भूमिका / प्रेमचंद की शेष रचनाएँ / प्रदीप जैन
प्रस्तुत संकलन की भूमिका लिखने का भार मेरे दुर्बल कंधों पर डालकर शोधकर्ता डा. प्रदीप जैन ने वास्तव में मुझे धर्मसंकट में डाल दिया है। यह सत्य है कि प्रेमचंद-परिवार से मेरा रक्त का नाता जुड़ा हुआ है, किन्तु मैं नहीं समझता कि मात्र यह रिश्ता मुझे इस योग्य बना देता है कि मैं इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण शोध-ग्रन्थ की भूमिका लिखने का दायित्व निभा सकूँ। मैं न तो प्रेमचंद-साहित्य का मर्मज्ञ हूँ और न अधिकारी विद्वान्। वास्तव में इस कार्य को सम्पादित करने का अधिकारी तो प्रेमचंद-साहित्य का कोई गहन अध्येता और अधिकारी विद्वान् ही हो सकता है। फिर भी बन्धुवर प्रदीपजी के आग्रह को टाल पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है और यथाशक्ति कुछ पंक्तियाँ लिखने का दुस्साहस कर रहा हूँ।
गोस्वामी तुलसीदास के बाद जब हम किसी ऐसे महान् रचनाकार की तलाश करते हैं जिसने न केवल हिन्दुओं बल्कि मुसलमानों और देश में रहने वाले अन्यान्य मतावलम्बियों के बीच अभूतपूर्व लोकप्रियता अर्जित की हो तो हमारा ध्यान एकमात्र प्रेमचंद की ओर जाता है। तुलसीदास का रामचरितमानस हिन्दुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों के बीच समान रूप से समादृत नहीं हो सका क्योंकि इसका आधार धर्म और आस्था है। प्रेमचंद ने यह अनुभव किया कि उनके समय की परिस्थितियों में समग्र भारत को एक सूत्र में पिरोने का आधार धर्म नहीं बल्कि आर्थिक समानता ही हो सकती है। धर्म को विदेशी शासकों द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने का हथियार बनाया जा रहा था ताकि देश में रहने वाले इन दोनों प्रमुख सम्प्रदायों के लोग आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर भाग न ले सकें बल्कि आपस में ही लड़ते रहें। तुलसीदास के समय में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक प्रतिद्वन्द्विता का रूप वैसा नहीं था जैसा अंग्रेजों ने प्रेमचंद के समय में बना दिया था। इसीलिए प्रेमचंद ने वृहत्तर मानवता को दृष्टि में रखते हुए एक धर्म-निरपेक्ष भारत की कल्पना की और उसी की मूल समस्याओं को अपने साहित्य का विषय बनाया। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव का सतत संदेश दिया क्योंकि इसके अभाव में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम का कोई भी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता था। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि उनके साहित्य का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ और वे भारतीय साहित्य और राष्ट्रीय संस्कृति के संदेशवाहक के रूप में दूर-दूर तक लोकप्रिय हो गये। किसी रचनाकार की सफलता का मूल्यांकन उसके साहित्य के पाठकों की संख्या के आधार पर होता है और यह निर्विवाद है कि प्रेमचंद जैसी लोकप्रियता किसी अन्य हिन्दी लेखक ने अर्जित नहीं की।
प्रेमचंद में समस्याओं के समन्वय की अद्भुत क्षमता थी। भारत जैसे विविधताओं वाले देश में, जहाँ धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण, जाति आदि की विचित्र विविधताएँ विद्यमान हैं, लोकनायक वही बन सकता है जो इन विविधताओं में समन्वय स्थापित कर सके। प्रेमचंद ने देश के दो प्रमुख सम्प्रदायों - हिन्दू और मुसलमान के बीच समन्वय स्थापित करने का आजीवन प्रयास किया। उन्होंने हिन्दी-उर्दू साहित्य और भाषा में भी समन्वय स्थापित करने की भरपूर चेष्टा की। गाँधी और मार्क्स में समन्वय किया, आदर्श और यथार्थ में समन्वय किया तथा समाज और साहित्य में भी समन्वय स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इसीलिए वह लाखों-करोड़ों पाठकों के चहेते बन सके। प्रेमचंद की महानता का रहस्य उनकी इसी समन्वित अन्तर्दृष्टि में निहित है। साम्प्रदायिकता उन्हें छू तक नहीं सकी। साम्प्रदायिक झगड़ों को वह देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य मानते थे। वे मानव और मानव में कोई भेद नहीं देखते थे और इन्सान की सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म मानते थे। दोनों सम्प्रदायों के बीच मेल-जोल और आपसी सहयोग की भावना को वे स्वाधीनता की बुनियादी शर्त मानते थे। उनका अधिकांश साहित्य इस सम्बन्ध में उनके विचारों का स्पष्ट परिचायक है।
