भूमिका / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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गता गीता शास्त्रां क्वचिदपि पुराणं व्यपगतम्।

विलीना: स्मृत्यर्था निगमवचनं दूरमगमत्॥

इदानीं रैदासप्रभृतिवचनान्मोक्षपदवी।

न जाने को हेतु: शिव शिव कलेरेष महिमा॥ 1॥

विद्वांसी मत्सरग्रस्ता: प्रभव: स्मयदूषिता:॥

अबोधोपहताश्‍चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्॥ 2॥

आजकल का समय बहुत ही विलक्षण हैं। जिधर दृष्टिपात करिए उधर ही विचित्र लीलाएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं। 'अपनी-अपनी डफली और अपनी-अपनी गीत' की ध्वनि, जिधर आँख उठाइए और कान दीजिए, उधर ही गूँज रही हैं। सभी लोग डेढ़ चावल की खिचड़ी पका रहे हैं। जो बात सामने आती हैं उसी का चटपट मनमाना फैसला कर देना प्रत्येक व्यक्‍ति के लिए एक साधारण बात हो रही हैं। सभी अपनी-अपनी उच्छृंखल और अनिश्‍चयपूर्ण सम्मति, हर बात में, देने को लालायित हो रहे और दे रहे हैं। जिसके मन में जो ही धुन समाई उसने चट लेखनी उठाई और उसे ही लिख मारा। जानने को तो संस्कृत का काला अक्षर भैंस बराबर, परंतु बड़ी-बड़ी व्यवस्थाएँ लिखी जाने लगी हैं। कोई तो अंग्रेजी की दो-चार किताबें पढ़ चट धर्म तथा जाति-पाँति के निर्णय करने का बीड़ा उठा लेता हैं और कोई थोड़ा-सा केवल ज्योतिष, व्याकरण अथवा काव्यादि ही पढ़ कर पूर्वोक्‍त विषयों में मनमानी बकने लगता हैं। आजकल की बड़ी-बड़ी समस्याएँ शीघ्र बोध और मुहूर्तचिंतामणि से ही हल होती हैं। पुराणों के आधार पर बड़े-बड़े तान टूटते हैं, परंतु पुराणों में उनकी गंध भी नहीं हैं। कितने ही नूतन काल्पनिक पुराणों की रचनाएँ और तांत्रिक तथा पौराणिक ग्रन्थों के नाम पर दो-चार श्‍लोकों का जिस किसी विषय में लिख देना ही आजकल के प्रखर पांडित्य का प्रतिफल हैं और इसी टट्टी की ओट में शिकार खेल कर अपने दिल की पुरानी कान निकाली जाती है, बाप-दादों के बदले चुकाए जाते हैं। इतना ही नहीं, इन्हीं कल्पित श्‍लोकों और दोहे-चौपाइयों के आधार पर दूसरे ग्रन्थ बनाए जाते हैं, ओैर उन्हीं के आधार पर तीसरे इत्यादि। वाह रे मानसिक प्रसादकल्पना! बस अब क्या हैं; इन्हीं कल्पित पोथी को ले कर पंडित से मूर्ख तक सब विषयों की व्यवस्थाएँ करने लग जाते हैं। क्या कहें, पढ़े-लिखे संसार में ही अंधेर मच रही हैं। चाँदनी रात में भी डाके पड़ना यह विचित्र और अघटित घटना आज देखने में आ रही हैं। जिस समाज के लोग आजकल के जैसे चार अक्षर पढ़े-लिखे भूत नहीं हैं उसकी तो दुर्दशा हैं; उसके लिए तो 'अंधों की गैया राम रखवैया' की बात हैं। सुना करते थे कि सरकारी बंदोबस्त के समय चतुर जमींदार सैकड़ों वर्ष के अनपढ़ और सीधे-सादे काश्तकारों को शिकमी लिखा लिया करते थे, या करते हैं। परंतु वह बात तो आज जाति-पाँति निर्णय के विषय में आँखों देखी जा रही हैं। पाठकों को उदाहरणार्थ 'वर्ण विवेक चंद्रिका' नामक चार पन्ने की पुस्तक का तत्व दिखलाते हैं। उसमें लिखा है कि 'पुराणं शूकराख्यं वै तंत्रां भुवलसंज्ञकम्। विलोक्य जातिबोधय रच्यते वर्णचंद्रिका॥ 2॥' इसका अर्थ यह है कि 'शूकर (वराह) पुराण और भुवलतन्त्र को देख कर जातियों का ज्ञान होने के लिए, वर्ण (विवेक) चंद्रिका नामक ग्रन्थ बनाता हूँ। परंतु यदि ग्रन्थकर्ता महाशय के बताए हुए बारह पुराण को देखिए तो उसमें जाति-विचार का गंध भी नहीं हैं, निरूपण तो दूर रहा। जिसको इसकी जाँच करनी हो, वह अन्यत्र मुद्रित तथा 'एशियाटिक सोसाइटी' कलकत्ता मुद्रित पुस्तक का अवलोकन करे। उसमें प्रत्येक अध्याय के विषयों का पृथक सूची पत्र भी दिया हुआ है और संपूर्ण पुराण का सारांश प्रति अध्याय के विषय सूचन द्वारा संक्षिप्त गद्यात्मक संस्कृत के 60 या 70 पृष्ठों में लिखा हुआ है। पं. ज्वाला प्रसाद का 'पुराणदर्पण' देखने से भी शीघ्र ही उक्‍त पुराण के विषयों का ज्ञान हो सकता है, और आद्योपांत पुस्तक देखने से तो शंका भी नहीं रह सकती हैं। यह तो हुई महाशय जी के बताए पुराण की कथा। अब दूसरे आधार 'भूवल तन्त्र' को देखिए। प्रथम तो यह नाम ही विचित्र हैं। क्योंकि ह्रस्व भु शब्दवाला नाम अप्रसिद्ध हैं। यदि 'भूवल' ऐसा नाम हो तो 'बृहज्जोतिषार्णव' ग्रंथांतर्गत पृथ्वी निरूपण प्रकरण में तीन ग्रन्थ इस तरह के मिलते हैं - (1) भूगोल वर्णनाध्याय, (2) भूवल निरूपणाध्याय, (3) मानध्याय गणित नाममालाध्याय। परंतु इन तीन ग्रन्थों में जातिनिरूपण प्रसंग ही नहीं। इस बात को लोग क्रमिक तीनों नामों, प्रसंग तथा ग्रन्थ नाम से भी अच्छी तरह समझ सकते हैं। साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि ग्रन्थकर्ता ने जाति विषयक दो प्रकरण अलग ही बनाए हैं - (1) ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड, (2) वर्णशंकरजातिनिरूपण। यदि ऐसा कहा जावे कि इस नाम का कोई तन्त्र ग्रन्थ हैं सो भी ठीक नहीं मालूम होता। क्योंकि मिथिला तथा अन्य देशीय बड़े-बड़े पण्डितों और तांत्रिकों से पूछने पर भी इस नाम के तन्त्र ग्रन्थ का पता न लगा। मुद्रित तन्त्र ग्रन्थों में तो इसका नाम भी नहीं हैं। क्योंकि मुद्रित तन्त्र ग्रन्थ ये हैं - (1) आश्‍चर्य योग रत्‍नमाला, (2) आसुरीकल्प, (3) इंद्रजाल, (4) उड्डीश, (5) काम रत्‍न, (6) क्रियोड्डीश, (7) गुप्तसाधन, (8) गौतम, (9) गंधोत्तम-निर्णय, (10) दत्तत्रेय, (11) धन्वंतरितन्त्र शिक्षा, (12) महानिर्वाण, (13) मन्त्रमहार्णव, (14) मन्त्रमहोदधि, (15) माहेश्‍वरी, (16) मेरु, (17) योगिनी, (18) योगमाला, (19) वधया, (20) सिद्धशंकर इत्यादि।

