भूमिका / कविता भट्ट

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योग भारतीय दर्शन की अतिलोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण शाखा है। योगाभ्यास शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य, आनन्द एवं शान्ति आदि के लिए अनुकरणीय है। इसके साथ ही व्यक्तित्व विकास, वैकल्पिक चिकित्सा, मनोचिकित्सा, अनेक व्यवहारगत तथा प्रबंधन सम्बन्धी लाभ प्राप्त करने हेतु यह सम्पूर्ण विश्व द्वारा अपनाया जा रहा है। यह एक ऐसी विधा है; जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष की प्राचीन गौरवमयी सभ्यता का यशोगान हो रहा है। शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के साथ ही इसमें अनेक नैतिक आदर्श भी निर्धारित हैं। इसके अहिंसा तथा सत्य आदि जैसे महत्त्वपूर्ण नैतिक सद्गुणों की आवश्यकता आज विश्व को सर्वाधिक है। हम सभी जानते हैं कि नैतिक सद्गुणों के ह्रास के कारण मानव समाज आतंकवाद, हिंसा, विखण्डन, विघटन, रक्तरंजित राजनीति, घृणा एवं वर्ग-संघर्ष आदि जैसी अनेक पीड़ाओं एवं विकृतियों को झेल रहा है। इनके वर्तमान एवं दूरगामी अनेक घातक परिणाम हैं।

विसंगतियों से युक्त ऐसे वर्तमान काल में विश्व की प्राथमिक आवश्यकता है- बचपन से ही ऐसी शिक्षा की व्यवस्था की जाए जिसके द्वारा बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास तथा नैतिक उत्थान जैसे पक्ष एक साथ फले-फूलें एवं सुदृढ़ हों। योग इन सभी आवश्यकताओं को एक साथ पूर्ण करने की वैज्ञानिक प्रणाली है। आज संसार के विविध भागों में हो रहे विभिन्न प्रयोगों एवं सर्वेक्षणों के आधार पर; यह सिद्ध हो चुका है कि शारीरिकी एवं शरीर-क्रियाविज्ञान की दृष्टि से भी योगााभ्यास के अनेक सकारात्मक एवं दीर्घकालीन परिणाम हैं। व्यक्ति को स्वस्थ एवं चरित्रवान बनाते हुए उसे समाज की मजबूत इकाई के रूप में विकसित करने का वैज्ञानिक मार्ग मात्र योगदर्शन प्रस्तुत करता है। साररूप में योग भारतीय ऋषि-मुनियों द्वारा शताब्दियों के शोधांे एवं तपस्या द्वारा खोजी गयी वैज्ञानिक जीवन-पद्धति है। बचपन से ही बच्चों की औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा का अंग होने के साथ ही इसे समस्त जनमानस के नित्यकर्म में सम्मिलित होना चाहिए। जिससे समस्त मानव समाज स्वास्थ्य, संतुलन एवं अनुशासन आदि के द्वारा गौरवमयी स्वर्णिम सोपानों पर निरन्तर अग्रसर हो सके। योग को धर्म, जाति, सम्प्रदाय एवं वर्ग की परिधियों से बाहर आकर वैयक्तिक एवं सामाजिक कल्याण हेतु अपनाया जाना वैश्विक आवश्यकता है। योग की इन्हीं विशेषताओं के कारण प्रत्येक वर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस मनाया जाने लगा है; जिससे विश्व के सभी भागों में इसका यथोचित प्रचार-प्रसार एवं प्रतिष्ठापन हो सके। सार यह है कि योगदर्शन स्वस्थ, संतुलित एवं अनुशासित व्यक्तित्व द्वारा कल्याण हेतु मार्ग दिखाता है; इसलिए इसका अभ्यास आवश्यकता एवं प्राथमिकता दोनों ही है।

योग की प्रक्रिया को समझने के लिए हमें दर्शन से जुड़े आधारभूत तथ्य समझने होंगे। दर्शन अर्थात् जीवन के प्रति व्यक्ति का स्वस्थ दृष्टिकोण, चिंतन अथवा मनन। यह चिंतन ज्ञान का आधार है; किन्तु प्रत्येक व्यक्ति इस स्तर तक नहीं पहुंच पाता; अपितु मात्र सुख और इसके साधनों तक ही सीमित रहता है; जबकि सुख स्थायी नहीं होता। मानव का लक्ष्य मात्र सुख की प्राप्ति नहीं; अपितु कल्याण बताया गया है। सुख मन और शरीर से सम्बन्ध रखता है; जबकि कल्याण आत्मिक होता है। सुख एवं कल्याण में अन्तर समझने के लिए हमें मानव स्वभाव तथा उसके द्वारा अनुभव किये जाने वाले सुख-दुख से जुड़े कुछ तथ्यों को समझना होगा।

जब कोई शिशु जन्म लेता है; तो निश्चित रूप से वह दूध आदि में ही प्रसन्न होता है। जिस बालक को मीठा स्वाद अच्छा नहीं लगता वह कुछ भी मीठा खाना नहीं चाहता; चाहे उसे उसके माता-पिता कितना भी समझायें; कि मीठा दूध शरीर के लिए लाभकारी है; फिर भी वह मीठा दूध नहीं पीता। ऐसा इसलिए होता है कि बालक लाभ-हानि के बारे में नहीं सोचता; अपितु उसे जिस भोजन का स्वाद अच्छा लगे; वह उसे ही खाना चाहता है। यही इन्द्रिय सुख है और मन का इस सुख के साथ जो जुड़ाव रहता है; वह राग कहलाता है। मन को अच्छा लगना और बार-बार उसी वस्तु, व्यक्ति या घटना आदि की इच्छा करना ही राग है। सुख का विलोम है- दुःख; जिसका मूल कारण द्वेष है। द्वेष राग के विपरीत है- मन को बुरा लगना और जिस वस्तु, व्यक्ति या घटना आदि के कारण बुरा लग रहा है; उससे दूर भागना द्वेष कहलाता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति सुख और दुःख में ही उलझा रहता है।

सुख और दुःख एकमात्र मन से अनुभव नहीं होते; बल्कि इसमें शरीर का भी महत्त्व है। यदि हम आँखें बन्द कर लें तो बाहर की वस्तुएँ हमें दिखायी नहीं देती। इसका कारण है- बाहर की वस्तुओं को जानने के लिए हम आँखों आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा सूचना प्राप्त करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि शरीर का भी महत्त्व है। अतः सुख-दुःख को अनुभव करने में मन एवं शरीर दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। शरीर का कार्य- बाहरी उद्दीपनों को ग्रहण करना एवं मन का कार्य हुआ उससे सुख या दुःख का भाव बनाना। जैसे सर्दी में गर्म; लेकिन गर्मियों में पतले कपड़े पहनकर शरीर के माध्यम से मन को सुख पहुंचाना। सुख का आधार राग एवं दुःख का आधार द्वेष है।

