भूमिका / कामताप्रसाद गुरू

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यह हिंदी व्याकरण काशी नागरीप्रचारिणी सभा के अनुरोध और उत्तेजन से लिखा गया है। सभा ने लगभग पाँच वर्ष पूर्व हिंदी का एक सर्वांगपूर्ण व्याकरण लिखने का विचार कर इस विषय के दो-तीन ग्रंथ लिखवाए थे, जिनमें बाबू गंगाप्रसाद एम.ए. और पं. रामकर्ण शर्मा के लिखे हुए व्याकरण अधिकांश में उपयोगी निकले। तब सभा ने इन ग्रंथों के आधार पर अथवा स्वतंत्रा रीति से, विस्तृत हिंदी व्याकरण लिखने का गुरुभार मुझे सौंप दिया। इस विषय में पं. महावीरप्रसाद जी द्विवेदी और पं. माधवराव सप्रे ने भी सभा से अनुरोध किया था, जिसके लिए मैं आप दोनों महाशयों का कृतज्ञ हूँ। मैंने इस कार्य में किसी विद्वान् को आगे बढ़ते हुए न देखकर अपनी अल्पज्ञता का कुछ भी विचार न किया और सभा का दिया हुआ भार धन्यवादपूर्वक तथा कर्तव्यबुद्धि से ग्रहण कर लिया। उस भार को अब मैं पाँच वर्ष के पश्चात्, इस पुस्तक के रूप में यह कहकर सभा को लौटाता हूँ कि

                                                  ‘अर्पित है, गोविंद, तुम्हीं को वस्तु तुम्हारी।’ 

इस ग्रंथ की रचना में मैंने पूर्वोक्त दोनों व्याकरणों से यत्रा-तत्रा सहायता ली है और हिंदी व्याकरणों के आज तक छपे हुए हिंदी और अँगरेजी ग्रंथों का भी थोड़ा-बहुत उपयोग किया है। इन सब ग्रंथों की सूची पुस्तक के अंत में दी गई है। द्विवेदी जी लिखित ‘हिंदी भाषा की उत्पत्ति’ और ब्रिटिश विश्वकोष’ के ‘हिंदुस्तानी’ नामक लेख के आधार पर, इस पुस्तक में, हिंदी की उत्पत्ति लिखी गई है। अरबी, फारसी शब्दों की व्युत्पत्ति के लिए मैं अधिकांश में राजा शिवप्रसाद कृत ‘हिंदी व्याकरण’ और प्लाट्स कृत ‘हिंदुस्तानी ग्रामर’ का ऋणी हूँ। काले कृत ‘उच्च संस्कृत व्याकरण’ से मैंने संस्कृत व्याकरण के अंश लिए हैं।

सबसे अधिक सहायता मुझे दामले कृत ‘शास्त्रीय मराठी व्याकरण’ से मिली है, जिसकी शैली पर मैंने अधिकांश में अपना व्याकरण लिखा है। पूर्वोक्त पुस्तक से मैंने हिंदी में घटित होने वाले व्याकरण विषयक कई एक वर्गीकरण, विवेचन, नियम और न्यायसम्मत लक्षण, आवश्यक परिवर्तन के साथ लिए हैं। संस्कृत व्याकरण के कुछ उदाहरण भी मैंने इस पुस्तक से संग्रह किए हैं।

पूर्वोंक्त ग्रंथों के अतिरिक्त अँगरेजी, बँगला और गुजराती व्याकरणों से भी कहीं-कहीं सहायता ली गई है।

इन पुस्तकों के लेखकों के प्रति मैं नम्रतापूर्वक अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।