इनके अतिरिक्‍त 'एशियाटिक रिसर्चेज' (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में, जो सन 1801 ई. में छपा हैं, हिंदू जातियों के निरूपण प्रकरण के पृष्ठ 62 में कुछ तन्त्र ग्रन्थों के नाम 'दुर्गामहत्व' नामक तन्त्र ग्रन्थ के आधार पर गिनाए हैं, जिसका भावार्थ यह है कि (1) काली, (2) मुंडमाला, (3) तारा, (4) निर्वाण, (5) सर्वरसरण, (6) वीर, (7) शृंगार्चन, (8) भूत, (9) उड्डीशान, (10) कालिकाकल्प, (11) भैरवी तन्त्र,(12) भैरवीकल्प, (13) तोडल, (14) मातृबृहदच, (15) मायातन्त्र, (16) वीरेश्‍वर, (17) विश्‍वेश्‍वर, (18) समय तन्त्र, (19) ब्रह्म यामल, (20) रुद्र यामल, (21) शंकर यामल, (22) गायत्री, (23) कालिकाकुलसर्वस्व, (24) कुलार्णव, (25) योगिनी तन्त्र, (26) महिषमर्दिनी। हे भैरवि! यही तन्त्रग्रन्थ सर्वसाधारण में प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्‍त तन्त्र ग्रन्थों का पता नहीं चलता। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जाति निरूपण का जहाँ कहीं प्रसंग आया है, चाहे संस्कृत, हिंदी अथवा अंग्रेजी ग्रन्थों में, वहाँ केवल रुद्र यामल का ही लोग नाम लेते हैं। इससे यही स्पष्ट झलकता हैं कि जैसे बारहपुराण का नाम ग्रन्थकर्ता महाशय ने झूठ-मूठ लिया हैं वैसे ही या तो तन्त्र ग्रन्थ का कल्पित नाम रख दिया है, अथवा यदि ऐसा ग्रन्थ कहीं पर्वतादि के गुफाओं में मिले भी तो उसमें जाति का विचार नहीं हैं। उसका नाम यों ही धोखा देने के लिए लिया गया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि 'वर्णविवेक चंद्रिका' बहुत ही अल्पकाल हुए वेंकटेश्‍वर प्रेस में छपी हैं। यदि ग्रन्थकार को अन्य ग्रन्थों का प्रमाण देना था, तो उनके अध्याय आदि का तो नाम, कम से कम, दे देते। क्योंकि आजकल की प्रथा ऐसी ही हैं। परंतु उन्हें तो लोगों को भुलावा देना था, इसलिए तन्त्र ग्रन्थ का नाम लिया। क्योंकि वे आजकल प्राय: अप्रचलित हैं, इसलिए झुठाई का पता न लगेगा। परंतु यदि इस प्रकार से लिखना हो तो जिस किसी के भी विषय में तंत्रादि के नाम से बहुत से कल्पित श्‍लोक आदि कहे जा सकते हैं, जिससे हाहाकार मचने के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है। ऐसे ही स्वार्थन्ध और दुर्बुद्धि महाशयों ने पुराण आदि का नाम भी बदनाम कर दिया है। अत: उधर से लोगों को अश्रद्धा होने लग गई है। अस्तु, इसी 'वर्ण-विवेक चंद्रिका' के आधार पर पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र ने 'जातिनिर्णय' नाम का ग्रन्थ बनाया हैं। या यों कहना चाहिए कि भाषा में उसकी टीका कर के कुछ इधर-उधर से उसमें पैबंद लगा दिया है। उस ग्रन्थ में आप बहुत जगह लिखते हैं कि 'इति वर्णविवेक चंद्रिका'। क्या वर्णविवेक चंद्रिका भी कोई आर्ष ग्रन्थ हैं जिससे वह भी स्वतन्त्र प्रमाण मानी जावे? तो फिर कबीर साहब की साखी और दादू साहब की बानी तथा गुलबकावली आदि को भी क्यों न मानेंगे? बल्कि बाइबिल और कुरान को भी मान कर जाति-पाँति को ही धो देना चाहिए। यदि संस्कृत श्‍लोक या गद्यों ही पर अन्धविश्‍वास हो तो बाइबिल आदि का भी संस्कृत अनुवाद संतोष के लिए मिल सकता है। जातिनिर्णय ग्रन्थ को बना कर विद्यावारिधि जी ने अपनी विद्यावारिधिता का खूब ही परिचय दिया है! यदि वर्णविवेक चंद्रिका के श्‍लोकों को पुराणादि के वाक्यों द्वारा प्रमाणित कर देते तो और भी आपका यश नभोमंडल में छा जाता। परंतु दुर्भाग्य हम लोगों का कि वारिधि मिलने पर भी प्यासे ही रहना पड़ा! वारिधि जी की ज्वाला का विशेष परिचय आगे इस ग्रन्थ में ही करा कर आपका तथा वर्णविवेक चंद्रिकाकार का विशेष परिचय वहीं देंगे। दूसरी पोथी 'भूमिहारोत्पत्ति' नाम की लक्ष्मीवेंकटेश्‍वर प्रेस, बंबई में छपी हैं, जिसके अन्त में लिखा है कि 'इति श्रीस्कंदपुराणे पाताल खण्डे धर्मारण्यमहात्म्यवर्णने भूमिहारोत्पत्ति वर्णनं नामैकादशोध्याय:'। बस, अब क्या हैं, लोग देखते ही समझेंगे कि जिस विषय में ग्रन्थ और उसके अध्याय आदि तक लिखे हुए हैं उस विषय की पोथी कब झूठी हो सकती हैं? परंतु यदि स्कंदपुराण में ऐसी पंक्‍ति 11वें अध्याय में या अन्यत्र देख कर कोई इस ग्रन्थ की सत्यता की परीक्षा करना चाहे तो सिवाय पोल खुलने के और कुछ हाथ न लगेगा। प्रथम तो प्राचीन हस्तलिखित स्कंदपुराण में इन सब विषयों का जिक्र ही नहीं हैं। वहाँ तो धर्मारण्यखण्ड में अथवा ब्रह्मखण्ड में प्रदोष, शिवरात्रि आदि का निरूपण हैं। रह गई स्कंदपुराण के नाम से वेंकटेश्‍वर प्रेस में छपे पुराण की बात। उसके भी 10वें अध्याय में गोभुज बनियों का वर्णन तो अवश्य हैं। परंतु न तो उसमें कहीं भूमिहार शब्द ही आया है ओैर न इस विषय का कुछ पता ही हैं और अन्त में ऐसा भी नहीं लिखा है जैसा कि इति श्रीस्कंदपुराणे' इत्यादि ऊपर दिखला चुके हैं। साथ ही, उसमें भी जो बहुत से कुचर इत्यादि शब्द और श्‍लोक मिला कर मनमाना अर्थ किया है, उसका पर्दा उखेड़ प्रसंगवश पुस्तक में ही कर के ग्रन्थकार का पूर्ण परिचय देंगे। ऐसा ही 'जगतराय दिग्विजय' नामक ग्रन्थ में भी बिना प्रसंग के ही झूठ-मूठ कुछ लिख मारा हैं, क्योंकि जिस 'जगतराय' का दिग्विजय उसमें वर्णित हैं वह कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ है, जिसके यहाँ काशिराज मिलने को गए थे। और जो तिथि जगतराय के काशी में आने की उसमें लिखी हैं उस समय काशी में कोई हिंदू राजा ही नहीं था। इस बात को ग्रन्थ में ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा दिखला कर उस ग्रन्थ के वाक्यों की भी कठिन समालोचना की जावेगी। अन्त में मैं दो-एक हिंदी के ऐतिहासिक ग्रन्थों का दिग्दर्शन करा कर इस विषय को ही यहीं आगे के लिए छोड़ना चाहता हूँ। पहला ग्रन्थ 'विशेनवंश वाटिका' नाम का हैं जो खड्गविलास प्रेस में 1887 में छपा हैं। इसके विषय में इस जगह मुझे यही कहना हैं कि उस ग्रन्थ के नाम पर ग्रन्थकर्ता को केवल अपनी योग्यता की नोटिस देनी थी, क्योंकि ग्रन्थ के टाइटिल पेज पर आपने अपने सारे विशेषण लिखे थे ही, फिर उन्हीं की आवृत्ति 90वें पृष्ठ से ले कर प्राय: दो परिच्छेदों में की। परंतु जब उससे भी संतोष न हुआ तो पुस्तक के अन्त में भी अपनी प्रशंसा की बहुत सी सनदें पेश कर डालीं। दूसरी बात यह है कि आप उसी पुस्तक के 45-46 पृष्ठों में लिखते हैं कि 'शंकर दिग्विजय से स्पष्ट जाना जाता है कि मयूरभट्ट ही के समय में शंकराचार्य भी उत्पन्न हुए थे और शंकराचार्य को एक हजार वर्ष से कम न हुए, इसी से मयूरभट्ट के भी समय का अनुमान किया जा सकता है।' और फिर 53 से 55 पृष्ठ तक मयूरभट्ट से ले कर 114 राजाओं की वंशावली लिखी हैं और इस विषय में ईलियट साहब की भी सम्मति पृष्ठ 49 में दिखलाई हैं कि 'वर्तमान राज्यकर्ता मयूरभट्ट से 115 पीढ़ी में हैं।' पाठक इस जगह ही ग्रन्थकर्ता महाशय की सुबुद्धि का पता लगा कर संपूर्ण ग्रन्थ की बातों की सच्चाई-झुठाई समझ सकते हैं। बात यह है कि मयूरभट्ट से आज तक 115 राजाओं को गिना कर भी उनका समय 1000 वर्ष बताना, या उसे बता कर उन राजाओं को गिनाना उनकी अलौकिक बुद्धिमत्ता का फल नहीं तो और क्या हो सकता है? नहीं मालूम कि ग्रन्थ लिखने के समय दिमाग आकाश में चक्कर लगा रहा था या और कहीं गया था। ऐसी दशा में उनकी पवित्र लेखनी से जो कुछ भी न लिखा गया हो उसी में आश्‍चर्य हैं। एक जगह आप लिखते हैं कि 'यह महाशय (मयूरभट्ट) उसी ऋषिकुल के हैं, जिस ब्रह्मवंश में द्रोणाचार्य, भीष्माचार्य और रामाचार्य हुए। वाह-वाह क्या ही बुद्धिमत्ता हैं? मयूरभट्ट वत्सगोत्री भृगु, वत्स, च्यवनादि के वंश में हो सकते हैं। परंतु द्रोणाचार्य जी का भरद्वाज गोत्र था, क्योंकि महाभारत, आदि पर्व 168वें अध्याय में भरद्वाज से घृताची अप्सरा द्वारा उनकी उत्पत्ति लिख कर लिखा है कि 'वनन्तु प्रस्थितं रामं, भरद्वाजसुतोब्रवीत। आगतं वित्ताकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्ताम॥ 9॥ अर्थ यह है कि 'जब परशुराम जी पृथ्वी नि:क्षत्रिया कर के उसे कश्यपादि ब्राह्मणों को दे कर वन जाने लगे तब भरद्वाज के पुत्र ने उनसे जा कर कहा कि हे द्विजोत्ताम! मैं द्रोण हूँ और धन की इच्छा से आया हूँ।' फिर दोनों एक कुल के कैसे हुए? उस पर भी तुर्रा यह है कि उसी वंश में क्षत्रिय वंशोद्‍भव भीष्म पितामह तथा श्रीराम जी को भी आप लिख रहे हैं। वाह-वाह क्या ही अच्छा शास्त्र तथा व्यवहार का परिशीलन हैं। एक जगह आप लिखते हैं कि यद्यपि मिस्टर ईलियट के कथनानुसार मझौली राज्य मयूरभट्ट ने ही प्राप्त किया। परंतु पुराने कागजों में विशेन का ही प्राप्त करना सिद्ध होता है। तथापि यह विरोध ऐसा नहीं हैं जिससे अर्थभंग हो। एक तो आपको ऐसी दशा में, जबकि प्रबल इतिहासज्ञ अंग्रेज के साथ विरोध पड़ता हैं तो जैसे ग्रंथांत में आपने अपनी सनदें पेश की हैं वैसे ही उस कागजी प्रमाण को भी लिख देना था। क्योंकि आपके निज के सर्टिफिकेट से वह अधिक उपयोगी हैं। परंतु आपके पास तो कुछ हैं नहीं। केवल जगह-जगह कागजी प्रमाण कह कर लोगों को डरवाते और श्रद्धा पैदा करना चाहते हैं। दूसरे यदि ऐसे विरोध से ऐतिहासिक अर्थ का भंग नहीं तो आप भंग मानते हैं किससे? एक दूसरे से बिलकुल विरुद्ध कहे और फिर भी अर्थ भंग नहीं? बस, इसे यहीं रहने देते हैं। अवशिष्ट वक्‍तव्य प्रसंगवश आगे प्रकाशित करेंगे। क्योंकि बुद्धिमान इतने ही से उस ग्रन्थ की बातों का तत्व जान गए होंगे। दूसरा ग्रन्थ निरंजन मुखोपाध्याय रचित 'भारत वर्षीय राजदर्पण' हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ की बातों का खण्डन आगे करेंगे। परंतु उसका परिचय इसी जगह करा देना उचित होगा। ग्रंथावलोकन से यह स्पष्ट झलकता हैं कि उसका लेखक काशीराज का निपट द्रोही था। अतएव जिस किसी ग्रन्थ में भी उनकी प्रशंसा की बात लिखी गई है वह चाहे कितनी ही सत्य क्यों न हो, उस पर आक्षेप करना उसका मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। बनारस सूबे के इतिहास का जो प्रथम खण्ड आयरलैंड के इनवर्नेस प्रदेश में छपा हैं और जिसके प्रत्येक पृष्ठ में हर बातों पर सरकारी कागजों का नोट दिया हुआ है, उसके विषय में यदि कुछ भी बुद्धि न चली हैं तो भूमिका पृष्ठ 4 में लिख दिया है कि महाराज ईश्‍वरीप्रसाद नारायण सिंह ने अपने वंश को बढ़ा कर लिखवाने के लिए उसे छपवाया हैं और कहीं-कहीं वार्न हेस्टिंग्ज के समय के कागजों से उसको प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है। यह लेख कहाँ तक सत्य हैं वह उस पुस्तक के देखने से विदित हो जावेगा। फिर आगे भूमिका पृष्ठ 5 में आप लिखते हैं कि 'जब से मनसा राम मझवा ग्राम के पहलवान सिंह की नौकरी छोड़ कर आधे ग्राम के चतुर्थांश के एक अंश की मलिकाई से ऊँचे दर्जे पर चढ़े, तब से उन्होंने और उनके वारिसों ने सब तरह से स्वाधीन राजाओं के माफिक इज्जत के लिए कोशिश की हैं लेकिन उसे सरकार ब्रिटिश गवर्नमेंट ने कभी मंजूर नहीं किया है।' देखिए, इन कलुषतापूर्ण शब्दों से कैसा द्वेष झलकता हैं? विवेकी ऐसे शब्दों का प्रयोग कभी नहीं कर सकते। ब्रिटिश गवर्नमेंट ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया है, यह कहना तो उन्हीं महाशय को शोभा देता हैं। क्योंकि यदि गवर्नमेंट उसे न मानती तो द्विजराज महाराज काशीराज को स्वतन्त्र क्यों कर देती? हाँ, जब तक महाराज ने न चाहा था तब तक गवर्नमेंट को इससे मतलब ही क्या था कि उनको स्वतन्त्र राजा कहती फिरे? उसी जगह आपने फिर लिखा है कि 'वार्न हेस्टिंग्ज ने भी राजा चेतसिंह के साथ बराबर वैसा ही बर्ताव किया था जैसा जमींदार के साथ करना चाहिए।' परंतु जब आपने राजा चेतसिंह के बारे में कौंसिल में वार्न हेस्टिंग्ज द्वारा कही हुई बातों का पृष्ठ 21 में उल्लेख किया है तो वहाँ लिखते हैं कि हेस्टिंग्ज साहब ने कहा कि राजा के साथ एक निरूपित मालगुजारी पर इस्तमरारी बंदोबस्त किया जावे और उनके इलाकों के तमाम अख्तियार उन्हें दे दिए जावे जिसमें किसी तरह से पीछे उस पर दस्तंदा जी करने का अख्तियार न रह जावे और इलाके में रेजीडेंट भी न रहे। वे कंपनी को पटने के इलाके में मालगुजारी दाखिल किया करें। क्योंकि रेजीडेण्ट मोकर्रर होने से वे राज्य और राजा पर अपना अख्तियार जारी करने की कोशिश करेंगे और उनमें राजा के साथ उनका विवाद हो कर कौंसिल में हमेशा नालिश आया करेगी, जिसमें रेजीडेंट की बात में नि:स्संदेह विश्‍वास कर के राजा के विपक्ष में सब फैसला होएगा और पश्‍चात एतद द्वारा उनका सब नुकसान कर के उनको साधारण जमींदार की अवस्था में घटा ले आएगा। साथ ही, आप राजा चेतसिंह की सनद पेश करते हुए उनके दीवानी आदि के अधिकारों को भी स्वीकार करते हैं। फिर यह लिखना कि वार्न हेस्टिंग्ज का व्यवहार उनके साथ साधारण जमींदारों का-सा था कितनी बड़ी धृष्टता और द्वेष का फल हैं? आप सुबहान अली के बलवंतनामे की निंदा करते हैं, क्योंकि उससे काशीराज के महत्व की सूचना होती है। इसीलिए उस पर दिलोजान से रंज हैं। परंतु खैरुद्दीन के बलवंतनामे की आपने खूब प्रशंसा की हैं और उसे प्रामाणिक भी ठहराया हैं। तो भी कई जगह उसके भी विरुद्ध लिख कर काशिराज की निंदा करने से न हटे। दृष्टांत के लिए हम रुस्तम अली के मामले को उपस्थित करते हैं। पृष्ठ 6 में आप लिखते हैं कि 'सन 1734 ई. में जब अवध के नवाब ने रुस्तम अली पर खफा हो कर उन्हें बनारस से निकालने के लिए अपने नायब सफदरजंग को भेजा, तो रुस्तम अली ने मनसाराम को अपनी तरफ से उनको मनाने के लिए जौनपुर भेजा। परंतु मनसाराम ने अपने मालिक के साथ दगाबाजी कर के सफदरजंग के पास से बनारस, जौनपुर और चुनार के परगने अपने बेटे बलवंत सिंह के नाम बंदोबस्त करवा लिए' इत्यादि। अच्छा, अब खैरुद्दीन के बलवंतनामे को देखिए, जो गवर्नमेंट प्रेस, प्रयाग में 1875 ई. में छपा हैं। उसके 8 और 9 पृष्ठों में लिखा है कि - "However, in 1150 Hijree, being summoned by the Emperor Mahomed Shah to Delhi, he went, leaving his son-in-law, Nawab Abdul Munsur Khan, as his deputy. The enemies of Roostum Alee, finding this an opportunity, poured their complaints and accusations into the ears of Sufdar Jung , asserting that Roostum Alee paid no attention to state business, but spent all his time in persuit of pleasure; that he entertained enmity towards the servants of the state and meditated encroachment on the prerogative of Meer Murtaza; and thus they succeeded in causing Sufdar Jung to mistrust him. When Nawab Abdul Munsur Khan got wind of these accusations, he became greatly irritated and at once started from Fyzabad to infict chastisement. When he had reached Jaunpore, the wellwisher of Roostum Alee, who always had a spite against Munsaram, insinuated that he was the originator of all this ill-feeling; that openly he professed friendship but in his heart was contriving schemes to injure; and that he it was who had excited Sufdar Jung against him (Roostum Alee). Roostum Alee was thunder-struck at hearing all these stories and asked Raja Munsaram what they meant. Munsaram, a clever and open-minded man, assured Roostum Alee that it was impossible for him, whom he had raised from nothing, to be guilty of such treachery, and that it was merely the invention of enemies who were envious of Roostum Alee and also wished to injure him (Munsaram). To this Roostum Alee replied that if such was really the case, some steps must be taken to induce Sufdar Jung to return at once from Jaunpore to Fyzabad. Munsaram answered that any direct application to that effect would not do; but if Roostum would permit, he himself would proceed to the Nawab by making things smooth with the Nawab's ministers and presenting gifts to remove his suspicions; but he added that he felt doubtful about Roostum's feelings towards him while absent; that it was likely his enemies would take this chance of misrepresenting all his actions, and thus cause a coldness to arise between them in which case his efforts would be fruitless. Roostum Alee approved of Munsaram's plan, and assuring him of the continuance of his friendship, sent him with costly presents to the Nawab. Rajah Munsaram, on his arrival at Jaunpore and obtaining an audience, laid these presents from Roostum Alee before the Nawab, and by his address and knowledge of affairs, completely cleared the mind of the Nawab from the doubts he had regarding Roostum Alee, and brought him to look again with favour upon the latter. During the discussions about these affairs, Munsaram had offered an increase of Four Lakhs of rupees in revenue, if the four Surkars were continued to Roostum Alee, when a letter came from Boorhanoolmoolk to Sufdar Jung go the effect that the Ghazipur province was to be given to Sheikh Abdoollah. Munsaram, on hearing of this project, without consulting Roostum Alee strongly objected and the argument between the Nawab's ministers and Munsaram waxed hot on the point, when suddenly Sheikh Abdoollah appeared on the scene and bid eight lakhs additional for the four Surkars. Munsaram's enemies about Roostum Alee represented to him that all these proceedings were merely dodges of Munsaram, and succeeded in causing Roostum Alee to suspect him. An angry correspondence then began. Roostum showed displeasure openly to Bulwant Singh who was at his court, and permitted the enemies of Munsaram to attend and take part in his councils. By their advice, he sent another envoy to the Nawab, who was directed to carry on the negotiation, without consulting Munsaram, through some of the Nawab's ministers; and by no means to allow Munsaram to interfere. These things were soon known to Munsaram and grieved him greatly; he consulted those of his friends who were at Nawab's court, and was advised by them that, since his principal had thrown him over, his best plan was to act for himself in the business to spend money, and court the favour of the Nawab. Accordingly, as he fully perceived that his power in the country, and influence with Roostum Alee would go with his loss of favour, and not liking to fall back into a position of inferiority, he made overtures to Nawab's ministers and obtained their consent to getting the three Surkars by paying 13 Lakhs of rupees revenue..."

