भूमंडलीकरण के स्त्री प्रश्न / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1
भूमंडलीकरण के स्त्री प्रश्न : समीक्षा
प्रभा खेतान की यह छह अध्यायों में विभक्त चिंतनपरक पुस्तक है। सन् २००४ में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस कृति में प्रभा की बौद्धिक परिपक्वता और गहन अध्ययन-विश्लेषण क्षमता प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है। प्रथम अध्याय 'एक प्रश्नवाची समय` में भूमंडलीकरण पर वृहद् रूप से विश्लेषण किया गया है। अपने अनुभवों और विषय से संबंधित अनेक देशों के आंकड़ों के आधार पर प्रभा ने भूमंडलीय प्रक्रियाओं का खाका पाठक के सामने खींचा है। भूमंडलीकरण का व्यक्ति के जीवन पर अच्छा और बुरा असर एक साथ पड़ा है। अमीरी और गरीबी की खाई अधिक बढ़ी है। बाजार उत्पादित साधनों से भरा है मगर आम इंसान की क्रय शक्ति उसके एवज में नहीं बढ़ी। सामान्य व्यक्ति की आय को बढ़ाने वाले स्थानीय व्यवसाय बढ़े परंतु वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रतियोगिता नहीं कर पाते और एक-एक कर दम तोड़ते रहे हैं। एक तरफ मजदूर की आय घटी ही नहीं, उसे काम भी नहीं मिल पाता तो दूसरी तरफ एक सुविधाभोगी तबका दिन-रात पूंजी को केन्द्रित करता जा रहा है। यही नहीं प्रभा के अनुसार किसान भी बहुमंडलीकरण के चंगुल में फंसता जा रहा है। उसके छोटे-छोटे कृषि भूमि के टुकड़ों को हड़प कर बड़े-बड़े सुविधाभोगी कृषि क्षेत्र निर्मित किए जा रहे हैं और वहां किसान की आवश्यक उपज के बजाय निर्यात के लिए गुलाब के फूल उपजाए जा रहे हैं। इससे किसान की आय बढ़ी मगर साथ ही बाजार पर उसकी निर्भरता बढ़ती जा रही है और अनाज उसे महंगा दिया जा रहा है। गैट समझौते का भी किसान पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।
प्रकृति से पानी, जंगल, हवा आदि जिसका अधिकार हमें मिला पेटेंट कानून द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उन पर नियंत्रण करती जा रही हैं। कुछ शक्तिशाली राष्ट्र यू.एन.ओ, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संघ को अपने हित के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रभा यह भी मानती हैं कि-
स्वतंत्र बाजार ने विज्ञापन द्वारा प्रत्येक देश की संस्कृति को प्रभावित किया है।``
भूमंडलीकरण का प्रभाव स्त्री पर भी उतना ही पड़ा है जितना पुरुष पर। प्रभा के अनुसार एक तरफ भूमंडलीय प्रक्रियों के कारण स्त्री को काम के लिए क्षेत्र मिला है फलत: वह शक्तिशाली और आत्मनिर्भर बनी है। उसकी सामाजिक भूमिका में परिवर्तन आया है। घर से बाहर जाने का अवसर मिला है तो दूसरी तरफ स्त्री पर इसका विपरीत प्रभाव भी पड़ा है। भूमंडलीय व्यवस्था में स्त्री श्रम का शोषण हो रहा है, उसे नई जटिलताओं का सामना भी करना पड़ रहा है।
चूंकि प्रभा खुद निर्यात उद्योग से जुड़ी हुई थीं उन्होंने अपने ३५ वर्ष के व्यावसायिक अनुभव से उदारीकरण की नीतियों से पैदा होने वाली चमक-दमक के कारण श्रम बाजार के भीतरी हालातों पर विचार किया। 'श्रम के स्त्रीकरण की हकीकत` शीर्षक निबंध में प्रभा ने बाजारवादी नव-उदारवाद से स्त्री-श्रम पर पड़ने वाले प्रभावों को विस्तार से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उदारीकरण अपने साथ बाजार में लुभाने वाले और सुविधाभोगी सामान का अम्बार लेकर आया है। प्रभा के अनुसार भूमंडलीकरण ने स्त्री के लिए रोजगार के दरवाजे जरूर खोले हैं मगर उसके श्रम का शोषण हुआ है।