हिंदी तथा अन्यान्य भाषाओं के व्याकरणों से उचित सहायता लेने पर भी, इस पुस्तक में जो विचार प्रकट किए गए हैं, और जो सिद्धांत निश्चित किए गए हैं, वे साहित्यिक हिंदी से ही संबंध रखते हैं और उन सबके लिए मैं ही उत्तरदाता हूँ। यहाँ यह कह देना अनुचित न होगा कि हिंदी व्याकरण की छोटी-मोटी कई पुस्तकें उपलब्ध होते हुए भी हिंदी में, इस समय अपने विषय और ढंग की यही एक व्यापक और (संभवतः) मौलिक पुस्तक है। इसमें मेरा कई ग्रंथों का अध्ययन और कई वर्षों का परिश्रम तथा विषय का अनुराग और स्वार्थत्याग सम्मिलित है। इस व्याकरण में अन्यान्य विशेषताओं के साथ-साथ एक बड़ी विशेषता यह भी है कि नियमों के स्पष्टीकरण के लिए इनमें जो उदाहरण दिए गए हैं, वे अधिकतर हिंदी के भिन्न-भिन्न कालों के प्रतिष्ठित और प्रामाणिक लेखकों के ग्रंथों से लिए गए हैं। इस विशेषता के कारण पुस्तक में यथासंभव, अंधपरम्परा अथवा कृत्रिामता का दोष नहीं आने पाया है। पर इन सब बातों पर यथार्थ सम्मति देने के अधिकारी विशेषज्ञ हैं।

कुछ लोगों का मत है कि हिंदी के ‘सर्वांगपूर्ण’ व्याकरण में मूल विषय के साथ-साथ साहित्य का इतिहास, छंदोनिरूपण, रस, अलंकार, कहावतें, मुहावरे आदि विषय रहने चाहिए। यद्यपि ये सब विषय भाषाज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं, तो भी ये सब अपने आप में स्वतंत्र विषय हैं और व्याकरण से इनका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। किसी भी भाषा का ‘सर्वांगपूर्ण’ व्याकरण वही है, जिससे उस भाषा के सब शिष्ट रूपों और प्रयोगों का पूर्ण विवेचन किया जाय और उनमें यथासंभव स्थिरता लाई जाय। हमारे पूर्वजों ने व्याकरण का यही उद्देश्य माना है (डॉ. भांडारकर ने लिखा है- ’उन्होंने सावधानतापूर्वक अपनी भाषा के विषय का अवलोकन किया और जो सिद्धांत उन्हें मिले उनकी स्थापना की।’ ) और मैंने इसी पिछली दृष्टि से इस पुस्तक को ‘सर्वांगपूर्ण’ बनाने का प्रयत्न किया है। यद्यपि यह ग्रंथ पूर्णतया सर्वांगपूर्ण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इतने व्यापक विषय में विवेचन की कठिनाई और भाषा की अस्थिरता तथा लेखक की भ्रांति और अल्पज्ञता के कारण कई बातों का छूट जाना संभव है, तथापि मुझे यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं है कि इस पुस्तक से आधुनिक हिंदी के स्वरूप का प्रायः पूरा पता लग सकता है।

यह व्याकरण, अधिकांश में, अँगरेजी व्याकरण के ढंग पर लिखा गया है। इस प्रणाली के अनुसरण का मुख्य कारण यह है कि हिंदी में आरंभ ही से इसी प्रणाली का उपयोग किया गया है और आज तक किसी लेखक ने संस्कृत प्रणाली का कोई पूर्ण आदर्श उपस्थित नहीं किया। वर्तमान प्रणाली के प्रचार का दूसरा कारण यह है कि इसमें स्पष्टता और सरलता विशेष रूप से पाई जाती है और सूत्रा तथा भाष्य, दोनों ऐसे मिले रहते हैं कि एक ही लेखक पूरा व्याकरण, विशद रूप में लिख सकता है। हिंदी भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गौरव का होगा, जब इसका व्याकरण ‘अष्टाध्यायी’ और ‘महाभाष्य’ के मिश्रित रूप में लिखा जायगा, ‘पर वह दिन अभी बहुत दूर दिखाई देता है। यह कार्य मेरे लिए तो, अल्पज्ञता के कारण, दुस्तर है; पर इसका सम्पादन तभी संभव होगा, जब संस्कृत के अद्वितीय वैयाकरण हिंदी को एक स्वतंत्र और उन्नत भाषा समझकर इसके व्याकरण का अनुशीलन करेंगे। जब तक ऐसा नहीं हुआ है, तब तक इसी व्याकरण से इस विषय के अभाव की पूर्ति होने की आशा की जा सकती है। यहाँ यह कह देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि इस पुस्तक में सभी जगह अँगरेजी व्याकरण का अनुकरण नहीं किया गया है। इसमें यथासंभव संस्कृत प्रणाली का भी अनुसरण किया गया है और यथास्थान अँगरेजी व्याकरण के कुछ दोष भी दिखाए गए हैं।