भावार्थ यह है कि '1150 हिजरी अर्थात 1732 ई. में बादशाह मुहम्मद शाह के बुलाने से नवाब सआदत खाँ अपने दामाद अब्दुल मंसूर खाँ (सफदरजंग) को अपना नायब बना कर दिल्ली चला गया। यह मौका पा रुस्तम के शत्रु सफदरजंग के कानों में शिकायतें यह कह कर भरने लगे कि रुस्तम अली राज्य कार्य की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देता, विषयासक्‍ति में अपना सब समय बिताता, राज्य के नौकरों से शत्रुता रखता और मीरमुर्तजा के अधिकारों को दबा लेने के लिए सोचा करता है। इस प्रकार से उन्होंने सफदरजंग के दिल में रुस्तम अली की ओर से अविश्‍वास पैदा कर दिया। जब नवाब सफदरजंग (अब्दुल मंसूर खाँ) के पास ये शिकायतें पहुँचीं तो वह बहुत ही नारज हुआ और तुरंत रुस्तम अली को दंड देने के लिए फैजाबाद से रवाना हुआ। जब वह जौनपुर पहुँच गया तो रुस्तम अली के खैरख्वाह ने, जो मनसाराम से सदा से विरोध रखता था, धीरे से यह उकसाया कि मनसाराम ही इस शत्रुता का कारण हैं। जो कि बाहर से वह मित्रता सूचित करता है, परंतु हृदय में आपके सताने की युक्‍तियाँ सोचा करता है। यही, शख्स हैं जिसने सफदरजंग को आपके विरुद्ध उभाड़ा हैं। रुस्तम अली इन बातों को सुन कर भौंचक्का-सा रह गया और उसने मनसाराम से पूछा कि इन सब बातों का अर्थ क्या हैं? मनसाराम ने, जो कि चतुर और प्रतिभाशाली पुरुष था, रुस्तम अली को निश्‍चय करवाया कि मेरे लिए इन सब छल-कपटों का अपराधी होना असंभव हैं, जिसे आपने एक तुच्छ दर्जे से ऊँचे पर चढ़ाया हैं। यह केवल शत्रुओं की मिथ्या कल्पना हैं, जो आपके द्वेषी हैं और मुझे भी सताना चाहते हैं। इस पर रुस्तम अली ने उत्तर दिया कि यदि सचमुच यह बात हैं तो सफदरजंग को जौनपुर से फैजाबाद तुरंत लौट जाने को राजी करने के लिए कोई उपाय करना चाहिए। मनसाराम ने कहा कि इस विषय में सीधा यत्‍न कुछ काम न करेगा। लेकिन यदि आप आज्ञा दे तो मैं स्वयं नवाब के मंत्रियों से मिल कर नवाब के पास जाऊँ और उसे नजर दे कर उसके संदेह दूर करूँ। लेकिन अपनी अनुपस्थिति में मुझे अपने साथ आपके बर्ताव का संदेह हैं; क्योंकि यह हो सकता है कि ऐसे समय में मेरे शत्रु मेरे सब कामों को आपकी दृष्टि में उलटा जँचा दे और इस तरह से मेरे-आपके बीच मनोमालिन्य पैदा कर दे; जिस दशा में मेरा यत्‍न निष्फल हो जावेगा। रुस्तम अली ने मनसाराम के उपाय को पसंद किया और अपनी मैत्री के स्थिर रखने का विश्‍वास दिला कर बहुत सी बहुमूल्य भेंट के साथ मनसाराम को रवाना किया। मनसाराम ने जौनपुर पहुँच अवसर पा कर दरबार में इन सब भेंटों को नवाब के सामने रख दिया और अपनी बातचीत और व्यवहारकुशलता से नवाब के चित्त को रुस्तम अली संबंधी सब संदेहों से बिलकुल रहित कर दिया और रुस्तम पर उसकी कृपादृष्टि उत्पन्न कर दी। जबकि इसी विषय के विवाद के समय मनसाराम ने कहा कि यदि चारों सरकारें रुस्तम अली के ही अधिकार में रहने दी जावे तो मैं चार लक्ष अधिक दूँगा, उसी समय एक पत्र बुरहानुल मुल्क (सआदत खाँ) के पास से सफदरजंग के नाम इस बात का आया कि सूबा गाजीपुर शेख अब्दुल्ला को दिया जावेगा। जब मनसाराम को यह मालूम हुआ तो रुस्तम अली से पूछे बिना ही इस बात को उसने बहुत ही रोका और मनसाराम तथा नवाब के मंत्रियों के बीच इस विषय पर बहुत कड़ा वाद-विवाद हुआ। परंतु उसी समय अकस्मात शेख अब्दुल्ला पहुँच गया और उसने चारों सरकारों के लिए 8 लाख और देने को कहा। इसी समय मनसाराम के शत्रुओं ने रुस्तम से कहा कि ये सब कार्रवाइयाँ केवल मनसाराम के ही छल हैं और ऐसा कह कर रुस्तम अली का उसकी ओर से शक पैदा कर दिया। उस समय चिढ़-चिढ़ी की लिखा-पढ़ी होने लगी। रुस्तम ने बलवंत सिंह के प्रति, जो उस समय दरबार में उपस्थित थे, अपनी अप्रसन्नता सूचित की और मनसाराम के शत्रुओं को दरबार में भाग लेने और उपस्थित होने की आज्ञा दे दी और उन लोगों की राय से दूसरा राजदूत नवाब के पास भेजा, जिसको समझा दिया कि बिना मनसाराम के पूछे ही नवाब के कुछ मंत्रियों द्वारा बातचीत करें और किसी प्रकार से भी मनसाराम को दखल देने न दे। जब यह बात मनसाराम को मालूम हुई तो उसको बहुत ही दु:ख हुआ। उसने अपने मित्रों से जो कि नवाब के दरबार में थे, सलाह की। उन्होंने राय दी कि जबकि आपके मालिक ने आपको बेइज्जत या अलग कर दिया, तो आपके लिए सबसे अच्छी बात यह है कि अब अपने ही लिए इस विषय में यत्‍न करें, रुपए खर्चें और नवाब को अपने पक्ष में लावें। इसी के अनुसार जबकि मनसाराम ने भी खूब विचार किया कि मेरे ऊपर रुस्तम को नामिहरबानी के साथ उसके ऊपर मेरा प्रभाव और देश के ऊपर अधिकार भी जाता रहेगा और तुच्छ हो कर रहना भी अच्छा नहीं हैं तो, उसने नवाब के मंत्रियों से बातचीत की और 13 लाख रुपए मालगुजारी पर तीनों सरकारों को पाने की मंजूरी उसने कर ली।'

