भूमिका / निर्मल वर्मा

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इस पुस्तक के निबंध पिछले कुछ वर्षों के दौरान समय-समय पर स्वतंत्र रूप से लिखे गए थे। कुछ ऐसे विषय जो बरसों से मुझे उकसाए रहते थे... कहानी का विशिष्ट क्षेत्र कविता से कितना अलग है, उपन्यास से कितना दूर है? हिंदी आलोचना के प्रति गहरा असंतोष, काल और कला के बीच अंतर्द्वंद्वी संबंध, एक आधुनिक भारतीय का अपनी संस्कृति से लगाव और अलगाव - ये कुछ ऐसे प्रश्न थे, जिन्हें मैं अपने से पूछना चाहता था। किंतु इसके साथ यह भी इच्छा थी, कि जिन विषयों को मैंने बहुत झिझकते हुए अपनी पुरानी दो किताबों ('शब्द और स्मृति' और 'कला का जोखिम') में छुआ-भर था, उन्हें अधिक ठोस और व्यापक फलक पर जाँच-परख सकूँ। वास्तव में यह पुस्तक उस चिंतन-श्रृंखला की तीसरी और अंतिम कड़ी है, जिनके बीज और संकेत पिछली दो पुस्तकों में दिखाई दे जाते हैं। एक तरह से सिंगरौली की यात्रा भी उस 'तीर्थयात्रा' की अँधेरी परिणति है, जिसकी शुरुआत इलाहाबाद के कुंभ मेले में हुई थी।

यद्यपि इस पुस्तक की तैयारी किसी विशेष विषय या थीम के इर्द-गिर्द नहीं की गई, इसके निबंध अपने को सहज रूप से तीन खंडों में विभाजित कर लेते हैं; एक तरफ हमारी कला का परिवेश है, जो (दूसरे खंड में) हमें अनायास स्वयं इस परिवेश की स्थिति - मनुष्य की अवस्था - की पड़ताल करने को उत्प्रेरित करता है; किंतु वह 'मन' क्या है, जहाँ से ये दोनों अपना मूलभूत चरित्र, स्वभाव और आग्रह ग्रहण करते हैं? इसका उत्तर देने के लिए मैंने अंतिम खंड में अपनी डायरी के कुछ अंश देने उपयुक्त समझे, जिन्हें मैं समय-समय 'रास्ते पर' जमा करता रहता हूँ। पता नहीं, दूसरों के लिए वे कितना मतलब रखेंगे? कहानियाँ अकेले में लिखी जा सकती हैं, किंतु शायद निबंध नहीं।

यह पुस्तक असंभव होती, यदि मैं पिछले वर्षों बराबर एक जीवंत, स्फूर्तिदायक और कभी-कभी काफी कड़वी बहस के बीच न रहता; इसलिए मैं सिर्फ उन स्थानों के प्रति ही ऋणी नहीं हूँ, जहाँ मुझे इनमें से अनेक निबंध लिखने की प्रेरणा मिली (भोपाल, दिल्ली, पंचमढ़ी) बल्कि उन मित्रों के प्रति भी गहरा आभार महसूस करता हूँ - जे. स्वामीनाथन, रामचंद्र गांधी, जीत ओबेरॉय - जिनकी गहन और पैनी अंतर्दृष्टि, समग्र जीवन दृष्टि पर आग्रह और भारतीय मनीषा के प्रति आस्था मेरे लिए हमेशा बौद्धिक उत्तेजना और प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। मेरी इच्छा तो यह थी, कि यहाँ मैं उन लेखकों और पुस्तकों का भी उल्लेख करूँ, जिन्होंने इन निबंधों को लिखने के दौरान अनेक दुर्गम-स्थलों के बीच मुझे रास्ता सुझाया है, किंतु उनकी सूची इतनी लंबी है कि सबका उल्लेख करने के बाद भी मेरा आभार पूरा नहीं होगा; वे अदृश्य रूप से पुस्तक के हर पन्ने पर मौजूद हैं। शायद सबसे बड़ा आभार यह है कि हम यह भी भूल जाएँ कि कौन-सा विचार हमारा 'अपना' है, कौन-सा कितना दूसरों से ग्रहण किया हुआ। सिर्फ यह याद रखना जरूरी है कि मेरी गलतियों और कमजोरियों में उनका कोई साँझा नहीं, जिन्होंने अपनी बातचीत, अपने लेखन और अपनी उपस्थिति से इस पुस्तक को संभव बनाया है।

निर्मल वर्मा

15 अगस्त, 1985