भूमिकाओं के उलटफेर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 नवम्बर 2013
सैफ अली खान ने स्वीकार किया है कि वे फिल्म निर्माण में अपने अभिनेता स्वरूप को संवारने और बचाने के लिए आए हैं। इस उद्देश्य से ही शाहरुख खान, आमिर खान और अक्षय कुमार भी निर्माण क्षेत्र में आए परंतु राजकपूर और गुरुदत्त के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। वे मूलत: फिल्मकार थे और निर्माण में लगे समय और ऊर्जा के कारण वे अपने अभिनेता स्वरूप को अनचाहे ही हानि पहुंचाते रहे। राजकपूर का निर्देशक स्वरूप इतना विराट रहा कि अभिनेता राजकपूर का सही मूल्यांकन ही नहीं हो पाया। अन्यथा 'तीसरी कसम' के हीरामन को उच्च स्थान प्राप्त होता। गुरुदत्त तो अनिच्छुक अभिनेता थे। दिलीपकुमार द्वारा नहीं किए जाने पर उन्होंने 'प्यासा' की।
शांताराम ने पृथ्वीराज कपूर से दुष्यंत की भूमिका करने का आग्रह किया और उनके व्यस्त होने के कारण स्वयं वह भूमिका निभाई तो दूसरी ओर 'दुष्यंत' नहीं कर पाने के कारण कुछ समय बाद 'शकुंतला' नाटक मंचित करके अपनी इच्छा पूरी की। विजय आनंद को भी मजबूरी में 'काला बाजार' में भूमिका करनी पड़ी। बाद में ए.जे. क्रोनिन के उपन्यास 'सिटेडल' पर आधारित अपनी फिल्म 'तेरे मेरे सपने' में समानांतर भूमिका करनी पड़ी। इसकी इतनी प्रशंसा हुई कि उन्होंने 'कोरा कागज' और 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' की। देव आनंद की नाक के नीचे से अभिनय का श्रेय चले जाने के कारण उन्होंने निर्देशन क्षेत्र में कदम रखा और एक महान टीम टूट गई। इसका खामियाजा नवकेतन कंपनी को भुगतना पड़ा।
इस तरह फिल्म उद्योग में भूमिकाओं का उलटफेर होता रहा है। एक दर्जन फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं करने के बाद सलीम खान ने समझ लिया कि अभिनय उनके बस का नहीं। अत: लेखन की ओर जाकर उन्होंने सफलता अर्जित की। सलमान ने उनके अधूरे सपने को पूरा किया। जैसे फरहान ने अपने पिता जावेद के डायरेक्टर बनने के सपने को पूरा किया। शशि कपूर ने प्रारंभ ही इस्माइल मर्चेंट की अंग्रेजी फिल्मों से किया था। अत: हिंदी व्यावसायिक फिल्मों से धन कमाकर अपनी पसंद की 'जुनून', '३६ चौरंगी लेन', 'विजेता', 'कलयुग' और 'उत्सव' बनाने में उम्रभर की कमाई पूंजी खो दी।
जॉन अब्राहम के मन में निर्माता बनने की इच्छा पुरानी है। मुझसे ही उन्होंने 'नॉट ए पाउंड मोर, नॉट ए पैनी लैस' में काम करने को कहा था। वह नायिका प्रधान उपन्यास है। बहरहाल, जॉन अब्राहम ने 'विकी डोनर' और 'मद्रास कैफे' जैसी कमाल की फिल्में निर्मित की हैं। अनिल कपूर भी विगत कुछ समय से निर्माता हैं। परंतु अभी उन्होंने सारा दायित्व अपनी दोनों बेटियों को दे दिया है जो इस समय राजस्थान में रेखा अभिनीत 'खूबसूरत' का नया संस्करण बना रही हैं।
इस राह पर चलते हुए कई हादसे भी हुए हैं। मसलन विगत सदी के आखिरी दशक में अमिताभ बच्चन ने कॉर्पोरेट शैली में बिजनेस मैनेजमेंट के टाइधारियों की देखरेख में फिल्म निर्माण शुरू किया और घाटे सहे। कुछ निर्णय अजीब से हुए। जैसे आमिर, माधुरी और बच्चन अभिनीत इंद्र कुमार की फिल्म के बदले अनाड़ी मेहुलकुमार के साथ 'मृ़त्युदूत' बना दी। विनय पाठक को अपनी पहली हास्य फिल्म 'भेजा फ्राय' में सफलता मिली तो अपना स्थान मजबूत करने के बदले में निर्माता बन गए। इसी तरह राजपाल ने निर्माण क्षेत्र में आकर बहुत धन खो दिया।
अभिनेता फिरोज खान भी 'बी' ग्रेड की फिल्मों और बड़ी फिल्मों में चरित्र भूमिकाओं से तंग आकर फिल्मकार बने। उनकी 'अपराध', 'धर्मात्मा' और 'कुर्बानी' ने उन्हें सफल फिल्मकार के साथ अच्छा सितारा बना दिया। उनके पहले इसी तरह के नैराश्य से घिरे मनोज कुमार ने फिल्मकार बनकर भारी सफलता अर्जित की। उनकी 'उपकार', 'पूरब पश्चिम' और 'शोर' ने उन्हें शिखर फिल्मकार बना दिया और उन्होंने अपनी फिल्मों में बतौर अभिनेता अपनी कमियों को बखूबी छुपा लिया। आज तिग्मांशु धूलिया अत्यंत प्रतिभावान निर्देशक हैं परंतु अनुराग कश्यप की alt45गैंग्स ऑफ वासेपुर' में उन्होंने श्रेष्ठ अभिनय किया। अब सफल फिल्मकार करण जौहर अनुराग कश्यप की रणबीर कपूर अभिनीत 'बॉम्बे वेलवेट' में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने जा रहे हैं। सफल फिल्मकार बनने के बाद फरहान अख्तर ने 'भाग मिल्खा भाग' में कमाल किया तो मैंने उससे पूछा कि अब नाच-गाने की मसाला फिल्मों में स्वयं को जाया करने का समय आ गया है। तो उसने कहा कि मैंने मिल्खा के जूते उतारे नहीं हैं। अर्थात सार्थक फिल्मों में ही अभिनय करूंगा। दरअसल, पूरा खेल अपनी सीमाओं के सही आकलन करने का है।