मेरा विचार था कि इस पुस्तक में मैं विशेषकर ‘कारकों’ और ‘कालों’ का विवेचन संस्कृत की शुद्ध प्रणाली के अनुसार करता; पर हिंदी में इन विषयों की रूढ़ि अँगरेजी के समागम से, अभी तक इतनी प्रबल है कि मुझे सहसा इस प्रकार का परिवर्तन करना उचित न जान पड़ा। हिंदी में व्याकरण का पठन-पाठन अभी बाल्यावस्था ही में है; इसलिए इस नई प्रणाली के कारण इस रूखे विषय के और भी रूखे हो जाने की आशंका थी। इसी कारण मैंने ‘विभक्तियों’ और ‘आख्यानों’ के बदले ‘कारकों’ और ‘कालों’ का नामोल्लेख तथा विचार किया है। यदि आवश्यकता जान पड़ेगी तो ये विषय किसी अगले संस्करण में परिवर्तन कर दिए जावेंगे। तब तक संभवतः विभक्तियों को मूल शब्दों में मिलाकर लिखने के विषय में कुछ सर्वसम्मत निश्चय हो जायगा।

इस पुस्तक में, जैसा कि ग्रंथ में अन्यत्रा (पृष्ठ 78 पर) कहा है, अधिकांश में वही पारिभाषिक शब्द रखे गए हैं, जो हिंदी में ‘भाषाभास्कर’ के द्वारा प्रचलित हो गए हैं। यथार्थ में ये सब शब्द संस्कृत व्याकरण के हैं, जिससे मैंने और भी कुछ शब्द लिए हैं। थोड़े बहुत आवश्यक पारिभाषिक शब्द मराठी तथा बँगला भाषाओं के व्याकरणों से लिए गए हैं और उपर्युक्त शब्दों के अभाव में कुछ शब्दों की रचना मैंने स्वयं की है।

व्याकरण की उपयोगिता और आवश्यकता इस पुस्तक में यथास्थान बतलाई गई है, तथापि यहाँ इतना कहना उचित जान पड़ता है कि किसी भी भाषा के व्याकरण का निर्माण उसके साहित्य की पूर्ति का कारण होता है और उसकी प्रगति में सहायता देता है। भाषा की सत्ता स्वतंत्रा होने पर भी व्याकरण उसका सहायक अनुयायी बनकर उसे समय-समय और स्थान-स्थान पर जो आवश्यक सूचनाएँ देता है, उससे भाषा का लाभ होता है। जिस प्रकार किसी संस्था के संतोषपूर्वक चलने के लिए सर्वसम्मत नियमों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भाषा की चंचलता दूर करने और उसे व्यवस्थित रूप में रखने के लिए व्याकरण ही प्रधान और सर्वोत्तम साधन है। हिंदी भाषा के लिए वह नियंत्राण और भी आवश्यक है, क्योंकि इसका स्वरूप उपभाषाओं की खींचातानी में अनिश्चित सा हो रहा है।