प्रेमचंद की विद्या-यात्रा उर्दू भाषा के माध्यम से आरम्भ हुई थी। लिखना भी उन्होंने पहले उर्दू में ही शुरू किया, किन्तु कालान्तर में उन्होंने उर्दू के साथ ही हिन्दी को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम शायद इसलिए बनाया ताकि उसके माध्यम से अपेक्षाकृत वृहत्तर वर्ग की सेवा कर सकें। बहुजन की हितचिन्ता ने ही सम्भवतः उन्हें उर्दू के साथ ही हिन्दी से भी जोड़ा। इसका एक सुपरिणाम यह हुआ कि हिन्दी भाषा की समृद्धि का एक पुष्ट आधार तैयार हो गया। प्रेमचंद ने अपनी विलक्षण प्रतिभा और साधना से हिन्दी भाषा तथा साहित्य को इतना समृद्ध बनाया कि वह गर्व के साथ सिर उठाकर चलने के योग्य बन सका। जिस प्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर और शरत् चन्द्र के साहित्य ने अन्य भाषा-भाषियों को बँगला सीखने के लिए प्रेरित किया, उसी प्रकार प्रेमचंद के साहित्य ने भी अन्य भाषा-भाषियों के बीच हिन्दी के प्रति आकर्षण पैदा किया और उनमें हिन्दी सीखने की जिज्ञासा उत्पन्न की। हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के साहित्य में उनका अवदान समान रूप से महत्त्वपूर्ण है और दोनों के कथा-साहित्य में उनका अप्रतिम स्थान है। प्रेमचंद ही शायद ऐसे द्विभाषी लेखक हैं, जिनके साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयों के हिन्दी और उर्दू दोनों विभागों में पर्याप्त शोध कार्य हुआ है।
प्रेमचंद का उर्दू साहित्य अधिकतर अरबी और फारसी के शब्दों के भार से बोझल है। हिन्दी के क्षेत्र में पदार्पण के साथ उन्होंने यह महसूस किया कि - ‘हमारी राष्ट्रीय भाषा तो वही हो सकती है जिसका आधार सर्व-सामान्य की बोधगम्यता हो, जिसे सब लोग सहज में समझ सकें। वह इस बात की क्यों परवाह करने लगी कि अमुक शब्द इसलिए छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह फारसी, अरबी अथवा संस्कृत का है? वह तो केवल यह मानदण्ड अपने सामने रखती है कि जन-साधारण यह शब्द समझ सकते हैं या नहीं और जन-साधारण में हिन्दू, मुसलमान, पंजाबी, बंगाली, महाराष्ट्रियन और गुजराती सभी सम्मिलित हैं। यदि कोई शब्द या मुहावरा या पारिभाषिक शब्द जन-साधारण में प्रचलित है तो फिर वह इस बात की परवाह नहीं करती कि वह कहाँ से निकला है और कहाँ से आया है? और यही हिन्दुस्तानी है।’ प्रेमचंद ने उर्दू और हिन्दी भाषाओं के रक्त-रंग में कोई अन्तर नहीं देखा और इसीलिए दोनों की ही मिश्रित भाषा, यानी हिन्दुस्तानी को अपनी लेखनी का माध्यम बनाया। उनकी इस मिली-जुली भाषा में अपने देश की मिट्टी की गन्ध है। प्रेमचंद जन-भाषा के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने अपने कथा-साहित्य में जन-जीवन और जन-भाषा को ही स्वीकार किया। फलस्वरूप उर्दू और हिन्दी दोनों भाषा-भाषियों के बीच उन्होंने समान रूप से सम्मान पाया और लोकप्रियता अर्जित की। उर्दू वालों ने उन्हें सिर- आँखों पर बिठाया तो हिन्दी वालों ने उन्हें शिखर पर पहुँचाया और कथा सम्राट् बनाया।