सुख को केन्द्र में रखकर मानव ने विभिन्न आविष्कार किये और कर रहा है। आवागमन, दूरसंचार, अच्छे रहन-सहन तथा मनोरंजन आदि से सम्बन्धित अच्छे से अच्छे यन्त्र-मशीनें आदि बनाये गये। इन आविष्कारों के मूल में सुख प्राप्ति की प्रवृत्ति ही है; किन्तु अनेकानेक आविष्कारों के होने पर भी मानव पूरी तरह से सुख का अनुभव नहीं कर पाये। इसका कारण है- व्यक्ति का अनेकानेक उद्दीपनों से प्रभावित होते हुए उनमें संलग्न हो जाना। इनमें से कुछ कारण तो उसके अपने व्यक्तित्व में ही होते हैं; इन्हें समझना आवश्यक है। व्यक्ति तीन प्रकार के कारणों से दुःख का अनुभव करता है।

1.आध्यात्मिक कारण- शारीरिक एवं मानसिक रोग। व्यक्ति के शरीर में तीन तत्त्व होते हैं- वात, पित्त एवं कफ। स्वस्थ शरीर में वात, पित्त एवं कफ एक निश्चित मात्रा में होते हैं। यदि भोजन, दिनचर्या तथा वातावरण आदि सही न हो तो इनमें से किसी भी तत्त्व की मात्रा नियत अनुपात से कम या अधिक हो जाने के कारण शारीरिक रोग हो जाते हैं। इसी प्रकार मन में आने वाले नकारात्मक भाव जैसे- ईर्ष्या, क्रोध तथा द्वेष आदि मानसिक रोग को जन्म देते हैं। ये सब दुःख का कारण बनते हैं।

2-आधिभौतिक कारण- व्यक्ति के आस-पास वातावरण में उपस्थित अन्य प्राणी; जैसे- साँप एवं बिच्छू आदि जो भी प्राणी पीड़ा पहुँचायें; वे दुःख का कारण बनते हैं।

3.आधिदैविक कारण- प्राकृतिक प्रकोप; जैसे- बाढ़, भूकम्प तथा भूस्खलन आदि से जीवन में आने वाले कष्ट भी दुःख का कारण बनते हैं।

दुःखों को अनुभव करते हुए मानव ऐसे साधनों को खोजना चाहता है; जिनके द्वारा दुःख से पूर्णतः बचा जा सके। यहीं से प्रारम्भ होता है- ज्ञान और ज्ञान के द्वारा कल्याण की यात्रा। इसे निम्नांकित विवेचन से समझा जा सकता है।

जब तक शिशु छोटा होता है; वह मात्र मीठे दूध आदि में ही सुख का अनुभव करता है; किन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता है; अपने माता-पिता-गुरु आदि से अनेक प्रश्न पूछता है। ये प्रश्न अपने तथा अपने आस-पास के वातावरण से सम्बन्धित होते हैं। उदाहरण के लिए आसमान में बिजली क्यों चमकती है; वर्षा क्यों होती है; दिन-रात क्यों होते हैं? आदि। मानवीय विकास के आरम्भ में भी ऐसे प्रश्न मानव मस्तिष्क में उठते थे और उनके उत्तर देने के भी प्रयास किये जाते थे। सुख प्राप्ति के अतिरिक्त यह चिंतन या मनन भी मानव का स्वभाव है; यहीं से दर्शन की नींव पड़ी इसे समझने के लिए हमें मानव के बौद्धिक विकास के प्रारम्भिक काल में जाना होगा।

विकास के प्रारम्भिक काल से ही जैसे-जैसे मानव का बौद्धिक स्तर बढ़ता गया; ज्ञान के लिए प्रश्न उठे कि मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म क्यों हुआ है? कहाँ से आया हूँ? क्यों आया हूँ? क्या मेरा उद्देश्य भी पशु-पक्षियों के समान भोजन, शयन तथा सन्तान उत्पन्न करना ही है या इससे कुछ भिन्न? उत्तर के लिए उसने अपने व्यक्तित्व, आचरण, प्रकृति में होने वाली घटनाओं तथा उनसे स्वयं पर होने वाले प्रभावों आदि का अध्ययन किया। इस अध्ययन को ज्ञान, आनन्द एवं कल्याण के दृष्टिकोण से व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया। यहीं से प्रारम्भिक भारतीय दर्शन की नींव पड़ी। मानवीय चिंतन के तीन आयाम ही दर्शन तीन के तीन अनुभागों की संरचना करते हैं।

पहला अनुभाग- मानव ने पहला चिंतन तत्त्व के बारे में किया। तत्त्व अर्थात् जिससे व्यक्ति और उसके चारों ओर के जीव-निर्जीव निर्मित हुए। जीव अर्थात् जो चलने-फिरने आदि जैसी जैविक क्रियाएँ करते हैं; इनमें मनुष्य एवं पशु-पक्षी आदि आते हैं। निर्जीव अर्थात् जो जैविक क्रियाएँ नहीं करते; जैसे पत्थर-मिट्टी आदि। जिससे ये सभी बने हैं उसे मूल तत्त्व कहा गया। प्रथम अनुभाग में इस मूल तत्त्व का चिंतन किया जाता है; इसलिए यह तत्त्वमीमांसा कहलाता है।

दूसरा अनुभाग- मूल तत्त्व को समझने का साधन ज्ञान है। ज्ञान और ज्ञानप्राप्ति के साधनों का चिंतन दूसरे अनुभाग में किया गया; इसे ज्ञानमीमांसा कहते हैं।

तीसरा अनुभाग- इस अनुभाग में व्यक्ति के आदर्श आचरण एवं व्यवहार के बारे में चिंतन किया जाता है। इसे नीति मीमांसा कहा जाता है।

तीन अनुभागों में व्यवस्थित यह चिंतन अत्यंत उच्चकोटि का था; यही भारतवर्ष में उपजे दर्शन का प्रारम्भिक स्वरूप था; जो वेद कहलाये। वेद संख्या में चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद। इनमें अधिकांशतः प्रकृति, दुःख से बचने के लिए प्रकृति की शक्तियों की उपासना, मनुष्य के अच्छे आचरण या व्यवहार को चिंतन का मुख्य विषय रखा गया तथा कल्याण हेतु मार्ग खोजे गये। ऐसा माना जाने लगा कि संसार की सभी व्यवस्थाओं को एक सर्वशक्तिमान सत्ता नियन्त्रित करती है। इसके लिए किसी अज्ञात शक्ति से प्रार्थनाएँ भी की जाने लगी। संक्षेप में कहा जाए ,तो वेद तत्त्व, ज्ञान एवं नीति के पवित्र संगम हैं। यह प्रारम्भिक दर्शन इतना श्रेष्ठ है कि भारत से बाहर के लोग भी इसकी प्रशंसा करते हैं और अनेक विदेशी भाषाओं में इनका अनुवाद हो चुका है। वेदों की ऋचाओं के इतने गहरे अर्थ हैं कि इन पर देश-विदेश में निरन्तर अभी भी अनेक शोध किये जा रहे हैं। मन एवं शरीर के संतुलन तथा दृढ़ता हेतु विधाओं को खोजते हुए भारतीय ऋषि-मुनियों ने विभिन्न साधन खोजे गये जो श्रुतियों अर्थात् उपदेशों के द्वारा गुरुओं से शिष्यों को मिलते रहे। यहाँ योगदर्शन के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझना आवश्यक है।