बस अब पाठक लोग ही निरंजन मुखोपाध्याय की दी हुई इस मामले की तारीख और इस मामले का मिलान कर ले। आपने यह भी भूमिका में ही लिख दिया है कि खैरुद्दीन ने चेतसिंह के परम विश्‍वासी बाबू औसान सिंह की जो शिकायत की हैं उसे छोड़ कर और सब कुछ उनका लिखा ठीक हैं। परंतु आगे चल कर आप ही लिखते हैं कि बनारस राज्य के असली अधिकारी मनिहार सिंह को छल-कपट से हरा कर ही औसान सिंह ने चेतसिंह को राजा बनाया। दूसरी जगह और भी लिखते हैं कि वार्न हेस्टिंग्ज की तरफ 2 लाख रुपयों के लिए हुकुम आदि जारी करवाना बाबू औसान सिंह का ही छल तथा द्वेष था। क्योंकि उनकी गद्दी दिलवा कर उसके ऊपर वे अपना अधिकार आदि जमाने की इच्छा किए हुए थे। भला इसको निंदा नहीं कहते हैं तो क्या कहते हैं? बलिहारी हैं ऐसे पूर्वापर विरुद्ध लेखक की बुद्धि की! आप लिखते हैं कि मनसाराम ने बलवंत सिंह के साथ 1738 ई. में धूमधाम से राजा के ठाटबाट में काशी में प्रवेश किया। परंतु उसी बलवंतनामे के दसवें पृष्ठ में लिखा है कि "Rajah Munsaram arrived at Benares on the 21st day of the month Safar in the year 1151, Hijree, and at once entered upon the Government of his three provinces..." अर्थात 'राजा मनसाराम 1151 हिजरी (सन 1733 या 34) के सफर महीने की 21वीं तारीख को बनारस पहुँचे और उसी समय अपने तीनों सरकारों के राज्य पर अधिकार किया इत्यादि'। इसी से विचारा जा सकता है कि ऐसे लेखक महाराज द्विजराज श्री काशीराज, अथवा भूमिहार ब्राह्मण समाज मात्र के विषय में या दूसरों ही के विषय में जो कुछ लिख डालें उसी में आश्‍चर्य हैं। परंतु उनकी बातें कहाँ तक सत्य हो सकती हैं, इनके कहने की अब आवश्यकता नहीं हैं। विशेष रीति से निरंजन मुखोपाध्याय के वाक्यों का विचार ग्रन्थ में ही चल कर करेंगे। आश्‍चर्य तो इस बात का हैं कि ऐसे आदमियों के वाक्यों को भी ऋष्यादि वाक्यों की तरह प्रामाणिक मान और हवाला दे कर बाबू हरिश्‍चंद्र-ऐसे लेखक भी अकांड तांडव करने में न चूके। नहीं तो भला बताइए, 'मुद्राराक्षस' की टीका करने में भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति लिख कर राक्षसी मुद्रा दिखलाने की क्या आवश्यकता थी? यदि हँसुए के ब्याह में खुरपे की गीत ही गानी थी तो आपने अपने ही घर का विचार कर के संतोष क्यों न कर लिया?

बाबू रामदीन सिंह तो उनके गहरे चेले ही थे, अत: उनसे भी 'बिहार दर्पण' में गुरु जी का अनुसरण किए बिना न रहा गया। क्या बिहार में आपका और गुरु जी का वंश नहीं हैं? यदि बड़े भारी योग्य हुए तो घर तथा गुरु घराने के ही इतिहास भवन में दीपक क्यों न जलाया? यदि हम भी 'शठे शाठ्‌यं कुर्यात्' के अनुसार ऐसा ही करने लग जावे तो जीवितों के कौन कहे मरे हुओं के भी कलेजे फट जावे, और हाहाकार मच जावे। परंतु हमको इस व्यर्थ तथा निष्प्रयोजन झगड़े से मतलब ही क्या हैं? बहुत सी बेसिर-पैर की तथा द्वेषपूर्ण व्यर्थ बातों का लिखना एवं निष्प्रयोजन किसी का कलेजा दुखाना आप जैसे ही सत्पुरुषों को मुबारक हो। बस, यहाँ पर इतना ही। आप लोग घबड़ावें न। आप लोगों का विशेष विचार प्रकृत विषय को ले कर ग्रन्थ में ही किया जावेगा।

एक और महात्मा का नाम प्रसंगवश याद आ गया। अत: पाठकों को उनका भी कुछ परिचय करा देना उचित समझता हूँ। आपका शुभ नाम था पं. दुर्गादत्त परमहंस। आप डुमराँव के निवासी थे और अपने विषय में बहुत डींगें हाँका करते थे, जैसा कि आपने अपने दिग्विजय में लिख-लिखा दिया है। आप अपनी दिग्विजयनाम्नी उस पुस्तिका में जगत्प्रसिद्ध धुरंधर विद्वानों की भी अवहेलना करने में न चूके। आप लिखते हैं कि हमने श्रीयुत गंगाधर शास्त्री, श्रीयुत राजाराम शास्त्री तथा श्री बालशास्त्री प्रभृति गणनीय विद्वानों को परास्त किया। भला, इतने ही अल्पकाल की बात की ऐसी बनावट! आपने इसके गवाह न लिख दिए, जिससे संभवत: किसी को शंका होती तो मिट जाती। ऐसा करने में शायद आप समझते थे कि हाल की बात हैं। इसलिए ढँकी-ढँकाई बातों का भंडाफोड़ हो जावेगा तो फिर चेलों में अप्रतिष्ठा हो जावेगी। यदि आप ऐसे अद्वितीय विद्वान थे तो आपकी प्रसिद्धि ब्रह्मांडांतर तक होनी चाहिए थी; क्योंकि पं. बालशास्त्री आदि को ही समग्र भारत वर्ष जानता हैं और ठहरे आप उसके विजेता! परंतु शोक हैं कि आपको तो दूसरे जिले के भी लोग प्राय: न जानते होंगे।

एक बात और भी आप लिखते हैं कि उनके ही समय में थोजेंद्र नाम का राजा डुमराँव में था जो प्रति नूतन श्‍लोक के लिए एक लाख मुद्रा देता था इत्यादि। भला इस बात का कोई ठिकाना हैं? उस समय तथा पूर्व के बाद के डुमराँव-नरेशों को कौन नहीं जानता? आप समझते थे कि भारतवर्ष भोलाभाला ही हैं। हमारे बराबर भी किसी को सुबुद्धि नहीं हैं। सब लोग भोज के नाम पर ही भूल जाएँगे। इसीलिए सरासर असत्य भाषण में जरा भी न हिचके। आपने अपनी परमहंसता खूब ही दिखलाई! अब, ऐसे महात्मा पुरुष जिस किसी के विषय में जो कुछ लिख देंगे उसमें कितना लेश सत्य का होगा इसे बुद्धिमान लोग स्वयं समझ लेंगे। आपकी विशेष लीला आगे आपके बनाए भानमती के पिटारे को ही खोल कर दिखलाएँगे।

यह तो हुई संस्कृत और हिंदीदाँओं की विचित्र कथा। अब अंग्रेजीदाँओं का भी थोड़ा परिचय कर लीजिए। आजकल के लोग परछिद्रान्वेषण में बहुत तत्पर हो रहे हैं और 'अपना ढेंढ़र न देख कर दूसरे की फुल्ली निहारने' वाले किस्से को चरितार्थ करने में जरा भी संकोच नहीं करते। बस चटपट किसी अंग्रेज की बनाई किताब की दो-चार बातें किसी जाति के विषय को देख कर तदनुसार ही फोनोग्राम की तरह स्वर भरने लग जाते हैं। इतना भी नहीं विचारते कि मेरे विषय में उन्हीं अंग्रेजों ने लिखा है, उसे भी तो जरा देख लूँ। उन्हें इससे मतलब ही क्या हैं? दूसरे की झूठमूठ हँसी-ठट्ठा कर के केवल अपने पवित्र चित्त को संतुष्ट करना है। उन्हें बकरे की जान की क्या पड़ी हैं? केवल अपनी लोलुप जिह्ना के स्वाद से ही प्रयोजन हैं। साथ ही, यह भी बात हैं कि यदि वे लोग अपनी जाति तथा दूसरे की दुर्दशा उन्हीं अंग्रेज लिख्खाड़ों द्वारा की गई देख ले तो फिर उनकी आई-बाई हज्म हो जावे; और लिखने का रोजगार ही मारा जावे; जिससे दूसरों के सामने पूँछ हिला कर चार पैसे कमा सकना भी असंभव हो पड़े। क्योंकि दूसरे की निंदा करने से ऐसी दशा में वे इसलिए डरेंगे कि इन्हीं ग्रन्थों को देख कर दूसरे भी धज्जियाँ उड़ाने लग जावे। अत: वे लोग कूपमंडूक बनना ही अपने रोजगार कायम रखने के लिए पसंद करते हैं। अथवा बहुतेरे जान बूझ कर भी अपनी सज्जनता का परिचय इसलिए देते हैं कि कोई मेरे विरुद्ध लिखेगा ही क्यों कर? क्योंकि वे मद में फूले रहते हैं कि ये पुस्तकें देख ही कौन सकता है? और यदि कोई लिखेगा भी तो यह कह कर निकल जाएँगे कि 'जूते तो उसने अवश्य मारे, परंतु वे लाल थे'। परंतु इसको बुद्धिमानी और भलेमानुसी नहीं कहते।

लेखक को चाहिए कि जो कुछ लिखे उसका पूर्वापर विचार लेवे। केवल अंग्रेज लेखकों की दो-चार बातों पर भूल कर किसी का दिल व्यर्थ ही दुखाना या उसकी हँसी-ठट्ठा करना अच्छा नहीं हैं। क्योंकि किसी देश की रस्म-रिवाज तथा जाति-पाँति के विषय में लिखनेवाले अंग्रेजों का यह पूर्व से ही अटल सिद्धांत रहता हैं कि जैसे हम लोगों में इसका विचार नहीं हैं वैसे भी भारतादि देशों में भी प्रथम नहीं था। बस, इसी सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए वे लोग दिलोजान से परिश्रम करते और छिद्रान्वेषण करते रहते हैं। अन्त में पुराणादि के दो-चार आख्यानों तथा आचार-व्यवहारों को पढ़, सुन कर सब जातियों के धोने में अग्रसर हो जाते हैं। उनको इस प्रकार सब जातियों को हल कर एक सिद्ध करने में जनसाधारण की कल्पित किंवदंतियाँ बड़ी ही सहायक हुआ करती है। इसीलिए इस तरफ उनका ध्यान बहुत ही रहा करता है और प्राय: उनकी सभी पोथियों में इनकी भरमार पाई जाती है और इन्हीं तथा दो-चार वर्तमान आचारों के आधारों पर वे अपने मनोराज्य किया करते और तदनुगुण सिद्धांतों को निकाला करते हैं। यदि आगे प्रसंग होगा तो हम उनकी इस किंवदंती आदि वाली शैली को स्पष्ट दिखलाएँगे। लेकिन इनके आधार उनके ऐसा करने में उनका अपराध ही क्या कहा जा सकता है? अपराध तो सरासर हम भारतीयों का हैं, जो एक-दूसरे के निपट द्रोही बने हुए हैं। जहाँ एक ही जाति में एक-दूसरे को नीच बनाने का रात-दिन यत्‍न हो रहा हैं और इसकी पूर्ति के लिए गढ़ंत पुस्तकें लिखी तथा नई-नई किंवदंतियाँ गढ़ी जा रही हैं, वहाँ एक जाति दूसरे के साथ ऐसा न करे इसमें आश्‍चर्य ही क्या हैं? अन्त में फल इसका यह होता है कि जो दूसरे की निंदा के लिए ऐसी कुछ कल्पना करता है वह भी उसकी निंदा के लिए ऐसा ही किया करता है और ऐसा करने में बड़े-बड़े ग्रन्थ, पुराण तथा उपपुराणों के नाम से रच दिए जाते हैं। कहीं-कहीं प्राचीन ग्रन्थों में ही कुछ मिला दिया जाता है या बड़े-बड़े कल्पित इतिहास तथा उपन्यास तैयार करा कर उनमें ही कुछ-न-कुछ सटा दिया जाता है। जिसका प्रतिफलरूप महान अनर्थ यह हो जाता है कि वे वैदेशिक लोग उन्हीं बातों तथा किंवदन्तियों को ले उड़ते और उसी आधार पर सभी जातियों को स्वाहा कर डालते हैं और उन्हीं की कल्पित बातों को ले कर आजकल हमारे नई रोशनीवाले बहुत से अंग्रेजी तथा हिंदी ग्रन्थों, समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के मनमाने लिख्खाड़ भी फैसला करने लग जाते हैं। धिक्कार हैं हम लोगों की आर्यता, भारतीयता और हिंदूपन को! हम इस प्रकार दूसरे के पाँव चलनेवाले हो गए कि अन्त में जाति-पाँति और धर्म के विषय में उन्हीं के ग्रन्थों का प्रमाण देते हुए लज्जा भी नहीं करते और न पूर्वापर विचार ही करते हैं।