स्त्री को बड़े समूह में फैक्ट्रियां रोजगार देती हैं क्योंकि उनका श्रम सस्ता होता है और छंटनी करने में भी सुविधा होती है। उपद्रव का भय भी नहीं रहता। अविवाहित स्त्रियां ऑवर-टाइम काम करती हैं और उनको मातृत्व अवकाश एवं शिशुगृह की व्यवस्था की जरूरत भी नहीं पड़ती अत: उनकी अधिक मांग होती है। स्त्री के काम के घंटे भी ज्यादा होते हैं क्योंकि वह घर जाकर भी काम करती है मगर उसके काम को सेवा का नाम देकर श्रम में नहीं आंका जाता।
नई तकनीक ने जहां पढ़ी-लिखी युवा स्त्री के लिए नये रोजगार के साधन उपलब्ध कराएं हैं वहीं प्रभा मानती हैं-
अधिकतर स्त्रियां जो कम शिक्षित और उम्रदराज हैं, बेरोजगार हुई हैं।``
प्रभा अपनी फैक्ट्री के उदाहरण से ये बताने की कोशिश भी करती हैं कि नई तकनीक जो सुविधापूर्ण है का प्रयोग पुरुष करना चाहते हैं और स्त्रियांे को पीछे धकेलकर अपना स्थान बना लेते हैं। स्त्री अपनी आय में से अपने ऊपर बहुत कम खर्च कर पाती हैं। वे अपनी इच्छाओं को परिवार की इच्छाओं पर बलिदान कर देती हैं।
प्रभा ने विश्व के कई देशों का जायजा लिया और स्वीडन और वियतनाम जैसे देशों की स्त्रियों की स्थिति को विकसित कहे जाने वाले देशों की तुलना में बेहतर पाया। प्रभा के अनुसार भारत में शहरी, उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री उद्योग से निकलकर सेवा क्षेत्र में जाना पसंद कर रही है। बाजार व्यवस्था स्त्री-पुरुष संबंधों में एक हद तक परिवर्तन लाई है। बाजार के आगे परिवार ने घुटने टेके हैं और लड़कियों के कैरियर की चिंता करते माता-पिता ने विवाह की उम्र में वृद्धि को स्वीकार किया है।
भूमंडलीकरण ने बाजार के उत्पाद के साथ ही वेश्यावृति के रूप को किस प्रकार बदल दिया इस उलझे हुए एवं बहुत ही जटिल विषय को प्रभा ने 'यौनकर्म की कीमत` शीर्षक निबंध में उठाया है। वेश्यावृति आज के युग की देन नहीं, सभी राष्ट्रों में यह पहले से ही किसी न किसी रूप में मौजूद थी। बस फर्क इतना है तब यह सेवा कुछ सामंती और धनाढ़्य लोगों के लिए हुआ करती थी ओर आज सामान्य पुरुष के लिए भी सुलभ है।
लेखिका के अनुसार आज सैक्स वर्कर फाइफस्टार होटलों के वातानुकूलित कमरों में सेलफोन के माध्यम से ग्राहकों से संपर्क करती हैं। आने वाले ५० वर्षों में भी यौनकर्म चलता रहेगा मगर इनके जीवन स्तर में सुधार आएगा। इस व्यवसाय का संचालन करने वाले लोग कभी समाज के सामने नहीं आते और अपना जाल कुछ इस प्रकार फैलाए रखते हैं कि समाज की आंखों से ओझल हो ज्यादा से ज्यादा लड़कियां खरीदी और बेची जाएं।
भूमंडलीकरण में लड़कियों की खरीद-फरोख्त में कुछ अंतर आया है, उसको लेखिका कुछ इस प्रकार दर्शाती हैं-
भूमंडलीकरण के बाद से बेटियों के व्यापार में कुछ परिवर्तन हो रहे हैं। अब उन्हें सीधे नहीं बेचा जाता बल्कि माता-पिता या उसके अभिभावक उसे गिरवी रखकर ऋण लेते हैं जिसमें लड़की की भूमिका गौण होती है।``