उस समय आज की तरह कम्प्यूटर और प्रिंटिग के साधन नहीं थे; इसलिए यह ज्ञान गुरुओं के उपदेश सुनकर शिष्यों ने ग्रहण किया और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में फैला। इसी परम्परा में अठारह पुराण भी जुड़े। चिंतन करने वाले कुछ लोग वेदों के विचारों से सहमत थे; तो कुछ असहमत थे। जो सहमत थे वे आस्तिक कहलाये। जो सहमत नहीं थे वे नास्तिक कहलाये। चार्वाक्, जैन एवं बौद्ध नास्तिक दर्शन थे। आस्तिक वाले अधिक थे और इन्होंने वेदों की विचारधारा को आगे बढाने का काम किया। यह चिंतन धारा आगे बढ़ी और उपनिषद् दर्शन बना, उपनिषदों की संख्या एक सौ आठ है; जिनमें से ग्यारह उपनिषद् (प्रश्न, कठ, केन, मुण्डक, ऐतरेय, श्वेताश्वतर, ईश, ईशवास्य, माण्डूक्य, तैत्तिरीय तथा वृहदारण्यक) प्रमुख हैं। उपनिषद् का अर्थ होता है- ज्ञान प्राप्त करने हेतु गुरु के समीप बैठना। ऐसा माना गया कि ‘‘ज्ञानेन मुक्तिः‘‘ अर्थात् ज्ञान प्राप्त करके ही मुक्ति हो सकती है। मुक्ति का अर्थ है व्यक्ति ना सुख का अनुभव करे और न ही दुःख का। ऐसा माना गया कि यही एक मात्र मार्ग है जिससे कि व्यक्ति दुःख के सभी कारणों से निवृत्त हो सकता है।

इस ज्ञान को गुरुओं से शिष्य प्राप्त करते गये। चिंतन को आगे बढ़ाते गये तथा नए ज्ञान को इसमें जोड़ते चले गये। श्रीमद्भगवत्गीता तथा ब्रह्मसूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी आस्तिक परम्परा के हैं। इनमें से श्रीमद्भगवत्गीता को तो वेद और उपनिषदों का सार माना जाता है। यह ग्रन्थ इतना श्रेष्ठ है कि ऐसा माना जाता है कि इसके पढने एवं अनुकरण करने से व्यक्ति जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान खोज सकता है। इसी आस्तिक परम्परा के छः प्रमुख दर्शन हैं- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदान्त। इनमें से सांख्य एवं योग दर्शन ने मानव व्यक्तित्व के विविध पक्षों यथा- सुख-दुःख, ज्ञान, नैतिकता तथा कल्याण आदि को उत्कृष्ट ढंग से प्रस्तुत किया।

योगदर्शन तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से सांख्यदर्शन पर आधारित है। सांख्यदर्शन ने दो मूल तत्त्वों से सृष्टि को उत्पन्न माना। ये दो तत्त्व हैं- जड़ अर्थात् प्रकृति और चेतन अर्थात् पुरुष या आत्मा। मानव का व्यक्तित्व भी इन्हीं दो तत्त्वों के संयोग से बना है। मानव व्यक्तित्व की विस्तृत चर्चा हम प्रथम अध्याय में करेंगे। यहाँ हम मात्र यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि सांख्यदर्शन में ज्ञान को दुःखनिवृत्ति का साधन माना गया; लेकिन यह मार्ग अत्यंत उच्चस्तरीय तथा सैद्धान्तिक था। इस कारण यह जनसामान्य के लिए समझना और अपनाना अत्यंत कठिन था। सांख्यदर्शन का तत्त्वमीमांसीय पक्ष अत्यंत मजबूत था; इसलिए इसी को आधार बनाकर योगदर्शन में कल्याण का अत्यंत प्रायोगिक एवं व्यावहारिक मार्ग प्रस्तुत किया। यह मार्ग शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य, संतुलन एवं अनुशासन से होते हुए कल्याण की ओर ले जाने के कारण जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इसका कारण यह है कि मनोशारीरिक स्वास्थ्य मानव की प्राथमिक आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त दुःखों से बचना एवं बचने का मार्ग खोजना उसका स्वभाव है। आवश्यकता एवं स्वभाव के साथ ही मानव अपने कल्याण का पथ भी प्रशस्त करना चाहता है। इसके लिए योगदर्शन से जुड़े आधारभूत तथ्यों को समझना आवश्यक है; इसलिए अब हम योग दर्शन के प्रारम्भिक स्वरूप एवं अन्य तथ्यों को स्पष्ट करेंगे।

योग दर्शन का प्रारम्भिक स्वरूप

योगदर्शन का तत्त्वमीमांसीय आधार संाख्य दर्शन है। सांख्यदर्शन महर्षि कपिल द्वारा रचित है। इसमें ज्ञान, दुःख और दुःख से मुक्ति के मार्ग का बहुत अच्छा विवेचन किया गया है; किन्तु सैद्धान्तिक होने के कारण यह मार्ग सामान्य व्यक्तियों के लिए कठिन था। योग के आदि वक्ता हिरण्यगर्भ माने जाते हंै। ऐसा माना जाता है कि हिरण्यगर्भ महर्षि कपिल का ही एक नाम है। ये वैदिक काल के ही ऋषि थे। योग से सम्बन्धित कुछ तथ्य वेदों, उपनिषदों एवं पुराणों आदि प्राचीन दर्शन विधाओं में अनेक स्थानों पर दृष्टिगोचर होते हैं; किन्तु योग की साधना और प्रक्रिया किसी निश्चित और निर्धारित रूप में नहीं थी। विभिन्न स्थानों पर बिखरे हुए योग सम्बन्धी तथ्यों का व्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं सैद्धान्तिक प्रस्तुतीकरण योग दर्शन में ही किया गया। योगदर्शन में दुःख निवृत्ति हेतु विवेचित साधन पूर्णतः प्रायोगिक एवं व्यावहारिक हैं। इसमें व्यक्ति के स्वास्थ्य, मनोशारीरिक संतुलन एवं अनुशासन के द्वारा कल्याण का मार्ग प्रस्तुत किया गया है। योग के अभ्यासों एवं विभिन्न पक्षों को सूत्रात्मक ढंग से क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित करने का श्रेय महर्षि पतंजलि को दिया जाता है; उन्होंने पातंजलयोगसूत्र नामक ग्रन्थ लिखा। इसका रचनाकाल बहुत स्पष्ट नहीं है। किंवदन्ति है कि संस्कृत व्याकरण के रचनाकार पतंजलि और योगसूत्र के रचनाकार पतंजलि एक ही व्यक्ति थे। यदि किंवदन्तियों पर विश्वास किया जाए और ये दोनों एक ही व्यक्ति माने जायें तो पातंजलयोगसूत्र को द्वितीय शताब्दि ईस्वी पूर्व का माना जाता है। स्पष्ट करना आवश्यक है कि कुछ विद्वान दोनों व्यक्तियों को भिन्न मानते हैं। यह अवश्य है कि इस ग्रन्थ पर लिखा गया पहला भाष्य चौथी शताब्दी ई0 का है। अतः निश्चित रूप से पातंजलयोगसूत्र इससे पुराना ही होगा। अब पातंजलयोगसूत्र की विषयवस्तु की बात करते हैं।