प्रेमचंदकालीन भारत का भौगोलिक और राजनैतिक स्वरूप आज से सर्वथा भिन्न था। देश न तो आजाद हुआ था और न विभाजित। इतना बड़ा देश होने के बावजूद उस समय स्तरीय लेखकों की संख्या नगण्य थी। कथा-साहित्य में तिलस्मी और ऐयारी साहित्य का बोलबाला था। देवकीनन्दन खत्री की रचनाएँ पाठकों के एक बड़े वर्ग के दिलो-दिमाग पर छाई हुई थीं। हिन्दी कथा-साहित्य को इस स्थिति से उबारकर मनोवैज्ञानिक कथा-लेखन का समारम्भ वास्तव में प्रेमचंद ने ही किया। यही कारण है कि न केवल हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों बल्कि पंजाब जैसे उर्दू-भाषी प्रान्त में भी उनकी रचनाएँ काफी लोकप्रिय हुईं। हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में प्रकाशित होने वाले तत्कालीन सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं की ओर से प्रेमचंद की रचनाओं की माँग निरन्तर बनी रहती थी। चाहे उर्दू में लिखी उनकी कोई रचना हो या हिन्दी में, पूर्ण होते ही प्रेमचंद उसे किसी न किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज देते थे। उनका जीवन इतना व्यस्त और अव्यवस्थित था और स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याएँ उन्हें इस कदर परेशान किये रहती थीं कि अपनी लिखी और प्रकाशनार्थ भेजी गई रचनाओं का कोई लेखा-जोखा वह अपने पास नहीं रख पाते थे और न उन पत्र-पत्रिकाओं को ही सहेज-संभालकर रखने की उन्हें सुधि रहती थी जिनमें उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। जब तक वे सरकारी सेवा में रहे, उनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण होता रहता था और जब नौकरी से त्याग-पत्र देकर मुक्त हुए तो अपने प्रेस व्यवसाय और ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ पत्रिकाओं के प्रकाशन में होने वाले घाटे के कारण वह सदैव आर्थिक तंगी से जूझते रहे। प्रकाशित रचनाओं का पारिश्रमिक मिलने के बाद अपनी रचनाओं तथा पत्र-पत्रिकाओं को सँभालकर रखने की चिन्ता उन्हें नहीं रहती थी। अपनी मेहनत की मजदूरी मिल जाय, बस इतने से ही वह सन्तुष्ट हो जाते थे। उनकी ढेरों पुरानी पाण्डुलिपियाँ लमही के पुश्तैनी मकान की एक कोठरी में लकड़ी के मचान पर एक बड़े से बाँस के झाँपे में भरी पड़ी दीमकों का आहार बनती हुई नष्ट हो रही थीं जिनकी ओर कभी उनका ध्यान ही नहीं गया। सामान्यतः यह कोठरी रसोईघर के रूप में उपयोग में लाई जाती थी, किन्तु घर में किसी बच्चे के जन्म के समय कभी-कभी इसे थोड़े दिनों के लिये सौरी-घर भी बना दिया जाता था। अम्मा और दादी बतलाती थीं कि मेरा जन्म भी इसी कोठरी में हुआ था। यद्यपि हम लोगों का बचपन और जवानी इसी पुश्तैनी घर में व्यतीत हुई थी, किन्तु बाल्यावस्था में जिस प्रकार सभी बच्चे अपने खेलने-खाने में ही मगन रहते हैं या फिर स्कूल का पाठ तैयार करने में रमे रहते हैं वही दशा हम लोगों की भी थी। हमारा ध्यान कभी उस झाँपे की तरफ नहीं गया। संयोग से वर्ष 1937 में घर के कमरों की सफाई के दौरान मेरे बड़े भाई स्व. डा. रामकुमार राय और मेरी निगाह रसोईघर के मचान पर एक कोने में पड़े उस झाँपे पर पड़ी तो हम लोगों ने उसे नीचे उतारा और उसमें भरी पड़ी प्रेमचंद की पुरानी पाण्डुलिपियों की दुर्दशा देखकर स्तब्ध रह गये। इसकी दास्तान मैंने ‘यों नष्ट हो गईं प्रेमचंद की बहुमूल्य पाण्डुलिपियाँ’ शीर्षक अपने एक लेख में विस्तार से लिखी है। वर्ष 1997 में श्री राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के अर्द्ध-शती विशेषांक - खण्ड-1 में इस लेख को ‘यों नष्ट हो गई प्रेमचंद की अनमोल धरोहर’ शीर्षक से प्रकाशित किया। बाद में मैंने इस लेख को अपनी पुस्तक ‘बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद’ में भी सम्मिलित कर प्रकाशित कराया। शोधकर्ता डा. प्रदीप जैन ने अपने प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में इस लेख को परिशिष्ट-4 के रूप में ज्यों का त्यों उद्धृत किया है।