वैदेशिक लोग यदि हमारे ही देश में जन्म बितावें तब भी हमारे आचारों तथा विचारों के पूरे-पूरे ज्ञाता नहीं हो सकते। फिर 2-3 या 10-20 वर्ष ही रहनेवालों की बात ही क्या हैं! परंतु हम लोग तो इतने बह गए कि इस विषय में भी उन्हीं का उच्छिष्ट स्वीकार करने लग गए हैं। हमारी बुद्धि इस प्रकार मारी गई है कि हम अपने ही देश, जाति और कुल के मनुष्यों को नीच बनाने के लिए सहस्रों कुकल्पनाएँ तथा रचनाएँ करने में तनिक भी नहीं हिचकते; जिसका फल यह होता है कि हम भी उसी अंधाकूप में बलात् ढकेले जाते हैं। क्या ब्राह्मणों में ही परस्पर एक-दूसरे को सवालक्खी बनानेवाले यह नहीं जानते कि वह भी हमारे विषय में ऐसी ही कुछ कल्पनाएँ करेगा? और जब साक्षात् या परम्परा या हमारे साथ उसका ब्याह सम्बन्ध या खान-पान हैं तो फिर हम क्या होंगे? परंतु फिर भी द्वेष या पक्षपात ऐसी वस्तु हैं कि उनसे यह बात करवा ही डालती हैं। जिसका फल यह होता है कि उनको लाचार हो कर वैदेशिकों की दुरुक्‍तियों तथा निंदाओं का लक्ष्य बनना पड़ता हैं। ऐसी ही दशा अन्य जातियों के भी विषय में तथा परस्पर दो जातियों की भी जाननी चाहिए। हाँ, ब्राह्मणों में जरा इनकी विशेषता होते-होते पराकाष्ठा हो गई है। क्योंकि उन्हें तो 'ब्राह्मणो ब्राह्मणं दृष्ट्वा श्‍वानवद् गुर्गुरायते' अक्षरश: सिद्ध करना है और अब विशेष योग्यता के रह जाने से, अविद्यांधकार की बहुलता और व्यक्‍तिगत स्वार्थांधता के कारण एक-दूसरे की आँखें तेली के बैल की तरह बंद कर के ही अपना कार्य साधना चाहते हैं; छल-कपट तथा दंभ से ही अपनी पूर्व प्रतिष्ठा रखने का अब यत्‍न किया जाता है।

बस, इन्हीं सब बातों को देख कर वैदेशिक लोग इन्हें किताबों में ज्यों की त्यों लिख पुरोहित दल को स्वार्थी कह कर उसकी मट्टी पलीद किया करते हैं। अंग्रेजों के ग्रन्थों में से दो-एक को छोड़ कर सभी के देखने से यही सिद्ध होता है कि याचक ब्राह्मण (पुरोहित), भाट, नाई, बारी, भर और कुर्मियों आदि; राजपूत, जाट, कहार, भर, राजभर, अहीर, पासी और कुर्मियों एवं कायस्थ, भड़भूँजा कहारादि में कुछ भी भेद नहीं हैं। यही लोग क्रमश: याचक ब्राह्मण, राजपूत तथा कायस्थादि बन गए हैं। अत: इनको प्रमाण मान कर उसी आधार पर किसी की जाति का निर्णय करना सभी जातियों की संकरता का सूत्रपात करना है। अत: मेरी समझ में कम-से-कम जाति तथा धर्म के विषय में इनका नाम भी लेना उचित नहीं हैं। हाँ, ऐतिहासिक अंश में वे प्रमाण माने जा सकते हैं, जिसको उन्होंने पालि तथा ग्रीक आदि ग्रन्थों और प्राचीन शिलालेखों आदि के आधार पर लिखा है। परंतु उस आधार पर जो सिद्धांत (theory) वे निकालने लग जाते हैं उस अंश में वे माने नहीं जा सकते। अतएव मैं इस ग्रन्थ में केवल ऐतिहासिक अंश में ही जहाँ-तहाँ उनकी सम्मतियाँ प्रमाण रूप से उद्धृत करूँगा। हाँ, उनके जो कुतर्क और कुकल्पनाएँ कहीं-कहीं अयाचक ब्राह्मण समाज के विषय में आपातत: लक्षित हुई हैं, अथवा उन्हीं भित्तियों पर हमारे देशीय नवीन बाबुओं ने जो मानसिक प्रसाद खड़े किए हैं उनके ध्वंस करने के लिए 'मियाँ जी की जूती और मियाँ जी का सिर' इस न्यायनुसार उनका अवलंबन कहीं-कहीं करूँगा, न कि स्वतन्त्र प्रमाण रूप से। अथवा दो-एक जगह 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से ही उन महाशयों का नाम स्मरण करूँगा, क्योंकि आजकल के अर्द्धदग्धा बाबू लोग उन्हीं के वाक्यों को इस विषय में भी ब्रह्मा, व्यास तथा वसिष्ठादि के वाक्यों से बढ़ कर माननेवाले हैं और उन्हें उनके बिना संतोष नहीं होता उनके मनाने को दूसरा उपाय ही क्या हैं? और हमको तो मानना ठहरा सभी को।

यद्यपि ऐतिहासिक अंश में भी हम उन्हें न मानते, यदि हमारे घर में ही पूर्ण सामग्री उसकी भी होती। परंतु हम लोगों ने तो पौराणिक काल के बाद से या तो इतिहासों का लिखना ही छोड़ दिया, या लिखा भी तो उसे भी उपन्यास, नाटक अथवा प्रहसन ही बनाने में दत्तचित्त हो कर सत्यांश को बिलकुल तिलांजलि ही दे दी, और राग-द्वेष में आ कर जिसके विषय में जैसा मन में आया लिख कर बदला चुका लिया। इसलिए हार मान कर तत्वजिज्ञासुओं को आज तक के इतिहास को शृंखलाबद्ध करने के लिए पालि, ग्रीक तथा तन्मूलक वैदेशिक वाक्यों का अवलंबन करना ही पड़ता हैं और ऐसा करने में कुछ हानि भी नहीं हैं। परंतु धार्मिक तथा जातीय अंश में तो उनको मानने में विशेष कर या तो उच्चजातियों की दुर्दशा हैं, या जिनकी किसी प्रकार से प्रसिद्धि हैं और संसार में किसी-किसी अंश अथवा बहुत से अंशों में प्रतिष्ठित समझे जाते हैं उनकी। जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय या राजपूत, अग्रवाले, खत्री, कायस्थादि।

मैंने अंग्रेजी ग्रन्थों में लिखा हुआ प्रत्येक जाति का तत्व जानने के लिए जिन ग्रन्थों का प्राय: आद्योपांत अवलोकन किया है उनके नाम ये हैं ─

(1) टाड साहब का राजस्थान (Tod's Rajasthan),

(2) डब्ल्यू. एच. ईलियट कृत भारतवर्ष का इतिहास (W.H.Elliot's History of India),

(3) सन 1865 से 1911 तक की भिन्न-भिन्न प्रांतों तथा समस्त भारतवर्ष की मनुष्य-गणना का विवरण (Census report of India, from 1865 to 1911),

(4) नेविल का संयुक्‍त प्रांत का गजेटियर (Nevill's Gaetteer of N.W.P.)

(5) फिशर का संयुक्‍त प्रांत का गजेटियर (Fisher's Gazetteer of N.W.P.),

(6) शेरिंग का भारतीय जाति विवरण (Tribes and Castes of India by M.A. Sherring)

(7) रिजले का भारतीय मनुष्य (H.M. Risley's People of India),

(8) डबोइस कृत भारतीय मनुष्य संबंधी रस्म-रिवाज आदि का विवरण (Description of the Character, Manner and Customs of the People of India by J.A. Dubois),

(9) क्रुक का संयुक्‍त प्रान्तीय जाति विवरण (Crooke's Tribes and Castes of N.W.P.), (

10) नेस्फील्ड का संयुक्‍त प्रान्तीय संक्षिप्त जाति विवरण (Brief views of the Castes System of N.W.P. and Oudh by J.C. Nesfield M.A.),

(11) डॉक्टर विल्सन कृत भारतीय जाति (Dr. Wilson's Indian Caste),

(12) डॉ. ओल्डहम कृत गाजीपुर आदि का विवरण (Dr. Oldham's Memoir of Ghazipur etc.),

(13) ईलियट की सप्लीमेंटल ग्लासरी (H.M. Eliot's Supplemental Glossary),

(14) बौद्धकालिक भारत (The Buddhist India by Rhys David),

(15) प्राचीन भारत, मेक्क्रिंडिल कृत (Ancient India by J.W. Mc. Crindle),

(16) एलफिंस्टन कृत भारतीय इतिहास (History of India by Hon. Elphinston),

(17) बलवंतनामा (Bulwant Namah Translated by Fredrick Curven),

(18) आईन-ए-अकबरी (Ain. i. Akbari Translated by Col. Jarrett),

(19) एशिया संबंधी अंवेषण (Asiatic Researches by Jonaathan Duncan etc.) इत्यादि।

इसके अतिरिक्‍त और भी बहुत सी छोटी-बड़ी अंग्रेजी किताबों का अवलोकन किया है। जिनमें केवल प्राय: शेरिंग को छोड़ कर (क्योंकि उन्होंने बहुत जाँच कर जैसा पाया हैं वैसा ही लिख दिया है और उससे कोई सिद्धांत (theory) सिद्ध नहीं किया है। अत: उनका लेख प्राय: विश्‍वसनीय हैं) सबों ने प्रसिद्ध जातियों का विशेष कर बहुत ही परिहास किया है और बहुत-सी किंवदंतियों आदि के आधार पर सभी को जैसा कि पहले कह चुके हैं, एक सिद्ध करने का खूब ही यत्‍न किया है। बल्कि एक प्रकार से अयाचक ब्राह्मणों (भूमिहार आदि ब्राह्मणों) को बाल-बाल बचा दिया है। क्योंकि इनके विषय में दो-एक किंवदंतियाँ मात्र कहीं-कहीं लिख-भर दी हैं और फिर उनका खण्डन भी अपने आप ही कर दिया है, जैसा कि आगे चल कर विदित होगा। परंतु उन किंवदंतियों के आधार पर इनके विषय में कोई सिद्धांत (theory) नहीं निकाला हैं। बल्कि खुले शब्दों में स्वच्छ आर्य संतान कहा और चेहरे-मोहरे तथा चाल-व्यवहार से सिद्ध भी कर दिया है। परंतु याचक ब्राह्मण, राजपूत तथा कायस्थादि के विषय में बहुत-सी किंवदंतियों तथा आचार-व्यवहारों को लिख कर उनके आधारों पर बहुत से सिद्धांत निकाले हैं, और इस तरह सभी को रसातल पहुँचाने तथा संकर कर देने में कुछ भी नहीं छोड़ रखा हैं। इसलिए मैं अथवा कोई भी आस्तिक पुरुष उनके वाक्यों को इस विषय में प्रमाण मानने का साहस भी नहीं कर सकता, उनके आधार पर किसी बात का निर्णय करना तो दूर रहा। मेरा विचार जहाँ तक हैं, ऐसी दशा में किसी भी जाति-पाँति के माननेवाले असली भारत संतान की लेखनी केवल उनके आधार पर नहीं उठ सकती और यदि उठेगी तो उसकी भारत-संतानता में ऐसी दशा में अवश्य संदेह किया जा सकता है और किया जावेगा।

सारांश यह है कि उनके आधार पर कुछ भी किसी समाज के विषय में लिख डालना प्रबल निर्लज्जों का ही काम हैं, न कि भद्र पुरुषों का। इसलिए अन्त में मेरी प्रार्थना उन सज्जनों से, जिनको फिर भी उन्हीं आधारों पर लिखने की असदाग्रहपिशाची ग्रसे हुए हैं, यही हैं कि वे लोग किसी भी समाज का व्यर्थ दिल दुखाने के लिए कुछ वाक्य बाण चला कर अपनी सज्जनता का परिचय अवश्य दे। परंतु लिखने से पहले उन सभी ग्रन्थों में अपने समाज का भी किया गया सत्कार पूर्ण रीति से देख ले। नहीं तो मुँह ही खानी पड़ जावेगी और लेने के देने भी पड़ जाएँगे। किं बहुना, 'रोजा को गए नमाज गले पड़ी' वाली कहानी चरितार्थ होने लग जावेगी।