पातंजलयोगसूत्र की विषयवस्तु

पातंजलयोगसूत्र में अष्टांग योग को सूत्रात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। महर्षि पतंजलि द्वारा लिखित अष्टांग योग को राजयोग भी कहा जाता है। पातंजलयोगसूत्र में चार अध्याय हैं- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद एवं कैवल्यपाद। इसमें 195 सूत्र हैं; समाधिपाद में 51, साधनपाद में 55, विभूतिपाद में 55 एवं कैवल्यपाद में 34 सूत्र हैं। समाधि पाद में चित्तवृत्तियों का स्वरूप, प्रकार, अभ्यास, वैराग्य, ईश्वर का स्वरूप, ज्ञान के साधनस्वरूप प्रमाण एवं समाधि के प्रकार तथा स्वरूप आदि को सूत्रात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। साधनपाद में क्रियायोग तथा योग के आठ अंगों आदि को प्रस्तुत किया गया है। विभूतिपाद में योगाभ्यास से प्राप्त विभूतियों अर्थात् अणिमा, गरिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व एवं वशित्व को प्रस्तुत किया गया है। कैवल्यपाद में असम्प्रज्ञात समाधि तथा कैवल्य आदि को प्रस्तुत किया गया है।

पातंजलयोगसूत्र की विविध व्याख्याएँ एवं व्याख्याकार

व्यासभाष्य योगदर्शन पर लिखा गया अत्यंत महत्त्वपूर्ण भाष्य है। इसे योगभाष्य, पातंजलभाष्य और सांख्यप्रवचनभाष्य भी कहा जाता है। इसमें पातंजलयोगसूत्र के सूत्रों की व्याख्या की गयी है। इस भाष्य पर वाचस्पति मिश्र ने तत्त्ववैशारदी नामक टीका लिखी है । राजमार्तण्ड भोजराज द्वारा योगसूत्र पर लिखित वृत्ति है। योगवार्त्तिक विज्ञानभिक्षु द्वारा योगसूत्र पर लिखी गयी वार्त्तिक है। भावगणेश द्वारा लिखित दीपिता नामक व्याख्या, नागोजी भट्ट द्वारा लिखित छाया नामक व्याख्या, रामानन्द यति की मणिप्रभा, नारायणतीर्थ की सूत्रार्थबोधिनी तथा योगदर्शन, हरिहरानन्द की भास्वती टीका तथा किसी अज्ञात द्वारा लिखित विवरण नामक व्याख्या। इसके साथ ही योगसूत्र पर उदयशंकर रचित योगसूत्रवृत्ति, उमापति रचित योगसूत्रवृत्ति, गणेश दीक्षित रचित पातंजलवृत्ति, नारायण भिक्षु रचित योगसूत्रगूढार्थद्योतिका एवं भवदेव रचित पतंजलियाभिनवभाष्यम् आदि के अतिरिक्त अनेकानेक व्याख्याएँ लिखी गयी हैं।

योगदर्शन के ग्रन्थ पातंजलयोगदर्शन की विषयवस्तु तथा इससे सम्बन्धित साहित्य के उल्लेख के उपरान्त योग का अर्थ एवं परिभाषा आदि समझना अनिवार्य है; अतः अब हम इ्रन्हीं बिन्दुओं पर अपना ध्यान एकाग्र करेंगे।

योग का अर्थ एवं परिभाषा

संस्कृत शब्दावली के अनुसार योग; युज् धातु में घ´् प्रत्यय लगने से बना है; जिसके अनेक अर्थ होते हैं। सामान्य रूप से योग का शाब्दिक अर्थ है- जुड़ना, मिलना या संयुक्त होना। पतंजलि ने इस अर्थ में इसे प्रयोग नहीं किया है। उनके अनुसार- मानवीय प्रकृति (भौतिक एवं आत्मिक) के भिन्न-भिन्न तत्त्वों के अनुशासन द्वारा दुःख-निवृत्ति हेतु विधिपूर्वक किया गया प्रयत्न ही योग है।

प्रमुख परिभाषाएँ- यों तो भिन्न-भिन्न विद्वानों ने योग को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है; कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नांकित हैं-

सांख्यदर्शन के अनुसार- प्रकृति व पुरुष दो भिन्न तत्त्व हैं; ऐसा जानकर पुरुष का शुद्ध रूप में अवस्थित होना ही योग है।

श्रीमद्भगवत्गीता के अनुसार- गीता के अनुसार पहली परिभाषा यह है कि दुःख-सुख, पाप-पुण्य, शत्रु-मित्र तथा शीत-उष्ण आदि द्वन्द्धों से रहित या मुक्त होकर प्रत्येक स्थिति में समभाव से व्यवहार करना ही योग है। अर्थ यह है कि जीवन किसी भी विषम दूसरी यह है कि कुशलतापूर्वक कर्मों को करना ही योग है।

पातंजलयोगसूत्र के अनुसार- चित्त की वृत्तियों को पूर्णतः नियंत्रित करना ही योग है।

पातंजलयोगसूत्र में योग की प्रक्रियात्मक परिभाषा दी गयी है। यदि चित्त की वृत्तियों को नियन्त्रित करने हेतु योगाभ्यास कर लिया जाए तो कैवल्यप्राप्ति के साथ ही शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य जैसे व्यावहारिक लक्ष्य भी स्वतः ही पूर्ण हो जाते हैं ।