हिंदी व्याकरण का प्रारम्भिक इतिहास अंधकार में पड़ा हुआ है। हिंदी भाषा के पूर्वरूप ‘अपभ्रंश’ का व्याकरण हेमचंद्र ने बारहवीं शताब्दी में लिखा है, पर हिंदी व्याकरण के प्रथम आचार्य का पता नहीं लगता। इसमें सन्देह नहीं कि हिंदी के आरंभ काल में व्याकरण की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि एक तो स्वयं भाषा ही उस समय अपूर्णावस्था में थी और दूसरे, लेखकों को अपनी मातृभाषा के ज्ञान और प्रयोग के लिए उस समय व्याकरण की विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं होती थी। उस समय लेखों में गद्य का अधिक प्रचार न होने के कारण भाषा के सिद्धांतों की ओर संभवतः लोगों का ध्यान भी नहीं जाता था। जो हो, हिंदी के आदि वैयाकरण का पता लगाना स्वतंत्रा खोज का विषय है। मुझे जहाँ तक पुस्तकों से पता लग सका है, हिंदी व्याकरण के आदि निर्माता वे अँगरेज थे, जिन्हें ईसवी सन् की उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में इस भाषा के विधिवत् अध्ययन की आवश्यकता हुई थी। उस समय कलकत्ते के फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यक्ष डॉ. गिलक्राइस्ट ने अँगरेजी में हिंदी का एक व्याकरण लिखा था। उन्हीं के समय में प्रेमसागर के रचयिता लल्लू जी लाल ने ‘कवायद’ के नाम से हिंदी व्याकरण की एक छोटी पुस्तक रची थी। मुझे इन दोनों पुस्तकों को देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ; पर इनका उल्लेख अँगरेजी के लिखे हिंदी व्याकरण में तथा हिंदी साहित्य के इतिहास में पाया जाता है।

लल्लू जी लाल के व्याकरण के लगभग 25 वर्ष पश्चात् कलकत्ते के पादरी आदम साहब ने हिंदी व्याकरण की एक छोटी-सी पुस्तक लिखी जो कई वर्षों तक स्कूलों में प्रचलित रही। इस पुस्तक में अँगरेजी व्याकरण के ढंग पर हिंदी व्याकरण के कुछ साधारण नियम दिए गए हैं। पुस्तक की भाषा पुरानी, पंडिताऊ और विदेशी लेखक की स्वाभाविक भूलों से भरी हुई है। इसके पारिभाषिक शब्द बँगला व्याकरण से लिए गए जान पड़ते हैं और हिंदी में उन्हें समझाते समय विषय की कई भूलें भी हो गई हैं।

सिपाही विद्रोह के पीछे शिक्षा विभाग की स्थापना होने पर पं. रामजसन की ‘भाषा तत्वबोधिनी’ प्रकाशित हुई, जो एक साधारण पुस्तक है और जिसमें कहीं-कहीं हिंदी और संस्कृत की मिश्रित प्रणालियों का उपयोग किया गया है। इसके पीछे पं. श्रीलाल का ‘भाषाचंद्रोदय’ प्रकाशित हुआ जिसमें हिंदी व्याकरण के कुछ अधिक नियम पाए जाते हैं। फिर सन् 1869 ईसवी में बाबू नवीनचंद्र राय कृत ‘नवीन चंद्रोदय’ निकला। राय महाशय पंजाब निवासी बंगाली और वहाँ के शिक्षा विभाग के उच्च कर्मचारी थे। आपने अपनी पुस्तक में ‘भाषा-चंद्रोदय’ का उल्लेख कर उसके विषय में जो कुछ लिखा है, उससे आपकी कृति का पता लगता है। आप लिखते हैं --- ‘भाषा-चंद्रोदय’ की रीति स्वाभाविक है; पर इसमें सामान्य वा अनावश्यक विषयों का विस्तार किया गया है, और जो अत्यंत आवश्यक था अर्थात् संस्कृत शब्द जो भाषा में व्यवहृत होते हैं, उनके नियम यहाँ नहीं दिए गए। ‘नवीन चंद्रोदय’ में भी संस्कृत प्रणाली का आंशिक अनुसरण पाया जाता है। इसके पश्चात् पं. हरिगोपाल पाध्ये ने अपनी ‘भाषातत्वदीपिका’ लिखी। पाध्ये महाशय महाराष्ट्री थे; अतएव उन्होंने मराठी व्याकरण के अनुसार कारक और विभक्ति का विवेचन, संस्कृत की रीति पर किया है और कई एक पारिभाषिक शब्द मराठी व्याकरण से लिए हैं। पुस्तक की भाषा में स्वभावतः मराठीपन पाया जाता है। यह पुस्तक बहुत कुछ अँगरेजी ढंग पर लिखी गई है।

