भूमिका / महात्मा गांधी और सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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भूमिका
जयप्रकाश चौकसे

उस दिन घर में मातम छाया था, महिलाएं रो रहीं थी, पुरुष रेडियो से चिपके थे। उस वक्त मेरी उम्म्र आठ साल की थी। घर के सारे सदर सदस्य व नौकर-चाकर भी मौजूद थे, फिर ये किसकी मृत्यु हुई थी। मुझे भूख लग रही थी, परन्तु किसी से खाना मांगने की हिम्मत नहीं हुई। मैं अपने पड़ोसी मित्र समद खान के घर गया और वहाँ भी वैसा ही वातावरण था। मोहल्ले के किसी घर में चूल्हा नहीं जला। मैं अपने मित्रों के साथ बाजार तक गया और सारी दुकानों को बंद पाया। लजीज की दूकान के बाहर भीड़ जमा थी, सभी लोग रेडियो सुन रहे थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की आंसुओं से भरी आवाज थर्रा रही थी 'हमारे जीवन से प्रकाश चला गया। महात्मा गांधी की हत्या हो गई।'

इस घटना के कुछ समय पूर्व मैं अपने मित्रों के साथ बुरहानपुर के प्रकाश टॉकीज में दो आने का टिकिट खरीदकर फर्श पर बैठकर फिल्म देख रहा था। मुझे कुछ काटा और मैं दर्द से चीख पड़ा, उसी समय मध्यांतर के कारण रोशनी हुई और पता चला कि मुझे बिच्छू ने काटा, एक दर्शक ने उसे जूते से मारा। मेरे दोस्त मुझे तांगे पर बैठाकर घर लाए। पिताजी ने मुझे थप्पड़ मारा, जो फिल्म देखने के लिए नहीं मारा गया था, वरन् घर से फिल्म देखने के लिए चार आने दिए जाने के बावजूद मैंने दो आने वाला टिकिट खरीदा था। बैन्च पर बैठने का टिकिट चार आने में मिलता था। मैंने दो आने की मूंमफली खरीदी थी। उस दिन डॉक्टर की दवा से दर्द मिट गया, परन्तु सिनेमा का डंक गहरे गड़ा है। इतने दशक बाद भी जीवित हूँ, अतः वह बिच्छू का जहर नहीं था। अमृत कहने से पौराणिकता का भ्रम हो सकता है। वह कुछ और था, वह जीवन को देखने का एक दृष्टिकोण था।

इन दोनों घटनाओं का आपस में कोई सम्बंध नहीं है। सिनेमाई ढंग से कहें तो एक घटना त्रासदी है और दूसरी किसी हास्य फिल्म की लगती है। आमास होता है, मानो दो अलग-अलग फिल्मों की रीलें मिला दी हों या सम्पादन कक्ष में कोई चूक हो गई हो। यह पुस्तक का नाम दो अलग-अलग फिल्मों की तरह ध्वनित होता है, परन्तु ऐसा नहीं है। विगत सदी में गांधीजी और सिनेमा दोनों का गहरा प्रभाव आम आदमी के जीवन पर पड़ा। शायद यह सदी के महत्वपूर्ण प्रभाव थे। किसी भी कला या विराट जन-आन्दोलन को समझने के लिए उसके सृजनकर्ता या उसके साधन शस्त्र को समझने से ज्यादा जरुरी है उसके आम जीवन पर पड़े प्रभाव को समझना। गांधीजी ने एक विराट लहर को जन्म दिया और सिनेमा ने भी जुनून पैदा किया। दोनों के बीच के गहरे सम्बंध को समझने का प्रयास है यह पुस्तक। फिल्मकार गांधीजी की लहर से अप्रभावित कैसे रह सकते थे। सिनेमा के प्रारम्भ में ही उसमें गांधीवादी मूल्य स्थापित हो गए और आज तक कायम हैं। 'राजा हरिश्चंद्र' (1913) से 'सत्यमेव जयते' (2012) तक कायम है।