जब कभी प्रेमचंद की रचनाओं का संग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित करने की स्थिति आती तो उसमें केवल उन्हीं रचनाओं का समावेश हो पाता जो सामने उपलब्ध रहतीं। आँखों से ओझल बहुतेरी रचनाएँ छूट जाती थीं। प्रेमचंद की कहानियों का बृहद् संकलन हिन्दी में ‘मानसरोवर’ के नाम से उनके जीवन-काल में ही छपना आरम्भ हो गया था। इस संकलन के प्रथम खण्ड का प्राक्कथन भी उन्होंने स्वयं लिखा था जिसमें उन्होंने केवल इतना उल्लेख किया था कि - "पिछले पाँच-छः वर्षों में लिखी गई उनकी पचास के कुछ अधिक कहानियाँ ऐसी हैं जो अभी तक उनके किसी अन्य संग्रह में नहीं ली गई हैं। पाठकों की सुविधा के लिये ऐसी कहानियों को दो भागों में कर दिया गया है और ‘मानसरोवर’ के प्रथम भाग में सत्ताइस कहानियाँ रखी गई हैं।" ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय तक किसी पूर्व प्रकाशित संग्रह में सम्मिलित नहीं की गयी कहानियों को ही ‘मानसरोवर’ नाम से दो भागों में प्रकाशित करने की उनकी योजना थी, परन्तु इस संग्रह के प्रथम दो भागों ने पाठकों के बीच जो अभूतपूर्व लोकप्रियता अर्जित की, सम्भवतः उसी से उत्साहित होकर प्रेमचंद के निधन के पश्चात् उनके पुत्रों ने विभिन्न नामों से प्रकाशित उनके पिछले कथा संग्रहों में संकलित अन्य सभी कहानियों को पुनः ‘मानसरोवर’ नाम से अगले भागों में फिर से प्रकाशित करने की योजना बनाई। परिणामस्वरूप ‘मानसरोवर’ के कुल आठ भाग प्रकाशित हुए जिनमें सब मिलाकर 203 कहानियों का समावेश किया गया। उस समय यही मान लिया गया कि ‘मानसरोवर’ के आठों खण्डों में प्रेमचंद की लिखी समस्त कहानियाँ संकलित हो गई हैं। किन्तु वास्तविकता इससे भिन्न थी। प्रेमचंद ने स्वयं वर्ष 1934 में प्रो. इन्द्रनाथ मदान को लिखे अपने एक पत्र में अपनी कहानियों की कुल संख्या लगभग ढाई सौ बतलाई थी। जाहिर है कि इस संख्या में वर्ष 1935 और 1936 में लिखी गई कहानियों की संख्या सम्मिलित नहीं रही होगी। अतः ऐसा अनुमान है कि उर्दू और हिन्दी में मिलाकर उन्होंने अनुमानतः तीन सौ से कम कहानियाँ नहीं लिखी होंगी, किन्तु ‘मानसरोवर’ के प्रकाशन के समय अनुपलब्ध रहने के कारण उनकी पचासों कहानियाँ उसमें संकलित होने से छूट गई थीं। इन शेष कहानियों में कुछ ऐसी भी थीं जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ तो भेजी जा चुकी थीं, किन्तु उनका प्रकाशन प्रेमचंद के निधन के बाद हुआ। इन छूटी हुई कहानियों की खोज का कार्य प्रेमचंद के मरणोपरान्त उनके पुत्र-द्वय श्रीपतराय तथा अमृतराय द्वारा आरम्भ किया गया और क्रमशः उनका प्रकाशन भी सरस्वती प्रेस से आरम्भ कर दिया गया। ‘कफन और शेष रचनाएँ’ शीर्षक संकलन उसी समय मार्च 1937 में प्रकाशित हुआ जिसमें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपी उनकी 12 कहानियाँ तथा दो लेख सम्मिलित थे। परन्तु प्रेमचंद की शेष लुप्त रचनाओं की खोज के कार्य ने वास्तव में तब गति पकड़ी जब दोनों भाइयों का व्यवसाय अलग हो गया और अमृतराय ने ‘हंस प्रकाशन’ के नाम से अपना पृथक् प्रकाशन कार्य आरम्भ किया। इस खोज कार्य का यह परिणाम हुआ कि अमृतराय ने ‘गुप्त धन’ के नाम से प्रेमचंद की ऐसी 56 अन्य कहानियों का प्रकाशन दो खण्डों में किया जो ‘मानसरोवर’ में संकलित नहीं थीं। इसी प्रकार श्रीपतराय ने भी सरस्वती प्रेस से प्रेमचंद की 16 अप्राप्य कहानियों का एक संग्रह अलग प्रकाशित किया। इस संकलन में प्रेमचंद की ‘गमी’ शीर्षक एक छोटी सी हास्य-प्रधान कहानी भी सम्मिलित है जो मिर्जापुर से प्रकाशित ‘मतवाला’ के 31 अगस्त 1929 के अंक में छपी थी। पत्र का यह दुर्लभ अंक मुझे ‘मतवाला’ के संचालक स्व. महादेव प्रसाद सेठ के सुपुत्र स्व. मानिक चन्द सेठ के सौजन्य से प्राप्त हुआ था। मानिक चन्द कई वर्षों तक मिर्जापुर में मेरा सहपाठी और मित्र रह चुका था। जब मैंने ‘मतवाला’ का यह अंक भाई श्रीपतराय को दिया तो उन्होंने ही मुझे बतलाया था कि ‘गमी’ कहानी अभी तक प्रेमचंद के किसी कथा-संग्रह में उपलब्ध नहीं है।