लगभग इसी समय (सन् 1875 ई. में) राजा शिवप्रसाद का ‘हिंदी व्याकरण’ निकला। इस पुस्तक में दो विशेषताएँ हैं। पहली विशेषता यह है कि पुस्तक अँगरेजी ढंग की होने पर भी इसमें संस्कृत व्याकरण के सूत्रों का अनुकरण किया गया है; और दूसरी यह कि हिंदी के व्याकरण के साथ-साथ नागरी अक्षरों में, उर्दू का भी व्याकरण दिया गया है। इस समय हिंदी और उर्दू के स्वरूप के विषय में वाद-विवाद उपस्थित हो गया था और राजा साहब दोनों बोलियों को एक बनाने के प्रयत्न में अगुआ थे, इसीलिए आपको ऐसा दोहरा व्याकरण बनाने की आवश्यकता हुई। इसी समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने बच्चों के लिए एक छोटा-सा हिंदी व्याकरण लिखकर इस विषय की उपयोगिता और आवश्यकता सिद्ध कर दी।

इसके पीछे पादरी एथरिंगटन साहब का प्रसिद्ध व्याकरण ‘भाषा-भास्कर’ प्रकाशित हुआ, जिसकी सत्ता 40 वर्ष से आज तक एक सी अटल बनी हुई है। अधिकांश में दूषित होने पर भी इस पुस्तक के आधार और अनुकरण पर हिंदी के कई छोटे-मोटे व्याकरण बने और बनते जाते हैं (हिंदी व्याकरण’ और उसके संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित होने तथा इनकी नकल करके कई व्याकरण बनने के कारण ‘भाषा-भास्कर’ का प्रचार बहुत घट गया है)। यह पुस्तक अँगरेजी ढंग पर लिखी गई है और जिन पुस्तकों में इसका आधार पाया जाता है, उनमें भी इसका ढंग लिया गया है। हिंदी में यह अँगरेजी प्रणाली इतनी प्रिय हो गई कि इसे छोड़ने का पूरा प्रयत्न आज तक नहीं किया गया। मराठी, गुजराती, बँगला आदि भाषाओं के व्याकरणों में भी बहुधा इसी प्रणाली का अनुकरण पाया जाता है।

इधर गत 25 वर्षों के भीतर हिंदी के छोटे मोटे कई एक व्याकरण प्रकाशित हुए हैं, जिनमें विशेष उल्लेखयोग्य पं. केशवराम भट्ट कृत ‘हिंदी व्याकरण’, ठाकुर रामचरण सिंह कृत ‘भाषा प्रभाकर’, पं. रामावतार शर्मा का ‘हिंदी व्याकरण’, पं. विश्वेश्वरदत्त शर्मा का ‘भाषातत्व प्रकाश’ और पं. रामदहिन मिश्र का ‘प्रवेशिका हिंदी व्याकरण’ है। इन वैयाकरणों में किसी ने प्रायः देशी, किसी ने पूर्णतया विदेशी और किसी ने मिश्रित प्रणाली का अनुकरण किया है। पं. गोविंदनारायण मिश्र ने ‘विभक्तिविचार’ लिखकर हिंदी विभक्तियों की व्युत्पत्ति के विषय में गवेषणापूर्ण समालोचना की है और हिंदी व्याकरण के इतिहास में एक नवीनता का समावेश किया है।

मैंने अपने व्याकरण में पूर्वोक्त प्रायः सभी पुस्तकों के अधिकांश विवादमान विषयों की यथास्थान, कुछ चर्चा और परीक्षा की है। इस पुस्तक का प्रकाशन आरंभ होने के पश्चात् पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी की ‘हिंदी कौमुदी’ प्रकाशित हुई; इसलिए अन्यान्य पुस्तकों के समान इस पुस्तक के ‘किसी विवेचन का विचार मेरे ग्रंथ में न हो सका। ‘हिंदी कौमुदी’ अन्यान्य सभी व्याकरणों की अपेक्षा अधिक व्यापक, प्रामाणिक और शुद्ध है।