दक्षिण एशिया के गरीब राष्ट्रों से लेकर अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्रों तक यौन उद्योग अपनी जड़ जमाए हुए है। थाईलैंड, फिलीपींस जैसे छोटे राष्ट्रों से बड़ी संख्यां में लड़कियों का निर्यात किया जाता है।
प्रथम विश्वयुद्ध व सैन्य-शक्ति के विस्तार के साथ ही वेश्यावृति भी बढ़ती गई। युद्ध में थके हुए और तनावग्रस्त सैनिकों को राहत के लिए वेश्याएं उपलब्ध कराई जाती और इसी कारण सैनिक छावनियों के आसपास वेश्यावृति के अड्डे पनपे।
एशिया में देह व्यापार की नींव प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पड़ी और वियतनाम युद्ध के दौरान इसे बहुत बड़ा प्रोत्साहन मिला। अमेरिकी फौजों के जवान देह के एवज में डॉलरों में भुगतान करते और यह स्थानीय मुद्रा में बड़ी रकम होती थी। युद्धों की समाप्ति के बाद यह उद्योग सैनिकों की जगह पर्यटन के रूप में विकसित होने लगा।
लेखिका के अनुसार-
वेश्यावृति एक नयी विकसित रणनीति है। आज यह केवल गरीब स्त्रियों की रोजी-रोटी से संबंधित नहीं बल्कि इसके आधार पर राष्ट्र अपना विकास कर रहे हैं।``
सैक्स वर्करों के कारण डॉक्टरों और दवा उद्योग का व्यवसाय करोड़ों रुपयों में आमदनी कर रहा है।
इस व्यवसाय में अधिकतर कम उम्र की लड़कियों को उतारा जाता है। कभी-कभी तो रजस्वला होने से पूर्व ही देह व्यापार में लड़कियां धकेल दी जाती हैं। इस विडम्बना को प्रभा लिखती हैं-
अधिकांश लड़कियों को धोखे से व जबरदस्ती इस व्यापार में लाया जाता है क्योंकि ग्राहक नाबालिग 'अक्षत` तथा रोगमुक्त कन्या वेश्याओं की मांग करते हैं। कुछ समय पश्चात् उनमें एच.आई.वी. एड्स के लक्षण पाये जाते हैं। इस रोग तथा देह व्यापार की शिकार कई लड़कियों की भर्ती किशोरावस्था में हुई थी जिन्हें २२-२३ वर्ष की उम्र में ग्राहकों द्वारा नकारे जाने के बाद चकलाघरों के मालिकों द्वारा बाहर फेंक दिया जाएगा एवं संभवत: तीस वर्ष के आसपास उनकी मृत्यु हो जाएगी।``
देह व्यापार ने निर्धन समुदाय में बेटियों को मूल्यवान बना दिया। थाईलैण्ड में कई बेटियों वाला परिवार भाग्यशाली माना जाता है। भारत में भी वेश्याओं की बड़ी संख्या दलित एवं अछूत वर्ग के अत्यंत गरीब तबकों से और कुछ आदिवासी समूहों से भी आती हैं। ये औरतें शोषण के तीन गुणा भार से पीड़ित हैं- गरीबी, दलित और स्त्री होना।
आज एक तरफ जहां विश्व मानवीय मूल्यों एवं अधिकारों की बात करता है वहीं पर्यटन और यौन-मंनोरंजन के नाम पर देह-व्यापार को बढ़ावा दिया जा रहा है। स्त्री की पहचान उसके मूल्यों से नहीं शरीर की कीमत से आंकी जा रही है।
भूमंडलीकृत संस्कृति की व्याप्ति ने पितृसत्ता के सामने नई चुनौती खड़ी की है। इन्हीं परिवर्तनों और बदलते मानवीय मूल्यों पर प्रभा ने 'घुमड़ते हुए बादल` शीर्षक निबंध में प्रकाश डाला है।
समलिंगी यौन संबंधों को नई सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए अनेक बार आंदोलन हुए और समलैगिंकता को कई मायनों में स्थापित कर दिया। स्त्री अपनी पारम्परिक भूमिका से निकलकर अपनी नई पहचान कायम करना चाहती है। ताईपेई का लेस्बियन आंदोलन और अमेरिकी गे आंदोलन दोनों के पीछे की विचारधारा ने पारम्परिक परिवार की भूमिका पर प्रश्नवाचक चिह्उा लगाया है। एड्स जैसी बीमारी का निराकरण समलिंगी यौन संबंधों के पक्षधर समलैगिंकता के द्वारा करना चाहते हैं।
