित्व से निबटने के तुरन्त बाद गाँव की इस गली से भागकर किस गली में पहुँचकर अदृश्य हुआ जा सकता है या गाँव के किस बगीचे में इस समय जुआ चल रहा होगा, या कि हेडमास्साब का छाता या जूता स्कूल के पिछवाड़े किस गढ्ढे में फेंकना निरापद रहेगा-ये तथा इसी प्रकार की अन्य भूगोल विषयक मेरी जानकारियाँ जबरदस्त थीं, परन्तु आस्ट्रेलिया में कौन-सी पैदावार सर्वाधिक होती है, या कि मानचित्र में नर्मदा को कहाँ से कहाँ तक खींचा जाए, ये तथा ऐसी बातें मेरी समझ के नितान्त परे थीं। विश्वबन्धुत्व की जो भावना आप मुझमें कूट-कूटकर भरी पातें हैं, उसका एक कारण वास्तव में भूगोल की यह दुष्कर पढ़ाई भी है; मुझे विश्व का मानचित्र एक-सा दीखता था। मुझे तब भी यही लगता था कि यह सारा संसार एक क्यों नहीं हो जाता ताकि विश्व के मानचित्र पर विभिन्न देशों को पहिचानने की इस अर्वाचीन समस्या से छुटकारा प्राप्त हो सके !
मैं आज भी प्रायः विचार करता हूँ कि आखिर क्योंकर मुझे भूगोल कभी समझ ही नहीं आया ? कारण क्या थे ? वे कौन-सी परिस्थितियाँ थीं जिन्होंने मुझे भूगोल से विमुख किया ? भूगोल की किताब देखकर ही उसे फाड़ने-छिपाने या जलाने की तीव्र आकांक्षा मुझे आज भी क्यों उठती हैं ? क्यों भूगोल का मास्टर देखकर मैं आज भी घबरा जाता हूँ और क्यों ऐसा होता है कि किसी भी नक्शे को समझकर चलना शुरू करूँ तो कहीं भी नहीं पहुँच पाता ? ये तथा इसी भाँति के भाँति-भाँति प्रश्न उठा करते हैं आजकल मेरे मन में। इन दिनों जब मैं अखबार में पढ़ता हूँ कि फलाने लातिन अमरीकी देश में पुनः किसी ने किसी का तख्ता पलट दिया, या स्केण्डीनेविया (या ऐसी ही किसी-नेविया) का कोई राज्याध्यक्ष आकर राजघाट पर पुष्प चढ़ाकर और हमारे देश को शान्ति का पुजारी बताकर सीधे पाकिस्तान गया (जहाँ वह यही बताएगा) अथवा कहीं तूफान या भूकम्प आया, या कहीं कोई सम्मेलन हुआ जहाँ जैसा कि होता आया है, हमारा कोई प्रतिनिधिमण्डल पहुँचा, जिसका, जैसा कि होता आया है, बड़ी गर्मजोशी से स्वागत हुआ-ये, तथा ऐसे समाचार पढ़कर दो प्रश्न मेरे पापी मन के भूगोल में भटकने लगते हैं। एक तो यह कि यह स्साला स्केण्डीनेविया है कहाँ, भारत से कितने किलोमीटर पड़ेगा, यहाँ से किस दिशा में कैसे लाना होगा, किराया कित्ता लगेगा, टीए डीए क्या मिलेगा ? और वहाँ ऐसा है क्या कि कोई शरीफ मनुष्य अथवा प्रतिनिधिमण्डल वहाँ जाए ? स्पष्ट है कि मैं ऐसे अवसरों पर समझ ही नहीं पाता कि किस जगह की चर्चा चल रही है तथा हाट पिपल्या या भाण्डेर या खिलचीपुर से तुर्की अथवा कुवैत किस भाँति भिन्न हैं ? और इसी पहले प्रश्न से तब दूसरा प्रश्न जन्म लेता है कि मैं आज तक भूगोल को क्यों नहीं समझ पाया ?