साररूप में यह कहा जा सकता है कि विशेष प्रयत्न के द्वारा अपनी शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षमताओं को उच्चतम स्तर तक विकसित करना योग है। क्षमताओं का यह विकास इतना उच्चस्तरीय होना चाहिए कि व्यक्ति विपरीत और विकट परस्थिति में भी सामान्य रह सके। उस पर सुख एवं दुःख का कोई भी प्रभाव न हो; क्योंकि ये दोनों ही चित्त से उत्पन्न वृत्तियाँ हैं। मन, बुद्धि एवं अहंकार के मिलने से चित्त बनता है। बाहरी उद्दीपनों के कारण चित्त में वृत्तियाँ उठती रहती हैं। वृत्तियाँ अर्थात् सुख एवं दुःख से मन में उठने वाले भाव। ये भाव दो प्रकार के हैं- क्लिष्ट और अक्लिष्ट। क्लिष्ट वृत्तियाँ पांच प्रकार की हैं- अविद्या (अज्ञान), अस्मिता (मैं हूँ का भाव), राग (सुख की चाह) एवं द्वेष (दुःख से दूर भागना)। अक्लिष्ट वृत्तियाँ भी पांच प्रकार की हैं- प्रमाण (ज्ञान के साधन), विपर्यय (झूठा ज्ञान), विकल्प (काल्पनिक ज्ञान), निद्रा (नींद) एवं स्मृति (याद रखना)। अक्लिष्ट वृत्तियों अर्थात् ज्ञान आदि के द्वारा क्लिष्ट वृत्तियों अर्थात् अविद्या आदि को नियन्त्रित किया जाता है; किन्तु समाधि प्राप्त होने के बाद कैवल्य हेतु अक्लिष्ट वृत्तियों को भी त्यागने का निर्देश दिया गया है। वह योग के आध्यात्मिक स्तर का विषय है। यहाँ पर व्यावहारिक स्तर की बात करेंगे। व्यावहारिक स्तर पर किसी भी प्रकार की वृत्ति हो उसका मूल कारण अविद्या है। अविद्या अर्थात् अपने अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र एवं दुःखदायी वस्तुओं को सुखदायी समझना। जैसा कि पूर्व ही लिख चुके हैं; कि सुख स्थायी नहीं होता यह समय के साथ दुःख में बदल जाता है। इसलिए सभी स्थितियों के लिए तैयार रहना एवं उन स्थितियों में स्वयं को संलिप्त न करना; मात्र व्यवहार की तरह निभाना अविद्या को समाप्त करने हेतु आवश्यक है। इसके लिए महर्षि पतंजलि अष्टांग योग के अभ्यास एवं वैराग्य को आवश्यक मानते हैं। अभ्यास के द्वारा शरीर एवं मन की प्रतिरोधी क्षमताओं का विकास करना आवश्यक है। यह अभ्यास अष्टांग योग कहलाता है। अष्टांग योग के आठ अभ्यास इस प्रकार हैं।

पतंजलि कृत पातंजलयोगसूत्र में निर्देशित अष्टांग योग के अभ्यास

यम- ये व्यक्तिगत एवं सामाजिक अनुशासन हेतु आवश्यक सार्वभौम महाव्रत हैं। पतंजलि के अनुसार किसी भी देश, काल और परस्थिति में इनका अनुकरण आवश्यक है। यम पांच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह। पुस्तक के तीसरे अध्याय में इनका विस्तृत विवेचन करेंगे।

नियम- नियमों का अनुकरण व्यक्तिगत नियन्त्रण एवं अनुशासन के लिए आवश्यक है। नियम भी पांच हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्रणिधान। इनका विस्तृत विवेचन भी पुस्तक के तृतीय अध्याय में करेंगे। इसके अतिरिक्त शौच के क्रियात्मक पक्ष को स्पष्ट करने हेतु हठयोग में निर्देशित छः शुद्धिक्रियाओं को इस पुस्तक के चैथे अध्याय में विवेचित करेंगे।

आसन- विभिन्न विशेष शारीरिक स्थितियों में स्थिर रहते हुए सुख का अनुभव करना ही आसन है। इससे शरीर में स्थिरता एवं दृढता का विकास होता है तथा शारीरिक-मानसिक रोगों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता का विकास होता है। आसनों के क्रियात्मक पक्ष को हठयोग में प्रायोगिकता के साथ स्पष्ट किया गया है; इसलिए राजयोग के आधार पर सैद्धान्तिक एवं हठयोग के आधार पर क्रियात्मक पक्ष को इस पुस्तक के पांचवें अध्याय में प्रस्तुत करेंगे।

प्राणायाम- प्राण ब्रह्मांड में उपस्थित वह ऊर्जा है जो व्यक्तित्व में जीवन का संचार करती है। प्राणायाम अर्थात् इस ऊर्जा को अपने भीतर रोककर शरीर में इसका विस्तार करते हुए मनोशारीरिक क्षमताओं का विकास करना। प्राणायाम के अभ्यास द्वारा अनेक मनोशारीरिक रोगांे से बचाव एवं उनका निदान होता है। प्राणायाम के सैद्धान्तिक पक्ष को राजयोग एवं क्रियात्मक पक्ष को हठयोग के आधार पर इस पुस्तक के छठे अध्याय में प्रस्तुत करेंगे।

प्रत्याहार- पूर्वोक्त विभिन्न अभ्यासांे के पश्चात् भी व्यक्ति का मन विभिन्न इन्द्रिय सुखों में भटकता रहता है। इस भटकाव को समाप्त करने के लिए आवश्यक है; इन्द्रियों को उनके विषयों से दूर करना। यही प्रत्याहार है। प्रत्याहार को अतिसंक्षेप में इस पुस्तक के सातवें अध्याय में स्पष्ट करंेगे।

धारणा- शरीर के विभिन्न आंतरिक प्रदेशों पर मन को टिकाये रखना और लम्बे समय तक प्राण को वहाँ पर धारण किये रहना धारण कहलाता है। इसके द्वारा ध्यान हेतु एकाग्रता का विकास होता है। इसका अतिसंक्षेप विवेचन इस पुस्तक के सातवें अध्याय में करेंगे।

ध्यान- किसी एक बिन्दु पर मन को स्थिर बनाये रखना और चिंतन एवं मनन करना जिससे ज्ञान प्राप्त हो सके और अविद्या दूर हो सके। ध्यान के सैद्धान्तिक पक्ष को राजयोग एवं क्रियात्मक पक्ष को हठयोग के आधार पर इस पुस्तक के सातवें अध्याय में प्रस्तुत करेंगे।

समाधि- ध्यान में लम्बे समय तक स्थित रहने के पश्चात् व्यक्ति समाधि की स्थिति में पहुंचता है। यहाँ पर पहंुचकर व्यक्ति को ज्ञान होता है कि वास्तव में सांसारिक सुख एवं दुःख मात्र शरीर के हैं आत्मा के नहीं; और हम विशुद्ध आत्मा हैं। व्यक्ति समाधि द्वारा अन्त में कैवल्य अर्थात् दुःखों से पूर्णरूप से मुक्ति की स्थिति में पहुंचता है।

यम से लेकर ध्यान तक के अभ्यास ऐसे हैं जो व्यक्ति अपने अनुभव द्वारा दूसरों को भी सिखा सकता है। यह भी है कि ध्यान की अग्रिम स्थिति अनुभूति का विषय है तथा यह बोलकर नहीं समझायी सकती। स्वयं ध्यान के अभ्यास द्वारा ही उसे अनुभव किया जा सकता हैं। इस पुस्तक में हम यम से लेकर ध्यान तक के अभ्यास को साररूप में प्रस्तुत करेंगे; जो जनसामान्य के साथ ही प्रारम्भिक कक्षाओं के छात्रों हेतु भी उपयोगी सिद्ध होगा। यहाँ एक तथ्य स्पष्ट करना अनिवार्य है; कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान के अतिरिक्त एक अभ्यास और आवश्यक है जो आसन आदि से पूर्व किया जाना अत्यंत आवश्यक है। उस अभ्यास के बिना आसन आदि के पूर्ण लाभ प्राप्त हो ही नहीं सकते। वह अभ्यास है- षट्कर्म

