भूमिका / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल
गत शताब्दी में युरोप में ज्यों ज्यों भौतिक विज्ञान, रसायन, भूगर्भविद्या, प्राणिविज्ञान, शरीरविज्ञान इत्यादि के अन्तर्गत नई नई बातों का पता लगने लगा और नए नए सिद्धांत स्थिर होने लगे त्यों त्यों जगत् के सम्बन्ध में लोगों की जो भावनाएँ थीं वे बदलने लगीं। जहाँ पहले लोग छोटी से छोटी बात के कारण को न पाकर उसे ईश्वर की कृति मान संतोष कर लेते थे वहाँ चारों ओर नाना विज्ञानों1 के द्वारा कार्य के कारण की ऐसी विस्तृत शृंखला उपस्थित कर दी गई कि किसी को बीच ही में ठिठकने की आवश्यकता न रह गई। ज्ञानदृष्टि को बहुत दूर तक बढ़ाने के लिए मार्ग खुल गया। दूरदर्शक, सूक्ष्मदर्शक, रश्मिविश्लेषक2 आदि यन्त्रों की सहायता से ' विज्ञान ऐसे विषयों का ज्ञान है जो किसी न किसी प्रकार हमारी इन्द्रियों को प्रत्यक्ष होते हैं। यह शब्द हमारे शास्त्रों में कई अर्थों में आया है। बौद्ध लोग विज्ञान का अर्थ प्रत्यय या भाव लेते हैं जो क्षण क्षण पर उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। गीता में ज्ञान और विज्ञान शब्द कई जगह साथ साथ आए हैं। सातवें अधयाय में भगवान् कहते हैं-'ज्ञानं तेहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत: अर्थात 'विज्ञान' समेत इस पूरे ज्ञान को मैं तुझसे कहता हूँ। रामानुज ने अपने भाष्य में 'ज्ञानम्' का अर्थ किया है 'मद्विषयमिदं ज्ञानम्' और विज्ञानम् का अर्थ किया है 'विविक्ताकार विषयज्ञानम्।' प्रकृति के नाना रूपों का जो ज्ञान है वही विज्ञान है। आगे चलकर भगवान् ने मन, बुद्धि और अहंकार के सहित पाँचों भूतों को गिना कर कहा है कि यह मेरी अपरा प्रकृति है इससे भिन्न जगत् को धारणा करने वाली जीवस्वरूपिणी मेरी परा प्रकृति है। इसी अपरा प्रकृति की व्याख्या आधुनिक विज्ञानों का विषय है जिसके अन्तर्गत भौतिक विज्ञान, रसायन, मनोविज्ञान आदि सब हैं। परा प्रकृति, परा विद्या या परदर्शन (मेटाफिजिक्स) का विषय है।
2 ईधर में उत्पन्न आलोकतरंग छोटाई बड़ाई के हिसाब से अनेक प्रकार के होते हैं। इसी छोटाई बड़ाई के हिसाब से आलोक रेखाएँ अनेक रंगों की होती हैं। किसी ओर से आते हुए प्रकाश की किरनों को यदि हम झाड़ के लटकन के तिकोने शीशे में देखें तो उसमें अनेक रंग दिखाई पड़ते हैं। बात यह है कि उसके कोनों पर किरनें विकीर्ण हो जाती हैं जिससे भिन्न भिन्न रंगों की आलोक रेखाएँ अलग अलग दिखाई देने लगती हैं। रश्मिविश्लेषक यंत्र में भी किरनें इसी प्रकार विकर्ण की जाती हैं जिससे भिन्न भिन्न रंगों की रेखाएँ पड़ जाती हैं। किस प्रकार के द्रव्य से किस प्रकार की रेखाएँ आती हैं और हमारी दृष्टि अत्यंत विस्तृत और सूक्ष्म हो गई। दूरदर्शक यत्रों द्वारा अन्तरिक्ष के बीच अनन्त लोकपिंडों का पता