सत्य तो यह है कि प्यारे अपुन को यह भूगोल कभी जमा ही नहीं। सही मायनों में कहें तो अपनी रुचि तो कभी पढ़ाई के किसी भी विषय में रही ही नहीं। गणित तो खैर किसी को भी समझ नहीं आता तथा नागरिकशास्त्र में जो पढ़ाया जाता है, वह नागरिक को अच्छा नागरिक बनने में मदद करता हो, ऐसा देखा नहीं गया है-परन्तु फिर भी इन समस्त विषयों में भूगोल का स्थान सर्वोपरि रहा। मेरी रुचि तो सदैव ही यार की गली के भूगोल में रही। कहाँ से मुड़ना है यार के बाप को देखते ही किस कचरापेटी के पीछे सुरक्षित छिप सकते हैं कितने अक्षांश पर उसका छज्जा है और मौके पर कैसे उस गली के किस रास्ते को पकड़कर किस दिशा में छू होना, यह मुझे सदैव ही कठण्स्थ रहा। मैं नेत्र मूँदकर भी वहाँ जा सकता था।...और जहाँ तक नदियों का प्रश्न है तो नदियों में हमारी रुचि उसी हद तक रही कि चाँदनी रात में नौका विहार पर सुन्दर-सा निबन्ध, या ओ माँझी रे, हैया रे हैया, अथवा कैसे जाऊँ जमुना के तीर आदि। नदी कहाँ से निकलती है, उसका ‘कोर्स’ क्या है तथा कैसे वह समुद्र में मिलने से पूर्व डेल्टा बनाती है-ये नीरस तथा शुष्क बातें मेरे रसिक मन को ऐसी पीड़ा देती रही हैं कि मानो कोई ज्ञानीजन प्रेमिका का पोस्टमार्टम करके उसका दिल, जिगर और गुर्दा हाथ में लेकर श्रृंगार रसकी चर्चा करने का प्रयत्न कर रहा हो ! हमें ऐसी नदी में कभी दिलचस्पी नहीं हुई कि जो मात्र मानचित्र पर उकेरी गयी एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा भर हो ! इसी कारण भूगोल मुझे कभी समझ ही नहीं आया। फसलों, किसानों और मौसम-चक्र आदि का जिक्र आते ही मुझे सदैव ही ‘दो बीघा जमीन’ और प्रेमचन्द याद आते थे, तथा अक्षांश-देशांश रेखाओं के सन्दर्भ में मुझे हमेशा आज भी दूसरी रेखाएँ याद आती हैं जो मोहल्ले में रहती हैं, या रही हैं या फिल्मों में काम करती हैं..मैंने बहुत पहले यह जान लिया था कि मैंने भूगोल समझने के लिए जन्म नहीं लिया है। बल्कि मुझे तो यहाँ तक लगने लगा था कि मैंने भूगोल को न समझने हेतु ही जन्म लिया है।
परन्तु इन दिनों दुनिया और देश की स्थिति देखकर मुझे लगने लगा है कि भूगोल का समुचित ज्ञान लेना अत्यन्त आवश्यक था। मुझे ज्ञात होना चाहिए था कि हमारा देश जिस देश से कर्ज ले रहा है, है किधर है ? भीख किस दिशा में बँट रही है ? बम किस दिशा से गिरेंगे और भूगोल के किस खण्ड को इतिहास बनाने की साजिशें चल रही हैं ? वे जो दिव्य मध्यस्थ हैं, वे जो दुनिया के भूगोल को अपनी मुट्ठी की साइज का करना चाहते हैं और वे जो भूगोल बदलने के साथ इतिहास भी बदलना चाहते हैं-वे वस्तुतः किस मिट्टी की पैदाइश हैं और उस मिट्टी में इनके सिवाय भी कोई फसल होती है या नहीं-मुझे यह भी जानना चाहिए था। पता होना था कि कहाँ क्या है ? टी.वी.पर नाम सुनते हैं ,परन्तु पता ही नहीं चलता। वे शर्माते क्यों नहीं ? वे बम गिराकर बच्चे मार देते हैं और उनके देश को शर्म नहीं आती। या आती हो और हमें खबर न हो ? पता होना चाहिए था कि वे हमसे कितनी दूर हैं और उनकी शर्म यदि चलना शुरू करे, तो हम तक कितने हजार किलोमीटर चलकर पहुँच पाएगी ?.....भूगोल का पता होता तो हम भी जान पाते कि इस बड़े देश का क्षेत्रफल इतना सँकरा तथा छोटा क्यों है कि हम सब बिना लड़े-झगड़े रह नहीं पाते ? फिर हम इतने दूर भी किस भूगोल के कारण हैं कि बिहार, उत्तर प्रदेश या आन्ध्र प्रदेश में यदि कुछ गड़बड़ होता है तो हमें आन्दोलित नहीं करता हमारे छोटे-से भूगोल में यह देश क्यों नहीं आ पाता ?....मुझे लगता है कि मैंने गलती की। भूगोल पढ़ना बहुत आवश्यक था।