कैलाग, ग्रीब्ज, पिंकाट आदि विदेशी लेखकों ने हिंदी व्याकरण की उत्तम पुस्तकें, अँगरेजों के लाभार्थ, अँगरेजी में लिखी हैं, पर, इनके ग्रंथों में किए गए विवेचनों की परीक्षा मैंने अपने ग्रंथ में नहीं की, क्योंकि, भाषा की अशुद्धता की दृष्टि से विदेशी लेखक पूर्णतया प्रामाणिक नहीं माने जा सकते।

ऊपर, हिंदी व्याकरण का, गत प्रायः 100 वर्षों का, संक्षिप्त इतिहास दिया गया है। इससे जाना जाता है कि हिंदी भाषा के जितने व्याकरण आज तक हिंदी में लिखे गए हैं, वे विशेषकर पाठशालाओं के छोटे-छोटे विद्यार्थियों के लिए निर्मित हुए हैं। उनमें बहुधा साधारण (स्थूल) नियम ही पाए जाते हैं, जिससे भाषा की व्यापकता पर पूरा प्रकाश नहीं पड़ सकता। शिक्षित समाज ने उनमें से एक किसी भी व्याकरण को अभी विशेष रूप से प्रामाणिक नहीं माना है। हिंदी व्याकरण के इतिहास में एक विशेषता यह भी है कि अन्य भाषाभाषी भारतीयों ने भी इस भाषा का व्याकरण लिखने का उद्योग किया है, जिससे हमारी भाषा की व्यापकता, इसके प्रामाणिक व्याकरण की आवश्यकता और साथ ही हिंदी भाषा वैयाकरणों का अभाव अथवा उनकी उदासीनता ध्वनित होती है। हिंदीभाषा के लिए यह एक बड़ा शुभ चिद्द है कि कुछ दिनों से हिंदीभाषी लेखकों (विशेषकर शिक्षकों) का ध्यान इस विषय की ओर आकृष्ट हो रहा है।

हिंदी में अनेक उपभाषाओं के होने तथा उर्दू के साथ अनेक वर्षों से इसका संपर्क रहने के कारण हमारी भाषा की रचना-शैली अभी तक बहुधा इतनी अस्थिर है कि इस भाषा के वैयाकरण को व्यापक नियम बनाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ये कठिनाइयाँ भाषा के स्वाभाविक संगठन से भी उत्पन्न होती हैं; पर निरंकुश लेखक उन्हें और भी बढ़ा देते हैं। हिंदी के स्वराज्य में अहंमन्य लेखक बहुधा स्वतन्त्रता का दुरुपयोग किया करते हैं और व्याकरण के शासन का अभ्यास न होने के कारण इस विषय के उचित आदेशों को भी पराधीनता मान लेते हैं। प्रायः लोग इस बात को भूल जाते हैं कि साहित्यिक भाषा सभी देशों और कालों में लेखकों की मातृभाषा अथवा बोलचाल की भाषा से थोड़ा बहुत भिन्न रहती है और वह मातृभाषा के समान, अभ्यास ही से आती है। ऐसी अवस्था में केवल स्वतंत्रता के आदेश से वशीभूत होकर शिष्ट भाषा पर विदेशी भाषाओं अथवा प्रांतीय बोलियों का अधिकार चलाना एक प्रकार की राष्ट्रीय अराजकता है। यदि स्वयं लेखकगण, अपनी साहित्यिक भाषा को योग्य अध्ययन और अनुकरण से शिष्ट, स्पष्ट और प्रामाणिक बनाने की चेष्टा न करेंगे तो वैयाकरण ‘प्रयोगशरण’ का सिद्धांत कहाँ तक मान सकेगा? मैंने अपने व्याकरण में प्रसंगानुरोध से प्रांतीय बोलियों का थोड़ा-बहुत विचार करके, केवल साहित्यिक हिंदी का विवेचन किया है। पुस्तक में विषय विस्तार के द्वारा यह प्रयत्न भी किया गया है कि हिंदी पाठकों की रुचि व्याकरण की ओर प्रवृत्त हो। इन सब प्रयत्नों की सफलता का निर्णय विज्ञ पाठक ही कर सकते हैं।