लगा, उनकी स्थिति के क्रम का आभास मिला और रश्मिविश्लेषक यत्रों द्वारा यह प्रत्यक्ष हो गया कि जिन मूलभूतों या द्रव्यों से हमारी पृथ्वी बनी है उन्हीं द्रव्यों से सब लोकपिंड बने हैं, उनमें कोई अतिरिक्त द्रव्य नहीं है। पहले पृथ्वी, जल, वायु आदि के आगे लोगों की दृष्टि नहीं जाती थी, अब रसायन शास्त्रो के विश्लेषणों द्वारा जल और वायु आदि की योजना करनेवाले मूलभूतों या द्रव्यों तक हमारी पहुँच हो गई है। भौतिक विज्ञान ने समस्त जड़ जगत् को द्रव्य और गति शक्ति का कार्य सिद्ध कर दिया है।
द्रव्य1 को नाना रूपों में हम अपने चारों ओर देखते हैं। हवा, पानी, पत्थर, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र इत्यादि सब द्रव्य के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। द्रव्य में हम गति भी देखते हैं। हवा का चलना, पानी का बहना, पत्थर का लुढ़कना, पत्तो का गिरना, लपेटी हुई कमानी का खुलना, कोयले का दहकना, बारूद का भड़कना सब गति के ही नाना रूप हैं। द्रव्य और गतिशक्ति इन्हीं दो को लेकर अपनी सूक्ष्म परीक्षाओं द्वारा वैज्ञानिक समस्त व्यापारों के कारण आदि की व्याख्या करते हैं। जिस प्रकार द्रव्य एक अवस्था से दूसरी अवस्था में-ठोस से द्रव, द्रव से वायु , वायु से द्रव, द्रव से ठोस अवस्था में-लाया जा सकता है उसी प्रकार गतिशक्ति भी एक रूप से दूसरे रूप में लाई जा सकती है। गति ताप के रूप में परिवर्तित हो सकती है, ताप विद्युत् के रूप में, विद्युत् ताप और प्रकाश के रूप में। राँगे और ताँबे को जोड़कर अगर एक कोना गरम करें और दूसरे को ठंढा रखें तो बिजली पैदा हो जायगी। चकमक के क्षेत्रो में किसी धातु को घुमाने से भी बिजली उत्पन्न होती है। यदि वेग से आते हुए पत्थर के गोले को हम दूसरे पत्थर से बीच ही में रोक लें तो पहले पत्थर की गतिशक्ति रुकने से क्या हुई ? क्या नष्ट हो गई ? नहीं, वह ताप के रूप में परिवर्तित हो गई। दो वस्तुओं की रगड़ से जो गरमी पैदा होती है उसका अनुभव हमें नित्य होता है। इस गरमी के पैदा होने का मतलब यही है कि रगड़ की जो गति है उसने ताप का रूप धारणा कर लिया। कोई शक्ति क्रियमाण् होकर एक द्रव्यखंड
किस प्रकार के द्रव्य किस प्रकार की रेखाओं को लीन कर लेते हैं यह मालूम होने से वैज्ञानिक इन रेखाओं की परीक्षा द्वारा इसका पता लगा लेते हैं कि यह आनेवाला प्रकाश किस द्रव्य से होकर आ रहा है। इसी युक्ति से दूर से दूर के ग्रहों, नक्षत्रो आदि से आते हुए प्रकाश की परीक्षा करके वे बताते हैं कि उनमें कौन कौन से मूल द्रव्य हैं। सूर्य के वायुमण्डल में चाँदी, लोहा, सीसा, राँगा, जस्ता, एलुमीनम, सोडियम, पोटासियम, कार्बन (अंगारक), हाइड्रोजन आदि 36 मूल द्रव्यों का होना स्थिर किया गया है। इसी प्रकार ग्रहों के सम्बन्ध में समझिए जो सूर्य की अपेक्षा कहीं अधिक निकट है।