एक बात और भी विचारने की हैं कि वायुपुराण के अध्याय 59 में लिखा हुआ है कि 'इज्यावेदात्मक: श्रौत: स्मात्तरो वर्णाश्रमात्मक:। 39।' अर्थात्, 'यज्ञ तथा वेदादि का पढ़ना वगैरह श्रौत (श्रुतिसिद्धि) धर्म है और वर्णाश्रम विभागदि स्मार्त्त (स्मृति सिद्ध) धर्म है। याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है कि 'पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांग मिश्रिता:। वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश। 3।' भाव यह है कि 'पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, चारों वेद और षडंग ये ही विद्या और वर्णाश्रमादि धर्म के स्थान हैं।' मनु जी ने भी लिखा है कि 'वेद: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:। एतच्चतुर्विधांप्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।' अ.2 श्‍लो. 12। जिसका अर्थ यह है कि 'वेद, मन्वादिस्मृति तथा पुराणादि, सत्पुरुषों का आचरण और जहाँ पर दो कामों में से किसी एक को करना हो वहाँ पर अपनी इच्छा ये ही साक्षात जाति, वर्णादि धर्मों के बतानेवाले हैं।' सबका तात्पर्य यह है कि वर्ण, आश्रम आदि विभाग, जाति-पाँति का विचार तथा प्रत्येक धर्म ये सब श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणादि द्वारा ही जाने जाते हैं; क्योंकि ये सब विभाग आधुनिक लोगों के बनाए हुए नहीं हैं, किंतु प्राचीन महर्षियों के ही किए हुए हैं। इनके नियमादि और पहचान पुराण तथा स्मृतियों में उन्होंने लिख दिए हैं, न कि अंग्रेजी पोथों में इनका वर्णन किया गया है। अत: जिसको जाति विभाग तथा उसके धर्म आदि जानने की इच्छा होगी, वह उन्हीं आर्ष ग्रन्थों का परिशीलन करे तभी इन सबों के यथार्थ स्वरूप को जान सकेगा, न कि अंग्रेजी ग्रन्थों और अंग्रेजी महावाक्यों के भक्‍त होने से। अतएव भगवान श्रीकृष्ण का गीता में यह अमृतोपदेश हैं कि 'य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥ 23॥ तस्माच्छास्त्रां प्रमाणं ते कार्यकार्य व्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ 24॥ अध्याय 16॥ जिसका भाव यह है कि जो कोई श्रुति, स्मृति, पुराणादि प्रतिपादित धार्मिक व्यवस्था को छोड़ कर मनमाने डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाता हैं, उसके न तो किसी कार्य की सिद्धि ही होती है, न उसे इस संसार में सुख ही मिलता है और न अन्त में मोक्ष ही। इसलिए अच्छे और बुरे सभी कार्यों में इन शास्त्रों को ही प्रमाण मान कर उन्हीं के अनुसार कार्य करना उचित हैं। मनु जी ने भी कहा है कि योवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयात् द्विज:। स साधुभिर्बहिष्क नास्तिको वेदनिंदक: ॥ अ. 2। 11॥

अर्थात 'जो आधुनिक काल्पनिक कुतर्कों के बल से धर्म के मूलभूत उन श्रुति-स्मृतियों का निरादर कर के मनमानी करता है, सत्पुरुषों को उचित हैं कि उसे समाज से बाहर कर दे, क्योंकि वह वेदादि का निंदक होने से नास्तिक हैं। अब आप ही लोग बताएँ कि वैदेशिक ग्रन्थों के आधार पर जाति और धर्म की व्यवस्था करनेवाले मानने योग्य हैं या नहीं और उनका यह कर्तव्य कहाँ तक समुचित हैं। इसलिए हम इस पुस्तक में, जैसा कि प्रथम भी सूचित कर चुके हैं, केवल श्रुति, स्मृति, सदाचार और दार्शनिक विचारों से ही प्राय: सर्वत्र काम लेंगे। केवल इतिहासांश में कुछ-कुछ अन्य ग्रन्थों का अवलंबन करेंगे, परंतु प्राधान्य सर्वदा श्रुति-स्मृत्यादि का ही रहेगा। यों यदि प्रासंगिक वैदेशिक ग्रन्थों के भी वाक्य लिख दिए जावे सो दूसरी बात हैं। और हमारी अल्प बुद्धि जहाँ तक जाती है, इस विषय में सभी लोगों को ऐसा ही करना उचित हैं। अस्तु, अब हम अपने प्रिय पाठकों को प्रकृत विषय तथा ग्रन्थ का कुछ परिचय करा कर अपने इस वक्‍तव्य को यहीं समाप्त करना चाहते हैं। यद्यपि हमारे इस इतने लेख से बुद्धिमानों को इस ग्रन्थ के लिखने का कारण विदित हो ही गया होगा, तथापि थोड़ा-सा कह देना कोई अनुचित बात न होगी। यह बात तो सबको विदित ही हैं कि अयाचक ब्राह्मण समाज प्राचीन काल से भूम्यधिकारी होने और विशेष कर राजकीय झंझटों से अधिक सम्बन्ध रखने के कारण संस्कृत से प्राय: रहित-सा हो रहा हैं। क्योंकि जमींदारी तथा राजपाट और संस्कृतविद्या का विशेष कर इस समय में नितान्त विरोध हैं, जिसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य करता है।

जिनकी जीविका आजकल केवल उसी विद्या पर निर्भर हैं वे ही जब वास्तविक संस्कृत ज्ञान से शून्यप्राय हो रहे हैं; शीघ्रबोध, मुहूर्तचिंतामणि, कुछ व्याकरण और सत्यनारायण तथा दुर्गापाठ ही अनाप-सनाप घोख-घाख कर काम चला रहे और अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं, जो कि सभी के नेत्रों के सन्मुख ही हैं। तो फिर जिनको उसका पढ़ना जीविका के लिए नहीं, वरन पारलौकिक कार्यों के ही लिए हैं और साथ ही बबुआनी जैसी पिशाचिनी ग्रसे हुए हैं तथा निरक्षर भट्टाचार्य पुरोहित जी एवं गुरु जी भी, यह विचार कर कि यदि हमारे यजमान या शिष्य बाबू साहब चार अक्षर पढ़ जावेंगे तो फिर हमारे बैल न रह जावेंगे और हमारी हर बातों में नुक्‍ताचीनी कर के हमारी फजीहत करते रहेंगे, जिससे हम मनमाने लूट न सकेंगे इत्यादि, यही दिन-रात ठसने तथा पोथों में लिख तक डालते हैं कि आप तो बाबू हैं, आपको केवल साधु ब्राह्मणों की सेवा करना तथा अंग्रेजी-फारसी आदि पढ़ना चाहिए। संस्कृत तो भिखमंगी विद्या हैं। इसे पढ़ कर आप क्या करेंगे? क्या आपको दुर्गा और सत्यनारायण बाँचने, मुहूर्त देखना या कथा बाँचनी और पत्रो उलटने हैं? इत्यादि; उनके लिए इसका पढ़ना ही आश्‍चर्य हैं। जब पुरोहित एवं गुरु जी ही संध्या; गायत्री के ब्याज से केवल झूठे नाक दबाना और चिड़ियाँ उड़ाना ही जानते हैं तो बाबू साहब क्यों कर जानने लगे? और उन्हें यह शिक्षा ही कौन दे? हाँ कोई परोपकारपरायण विद्वान संन्यासी (दंडी) इसका उपदेश कर सकता और संस्कृताध्यायन में बाबू साहब को लगा सकता है। परंतु मूर्ख पुरोहितों और गुरुओं ने, यह समझ कर कि विद्वान महात्मा के प्रवेश होने से हमारी टिक्की ही उड़ जाएँगी, और यदि बारातों में वे लोग आ कर धर्म का उपदेश करेंगे तो बहुत जगह के लोगों को एक ही साथ ज्ञान हो जावेगा, पहले ही से यह भरना प्रारंभ कर दिया कि उनका दर्शन महा अमंगल हैं। यदि वे लोग श्राद्ध में आ जावे तो पितृलोग भाग जावे इत्यादि। फिर क्या हैं? अब वहाँ दंडी जी की कौन गिनती? उनकी प्रतिष्ठा वहाँ कुत्तो से भी बढ़ कर की जाने की तैयारियाँ होने लगीं। अब आप ही लोग विचारिए, इस सीधे-सादे अयाचक बाबू मंडल में अज्ञानांधकार न छा जावे तो क्या होगा? जहाँ पर श्राद्ध संन्यासियों (दंडियों) के विषय में ऐसा लिखा हुआ है कि -

अकाले यदि वा काले श्राद्धं कुर्यादतन्द्रित:।

पितृणां तृप्तिकामस्तु यतीन्प्राप्य द्विजोत्ताम:॥ - ब्रह्मांडपुराण।

बिना मांसेन मधुना बिना दक्षिणयाशिषा।

परिपूर्णं बभवेछाद्धं यतिषु श्राद्धभोजिषु॥ - दक्ष।

मुण्डं यतेन्द्रियं शान्तं ध्यान भिक्षुमकल्मषम्।

त्तान्नित्यं भोजयेछ्राद्धे दैवे पित्रये च कर्मणि॥ - स्कंदपुराण।

निवेशयेत्तु य: श्राद्धे पितृकर्मणि भिक्षुकम्।

आकल्पकालिका तृप्ति: पितृणामुपजायते॥ - पराशर।

अर्थात 'ब्रह्मांडपुराण में लिखा है कि यदि किसी भी काल में संन्यासी द्वार पर आ जावे तो पितृ तृप्ति के लिए अवश्य श्राद्ध करे। दक्षस्मृति में लिखा है कि यदि दंडी श्राद्ध में भोजन कर ले तो बिना दक्षिण तथा मधु आदि के ही श्राद्ध पूर्ण समझा जाता है। स्कंदपुराण में लिखा है कि एक दंडवाले शांत और ध्यानरत संन्यासी को नित्य ही श्राद्ध और पितृकर्म में भिक्षा करानी चाहिए। पराशर ने लिखा है कि जो पितृ कर्म में भिक्षु (दंडी) को खिलाता हैं उनके पितरों की तृप्ति एक कल्पभर होती है इत्यादि।' वहाँ पर संन्यासी को देख कर पितरों के भाग जाने की शिक्षा जो अनर्थन करवा दे उसी में आश्‍चर्य हैं। संन्यासी लोग स्वयं श्रद्धान्न को गर्वित समझ कर नहीं ग्रहण करते यह दूसरी बात हैं। बारातों या अन्य कार्यों में संन्यासी का उपदेश के लिए भी जाना अमंगल हैं यह बात तो कहीं भी मनु आदि धर्मशास्त्रों या अन्य ग्रन्थों में नहीं लिखी हुई हैं। फिर यह निर्मूल प्रलाप सर्वथा अनादर योग्य और नाश करनेवाला हैं। संन्यासी का दर्शन तो शुभ कार्य में निषिद्ध नहीं हैं, परंतु नीचों और शूद्रों की पुरोहिती और उनके अन्न से पेट भरने वालों का यदि मुख कहीं दीख पड़े, तो वह महा अमंगल हैं, जिसके लिए मनु भगवान ने डंका पीट दिया है। परंतु उसको तो बलात याचक ब्राह्मणों के सिर पर प्राय: धारण कर लिया हैं और अपने मुख से पंडित कहते तथा अन्यों से कहवाते हुए जरा भी नहीं हिचकते। वे लोग न जाने किस प्रकार मुख दिखलाने और बोलने का साहस करते हैं? यदि संन्यासी का दर्शन अमंगल भी मानें तो उसका यह अर्थ तो हैं नहीं कि वह अमंगल बाँधे फिरता हैं। किंतु आँख आदि अंगों का अकस्मात फड़कना जिस प्रकार अनिष्ट का सूचक हैं, न कि स्वाभाविक आँखों का हिलना भी, उसी प्रकार यदि अकस्मात संन्यासी का दर्शन हो जावेगा तो उससे सूचित हो जावेगा कि तुम्हारा कोई अनिष्ट होनेवाला हैं, सजग हो जाओ, ऐसी चेतावनी उसे मिल जाती है और वह होशियार कर देने से उपकारक ही हैं। परंतु यदि जानबूझ कर संन्यासी को कहीं लागेगा तो उससे अमंगल की सूचना भी कैसे होगी? क्या अपने से आँख हिलाने पर भी अमंगल की सूचना समझी जाती है? यदि गेरुआवस्त्र निषिद्ध हैं तो फिर विवाहों में उससे ही मकान क्यों रंगते हैं? संन्यासी मुर्दा समान हैं इस निर्मूल बात के कहनेवाले ही मुर्दे हैं। यदि मुर्दा भी हैं तो अच्छा ही हैं, क्योंकि मुर्दे का दर्शन तो मंगल सूचक हैं। यदि कहीं पर भी काषाय वस्त्रधारी का निषेध मान भी लेंगे तो वह लड़के-बालोंवाले गुसाइयों का होगा, क्योंकि वे लोग शास्त्र से अति निंदित सिद्ध होते हैं।