‘गमी’ एक ऐसी कहानी है जिसमें प्रेमचंद की विलक्षण दूर-दृष्टि देखने को मिलती है। आज से सात-आठ दशक पूर्व देश की जनसंख्या की वृद्धि के बारे में न तो कोई सोचता था और न यह समस्या आज की तरह चुनौती के रूप में सामने खड़ी थी। जिस समय यह कहानी लिखी गई थी, अविभाजित भारत की कुल जनसंख्या तीस करोड़ के आसपास थी। किसी बुद्धिजीवी ने जनसंख्या नियन्त्रण के बारे में कभी चिन्तन करना आवश्यक नहीं समझा। परिवार में नये शिशु का जन्म खुशियाँ लेकर आता था, विशेषकर पुत्र के जन्म पर तो खूब जश्न मनाया जाता था, भले वह तीसरी, चौथी या पाँचवी ही सन्तान क्यों न हो। ऐसे समय में किसी मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया द्वारा दो पुत्रों के बाद तीसरे पुत्र-रत्न के जन्म को अपने ‘आनन्द’ की मृत्यु की संज्ञा देते हुए ‘गमी’ मनाने की प्रेमचंद की अभिनव परिकल्पना निश्चित ही उनकी विलक्षण दूर-दृष्टि का परिचायक थी। आज हम देख रहे हैं कि देश की जनसंख्या की बेतहाशा अनियन्त्रित वृद्धि, जो एक अरब की विस्फोटक संख्या को भी वर्षों पूर्व पार कर चुकी है, आज भी गुणन-गति से बढ़ती जा रही है और इस दिशा में किये जा रहे सारे प्रयासों को चुनौती देती हुई थमने का नाम नहीं ले रही है। इस विकट समस्या ने विकराल रूप धारण करके देश के कर्णधारों की नींद हराम कर रखी है। लेकिन प्रेमचंद की एक छोटी-सी कहानी का नायक तो आज से आठ दशक पूर्व तीसरे पुत्र के जन्म से व्यथित होकर अपने ‘मृत आनन्द’ की अन्त्येष्टि के लिये गंगा तट पर जाने को उद्यत था और वहाँ हाथ में गंगाजल लेकर यह संकल्प करना चाहता था कि अब ऐसी महान् ‘मूर्खता’ वह भविष्य में फिर कभी न करेगा। यह छोटी सी कहानी बहुत बड़ा सन्देश देती है और आज के परिप्रेक्ष्य में गम्भीर प्रभाव छोड़ती है। काश प्रेमचंद सरीखे दूरदृष्टि वाले कुछ और बुद्धिजीवी उसी जमाने में पैदा हो गये होते तो आज जनसंख्या-विस्फोट की गम्भीर और जटिल समस्या को लेकर देश को इतना चिन्तित क्यों होना पड़ता?
प्रेमचंद की भूली-बिसरी रचनाओं को खोजकर प्रकाश में लाने के कार्य में श्रीपतराय तथा अमृतराय के अतिरिक्त कुछ अन्य विद्वानों का भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। ऐसे विद्वानों में डा. कमल किशोर गोयनका तथा मदन गोपाल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। गोपाल कृष्ण माणकटाला, डा. कमर रईस तथा डा. जाफर रजा ने भी यत्र-तत्र पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी आँखों से ओझल प्रेमचंद की कुछ रचनाओं को खोज निकालने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है और उनके योगदान को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। कुछेक और महानुभाव भी हैं जिन्होंने प्रेमचंद की इक्का-दुक्का लुप्त रचनाओं को प्रकाश में लाने का कार्य किया है। ऐसे सभी खोजकर्ताओं के योगदान का विस्तृत लेखा-जोखा शोधकर्ता डा. प्रदीप जैन ने अपने प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ के विस्तृत प्राक्कथन में सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किया है।
प्रेमचंद का कथेतर गद्य-साहित्य भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और उसे उनके कथा-साहित्य से कमतर नहीं कहा जा सकता। इसमें उनके निबन्ध, नाटक, समीक्षाएँ, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, बाल साहित्य, पत्रकारिता, विभिन्न अवसरों पर दिये गये महत्त्वपूर्ण भाषण एवं पत्र-साहित्य, सभी कुछ सम्मिलित है। डा. कमल किशोर गोयनका ने एक स्थान पर लिखा है कि ‘साहित्यकार की सम्पूर्ण शब्द-सृष्टि को आधार बनाये बिना उसकी पूर्ण पहचान असम्भव है। चूँकि प्रेमचंद शिखर साहित्यकार हैं, अतः उनके द्वारा रचित प्रत्येक रचना, चाहे वह महत्त्वपूर्ण, कालजयी हो या महत्त्वहीन, शोध का अनिवार्य धर्म है।’ अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादकीय दायित्व निभाने के कारण प्रेमचंद को निबन्ध-लेखन का पर्याप्त अवसर प्राप्त हुआ। उनके निबन्धों में राष्ट्रीय चेतना, देश-प्रेम, प्रगतिशीलता और मानवीय संवेदना कूट-कूट कर भरी है। भाषा-शैली के सुष्ठु प्रयोग ने उनके निबन्धों को अत्यधिक प्रभावशाली बना दिया है। दुर्भाग्यवश उनके जीवन-काल में उनका अधिकांश कथेतर गद्य-साहित्य पत्र-पत्रिकाओं तक ही सीमित होकर रह गया और उसका कोई संकलन विधिवत प्रकाशित नहीं हो सका। यदि समय से उनकी कथेतर रचना-यात्रा की ओर अमृतराय तथा अन्य विद्वानों का ध्यान न गया होता तो समय व्यतीत होने के साथ सम्बन्धित पत्र-पत्रिकाओं के अप्राप्य या दुष्प्राप्य होने पर यह सारा साहित्य अतीत के गहन अन्धकार में समाया लुप्त रह जाता और हिन्दी-साहित्य की अपूरणीय क्षति होती। इसे खोजकर व्यवस्थित ढंग से प्रकाशित करने का महनीय कार्य भी सर्वप्रथम प्रेमचंद के सुपुत्र अमृतराय द्वारा ही आरम्भ किया गया। ‘कुछ विचार’, ‘साहित्य का उद्देश्य’, ‘विविध प्रसंग’ (तीन खण्डों में) आदि संकलनों के द्वारा प्रेमचंद की निबन्ध यात्रा का दिग्दर्शन होता है। उनके कथेतर साहित्य की खोज के कार्य में मदन गोपाल, डा. कमल किशोर गोयनका आदि का योगदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, परन्तु डा. प्रदीप जैन के प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में कतिपय दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण भी प्रकाश में लाये गये हैं। जीवन की गहराती साँझ में मदन गोपाल से जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित कराया गया वह है उर्दू में 24 खण्डों में प्रकाशित ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ जैसे बृहदाकार ग्रन्थ का सम्पादन। इस कार्य के सम्पादन में जिन त्रुटियों की ओर डा. प्रदीप जैन द्वारा सप्रमाण ध्यान आकर्षित किया गया है, वह ध्यातव्य है। कतिपय अन्य समकालीन रचनाकारों की पूर्व प्रकाशित रचनाओं को प्रेमचंद की रचना बताकर उक्त ग्रन्थ में समायोजित करना एक बहुत बड़ी असावधानी मानी जायगी। डा. प्रदीप जैन ने इन त्रुटियों की ओर मानव संसाधन विकास मन्त्रालय का भी ध्यान आकृष्ट किया है और आशा की जानी चाहिए कि मन्त्रालय द्वारा इसका परीक्षण कराकर त्रुटियों को दूर करने की दिशा में शीघ्र आवश्यक कार्यवाही की जायेगी।
दूसरा दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण जो डा. प्रदीप जैन द्वारा प्रकाश में लाया गया है वह है डा. कमल किशोर गोयनका द्वारा अपने शोध-कार्य के सिलसिले में कतिपय अनैतिक कार्यों का सहारा लेना। भाई अमृतराय अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक बराबर इस बात के लिये अपनी व्यथा और रोष प्रगट करते रहे कि शोध-कार्य के सम्बन्ध में उनसे जो महत्त्वपूर्ण दस्तावेज प्रो. गोयनका माँगकर ले गये थे उन्हें बार-बार तकाजा करने पर भी कभी नहीं लौटाया। पाँच-छह वर्ष पूर्व मुझे सागर (मध्य प्रदेश) जाने का अवसर मिला। सागर निवासी प्रो. कान्ति कुमार जैन को जब वहाँ मेरी उपस्थिति की जानकारी जगदीश किंजल्क से मिली तो वह अपनी पत्नी डा. साधना जैन तथा जाने-माने समीक्षक और साहित्यकार डा. आर.डी. मिश्र के साथ मुझसे मिलने स्वयं पधारे। बातों ही बातों में उन्होंने बतलाया कि जब वह पहले-पहल अमृतराय से मिलने इलाहाबाद स्थित उनके आवास ‘धूप-छाँह’ में गये हुए थे तो सुधाजी (अमृतराय की पत्नी) ने उनकी मुलाकात अमृतराय से कराई। सुधाजी प्रो. कान्ति कुमार जैन को तब से ही जानती थीं जब वह जबलपुर में उनकी स्व. माताजी सुभद्रा कुमारी चौहान से मिलने उनके घर जाया करते थे। जब उन्होंने अमृतराय को प्रो. कान्ति कुमार जैन का परिचय दिया तो अमृतराय अचानक तैश में आकर बोले, "ये प्रोफेसर...चोर...।" उन्हें इस तरह आवेश में आते देखकर सुधाजी ने स्थिति सँभालते हुए कहा कि प्रो. कान्ति कुमार जैन उन प्रोफेसरों में नहीं हैं जिनके सम्बन्ध में आपने उक्त धारणा बना रखी है। सुधाजी के समझाने पर अमृतराय सामान्य हुए और ढंग से बातें की। उक्त वृत्तान्त सुनाते हुए प्रो. कान्ति कुमार जैन ने बतलाया कि दिल्ली के प्रो. कमल किशोर गोयनका के कारण ही उन्हें ‘चोर’ जैसा तीखा सम्बोधन सुनने को मिला था।