1- द्रव्य शब्द का अर्थ केवल भूतसमष्टि के अर्थ में समझिए। विशेषिकमें द्रव्य के अन्तर्गत काल, दिक्, आत्मा और मन भी हैं, पर इसके अन्तर्गत नहीं।
से दूसरे खंड में जाते जाते अन्त में ताप के रूप में होकर आकाश द्रव्य में लय को प्राप्त हो जाती है।
शक्ति या तो निहित वा अव्यक्त रूप में रहती है अथवा व्यक्त वा क्रियमाण रूप में। दोनों छोर मिलाकर पकड़े हुए बेत, पहाड़ की ढाल पर अड़े हुए पत्थर, चाभी दी हुई पर न चलती हुई घड़ी, सूखने के लिए फैलाए हुए कोयले, बोरे में कसी हुई बारूद में जो छटकने, चलने, दहकने और भड़कने की शक्ति है वह अव्यक्त वा निहित है। बेत के छटकने, पत्थर के लुढ़कने, घड़ी के चलने, कोयले के दहकने और बारूद के भड़कने पर वही शक्ति व्यक्त वा क्रियमाण कहलायेगी। गति-शक्ति दो प्रकार की क्रियाएँ करती हैं। यह द्रव्य के पिंडों, अणुओं और परमाणुओं को एक दूसरे की ओर खींचती है अथवा उनको एक दूसरे से हटाकर अलग अलग करती है। पिंडों की एक दूसरे को खींचने की शक्ति लोहे और चुम्बक तथा सूर्य और ग्रहपिंडों आदि के आकर्षण में देखी जाती है। अणुओं के परस्पर मिलने से पिंड, परमाणुओं के परस्पर मिलने से अणु और विद्युतणुओं के परस्पर मिलने से परमाणु बनते हैं। इसी प्रकार जहाँ ठोस वस्तु द्रव्य के रूप में आ रही हो, या द्रव्य वस्तु वाष्प या वायु रूप में आ रही हो वहाँ यह समझना चाहिए कि विश्लेषण शक्ति अर्थात अलग करनेवाली शक्ति कार्य कर रही है। शक्ति के सम्बन्ध में यह समझ रखना चाहिए कि यद्यपि द्रव्य के समान उसमें गुरुत्व नहीं होता पर उसके वेग की मात्र का हिसाब होता है। सेर भर पत्थर उठाने में जितनी शक्ति लगती है दो सेर बोझ उठाने में उससे दूगनी शक्ति लगेगी। चलती हुई वस्तुओं का धीमा और तेज होना, गरमी का घटना बढ़ना हम नित्य ही देखते हैं।
द्रव्य के अन्तर्गत कोई 78 मूल द्रव्य या मूलभूत माने गए हैं जिनमें कुछ धातुएँ हैं जैसे, सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, सीसा, राँगा, पारा, निकल, जस्ता, एलुमीनम कुछ और खनिज हैं जैसे, गन्धक, संखिया, सुरमा, मैग्नेशिम और कुछ वायु द्रव्य हैं जैसे, ऑक्सिजन, हाइट्रोजिन, नाइट्रोजन इत्यादि। ये ही 78 मूल द्रव्य आधुनिक रसायन शास्त्रो के अनुसार मूल उत्पादन हैं जिनके परमाणुओं के योग से जगत् के नाना प्रकार के पदार्थ बने हैं। अत: जितने ये मूल द्रव्य हैं उतने ही प्रकार के परमाणु हुए। एक प्रकार के परमाणु के साथ दूसरे प्रकार के परमाणु के मिलने से एक तीसरे रूप के द्रव्य का प्रादुर्भाव होता है-जैसे ऑक्सिजन और हाइड्रोजन नामक मूल द्रव्यों के परमाणुओं के योग से जल की उत्पत्ति होती है। पर ध्यान रखना चाहिए कि यह परिणाम एक विशिष्ट मात्रओ में परमाणुओं के मिलने से होता है। जैसे जल का यदि हम रासायनिक विश्लेषण करें तो उसमें हमें 16 भाग ऑक्सिजन गैस और 2भाग हाइड्रोजन गैस1 मिलेगा। इसी प्रकार यदि हम नमक का विश्लेषण करें तो हमें