बचपन की दोनों घटनाओं का असर मुझ पर आज तक कायम है। उम्र के साथ गांधीजी की महानता समझ में आने लगी और सिने-संसार के रहस्य भी उजागर होने लगे। चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा में उन्होंने गांधीजी से लंदन में हुई मुलाकात का विवरण लिखा है और उस मुलाकात का प्रभाव उनकी फिल्म मार्डन टाइम्स पर देखने के बाद मैंने महसूस किया कि सन् 1947 तक की फिल्मों पर गांधीजी का कितना प्रभाव रहा और 1947 से 1964 के दरमियान बनी फिल्मों पर गांधीजी और नेहरू का गहरा प्रभाव रहा है। आमिर खान की 'सत्यमेव जयते' में उठाए गए अधिकतम मुद्दों के लिए गांधीजी ने आन्दोलन किये थे। यह सच है कि गांधीजी ने कभी फिल्म नहीं देखी, परन्तु उनके अनजाने ही उनका प्रभाव तो रहा। उसी समय याद आया कि महाभारत में युधिष्ठिर ने यक्ष के एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि राजा समय से बलवान होता है, क्योंकि वह समय को प्रभावित करता है। यह भी सच है कि लोकप्रिय धारा के विपरीत तैरने के प्रयास में डूबते हुए मनुष्य की सतह के ऊपर रही ऊंगलियां इतिहास लिखती हैं। धारा के साथ तो उखड़े हुए झाड़ भी बह जाते हैं। गुजरात विद्यापीठ द्वारा सादरा में स्थापित शिक्षण संस्था में आयोजित परिचर्चा में भाग लेने के बाद, श्रोताओं की प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर मैंने फरवरी 2012 में पुस्तक लिखना शुरू किया। विगत वर्ष पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में बतौर विजिटिंग प्रोफेसर एक सप्ताह बिताया था। वहाँ इस विषय की चर्चा विद्यार्थियों से की थी। वर्धा के महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय में चर्चा के बाद गांधीजी के आश्रम गया था, जहाँ मेरे श्वसुर श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' ने गांधीजी के साथ लम्बा समय बिताया था। वे आन्दोलन से जुड़े थे। उन्होंने नाटक लिखे, पटकथाएं लिखीं और फिल्में भी बनाईं।

विगत अठारह वर्षों से दैनिक भास्कर में एक दैनिक कॉलम लिख रहा हूँ, जिसमें सिनेमा और साहित्य के माध्यम से भारत को समझने का प्रयास कर रहा हूँ और कमोबेश वही दृष्टिकोण इस पुस्तक में भी है। पाठकों की प्रतिक्रिया के साथ सिनेमाघर में दर्शक की प्रतिक्रिया भी लम्बे समय से देख रहा हूँ। अवाम के अवचेतन को समझने में ये प्रतिक्रियाएं सहायता करती हैं।

इस पुस्तक के लेखन में पटकथा लेखक सलीम साहब का लगातार सहयोग मिला।

मेरी पत्नी ऊषा, मित्र सरोजकुमार और श्रीराम ताम्रकर ने अनेक सुझाव दिए। विठ्ठलभाई पटेल से भी चर्चा हुई है। मेरे मित्र हेमचन्द्र पहारे का सहयोग सबसे अधिक रहा, उनसे अध्याय-दर-अध्याय गहन चर्चा हुई है। पुस्तक लिखते समय मित्र विष्णु खरे यूरोप में थे, इसलिए सम्पर्क संभव नहीं हुआ। दरअसल मैंने, विष्णु खरे और हेमचन्द्र पहारे ने विगत पचास वर्षों में सिनेमा पर गहरी बहस की है।

मेरे मित्र श्री उत्तम झंवर लम्बे समय से प्रकाशन संस्था खोलना चाहते थे. और उनकी जिद्द यी कि पहली किताब मेरी लिखी हो। उनके पुत्र दीप ने महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई और श्री गोपाल सोमानी ने सिमोन द ब्यूव् की किताब 'कमिंग ऑफ एज' मेरे लिए आयात की। सभी का आभार मानता हूँ।

श्रीराम ताम्रकर एवं समय ताम्रकर ने पुस्तक की साज-सज्जा और प्रकाशन इत्यादि का दायित्व बखूबी निबाहा। इसके पहले भी मेरी अन्य किताबों में उनका सहयोग रहा है। धन्यवाद।

हर पंक्ति के पीछे जीवन में पढ़ी तमाम किताबों और देखी हुई सारी फिल्मों तया जीवन के अनुभवों की ऊर्जा काम करती है। इस पुस्तक के लिए पढ़ी हुई किताबों की सूची प्रकाशित की गई है और उनके लेखकों तथा फिल्मकारों का भी आभारी हूँ।