प्रभा के अनुसार-
गे समुदाय ने कलंकीकरण से व्यक्ति को बचाकर और एड्स की महामारी को रोक कर यह बताया है कि समाज अंधेरी सुरंगों से निकल पाया है और खुले उजाले में विभिन्नता के तहत मानव अनुभवों पर एक नजर डाल रहा है।``
परिवार में बदलती हुई भूमिकाएं पितृसत्ता के लिए चुनौती है मगर प्रभा के विचार से परिवार व्यवस्था कभी खत्म नहीं होगी क्योंकि एक मनुष्य अपने जीवन और अस्तित्व के लिए दूसरे मनुष्य का साथ चाहेगा। अत: परिवार का रूप भले ही परिवर्तित हो परंतु परिवार खत्म नहीं होगा। एक हद तक आज भी हम परिवारों के बदलते स्वरूपों को देख सकते हैं।
आज स्त्री का नया उभरता हुआ व्यक्तित्व सामने आ रहा है और यह अधिक जटिल, असुरक्षित एवं लचीला है। स्त्री अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की तरफ ध्यान देने लगी है। यौन भिन्नता और अभिव्यक्ति स्त्री की निजी जरूरत के रूप में स्थापित होती जा रही है। प्रभा के अनुसार-
स्त्री की भूमिकाओं को पुन: परिभाषा भूमंडलीय समाज की सबसे बड़ी जरूरत है।``
भूमंडलीय संस्कृति एकरूपीकरण का प्रयास करते हुए भी अपने भीतर अतिशय भिन्नतामूलक मूल्यों को लिए है। इस भूमंडलीय उभोक्तावादी संस्कृति में बाजार में घर नजर आते हैं और घर बाजार में रूपांतरित होता नजर आता है। 'भोग और भोगा जाना` शीर्षक निबंध में प्रभा बाजारीकरण की वर्तमान प्रवृत्ति को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं-
भूमंडलीय समाज में आज चीजों का उपयोग प्रतीकात्मक हो गया है। हो सकता है कि उस वस्तु का कोई भौतिक मूल्य न हो पर फिर भी प्रतीकात्मक स्तर पर उपभोक्ता के लिए वह बेशकीमती मायने रख सकता है। अति समर्थ समाजों, जहां पूंजी का आधिक्य है वहां यह सब ज्यादा घर कर रहा है।``
उपभोग व्यक्ति के मूल्यों को स्थापित कर रहे हैं और इस ब्रांड (संकेतक) से निर्यात होता हुआ उपभोक्ता स्वयं में एक ब्रांड बनता जा रहा है।
उपभोक्ता जिन साधनों का उपभोग कर रहा है उन्हीं के आधार पर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को आंका जाता है और विज्ञापनों के द्वारा इस उपभोक्ता संस्कृति का निर्माण हो रहा है एवं विज्ञापन संस्कृति संचार माध्यम का परिणाम है। बेनेटन (कपड़ों की बहुराष्ट्रीय कंपनी) के उदाहरण से प्रभा ब्रांड संस्कृति को समझाने के प्रयास करती हैं। पहले मानवीय संसाधनों का पेटेंट संभव था लेकिन प्राकृतिक वस्तुओं का पेटेंट संभव नहीं था, मगर आज इसका पेटेंट किया जा रहा है। हर इंसान के भीतर एक खरीददार बैठा है और बाजार उसे सोते-जागते कुछ न कुछ खरीदने के लिए उकसाता रहता है। गांव में रहने वाले गरीब का बच्चा भी 'अंकल चिप्स` की मांग करता है। प्रभा के अनुसार विश्व में उपभोक्ता की स्थिति-