1 जस्ते को तेजाब में गला कर यह गैस निकाली जा सकती है।
हमें 35 भाग क्लोराइन और 23 भाग सोडियम मिलेगा। परमाणुओं का मिश्रण ही रासायनिक मिश्रण कहलाता है। 1 परमाणुओं के मिलने से ही रासायनिक क्रिया होती है। भिन्न भिन्न परमाणुओं की भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रवृत्ति होती है जिसके अनुसार कुछ परमाणु कुछ परमाणुओं के साथ मिलते हैं और कुछ के साथ नहीं। इसी को रासायनिक प्रवृत्ति या राग कहते हैं।
परमाणु हैं क्या? नमक का एक टुकड़ा लीजिए और देखिए तो वह अत्यंत सूक्ष्म कणों से मिलकर बना हुआ पाया जायेगा। इन कणों के तब तक और टुकड़े करते जाइए जब तक टुकड़ों में नमकपन बना रहे। इस प्रकार जब टुकड़े अन्तिम दशा को पहुँच जाये अर्थात ऐसे टुकड़े हो जाये जिनके और टुकड़े करने से उनमें नमक का गुण न रह जायेगा तब हम ऐसे टुकड़ों को अणु कहेंगे। ये अणु नमक ही रहेंगे। फिर इन अणुओं के भी यदि हम और टुकड़े करेंगे तो वे परमाणु होंगे और नमक न रह जायँगे अर्थात उनमें से कुछ क्लोराइन के परमाणु होंगे और कुछ सोडियम के। इसी से कहा जाता है कि क्लोराइन और सोडियम के रासायनिक मिश्रण से अर्थात परमाणुओं के मिश्रण से नमक बनता है। अत: नमक एक यौगिक पदार्थ है, मूल द्रव्य नहीं। पर यदि हम मूल द्रव्यों में से कोई एक लेकर उसका परमाणुओं तक विश्लेषण करें तो हमें उसी द्रव्य के परमाणु मिलेंगे और किसी द्रव्य के साथ दूसरे मूल द्रव्य किस प्रकार और किस परिमाण में मिलते हैं तथा मिलने से क्या परिणाम होते हैं इन सब बातों का विचार करनेवाला शास्त्र रसायनशास्त्र कहलाता है। भौतिक विज्ञान द्रव्य के सामान्य गुण तथा गतिशक्ति के नियमों और विधानों का निरूपण करता है। इस प्रकार आजकल प्राकृतिक विज्ञान की दो प्रधान शाखाएँ हैं।
परमाणु नाम पड़ा क्यों ? पहले लोगों की धारणा थी कि परमाणु द्रव्य के सूक्ष्मत्व की चरम सीमा है। परमाणु के और टुकड़े हो ही नहीं सकते। परमाणु अखंड तथा नित्य हैं। दार्शनिकों ने तो परमाणु की कल्पना अन्वस्था से बचने के लिए ही की थी। पहले लोगों को परमाणुओं के बनने बिगड़ने या खंड खंड होने के प्रमाण नहीं मिले थे। पर इधर युरेनियम, रेडियम आदि कई नए मूल द्रव्यों के मिलने से ऐसे प्रमाण भी मिल गए। उनके परमाणुओं की परीक्षा से पता चला कि भारी परमाणु
1 साधारणा मिश्रण से रासायनिक मिश्रण भिन्न होता है। साधारणा मिश्रण में दो पदार्थों के अणु ही देखने में मिले मालूम होते हैं, पर दोनों पदार्थ अलग अलग पहचाने जा सकते हैं। पर रासायनिक मिश्रण में एक के अणुओं के परमाणु निकल निकल कर दूसरे के अणुओं के निकले हुए परमाणुओं से मिल जाते हैं जिससे एक तीसरे पदार्थ की उत्पत्ति होती है। जैसे, गन्धक के चूर्ण के साथ लौहचूर्ण मिला कर यों ही रख दें तो यह साधारणा मिश्रण होगा। इसी मिश्रण को यदि खूब तपायें जिससे अणु टूट जायें और परमाणु अलग अलग हो जायें तो दोनों के परमाणुओं के मिलने से एक नए प्रकार के पदार्थ की उत्पत्ति होगी । यह मिश्रण रासायनिक होगा।