डा. गोयनका मेरे अग्रज स्व. डा. रामकुमार राय से भी कुछ दस्तावेज अपने शोध कार्य के सिलसिले में इस आश्वासन के साथ माँगकर ले गये थे कि शीघ्र ही उन्हें वापस कर देंगे। जब कई वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी उन्होंने कागजात नहीं लौटाये तो खिन्न होकर मेरे बड़े भाई स्वयं दिल्ली गये और अपने सभी मूल कागजात डा. गोयनका से वापस ले आये। बातों ही बातों में एक बार जब उन्होंने अमृतराय को यह बात बतलाई तो वह बड़े आश्चर्य के साथ बोले, "अरे भाई, तुमने तो कमाल कर दिया। अब किसी तरह मेरे भी कागजात दिलवाने में मेरी मदद करो।" मेरे भाई ने उन्हें आश्वासन दिया कि अगली बार जब वह दिल्ली चलेंगे तो उन्हें भी साथ ले लेंगे और डा. गोयनका से कागजात वापस ले आवेंगे। दुर्भाग्यवश यह सुयोग नहीं बन पाया और कुछ समय बाद ही मेरे बड़े भाई का वर्ष 1990 के आरम्भ में आकस्मिक निधन हो जाने से बात जहाँ की तहाँ रह गई।
वाराणसी के स्व. मुरारी लाल केडिया के सुपुत्र गगनेन्द्र कुमार केडिया ने तो अपनी व्यथा सार्वजनिक रूप से व्यक्त करते हुए अपने एक लेख में यहाँ तक लिखा है कि - "उनकी (डा. कमल किशोर गोयनका) यदि कोई अंतरात्मा हो तो उससे निवेदन है कि सारी पाण्डुलिपियाँ (जो उनके पिता स्व. मुरारी लाल केडिया से प्रेमचंद पर शोध कार्य के लिये ले गये थे) मुझे वापस भेजकर अपने कुकृत्यों का प्रायश्चित्त कर लें, अन्यथा उनकी इस कृतघ्नता के लिए सम्भवतः ईश्वर भी उन्हें क्षमा नहीं करेगा। नाम और दाम से बढ़कर मन की शान्ति है जो सुयश से प्राप्त होती है। वह तो उन्हें कदापि नहीं मिलेगी। यदि वे मानव हैं तो आज भी उनके हृदय का कोई कोना तो उन्हें कचोटता ही होगा। मुझे पाण्डुलिपियाँ वापिस करके वे इन सबसे मुक्ति और मन की शान्ति क्यों नहीं प्राप्त कर लेते? नाम और नावा बहुत कमाया, अब तो बस करें, कहीं तो सीमा-रेखा खींचें।"
श्री केडिया के इस लेख को भी डा. प्रदीप जैन ने अपने शोध-ग्रन्थ में परिशिष्ट-6 के रूप में उद्धृत किया है, जो वास्तव में पठनीय है।
इस प्रकार के अनैतिक कार्यों को हिन्दी शोध-जगत् का एक शर्मनाक अध्याय माना जायगा। यदि शोधकर्मियों द्वारा ऐसी अनीति अपनाई जाने लगेगी तो शायद ही कोई व्यक्ति किसी शोधकर्मी की सहायता के लिये आगे आवेगा।
प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में परिशिष्ट-2 के रूप में शोधकर्त्ता डा. प्रदीप जैन लमही ग्राम स्थित प्रेमचंद जन्म-स्थल पर प्रेमचंद के प्रस्तावित स्मारक के निर्माण के सम्बन्ध में, मामले के विधिक पक्ष सहित सभी पहलुओं पर, विस्तार से प्रकाश डाल चुके हैं, फिर भी जन्म-स्थल के मूल दानकर्त्ताओं में से एक होने के नाते मैं अपने मन की पीड़ा व्यक्त करते हुए कुछ पंक्तियाँ और जोड़ना चाहूँगा। मूल दानकर्त्ताओं (स्व. महताबराय तथा उनके पाँचों पुत्रगण) ने प्रेमचंद जन्म-स्थल को दानपत्र द्वारा नागरी प्रचारिणी सभा को इसलिये अर्पित किया था कि सभा उस स्थल पर स्वयं तैयार की गई योजना (जिसे तैयार करने में स्व. महताबराय स्वयं भी एक सदस्य के रूप में भागीदार थे) के अनुरूप शीघ्र स्मारक का निर्माण करावेगी। सभा की ओर से स्व. महताबराय को इस आशय का स्पष्ट लिखित आश्वासन भी दिया गया था। दाताओं द्वारा जन्म-स्थल सभा को इसलिये दान नहीं किया गया था कि लगभग आधी शताब्दी तक स्वयं प्रस्तावित स्मारक का निर्माण कराने में विफल रहने के पश्चात् वह किसी अन्य को सम्पत्ति दोबारा दान देकर झूठा यश अर्जित करे और मूल दानकर्त्ताओं का नामो-निशान प्रेमचंद जन्म-स्थल से मिटा देने की साजिश रचे। इस प्रकार का दूसरा दानपत्र निष्पादित करना सभा के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। जिला प्रशासन और उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग का तथ्यों की पूरी तरह छानबीन किये बिना सभा की कपटपूर्ण कार्यवाही में सहयोगी बनना भी अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। सभा