निजी उपभोग खर्च यानि घरेलू वस्तुओं और सेवाओं पर किया गया खर्च १९६० के मुकाबले २००० तक चार गुना बढ़कर २० खरब डॉलर हो गया है। इसमें से साठ फीसदी उपभोक्ता अकेले उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में रहने वाले दुनिया के बारह फीसदी लोग हैं जबकि दुनिया के एक तिहाई लोगों के हिस्से इसका मात्र ३.२ प्रतिशत पाता है। विकासशील देशों में भी उपभोक्ताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है।``
उपभोक्ता संस्कृति ने स्त्री को सबसे अधिक प्रभावित किया है। ब्रांड तो स्त्री के चारण-भाट बनकर समाज से उसका परिचय करा रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ने नारीवादी आंदोलन को भी प्रभावित किया है। सत्तर के दशक में नारीवाद एक जीवित धड़कता हुआ आंदोलन था, तब स्त्री ने पितृसत्ता, परिवार, विवाह व्यवस्था पर सवाल उठाए। स्त्री ने अपनी पितृसत्ता द्वारा निर्मित भूमिका से स्वतंत्रता चाही। वह घर से बाहर की दुनियां को अपने कदमों से नापना चाह रही थी। जबकि नव-नारीवाद ने तो परिवार, विवाह, महत्त्वकांक्षा, सार्वजनिक जगत में व्यक्तित्व की मोहकता के साथ बुद्धिमानी सभी को एक साथ हासिल किया है। वर्तमान दौर में नारीवाद का दुश्मन न तो पुरुष है और न ही पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था, क्योंकि स्त्री ने इनका सामना करना सीख लिया। कॉरपोरेट पूंजी स्त्री का नया खड़ा होता दुश्मन है, स्त्री इसको अभी समझ भी नहीं सकी। बाजार स्त्री का वस्तुकरण करता जा रहा है। आज स्त्री बाजार द्वारा संचालित होती-सी नजर आती है। पितृसत्ता के जाल से निकलती हुई स्त्री भूमंडलीय उपभोक्तावादी ब्रांड संस्कृति में फंसती जा रही है।
पुस्तक के अंतिम अध्याय 'बहुलतावादी रणनीति चाहिए` में भूमंडलीकरण से हुए विभिन्न परिवर्तनों में स्त्री की स्थिति, बाजार उपभोक्तावादी संस्कृति और सामाजिक संबंधों की विवेचना करते हुए बहुलतावादी रणनीति की आवश्यकता महसूस की गई है। स्थानीय सामाजिक संबंध और भूमंडलीय प्रक्रिया आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रभा के अनुसार- लैगिंक दृष्टिकोण एक ऐसा नजरिया प्रदान करता है जिससे सामाजिक संबंधों में आए हुए आधारभूत परिवर्तनों को समझने में आसानी होती है।``
उत्तर-औपनिवेशिक भारत में हुए परिवर्तनों को पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण, पूंजीवाद और मार्क्सवादी अवधारणा में से किसी को आधार बनाकर नहीं समझा जा सकता और एक तर्क व्यवस्था उचित भी नहीं। प्रभा के मुताबिक-
भारतीय समाज में घटित परिवर्तनों के संदर्भ में स्त्री के अनुभवों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।``
मुख्यधारा में आज भी स्त्री अनुपस्थित है। नारीवादी दृष्टिकोण विकसित करने के लिए स्त्री का महत्त्व क्यों और कहां है, यह समझना होगा। अर्थात् सिद्धांत को भूमंडलीय प्रक्रिया के अनुभवगत अध्ययन से जोड़कर अन्य सामाजिक संबंधों के साथ संबंधित करना है। भूमंडलीय नागरिक समाज की विवेचना नारीवाद के लिए जरूरी है।
इस पुस्तक में प्रभा खेतान ने समकालीन मुद्दों पर तार्किक विवेचना करके नारीवाद को पुख्ता किया है तथा नारीवाद के सामने आए नए संकटों से रू-ब-रू करवाया है। बौद्धिक धरातल पर यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण है और प्रभा के लेखन को गरिमा प्रदान करती है तथा नारीवाद चिंतकों में अग्रगण्य बनाती है।