दूसरा कारण अयाचक ब्राह्मणों के संस्कृत न पढ़ने का यह भी हैं कि राज्य तथा जमींदारी का सम्बन्ध होने से यवनों से बहुत काल तक विशेष सम्बन्ध रहा, जिससे 'संसर्गजा दोषगुणा भवंति, अर्थात 'तुख्म तासीर सुहबत असर' के अनुसार उन्हीं यवनों के बहुत से गुण आने लग गए। जैसा कि फारसी पढ़ना, राय, सिंह, ठाकुर, चौधरी और बाबू आदि शब्दों से ही प्रसन्न होना, न कि पांडे, तिवारी आदि शब्दों से। तम्बाकू पीने और सलाम करना-करवाना इत्यादि। जैसा कि आज तक अन्य ब्राह्मणों में भी पाया जाता है, जिसको आगे चल कर प्रसंग से दिखलाएँगे और जब यह भी नीति हैं कि 'राजानमनरुवत्तान्ते, यथा राजा तथा प्रजा' तो इन ब्राह्मणों के इन सब आचारों के विषय में संदेह करना और उसका और अर्थ लगाना अनुचित नितान्त भ्रम हैं। क्योंकि मिथिलादि देशों को लीजिए, तो जहाँ प्रथम यदि 100 पढ़नेवाले होते थे तो सभी संस्कृत ही पढ़ते थे, वहाँ अब केवल संस्कृत पढ़नेवाले कठिनता से 100 में 10 मिलेंगे, जिनका चित्त भी अंग्रेजी की ओर लगा हुआ रहता हैं और अन्ततोगत्वा कुछ-न-कुछ उसे पढ़ लेते ही हैं और 90 तो उधर ही लगे हैं। यह बात क्यों होती है? आजकल सभी का सम्बन्ध अंग्रेज जाति के साथ समान और घनिष्ठ हैं और जो ही उसे पढ़ता हैं वही उनके दरबार में प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए सब लोग उधर ही टूटते हैं। ठीक ऐसा ही यवन काल में भी जान लीजिए। हाँ, उस समय इतना विशेष अवश्य था कि जो ही फारसी पढ़ ले उसी की प्रतिष्ठा नहीं होती थी, क्योंकि वे लोग अंग्रेज लोगों के जैसे विद्या के प्रेमी न थे। किंतु बड़े-बड़े बाबुआनों की ही प्रतिष्ठा थी। इसीलिए और राजकार्य के भी उसी विद्या में होने से उन्हें फारसी अवश्य पढ़ना पड़ता था। इसीलिए अन्य ब्राह्मण या तो कुछ पढ़ते ही न थे, अथवा यदि दो-एक पढ़नेवाले होते भी थे तो लाचार हो कर उसी संस्कृत को ही जिलाए रखते थे।

जब इस प्रकार से अयाचक ब्राह्मण दल में संस्कृत का प्राय: अभाव हो गया और उसकी विरोधिनी वह फारसी पिशाची उसकी जगह आ बैठी, तो उन लोगों को ब्राह्मण किसे कहते हैं, कौन ब्राह्मण श्रेष्ठ कहा जा सकता है और उसके धर्म या कर्म कौन से हैं इसका यथार्थ ज्ञान न हो सका। बल्कि उसका होना एक प्रकार से असंभव-सा हो गया। क्योंकि ये सब बातें बिना संस्कृत के जानी नहीं जा सकतीं, इनका वर्णन केवल संस्कृत ग्रन्थों में ही हैं। और धीरे-धीरे उनमें से प्राय: बहुतेरे ऐसा समझने लगे (जैसा कि मुसलमान लोग समझते थे और समझते हैं तथा प्राय: अंग्रेजी ग्रन्थकारों की भी अब तक वही धारणा हैं) कि जो पुरोहिती आदि करे ओैर प्रतिग्रहादि तथा भिक्षा से अपना जीवन व्यतीत करे उसे ही पक्का ब्राह्मण कहते हैं। हम लोग भी ब्राह्मण ही हैं। परंतु पक्के नहीं, किंतु राजा, बाबू, जमींदार हैं। उसी दिन से विशेष कर जमींदार ब्राह्मण कहने की प्रथा पड़ गई, जैसी आज भी प्रयाग, बाँदा तथा पूर्वीय अन्य प्रांतों में पाई जाती है। इस विषय का मुझे स्वयं अनुभव हुआ है।

मैं रेलवे ट्रेन में जाता था। इतने में दरभंगा प्रांत के बछवारा जंक्शन के पास बाजिदपुर स्टेशन पर एक मनुष्य गाड़ी पर इंटर क्लास में चढ़ा। उसके चेहरे से प्रतीत होता था कि ब्राह्मण हैं। मैंने पूछा कि क्या आप मैथिल ब्राह्मण हैं? उसने कहा कि हाँ हम मैथिल ब्राह्मण हैं, परंतु जमींदार हैं, न कि साधारण मैथिल और जाले जलैवार मूल के हैं। पाठक उसके इस वाक्य का अर्थ लगा लें। क्या मेरे बतलाए हुए अभिप्राय से दूसरा हैं? बस इसी निश्‍चय को गुरु और पुरोहित भी बहुत दिनों तक पक्का करने लगे और धीरे-धीरे कहने लगे कि ब्राह्मण क्या आप तो राजा बाबू हैं और बाबू साहब भी इसी पर फूलने लगे। थोड़े दिन तक ऐसा ही होते-होते जब कुछ प्रमाद और बढ़ गया और संस्कृत का एकदम अभाव हो कर प्रचंड मूर्खता सिर पर सवार हो गई और उधर पुरोहत जी वाला वह उपदेश कि ब्राह्मण क्या आप तो राजा, बाबू, जमींदार हैं, खूब दृढ़ हो गया, तो उन बाबुओं को यह निश्‍चय हो गया कि पुरोहिती आदि करने, प्रतिग्रह लेने और भिक्षावृत्ति से जीविका करनेवाले को ही ब्राह्मण कहते हैं, हम लोग तो जमींदार हैं। इस निश्‍चय के दृष्टांत आज भी पाए जाते हैं, क्योंकि जब कोई किसी के द्वार पर गिरता, भिक्षादि लेने में विशेष आग्रह करता और जान देने पर तैयार हो जाता है तो उसी समय लोग कहते हैं कि यह 'बम्हनई' करता है। सदाचारी और पंडित के व्यवहार पर 'बम्हनई' शब्द का प्रयोग नहीं होता। दरभंगा प्रांत में किसी मैथिल ब्राह्मण ने किसी पश्‍चिम ब्राह्मण से कहा कि आप ब्राह्मण हैं या बाभन? तो उसने चट उत्तर दिया कि मैं तो बाभन हूँ, ब्राह्मण आप ही हैं। जब फिर उसने कहा कि ऐसा क्यों साहब? तो उसने उत्तर दिया, क्योंकि 'वराह यानी शूकर की तरह जिसका मन हो उसे ब्राह्मण कहते हैं, अर्थात जैसे शूकर विष्ठा की ओर दौड़ा करता है वैसे ही जो दिन-रात खाने के पीछे दौड़ा करे और प्रतिग्रह कमाता फिरे उसे ब्राह्मण कहते हैं और मैं वैसा नहीं हूँ।' क्या ये सब बातें उपर्युक्‍त सिद्धांत को अक्षरश: सिद्ध नहीं करतीं?

बस इन्हीं दिनों से अयाचक ब्राह्मण दल में केवल जमींदार शब्द का प्रयोग चला जो आज तक भी बहुत जगह पाया जाता है। कुछ दिन के बाद उसी दल के (अयाचक ब्राह्मण दल के) कुछ लोगों ने विचारा कि जमींदार तो सभी जातियों को कह सकते हैं, फिर हममें और अन्य जातियों में, जो जमीनवाली हैं, भेद क्या रह जावेगा? और थोड़े दिन बाद गड़बड़ मचने लग जावेगी। इसीलिए जमींदार शब्द के ही अर्थ में संस्कृत भूमिहार शब्द का प्रयोग अपने समाज में करना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि भूमिहार जमींदार शब्दों के अर्थ एक ही हैं, तथापि पृथक संकेत कर लेने से अब सबके मिलने का डर न रह गया। क्योंकि जैसे नमस्कार और प्रणाम शब्दों के अर्थ एक ही हैं तथापि ब्राह्मण ही परस्पर एक-दूसरे को नमस्कार करते हैं और दूसरे लोग प्रणाम ही करते हैं। मिथिला में तो यहाँ तक प्रचार हैं कि शूद्र तथा अंत्यज भी ब्राह्मणों को प्रणाम ही करते हैं, परंतु यदि अन्य जाति नमस्कार शब्द का प्रयोग कर दे तो दंगा मच जावे। हालाँकि दोनों के अर्थ में कुछ भी भेद नहीं हैं, परंतु सांकेतिक भेद मान लिया गया है। बस यही दशा भूमिहार और जमींदार शब्दों की हैं। केवल सांकेतिक भेद मान लिया गया है जिससे भूमिहार कहने से अयाचक ब्राह्मणदल का बोध होता है, न कि जमींदारादि शब्द कहने से। इसके विषय में विशेष विचार तथा इसका प्रयोग कब से हुआ इस विषय में भी अच्छी तरह से विचार ग्रन्थ में ही आगे चल कर किया जावेगा।

इसी जगह इतना और समझ लेना चाहिए कि यवनादि काल में जहाँ इन ब्राह्मणों का प्राधान्य नहीं रहा हैं, किंतु राजपूत आदि जातियाँ ही प्रधान रही हैं, वहाँ ये लोग अब तक उसी पांडेय, तिवारी, चौबे, दूबे तथा मिश्रादि नामों से शाहाबाद आदि प्रांतों में कहे जाते हैं, क्योंकि वहाँ डुमराँव राज्य का ही प्राधान्य रहा हैं। ऐसे ही अन्यत्र भी उन्हीं पांडेय आदि के घनिष्ठ सम्बन्ध से लोग प्रधान होने पर भी उसी पुराने नाम से कहे जाते हैं।

बस अब क्या हैं? इसी अविद्यांधकार में स्वार्थांध, द्वेषी और परीहितकारी डाकुओं की बन पड़ी और बहुत सी किताबें लिखी जाने और किंवदंतियाँ रची जाने लगीं। जिनका मुख्य उद्देश्य यह था और हैं कि और बातों में तो वे लोग बढ़े ही हैं, परंतु बबुआई ठाट में विद्या नहीं पढ़ते। यहाँ तक मस्त हैं कि अंग्रेजी का भी नाम नहीं लेते। इसलिए सहस्रों कुकल्पनाएँ कर के इन्हें जाति में ही नीचा कर दो, जिसे ये लोग समझ भी न सकें और हम लोगों का स्वार्थ भी सिद्ध हो जावे और फिर इन्हें लूट कर खा जावे। क्योंकि यदि सिंह को यह अभिमान हो जावे कि मैं गीदड़ हूँ तो फिर उसकी पीठ पर बोझ लादने में क्लेश ही क्या हो सकता है? इसी प्रकार ये लोग यदि जात्यभिमान में नीचे पड़ जावेंगे तो इनकी सब योग्यता मिट्टी में मिल जावेगी। और हम स्वार्थी गुरु, पुरोहित तथा कर्मचारियों की खूब बन पड़ेगी, फिर जैसा चाहेंगे 'चें-में' बोलाया करेंगे। इसीलिए बड़े-बड़े छल से ऐसी-ऐसी पुस्तकें बनी जिनमें यह तो स्पष्ट रूप से लिख अथवा लिखवा दिया गया कि आप लोग केवल ब्राह्मणों की सेवा के लिए बनाए गए हैं इत्यादि। और वे अविद्याग्रस्त होने से उस आंतरिक छल-कपट और द्वेष की या तो समझ ही न सके, अथवा इन्हें यह अवसर और सौभाग्य ही न प्राप्त हुए कि उन ग्रन्थों को देखें भी। उधर मनुष्यगणना के विवरण तथा अन्य वैदेशिकों के ग्रन्थों में भी लोगों ने कुछ झूठ-साँच कह-सुन कर छल-कपट से उलटा-पलटा कुछ-का-कुछ लिखवा दिया। इधर दोनवार, किनवार तथा गौतमादि नाम देख अंग्रेजों के साथ मिल कर यह विचार और निर्णय किया जाने लगा कि ये लोग क्षत्रिय हैं इत्यादि। इसी तरह की बहुत सी स्वार्थ और द्वेषपूर्ण कल्पनाएँ होने लगीं जिनकी विस्तारश: समालोचना आगे की जावेगी। बड़ा भारी आश्‍चर्य तो यह है कि ये जितनी बातें की गईं वे सब इस समाज के सामने न की जा कर चोरी से परोक्ष में की गईं। इसीलिए अंग्रेज लोग अपनी सभी किताबों में यही लिख गए हैं कि 'Their Brahman and Chhatri neighbours insinuate etc...'-जिसका तात्पर्य यह है कि 'इन (भूमिहार ब्राह्मणों) के पड़ोसी ब्राह्मण और राजपूत चुपके से इशारा करते या उकसाते हैं कि...'। इसीलिए साफ दिल होने से अन्त में लिख भी दिया है कि 'To this view, however, there is no evidence' 'अर्थात लेकिन उन लोगों की इन उक्‍तियों में कोई भी प्रमाण नहीं हैं।'