के कण अत्यंत वेग से उड़ते जाते हैं और फिर मिलकर हल्के परमाणु बनाते जाते हैं। ये कण विद्युतणु कहलाते हैं। इन्हीं के मिलने से परमाणुओं की योजना होती है।
मूलभूत और परमाणु की कल्पना इसी रीति पर हमारे यहाँ के वैशेषिक दर्शन में भी हुई है। द्रव्यखंड के टुकड़े करते करते हम ऐसे टुकड़ों तक पहुँचेंगे जिनके और टुकड़े यदि हम करें तो वे अगोचर हो जायँगे। ये ही अगोचर टुकड़े परमाणु होंगे तथा इनके और टुकड़े न हो सकेंगे। वैशेषिक के अनुसार परमाणु नित्य और अक्षर हैं। इन्हीं की योजना से सब पदार्थ बनते हैं और सृष्टि होती है। आकाश को छोड़ जितने प्रकार के भूत होते हैं उतने ही प्रकार के परमाणु होते हैं- यथासभंव, पृथ्वीपरमाणु, जलपरमाणु, तेजपरमाणु और वायुपरमाणु । परमाणु रूप में, आकाश के समान, शेष चारों भूत भी नित्य हैं। आधुनिक विज्ञान ने पृथ्वी, जल और वायु को द्रव्य का अवस्था भेद सिद्ध किया और तेज को गतिशक्ति का एक रूप मात्र । अत: परमाणु भी चार प्रकार के नहीं, अठहत्तर प्रकार के ठहराए गए। कुछ लोग नई बातों के साथ पुरानी बातों का अविरोध सिद्ध करने के लिए भूतों को ठोस, द्रव, वायु और अतिवायु अवस्थाओं के सूचक मात्र कहने लगे हैं। पर परमाणुओं के वर्गीकरण की ओर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो सकता है कि वैशेषिक का अभिप्राय अवस्था-भेद नहीं है गुणभेद के अनुसार द्रव्य भेद ही है जैसे, जल में सांसिद्धिक या स्वाभाविक द्रवतत्व का गुण है अत: वह एक मूल द्रव्य है। पर आधुनिक रसायनशास्त्र ने जल को किस प्रकार यौगिक सिद्ध किया है यह ऊपर कहा जा चुका है। मूलभूतों और परमाणुओं का सम्बन्ध वैशेषिक ने उसी रीति से निर्धारित किया है जिस रीति से आधुनिक रसायनशास्त्र ने किया है। यह हमारे लिए कम गौरव की बात नहीं है। ब्योरा ठीक न मिलने के कारण इस पर परदा डालने की जरूरत नहीं।
वैशषिक में दो परमाणुओं के योग को द्रव्यणुक कहते हैं। आगे चल कर ये ही द्रव्यणुक अधिक संख्या में मिलते जाते हैं जिससे नाना प्रकार के पदार्थ बनते हैं जैसे, तीन द्रव्यणुकों से त्रासरेणु, चार द्रव्यणुकों से चतुरणुक इत्यादि। कारण गुण पूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं अत: जिस गुण के परमाणु होंगे उसी गुण के उनसे बने पदार्थ होंगे। पदार्थों में जो नाना भेद दिखाई पड़ते हैं वे सन्निवेश भेद से होते हैं। तेज के सम्बन्ध से वस्तुओं के गुण में बहुत कुछ फेरफार हो जाता है-जैसे, कच्चा घड़ा पकने पर लाल हो जाता है।
परमाणु का प्रत्यक्ष नहीं होता। परमाणु की बात छोड़ दीजिए, अणुओं की सूक्ष्मता भी कल्पनातीत है। तीव्र से तीव्र सूक्ष्मदर्शक यत्रों उनका दर्शन नहीं करा सकते।उनका निरूपण उनके कार्यों द्वारा गणित आदि के सहारे से ही किया जाता है। जल का ही अणु लीजिए जो इंच के भाग के बराबर होताहै। अब इस अणु की योजना करने वाले परमाणुओं की सूक्ष्मता का इसी से अदांजा कर लीजिए। विद्युतअणु तो उनसे भी सूक्ष्म हैं। हिसाब लगाया गया है कि हाइड्रोजन के एक परमाणु में 16000 और रेडियम के एक परमाणु में 160000 विद्युतअणु होते हैं। इन विद्युतअणुओं के बीच का अन्तर उनकी सूक्ष्मता के हिसाब से बहुत अधिक होता है उतना ही होता है जितना सौरजगत् के ग्रहों के बीच होता है1। अपने परमाणु-जगत् के अन्तरिक्ष में ये परस्पर शक्ति-सम्बद्ध होकर निरन्तर उसी प्रकार वेग से भ्रमण करते रहते हैं जिस प्रकार सौर जगत् में ग्रह उपग्रह भ्रमण करते हैं। इसी का नाम है भवचक्र। परमाणु के भीतर भी वही व्यापार हो रहा है जो ब्रह्मांड के भीतर। 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' वाली बात समझीए । जो गतिशक्ति आकर्षण और अपसारण के रूप में छोटे से द्रव्यखंड के परमाणुओं को परस्पर सम्बद्ध रखकर भ्रमण कराती है वही समस्त जगत् में नक्षत्रों ग्रहों और उपग्रहों को अपने पथ पर रखकर चक्कर खिलाती है। शक्ति की इसी दोमुँही चाल से जगत् की स्थिति है। यदि शक्ति अपने एक ही रूप में कार्य करती तो जगत् की यह अनेकरूपता न रहती, या यों कहिए कि जगत् ही न रहता। यदि आकर्षण-क्रिया ही स्वतन्त्र रूप सेचलती, उसे बाधा देने वाली अपसारिणी क्रिया न होती तो अखिल विश्व के समस्त परमाणु खिंच कर एक केन्द्र पर मिल जाते और विश्व एक ऐसा अचल, जड़ और ठोसगोला होता जिस पर न नाना प्रकार के पदार्थ होते, न जीवजंतु और पेड़ पौधो होते और न कोई व्यापार होता। इसी प्रकार यदि केवल अपसारिणी क्रिया ही होती तो विश्व के समस्त परमाणु अलग अलग बिखरे होते, मिलकर जगत् की योजना न करते।
द्रव्य और शक्ति (गति) का नित्य सम्बन्ध है। एक की भावना दूसरे के बिना हो नहीं सकती। न शक्ति के बिना द्रव्य रह सकता है और न द्रव्य के आश्रय के बिना शक्ति कार्य कर सकती है। अपने चारों ओर जो कुछ हम देखते हैं वह सब द्रव्य और शक्ति का ही कार्य है। कोई द्रव्यखंड लीजिए, शक्ति ही से उसकी स्थिति ठहरेगी। जमीन पर पड़ा हुआ एक ढेला ही लीजिए। आपके देखने में तो वह महा जड़ और निष्क्रिय है। पर विचार कर देखिए तो गतिशक्ति की क्रिया बराबर उसमें हो रही है, बल्कि यों कहिए कि उसी क्रिया से ही उसकी स्थिति है। वह जमीन पर पड़ा क्यों है? पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से। वह ढेले के रूप में क्यों है? उसके अणु आकर्षण शक्ति द्वारा परस्पर सम्बद्ध हैं।