महर्षि पतंजलि ने योग के आठों अंगों को सूत्रात्मक रूप में प्रस्तुत किया; लेकिन इन अभ्यासों की तकनिकी को पातंजलयोगसूत्र में नहीं बताया गया। इसके लिए ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता अनुभव की गयी जो आसनादि को तकनीकि के साथ स्पष्ट कर सकें। ऐसा होने पर ही जनसामान्य के लिए भी योगाभ्यास उपयोगी सिद्ध हो सकता था। इसके लिए विभिन्न तकनीकियों को विवेचित करते हुए हठयोग के अनेक ग्रन्थ लिखे गये। वास्तव में हठयोग राजयोग का अभिन्न सहयोगी है। इन दोनों की एक दूसरे के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। साररूप में हठयोग को निम्न विवेचन से समझा जा सकता है।

राजयोग का क्रियात्मक पक्ष : हठयोग

योग का उद्देश्य है- व्यक्तित्व को इतना स्वस्थ, क्षमतावान एवं संतुलित बनाया जाए कि प्रत्येक स्थिति-परस्थिति में व्यक्ति स्वस्थ, प्रसन्न एवं दृढ़ रह सके। साथ ही प्रसन्नता के साथ जीवन की प्रत्येक कठिनाई से पार पा सके। वास्तव में जीवन का सार है- मन एवं शरीर का यथोचित संतुलन एवं अनुशासन। इस संतुलन एवं अनुशासन के लिए योग एक प्रायोगिक एवं व्यावहारिक मार्ग प्रशस्त करता है; हठयोग के विभिन्न अभ्यास इस मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इसके लिए हठयोग से सम्बन्धित ग्रन्थों तथा अभ्यासों का ज्ञान होना अनिवार्य है। इन्हंे संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है।

हठयोग : परिचय, विशेषताएँ एवं साहित्य हठयोग के अनुसार जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में उपस्थित हैं- वे सभी तत्त्व पिण्ड अर्थात् शरीर में हैं। इस अवधारणा के साथ ही हठयोग अपने विशेष वैज्ञानिक विवेचन के साथ साधना का आधार प्रस्तुत करता है। हठयोग की अवधारणा है कि मानव शरीर में असंख्य नाड़ियाँ है; जिनमें से उसके मेरुरज्जु से पूरे शरीर को नियन्त्रित करने वाली 72,000 नाड़ियों का उद्गम माना जाता है। इनमें से दस से चैदह नाड़ियों (सरस्वती, कूहू, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, यशस्विनी, विश्वोदरा, वरणा, प्रतिष्ठिता, पयस्विनी, शंखिनी तथा अलम्बुषा) को महत्त्वपूर्ण माना गया है। इनमें से भी इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। इन्हीं नाड़ियों के आधार पर हठयोग का नामकरण भी किया गया है।

पिंगला नाड़ी को ह या सूर्य नाड़ी भी कहा जाता है। इड़ा नाड़ी को ठ या चन्द्र नाड़ी भी कहा जाता है। ह नाड़ी दाहिने नासारन्ध्र से सम्बन्धित है; यह मेरुरज्जु के दाहिने मूल से निकलकर सर्प के आकार में दाहिने नासारन्ध्र तक जाती है। यह शरीर में उष्मा का संचार करके शरीर को गर्मी प्रदान करती है। ठ नाड़ी बाँयें नासारन्ध्र से सम्बन्धित है; यह मेरुरज्जु के बांये मूल से निकलकर सर्प के आकार में बांये नासारन्ध्र तक जाती है। यह शरीर में ऊर्जा संग्रहित करके; उपचय से सम्बन्धित गतिविधियों को नियमित करती है। यह शरीर को शीतलता या ठंडक प्रदान करती है। इन नाड़ियों के अतिरिक्त एक अन्य नाड़ी जो मेरुरज्जु के बीच में से होकर गुजरती है; इसे सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है।

इस प्रकार हठयोग में माना गया है कि ह एवं ठ नाड़ियों में प्राणायाम आदि के द्वारा प्राणऊर्जा का सुषुम्ना में यथोचित संचार करके स्वस्थ एवं संतुलित व्यक्तित्व के अतिरिक्त समाधि की अवस्था भी प्राप्त होती है। प्राण का अर्थ है- ब्रह्माण्ड में उपस्थित असीम जीवनी शक्ति। यही समस्त जीवों में जैविक क्रियाओं का संचालन करती है। इसका विस्तृत विवेचन हम अध्याय एक एवं अध्याय छह में करेंगे; यहाँ मात्र हठयोग का संक्षिप्त परिचय अपेक्षित है।

उल्लेखनीय है कि प्राणायाम आदि द्वारा प्राणसाधना के द्वारा समाधि की अवस्था में सुषुम्ना के मूल में उपस्थित कुंडलिनी शक्ति ऊपर उठती है तथा विभिन्न चक्रों को भेदते हुए सिर के सबसे ऊपरी मध्य भाग में स्थित सहस्त्रार नामक चक्र में शिव नामक तत्त्व से मिल जाती है। कुण्डलिनी शक्ति की तुलना आवेशीय विद्युत ऊर्जा से की जा सकती है। ह एवं ठ नाड़ियों के द्वारा प्राणऊर्जा को भीतर लेकर सुषुम्ना में प्रवाहित करने के उपरान्त व्यक्ति में असीम ऊर्जा संचालित होती है। यही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है तथा दुःखों से मुक्ति में सहायक है। साररूप में यह कहा जा सकता है कि जब प्रयत्नपूर्वक ह एवं ठ नाड़ियों से शरीर के भीतर प्राणों का संचार करते हुए इसे सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित करके कुण्डलिनी जागरण किया जाता है; तो इसे हठयोग कहा जाता है।

यह भी जान लेना आवश्यक है कि तन्त्रयोग भी हठयोग की साधना का रहस्यात्मक स्वरूप है; जो गोपनीय विधियों द्वारा अनेक रहस्यात्मक शक्तियों को प्राप्त करने का विषय है। इसका सम्बन्ध नाथ सम्प्रदाय से है; जो शैवमत से सम्बन्धित है। यह एक अत्यंत व्यापक एवं अलग विषय है; जो हमारी पुस्तक का विषय नहीं है। हठयोग एक प्रक्रिया है; जो इस प्रक्रिया को अपनाते हैं; हठयोगी कहलाते हैं; जबकि नाथ सम्प्रदाय एक सम्प्रदाय विशेष है। नाथ सम्प्रदाय को अपनाने वालों का हठयोगी होना अनिवार्य है; किन्तु सभी हठयोगी नाथसम्प्रदाय से सम्बन्धित हों ऐसा अनिवार्य नहीं। सीधा सा अर्थ हुआ कि जो भी व्यक्ति नियमित रूप से हठयोग का अभ्यास करेगा हठयोगी तो होगा ही; किन्तु वह नाथ सम्प्रदाय के सभी सिद्धान्तों का ठीक उसी प्रकार अनुकरण करे ऐसा आवश्यक नहीं। वस्तुतः हठयोग के प्रमुख ग्रन्थों की रचना इसी परम्परा में अपनाये क्रियात्मक पक्षों के आधार पर हुई है; किन्तु सभी ग्रन्थों में सभी तथ्यों का समान उल्लेख नहीं है। आपसी सम्बन्ध होने के कारण अतिसंक्षेप में नाथ सम्प्रदाय को हठयोग के सन्दर्भ में समझ लेना अनिवार्य है; अतः अब हम इसे स्पष्ट करेंगे।