भला जहाँ पर किसी अज्ञानांधकार में पड़े हुए सर्वोच्च और प्रतिष्ठित समाज को नीचा दिखलाने के लिए इस प्रकार छल-कपट और चोरियाँ की जाती है वहाँ कल्याण की कौन सी आशा की जा सकती हैं? इन्हीं सब अनर्थों को देख कर एक ऐसे ग्रन्थ के बनाने की आवश्यकता हुई जिसमें इन सब मिथ्या कुकल्पनाओं की खुले शब्दों में निष्पक्षपात भाव से समालोचना की जावे और इस विषय पर आज तक जितनी कुशंकाएँ हुई हैं या हो सकती हैं उनका मुँहतोड़ उचित समाधन कर दिया जावे, जिसमें भविष्य के लिए मार्ग साफ रहे और श्रुति, स्मृत्यादि प्रमाणों से अयाचक ब्राह्मणों का उज्ज्वल और सर्वोत्तम स्वरूप प्रकाशित कर दिया जावे, जिसमें अकारण द्वेषी और स्वार्थी लोग चूँ न कर सकें।

एक बात और भी हैं कि जैसे अन्य ब्राह्मणों तथा दूसरे समाजों का कुछ-न-कुछ इतिहास लिखा हुआ है इसी कारण से उनके ऊपर विशेष रूप से कोई भी आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता। क्योंकि जागनेवाले गृह में चोरी करने का साहस कौन कर सकता है? वैसे ही यदि अयाचक ब्राह्मण समाज का कोई निज का टूटा-फूटा भी सच्चा इतिहास होता तो आज इसकी ऐसी दुर्दशा न होती और जो ही चाहता वही मनमानी निंदाएँ करने का साहस नहीं करता। इसलिए इस महती त्रुटि की पूर्ति के लिए भी ऐसे ग्रन्थ की नितान्त आवश्यकता थी।

सबसे बड़ी बात यह है कि जिस जाति, देश या समाज का इतिहास नहीं होता, वस्तुत: उसकी स्थिति संसार में रही नहीं सकती। इसीलिए जो समाज जिसको दबाना चाहता हैं वह प्रथमत: उसके इतिहास को ही बिगाड़ता हैं, यह विषय इतिहासवेत्ताओं को परोक्ष नहीं हैं। क्योंकि किसी समाज का सच्चा इतिहास ही उसके पूर्वोत्तर पुरुषों की स्थिति का परिचय कराता हुआ गिरे हुओं को उठाने में संजीवनी बूटी का-सा काम करता है। क्योंकि वह हमें सिखलाता हैं कि हमारे पूर्वपुरुष अमुक-अमुक कार्य करने से उन्नति के शिखर पर आरूढ़ थे। इसलिए हमको भी उन्नति प्राप्त करने के लिए वैसे ही कार्य करने चाहिए। हम मृगराज के वंशज हैं, न कि शृगाल के। अत: हमको अपने वास्तविक गौरव और स्वरूप का स्मरण करना चाहिए इत्यादि।

इन्हीं सब उद्देश्यों को ले कर मेरी प्रवृत्ति इस ग्रन्थ में हुई हैं। ताकि अयाचक ब्राह्मण समाज के सुचारु इतिहास भवन की प्रतिष्ठा (नींव) तैयार हो जावे, जिसमें भित्ति आदि द्वारा उस सुशोभापूर्ण रमणीय भवन के निर्माण करने वालों को भविष्य में सौकर्य हो। इस महा विशाल इतिहासागर की प्रतिष्ठा (नींव) सुदृढ़ और सुचारु रूप से बननी चाहिए। अत: उसकी दृढ़ता के लिए मैं उन्हीं श्रुति, स्मृति, पुराण तथा शिष्टाचार प्रमाणरूप अमूल्य पाषाणों का अवलंबन करता हुआ विषय-विवेचन करूँगा। विषय का सम्यग्विभाग रहे और जन साधारण भी उसको पूर्णतया हृदयंगम कर सके इसके लिए मैं इस ग्रन्थ को पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध इन दो विभागों में विभक्‍त करूँगा और अन्त में परिशिष्ट रहेगा। जिनमें से पूर्वभाग का नाम द्विविध ब्राह्मण विचार और उत्तर का नाम कंटकोद्धार होगा। द्विविध ब्राह्मण विचार प्रकरण में श्रुति, स्मृति, पुराण तथा सदाचारादि प्रमाणों से अयाचक ओैर याचक इन दो प्रकार के ब्राह्मणों के स्वरूपों का सुस्पष्टतया निरूपण होगा और उसकी पुष्टि में साम्प्रतिक परस्पर दोनों के नमस्कारादि के पत्रों, समाचार-पत्रों तथा बड़े-बड़े विद्वानों के हस्ताक्षर युक्‍त बड़ी-बड़ी व्यवस्थाओं का प्रदर्शन किया जावेगा और जो सबसे प्रबल और संप्रति विद्यमान प्रमाण इस विषय में परस्पर विवाह सम्बन्ध हैं, जो जमींदार, भूमिहार, पश्‍चिमी ब्राह्मणों का सर्यूपारीणों, कान्यकुब्जों तथा मैथिलों के बड़े-बड़े कुलीनों के साथ होता था और हो रहा हैं और त्यागी ब्राह्मणों का गौड़ ग्राही ब्राह्मणों के साथ हो रहा हैं और जिसे मैथिल महासभा, मिथिला मिहिर पत्र तथा भारत मित्रादि पत्रों ने भी बिना रोक-टोक स्वीकार किया है, उसके भी विस्तारश: प्रदर्शनपूर्वक रहस्यों का उद्घाटन करेंगे। इसके अतिरिक्‍त इस प्रकरण में बहुत से छोटे-छोटे अवांतर प्रकरण होंगे, जिनमें वैदिक समय से ले कर आज तक के शृंखलाबद्ध ब्राह्मणों के स्वरूप तथा आचार, व्यवहार और जीविका रूप इतिहास का वर्णन स्वदेशी तथा विदेशी प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर होगा। जिसका प्रदर्शन विस्तारश: वैदिक, स्मार्त्त, पौराणिक, बौद्ध, यवन और ब्रिटिश कालक्रम से किया जावेगा। साथ ही, भूमिहार, पश्‍चिम, जमींदार, त्यागी, महियाल वगैरह संज्ञा संबंधी कालादि का भी विशेष विचार करते हुए ब्राह्मणों के जीविकार्थ तथा धार्मिक कर्मों का निरूपण किया जावेगा और ठाकुर आदि उपाधियों का विवेचन करते हुए साम्प्रतिक आचारों का भी दिग्दर्शन करा कर उनके औचित्यनौचित्य का विचार किया जावेगा और उनके कारण भी दिखलाए जाएँगे इत्यादि।

एवं द्वितीय प्रकरण में, जिसका नाम कंटकोद्धार होगा इस ब्राह्मण समाज पर आज तक जितने अनुचित और भ्रममूलक मिथ्या आक्षेप हुए हैं उनके प्रदर्शनपूर्वक उनकी कड़ी समालोचना करते हुए उनका उचित समाधन किया जावेगा और उसके बहुत से छोटे-छोटे अवांतर प्रकरणों में अयाचक ब्राह्मणों के उत्पत्ति विषयक प्रश्नों की समालोचना होगी और इस विषय पर कल्पित ग्रन्थों की निस्सारता का सुचारु रूप से निरूपण होगा। इसके बाद इस विषय की तथा अन्य विषयक जितनी किंवदंतियाँ आदि और तन्मूलक स्वदेशी तथा विदेशी सज्जनों के जो वाक्य-बाण हैं उनके लिए उचित और अभेद्य रक्षा स्थान बनाया जावेगा। किनवार, दोनवार, सकरवार तथा गौतमादि सदृश नाम-रूप-दोषों के ज्ञानचक्षु में लग जाने से लोगों को जो भ्रम उत्पन्न हो गए हैं और उसी दशा में जो कुछ वे लोग बक गए हैं, उसके लिए उचित अंजन तैयार किया जावेगा और वह ऐसा होगा कि एक बार उसके लगा देने से फिर भविष्य में ऐसे रोग कभी हो ही न सकें। इसके अतिरिक्‍त जो स्फुट अनेक प्रकार के प्रश्‍न हुआ करते हैं उनकी भी उचित मीमांसा की जावेगी।

ग्रंथांत में परिशिष्ट होगा। जिसमें संपूर्ण कथन के चरम परिपाक के प्रदर्शन पूर्वक अवशिष्ट, अत्यंतोपयोगी और अवश्य वक्‍तव्य तथा कर्तव्य विषयों का निरूपण करते हुए ग्रन्थ की समाप्ति की जावेगी।

अन्त में जगदाधार सर्वांतर्यामी से यही प्रार्थना हैं कि वह इस ब्राह्मण समाज तथा भारत वर्ष की अज्ञान निद्रा को भंग कर के सबको यथार्थ ज्ञान और द्वेष तथा पक्षपात शून्य बात बोलने और लिखने की सुबुद्धि प्रदान करे और साथ ही, मेरे इस अल्प परिश्रम से लोगों को लाभ उठाने की भी सुमति दे, जिसमें मेरा केवल परोपकारार्थ यह दीर्घकाल का श्रम सफल हो। सबके पश्‍चात मैं इसके अवलोकन तथा समालोचना करने वालों से यह प्रार्थना करता हूँ कि लोग यद्यपि इनमें दोषोद्घाटन तो अवश्य करेंगे ही। क्योंकि वे भी अपनी अपरिहार्य छिद्रारोपिका प्रकृति रमणी के किंकर हैं। परंतु ऐसा करने से पूर्व इस ग्रन्थ को निष्पक्षपात भाव से सम्यक्‍तया आलोड़न कर लें और मेरे तात्पर्य को भली-भाँति हृदयंगम कर के उचित दूषण दें तो मैं उसे सहर्ष शिरोधारण करने के लिए सर्वदा कटिबद्ध हूँ। क्योंकि तात्पर्य को समझ कर दूषण देने से दु:ख नहीं होता। अब मैं श्रीयुत कुमारिल स्वामी तथा रघुनाथ शिरोमणि भट्टाचार्य के इसी विषय के वचनों को पाठकों के सम्मुख प्रदर्शित कर के अनुरोध के साथ अपने इस वक्‍तव्य को यहीं पर समाप्त करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप लोग इस धृष्टता को क्षमा करेंगे। वे वचन निम्नांकित हैं :-

¹नचात्रातीवर् कर्त्तव्यं दोषदृष्टिपरं मन:

दोषोह्यविद्यमानोपि तद्‍दृष्टीनां प्रकाशते।

मान्यान्प्रणम्य विहिताञ्‍जलिरेष भूयो,

भूयो विधाय विनयं विनिवेदयामि।

दूष्यं वचो मम परं निपुणं विभाव्य,

भावावबोधविहितो न दुनोति दोष:॥ इति॥ - लेखक

॥ॐ शम्॥

¹ तात्पर्य यह है कि सभी जगह अत्यन्त दोष दृष्टि नहीं करना चाहिए , क्योंकि जिसकी दृष्टि में दोष (पित्त रोग) हो जाता है उसे सभी वस्तुओं में न रहनेवाला भी दोष (पीलापन) मालूम होता है।