द्रव्य और शक्ति दोनों अक्षर और अविनाशी हैं। वे अपने एक रूप से दूसरे रूप में जा सकते हैं, पर नष्ट नहीं हो सकते। उनका अभाव नहीं हो सकता। सिद्धांत
1 परमाणुओं के बीच अन्तर की धारणा न होने के कारण विशेषिक को 'पौलुपाक' नाम का विलक्षण मत ग्रहण करना पड़ा। इस मत के अनुसार घड़ा आग में पड़कर लाल इस प्रकार होता है कि अग्नि के तेज से घड़े के परमाणु अलग अलग हो जाते हैं, फिर लाल होकर मिल जाते हैं। घड़े का यह बिगड़ना और बनना इतने सूक्ष्म काल में होता है कि कोई देख नहीं सकता। न्याय वाले परमाणुओं के बीच अन्तर मान कर ऐसी कल्पना नहीं करते।
यह कि विश्व में जितना द्रव्य है उतना ही सदा से है, और सदा रहेगा-उतने से न घट सकता है, न बढ़ सकता है। इसी प्रकार शक्ति को भी समझिए जो द्रव्य में समवेत है। यह दार्शनिक अनुमान नहीं है, परीक्षा सिद्ध सत्य है। मोमबत्ती जल कर नष्ट नहीं हो जाती, धातुएँ के रूप में अर्थात वायु रूप में हो जाती है। यदि इस वायु पदार्थ को लेकर हम तौलें तो उसकी तौल मोमबत्ती की तौल के बराबर होगी। शक्ति की अक्षरता की परीक्षा इस प्रकार हो सकती है कि किसी बोझ के उठाने में हम कुछ शक्ति व्यय करें और उस शक्ति को ताप के रूप में लाकर ताप की मात्र नाप लें। फिर कभी उसी बोझ को उठाने में उतनी ही शक्ति लगा कर और उसे ताप के रूप में परिवर्तित करके ताप की मात्र नापें। ताप की दोनों मात्रएँ समान होंगी।
सूक्ष्मअतिसूक्ष्म परमाणु भी एक दूसरे को आकर्षित कर रहे हैं और ग्रह, उपग्रह, नक्षत्रा आदि विशाल लोकपिंड भी। उनके बीच आकर्षण शक्ति बराबर कार्य कर रही है। ग्रहों, नक्षत्रों आदि के बीच जो भारी अन्तर है वह प्रत्यक्ष ही है। अणुओं, परमाणुओं आदि के बीच कितना अन्तर रहता है, यह ऊपर बतलाया ही जा चुका है। यह अन्तर क्या शून्य है? यदि शून्य है तो आकर्षणशक्ति की क्रिया होती किस प्रकार है? क्योंकि ऊपर कहा जा चुका है कि द्रव्य के आश्रय के बिना शक्ति कार्य ही नहीं कर सकती। न्यूटन भी, जिसने युरोप में पहले पहल आकर्षण शक्ति का पता पाया था, इस असमंजस में पड़ा था। अन्तरिक्ष के बीच केवल आकर्षणशक्ति कार्य करती हो सो भी नहीं। सूर्य की गरमी और सूर्य का प्रकाश बराबर हम तक पहुँचता है। ताप और प्रकाश भी गतिशक्ति के ही रूप हैं। अत: क्या ये भी शून्य से ही होकर गमन करते हैं। यह हो नहीं सकता। शक्ति के कार्य करने के लिए मध्यस्थ द्रव्य अवश्य चाहिए। इसलिए वैज्ञानिकों को द्रव्य के ऐसे रूप का आरोप करना पड़ा जो अखंड, अनन्त, विभु और विश्वव्यापक हो, जो अण्वात्मक न हो। इस सूक्ष्मअतिसूक्ष्म अखंड और व्यापक द्रव्य का नाम उन्होंने ईथर रखा। आप आकाश द्रव्य कह लीजिए1 क्योंकि प्रकाश के साथ इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है भी। यह सीसे