इस पुस्तक में एक विशेष त्राुटि रह गई है, जो कालांतर ही में दूर हो सकती है, जब हिंदी भाषा की पूरी और वैज्ञानिक खोज की जायगी। मेरी समझ में किसी भी भाषा के सर्वांगपूर्ण व्याकरण में उस भाषा के रूपांतरों और प्रयोगों का इतिहास लिखना आवश्यक है। यह विषय इस व्याकरण में न आ सका, क्योंकि हिंदी भाषा के आरंभकाल में, समय-समय पर (प्रायः एक एक शताब्दी में) बदलनेवाले रूपों और प्रयोगों के प्रामाणिक उदाहरण, जहाँ तक मुझे पता लगा है, उपलब्ध नहीं हैं, फिर इस विषय के योग्य प्रतिपादन के लिए शब्दशास्त्रा की विशेष योग्यता की भी आवश्यकता है। ऐसी अवस्था में मैंने ‘हिंदी व्याकरण’ में हिंदी भाषा के इतिहास के बदले हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास देने का प्रयत्न किया है। यथार्थ में यह बात अनुचित और आवश्यक प्रतीत होती है कि भाषा के सम्पूर्ण रूपों और प्रयोगों की नामावली के स्थान में कवियों और लेखकों तथा उनके ग्रंथों की शुष्क नामावली दी जाय। मैंने यह विषय केवल इसलिए लिखा है कि पाठकों को, प्रस्तावना के रूप में, अपनी भाषा की महत्ता का थोड़ा बहुत अनुमान हो जाय।

हिंदी के व्याकरण का सर्वसम्मत होना परम आवश्यक है। इस विचार से काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने इस पुस्तक को दोहराने के लिए एक संशोधन समिति निर्वाचित की थी। उसने गत दशहरे की छुट्टियों में अपनी बैठक की, और आवश्यक (किंतु साधारण) परिवर्तन के साथ इस व्याकरण को सर्वसम्मति से स्वीकृत कर लिया। यह बात लेखक, हिंदी भाषा और हिंदीभाषियों के लिए अत्यंत लाभदायक और महत्त्वपूर्ण है। इस समिति के निम्नलिखित सदस्यों ने बैठक में भाग लेकर पुस्तक संशोधनादि कार्यों में अमूल्य सहायता दी है : आचार्य पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी। साहित्याचार्य पं. रामावतार शर्मा एम.ए.। पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बी.ए.। रा. ब. पंडित लज्जाशंकर झा, बी.ए.। बाबू जगन्नाथदास (रत्नाकर) बी.ए.। बाबू श्यामसुंदरदास, बी.ए.। पंडित रामचन्द्र शुक्ल। इन सब सज्जनों के प्रति मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी का मैं विशेषतया कृतज्ञ हूँ, क्योंकि आपने हस्तलिखित प्रति का अधिकांश भाग पढ़कर अनेक उपयोगी सूचनाएँ देने की कृपा और परिश्रम किया है। खेद है कि पं. गोविंदनारायण जी मिश्र तथा पं. अम्बिकाप्रसाद जी वाजपेयी समयाभाव के कारण समिति की बैठक में योग न दे सके, जिससे मुझे आप लोगों की विद्वत्ता और सम्मति का लाभ प्राप्त न हुआ। व्याकरण संशोधन समिति की सम्मति परिशिष्ट में दी गई है।

अंत में, मैं विज्ञ पाठकों से नम्र निवेदन करता हूँ कि आप लोग कृपाकर मुझे इस पुस्तक के दोषों की सूचना अवश्य दें। यदि ईश्वरेच्छा से पुस्तक को द्वितीयावृत्ति का सौभाग्य प्राप्त होगा तो उसमें उन दोषों को दूर करने का पूर्ण प्रयत्न किया जायगा। तब तक पाठकगण कृपाकर ‘हिंदी व्याकरण’ के सार को उसी प्रकार ग्रहण करें जिस प्रकार :

                                                 संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि वारि विकार।

गढ़ा फाटक जबलपुर निवेदक बसंतपंचमी कामताप्रसाद गुरु संवत् 1977