नाथ परम्परा तथा हठयोग

सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक शैव परम्परा का क्रमिक विकास हुआ। यह सम्प्रदाय आदियोगी भगवान शिव को अपने सिद्धान्तों का संस्थापक मानता है और उन्हंे आदिनाथ कहकर पुकारता है। नाथ का अर्थ होता है- विभूतियों या सिद्धियों का स्वामी। हठयोग को करते हुए योगियों को विभिन्न सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं; जिनको पातंजलयोगसूत्र के विभूतिपाद में भी विवेचित किया गया है। हठयोग के विभिन्न अभ्यासांे को करने से प्राप्त इन्हीं सिद्धियों से युक्त होने के कारण शैव या नाथ सम्प्रदाय के हठयोगियों को सिद्ध भी कहा जाता है। इस सम्प्रदाय की भी पांच शाखाएँ हुई- कारुणिक, कापालिक, पाशुपत, माहेश्वर एवं लकुलीश। इन विभिन्न शाखाओं से जुड़े अनेक नाथों में से नौ नाथों को इस परम्परा का प्रमुख प्रतिनिधि माना जाता है। आदिनाथ, मत्सेन्द्रनाथ, जालन्धरनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पटीनाथ, कानिफानाथ, चैरंगीनाथ, भर्तृहरिनाथ एवं गोपीचन्दनाथ।

हठयोग का प्रमुख साहित्य नाथ परम्परा से प्राप्त होता है। हठयोग के ग्रन्थों में गोरक्षनाथ कृत गोरक्षसंहिता, सिद्धसिद्धान्तपद्धति, गोरक्षपद्धति तथा गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह नाथ परम्परा के प्रमुख ग्रन्थ हैं। इसके अतिरिक्त घेरण्ड कृत घेरण्ड संहिता, स्वामी स्वात्माराम कृत हठप्रदीपिका तथा वसिष्ठ कृत वसिष्ठ संहिता आदि कुछ ऐसे प्रमुख ग्रन्थ हैं; जिनमें हठयोग का अत्यंत व्यवस्थित विवेचन प्राप्त होता है। इनके सम्बन्ध में यह कह पाना कठिन है कि इन ग्रन्थों के रचयिता वस्तुतः नाथ सम्प्रदाय से जुड़े थे कि नहीं; परन्तु इतना अवश्य है कि नाथ सम्प्रदाय में नाथों द्वारा अपनायी जाने वाली अत्यंत कठिन साधना को जनसामान्य के उपयोग को ध्यान में रखते हुए; अत्यंत सरलता के साथ इन ग्रन्थों में प्रस्तुत किया गया है।

अपनी इस पुस्तक में मात्र जनसामान्य तथा छात्रों हेतु उपयोगी अभ्यासों जैसे- षट्कर्म, आसन, प्राणायाम तथा ध्यान आदि को ही प्रस्तुत करेंगे। इस दृष्टिकोण से हम सुलभ, लोकप्रिय एवं व्यवस्थित ग्रन्थ में रूप में घेरण्ड मुनि कृत घेरण्ड संहिता को आधार बनायेंगे। इसलिए घेरण्ड संहिता की विशेषताओं को संक्षेप में स्पष्ट करेंगे।

घेरण्ड संहिता तथा हठयोग की तकनिकीय पक्ष

घेरण्ड संहिता में बताये गये विभिन्न अभ्यास राजयोग के समान ही हैं। हमने अष्टांग योग में पांच नियमों की बात की; जिनमें से एक नियम शौच भी है। इसका तकनिकी पक्ष राजयोग में नहीं बताया गया। मात्र इतना ही बताया गया है कि शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि हेतु शौच आवश्यक है। अभ्यासों की संख्या को लेकर हठयोग के प्राचीन ग्रन्थों में मतैक्य नहीं है; किन्तु घेरण्ड संहिता के आधार पर साररूप में यह कहना उचित होगा कि हठयोग में षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बन्ध, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि जैसे अभ्यासों को निर्देशित किया गया है। विषयवस्तु के आधार पर हठयोग की अपनी विशेषताएँ हैं; जिन्हें निम्न तथ्यों द्वारा समझा जा सकता है-

हठयोग की विशेषताएँ

इसमें राजयोग के समान अन्य अभ्यास तो निर्देशित हैं ही साथ ही षट्कर्म, मुद्रा एवं बन्ध आदि जैसे महत्त्वपूर्ण अभ्यास भी सम्मिलित हैं। सबसे विशेष बात यह है कि षट्कर्म अत्यंत महत्त्वपूर्ण अभ्यास है; जबकि यह राजयोग में कहीं भी इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। षट्कर्म का उद्देश्य है- पूर्णरूप से शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि। शुद्धि के बिना किसी आसन-प्राणायाम आदि से यथोचित लाभ प्राप्त होने असम्भव हैं। इसलिए यह हठयोग द्वारा निर्देशित योग का प्राथमिक क्रियात्मक अभ्यास है।

राजयोग में योग के मात्र सैद्धान्तिक पक्ष निर्देशित किये गये हैं ;जबकि अभ्यास करने के लिए योग के क्रियात्मक पक्ष का ज्ञान होना आवश्यक है। हठयोग की अनूठी विशेषता है योग के तकनिकीय पक्ष को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करना।

राजयोग में अभ्यासों का मात्र सूत्रात्मक प्रस्तुतीकरण है; हठयोग के अन्तर्गत इन सूत्रांे में बताये गये अभ्यासों का क्रियात्मक एवं प्रायोगिक पक्ष स्पष्ट किया गया है। हठयोग की इन अनूठी विशेषताओं के कारण ही यह राजयोग की अनिवार्य सहगामी विधा है। इसका कारण यह है कि अभ्यासों के तकनिकीय ज्ञान के अभाव में अभ्यास असम्भव हैं।

घेरण्ड संहिता में यम एवं नियम को अलग से विवेचित नहीं किया गया। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला कि घेरण्ड मुनि सम्भवतः यह मानते होंगे कि यम एवं नियम तो योग की पूर्वापेक्षा के रूप में पालनीय हैं ही; इसलिए इनका अलग से विवेचन अनिवार्य नहीं। दूसरा कारण यह हो सकता है कि वे मानते होंगे कि षट्कर्म आदि अभ्यासों को जब व्यक्ति शारीरिक लाभों हेतु अपनायेगा तो उसमें सत्य तथा अहिंसा आदि नैतिक आवश्यकताएँ स्वयं ही विकसित होंगी।

