भूमिका के नकली वेश में एक विचार / हेमन्त शेष

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मैं विचार की खोज में हूँ. इसलिए अपने से कुछ देर बाहर चला गया हूँ ताकि विचार के भूत से उलझूं, अपने आप से नहीं. अब कह सकता हूँ कि मैं यहाँ से खुद को बैठा हुआ देखता हूँ- अपनी मेज़ के सामने एक उत्सुक दर्शक बन कर बहुत देर से एक विचार की तलाश में. शुरू में ‘विचार की खोज’ बेहद सरल किस्म का प्रत्यय नज़र आ रहा था, जब ज़हन में उसकी खोज का ख्याल आया. विचार के बारे में आया विचार था यह इसलिए, थोड़ा जटिल सा लगने लगा. फिर जब ये विचार आया विचार हो तो बस नया ही तो चीज़ें ज्यादा गंभीर होने लगीं. अब प्रश्न ये है कि जो मन में आएगा क्या वह विचार नया विचार ही होगा? पहले आ चुके विचारों की कोई मुकम्मल तफसील या फ़ेहरिस्त मेरे पास मेज़ पर या ज़हन में नहीं, जो ये साबित कर सके कि ये विचार तो नया है, और यह विचार पुराना. पर अगर विचार की खोज की जानी है, तो उसे नया विचार ही होना चाहिए- ऐसा संकल्प बार-बार आड़े आता था. क्या मुझे ऐसे ही अपनी मेज़ के सामने बैठे रहना होगा- अनंत काल तक जब तक काठ में न बदल जाऊं. क्या मौलिक लेखक बनना चाहने वालों को काठ होने का अभ्यास शुरू से करना चाहिए? मैं काफी देर से अपने को उसी तरह तनावग्रस्त, विचार, नए विचार की प्रतीक्षा में बैठे देख रहा हूँ. कब तक बैठा रह सकूंगा, ये मालूम नहीं, मैं कब अपने में लौट सकूंगा ये बात भी पता नहीं, जब लौटूंगा तो क्या नया विचार लेकर, नया होगा या वह पुराना नहीं पता, पर ये एक विचार ज़रूर है- जो नया भी है और विचार भी, इसलिए अब जा कर अपने आप में लौटना संभव हुआ है. मैं अपने में लौट रहा हूँ....कहानियों की अपनी इस पहली किताब के साथ

---हेमंत शेष