की इस दूषित मानसिकता से प्रेमचंद जैसे शीर्ष कथाकार के जन्म-स्थल का न केवल वास्तविक इतिहास बदल जायेगा, बल्कि देश की भावी पीढ़ी सदैव इस ऊहापोह में डूबती-उतराती रहेगी कि आखिर प्रेमचंद परिवार की पैतृक सम्पत्ति पर नागरी प्रचारिणी सभा का स्वामित्व कैसे स्थापित हो गया। प्रस्तावित स्मारक-स्थल पर देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा वर्ष 1959 में जो शिलापट स्थापित किया गया था, उसे भी साजिशन उखड़वा कर गायब कर देना न केवल तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय की अवमानना है, बल्कि वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों को मिटाने का कुत्सित प्रयास भी है। उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अब से भी मामले की सच्चाई का पता लगाकर अपनी पिछली गलती को सुधारे और सभा के षड्यंत्र में भागीदार बनने के कलंक से अपने को बचावे। साहित्य प्रेमियों का भी यह दायित्व है कि कि वे सभा की कपटपूर्ण कार्यवाही की कठोर शब्दों में भर्त्सना करें और एक कालजयी साहित्यकार के जन्म-स्थल का वास्तविक इतिहास मिटने से बचावें।
प्रेमचंद का इतना अधिक कथा तथा कथेतर लुप्त साहित्य प्रकाश में आने के बाद भी ऐसा लगता है कि उनकी कुछ और उर्दू-हिन्दी कहानियाँ तथा लेख अब भी यत्र-तत्र पुरानी पत्र-पत्रिकाओं में दबे पड़े हैं और उन्हें खोजकर प्रकाश में लाना अभी शेष है। दोनों भाषाओं में स्वतन्त्र लेखन करने वाले प्रेमचंद जैसे द्विभाषी लेखक की तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में जहाँ-तहाँ दबी पड़ी पुरानी सामग्री की खोज का कार्य काफी दुष्कर है। इसका मुख्य कारण है उस समय की पत्र-पत्रिकाओं का सुगमता से उपलब्ध न होना और दोनों भाषाओं का अच्छा ज्ञान रखने वाले खोजी प्रकृति के लगनशील शोधकर्मियों का अभाव। एक अन्य कारण यह भी है कि कभी-कभी प्रेमचंद ने कुछ रचनाएँ धनपतराय, नवाबराय या प्रेमचंद के अतिरिक्त कतिपय अन्य काल्पनिक नामों से भी लिखी हैं जिसकी जानकारी कम ही लोगों को है। ऐसे नामों से लिखी कुछ रचनाएँ प्रकाश में आ भी चुकी हैं। यद्यपि प्रचलित नामों के अतिरिक्त अन्य नामों से लिखी रचनाओं की संख्या बहुत अधिक तो नहीं प्रतीत होती, परन्तु अब भी कुछ रचनाएँ यदि कहीं दबी पड़ी हैं तो उन्हें भी खोजकर प्रकाश में लाना महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी जायगी। सौभाग्य से डा. प्रदीप जैन के रूप में एक ऐसे निष्ठावान और उत्साही व्यक्ति ने इस शोध-कार्य को अपने हाथों में लिया है जो हिन्दी साहित्य के विद्वान् होने के साथ ही उर्दू भाषा के भी अच्छे ज्ञाता हैं। विगत कुछ वर्षों से उनके द्वारा किये जा रहे महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य का ही परिणाम है प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ, जिसके माध्यम से प्रेमचंद की छह लुप्त कहानियों और सात लुप्त लेखों के साथ दिल्ली प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में दिया गया भाषण और अहमद अली, सज्जाद जहीर एवं पं. देवीदत्त शुक्ल के नाम लिखे गये अनेक दुर्लभ पत्र तथा सरस्वती प्रेस के विवाद के सम्बन्ध में प्रेमचंद-महताबराय के मध्य हुआ दुर्लभ पत्राचार भी प्रकाश में आ सका है। इस शोध-ग्रन्थ का विद्वत्तापूर्ण विस्तृत प्राक्कथन लिखकर डा. प्रदीप जैन ने उसका महत्त्व और भी बढ़ा दिया है। उन्होंने अभी जिन्दगी का अर्ध-शतक पूरा किया है और उनमें पर्याप्त ऊर्जा शेष है। जिस लगन, परिश्रम, उत्साह और निष्ठा के साथ वह प्रेमचंद के सागर सरीखे साहित्य के मंथन में लगे हुए हैं, उसे देखते हुए यह आशा की जानी चाहिये कि अभी कुछ और गड़ा हुआ धन उनके हाथ अवश्य लगेगा और ‘प्रेमचंद की शेष रचनाएँ’ का दूसरा खण्ड भी शीघ्र ही प्रेमचंद साहित्य के प्रेमी पाठकों के सम्मुख होगा।
कृष्ण कुमार राय
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