कुछ लोग घेरण्ड संहिता जैसे लोकप्रिय हठयोग ग्रन्थों के आधार पर मानते हैं कि हठयोग में यम एवं नियम जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण नैतिक पक्षों का समावेश नहीं किया गया; जबकि ऐसा नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट करना भी अनिवार्य है कि हठयोग का अभ्यास प्रस्तुत करने वाले नाथ सम्प्रदाय के ग्रन्थों में यम और नियम अधिक संख्या में निर्देशित हैं। गुरु गोरक्षनाथ कृत सिद्धसिद्धान्तपद्धति आदि में नैतिक नियमों को योगसाधना का आवश्यक अंग माना गया है। इसके साथ ही हठप्रदीपिका जैसे ग्रन्थ में तो दस यम निर्देशित हैं; ये हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, क्षमा, धृति, दया, ऋजुता, युक्ताहार तथा शौच। इसके साथ ही इसमें दस नियम भी निर्देशित हैं; ये हैं- तप, संतोष, आस्तिक्य, दान, ईश्वरपूजन, सिद्धान्तश्रवण, योगसाधनों की गोपनीयता की प्रवृत्ति, मति, तप एवं हवन। हो सकता है कि घेरण्ड मुनि ऐसा सोचते होंगे कि यम-नियम पहले से ही राजयोग में विवेचित किया जा चुका है; इसलिए उसके अलग से विवेचन की आवश्यकता नहीं है; मात्र क्रियात्मक रूप से शौच का विवेचन आवश्यक होने के कारण उन्होंने इस हेतु षट्कर्म को हठयोग के पहले चरण के रूप में विवेचित किया।

हठयोग में उपर्युक्त विशेषताएँ तो हैं; किन्तु इसके कुछ अभ्यास इतने कठिन हैं कि प्रारम्भिक साधक हेतु उन्हें अपनाये जाना अत्यंत कठिन है। साथ ही यह एक विस्तृत विषय हो जायेगा। इसलिए यहाँ यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि इस पुस्तक में हम हठयोग के मात्र उतने ही सिद्धान्तों का उपयोग करेंगे; जितना सामान्य अभ्यास के दृष्टिकोण से आवश्यक है। इस हेतु हम घेरण्ड संहिता में निर्देशित षट्कर्म, आसन, प्राणायाम तथा ध्यान जैसे प्रमुख अभ्यासों को मुख्य रूप से प्रस्तुत करेंगे। मुद्रा एवं बन्ध, प्रत्याहार एवं धारणा को इन्हीं साधनों के परिप्रेक्ष्य में आवश्यकतानुसार संक्षेप में ही प्रस्तुत करेंगे। षट्कर्म को प्रारम्भ में रखने का कारण यह है कि इसके अभाव में राजयोग के अन्य अभ्यासों का लाभ अपेक्षित रूप से प्राप्त होना सम्भव नहीं है और इसको सबसे व्यवस्थित ढंग से घेरण्ड संहिता में ही उपदेशित किया गया है। इसका एक और कारण यह है कि घेरण्ड संहिता एवं पातंजलयोग में प्रस्तुत अभ्यासों में पर्याप्त साम्यता है। संक्षेप में यह समझ लेना चाहिए कि राजयोग के आधारस्वरूप षट्कर्म, आसन, प्राणायाम एवं ध्यान के प्रायोगिक एवं क्रियात्मक पक्षों को समझने हेतु ही हम हठयोग के सिद्धान्तों एवं ग्रन्थों को उपयोग में लायेंगे।

उपर्युक्त तथ्यों के साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि योग प्रारम्भ से ही अत्यंत व्यापक विषय रहा है। कालान्तर में इसकी प्रसिद्धि बढ़ने के साथ ही यह और भी व्यापक होता गया। इसका प्रयोग अनेक वैविध्यपूर्ण अर्थों में होने लगा। आधुनिक काल में अनेक सतही उपचारों को भी योग के नाम से संज्ञित किया जाने लगा, जबकि वास्तव में जिनके आध्यात्मिक लक्ष्य न हों ऐसी पद्धतियों को योग के नाम से संज्ञित करना अनर्गल है। प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर राजयोग एवं हठयोग के अतिरिक्त कुछ और पद्धतियों को भी प्रमुखता से अनेक ग्रन्थों में उल्लिखित किया जाता है। योग की कुछ अन्य पद्धतियाँ इस प्रकार हैं-

शिवसंहिता में योग की पद्धतियाँ- भगवान शिव के उपदेशों का संकलन शिवसंहिता नाम से जाना जाता है। इसमें योग की चार पद्धतियों- मन्त्रयोग, हठयोग, लययोग तथा राज योग को उपदेशित किया गया है। इसके अतिरिक्त श्रीमद्भगवत्गीता में भी योग के विभिन्न प्रकार बताये गये।

श्रीमद्भगवत्गीता में योग की पद्धतियाँ- श्रीमद्भगवत्गीता में भगवान कृष्ण ने योग के तीन प्रकारों- भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्म योग को मुख्यतः उपदेशित किया है। इसके अतिरिक्त गीता में अभ्यास, ध्यान, ब्रह्म, अनन्य, अविकम्प, संन्यास, बुद्धि एवं सांख्य जैसे शब्द भी योग के लिए प्रयोग किये गये हैं। इनको पृथक्् न मानकर हठ, राज, भक्ति, ज्ञान एवं कर्म के ही अन्तर्गत सम्मिलित मान लिया जाता है।

अन्य ग्रन्थों में उल्लिखित योग की पद्धतियाँ- तन्त्र, समाधि, क्रिया, अमनस्क, हंस तथा सुरति नामक योग पद्धतियों का भी उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त आधुनिक काल में श्रीअरविन्द का पूर्णयोग, महात्मा गाँधी का अनासक्तियोग, पं0 गोपीकृष्ण का कुण्डलिनी योग एवं महर्षि महेश योगी का भावातीतध्यान योग आदि भी उल्लेखनीय हैं।

हठयोग एवं राजयोग के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्षों को देखते हुए इस पुस्तक में षट्कर्म, यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं ध्यान के इन्हीं पक्षों को प्रस्तुत करेंगे। इन अभ्यासों का व्यक्तित्व पर प्रभाव समझने हेतु योग की आवश्यकता, पूर्वापेक्षा एवं मानव के व्यक्तित्व को जानना भी अपेक्षित है। इस प्रकार इन सभी बिन्दुओं को समझने हेतु हम इस पुस्तक में निम्न लिखित बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे-

 योगदर्शन, शारीरिकी एवं शरीर क्रिया विज्ञान के अनुसार मानव व्यक्तित्व के प्रमुख पक्ष

 योगाभ्यास की आवश्यकता एवं पूर्वापेक्षा

 हठयोग एवं राजयोग का प्रारम्भिक चरण षट्कर्म

 पातंजलयोग के प्रारम्भिक चरण : नैतिक उत्थान हेतु यम नियम

 योग परम्परा में प्रमुख आसन

 योग परम्परा में प्रमुख प्राणायाम

 योग परम्परा में ध्यान की विधियाँ


उपर्युक्त अध्यायों के द्वारा योग के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्षों को समझने में सुविधा होगी। इस पुस्तक में यह प्रयास है कि योग के प्रमुख अभ्यासों को साररूप में संकलित कर लिया जाए । योग के क्षेत्र में सक्रिय जनमानस के अतिरिक्त योग में प्रवृत्त होने वाले जनसामान्य, जिज्ञासुओं, छात्रों एवं अध्यापकों को योग जैसा गूढ़ विषय समझने में सुविधा होगी; ऐसा हमारा विश्वास है।