1 विशेषिक ने आकाश को दिक् (स्पेस) से अलग माना है और उसे भूतों के अन्तर्गत किया है। दिक् किसी वस्तु का समवायिकारण नहीं हो सकता, पर आकाश शब्द का समवायिकारण है। न्याय में उपादान को ही समवायिकारण कहा है, जैसे कपड़े के लिए सूत और कुण्डल के लिए सोना। विशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद ने भी कहा है कि द्रव्यों में जो समवाय रहता है वह तादात्म्य रूप से ही। अत: 'आकाश शब्द का समवायिकारण है' इस बात को यदि आधुनिक भौतिक विज्ञान के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि 'आकाश द्रव्य की तरंगों से ही शब्द बनते हैं'। आधुनिक भौतिक विज्ञान में शब्द वायुतरंग रूप सिद्ध हुए हैं, क्योंकि आकाश के रहते भी वायु के बिना शब्द नहीं होता। आकाशद्रव्य के तरंगों से प्रकाश की उत्पत्ति होती है। आजकल की इस बात को यदि हम अपने दर्शन के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि 'आकाश प्रकाश का समवायिकारण है'।
के गोले के परमाणुओं के बीच भी फैला है और ग्रहों-नक्षत्रों के बीच के अन्तरिक्ष में भी। इससे खाली कोई जगह नहीं। यह सर्वत्रा अखंड और एक रस है। ईथर को दिक् के समान एक शून्य कल्पना न समझना चाहिए। इसमें घनत्व है, यह भूतद्रव्य का ही एक सूक्ष्म रूप है। वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि इसका घनत्व जल के घनत्व का है। 105 कोस की ऊँचाई पर वायुमण्डल भी इतना ही पतला है। उसके आगे वह और भी पतला है1। ईथर उसकी अपेक्षा कम पतला है। यह सारा हिसाब किताब ऊपर ही ऊपर से प्रकाश और ताप के व्यापार से लगाया गया है। ईथर पकड़ में आने वाला द्रव्य नहीं, यह एक अग्राह्य पदार्थ है। वैज्ञानिकों ने इसकी परीक्षा केवल प्रकाश के वाहक के रूप में की है। प्रकाश और ताप का प्रवाह तरंगों के रूप में चलता है। यदि कोई मध्यस्थ नहीं तो ये तरंगें कैसी? विद्युताकर्षण और अपसारण की व्याख्या भी इस प्रकार के मध्यवर्ती द्रव्य के बीच किसी स्थान पर दबाव मानने से ही अच्छी तरह होती है। विद्युतप्रवाह की समस्या का समाधान भी मध्यस्थ द्रव्य का स्पन्दन माने बिना ठीक ठीक नहीं हो सकता। चुम्बक की क्रिया भी किसी मध्यस्थ द्रव्य में भँवर या मरोड़ पड़ने के कारण मालूम होती है। सारांश यह कि यह मानना पड़ता है कि प्रकाश और ताप आदि का वहन करने वाला कोई एकरस प्रवाह रूप पदार्थ अवश्य है जिसमें तरंगें उठती हैं, भँवर पड़ते हैं। जिस प्रकार जल में किसी ठोस पदार्थ के पड़ने पर किनारे हटने और फिर आ जाने का गुण है उसी प्रकार ईथर में भी है। पर यह साधार्म्य होते हुए भी जल में और इसमें बहुत अन्तर है। जल अणुमय है, यह अखंड और सर्वगत है। जल ही क्या ग्राह्य द्रव्य मात्र से इसके गुण भिन्न हैं। यद्यपि घनत्व, लचक, अखंडत्व आदि इसके गुण प्रकाश और ताप आदि के व्यापारों द्वारा निरूपित हुए हैं पर यह है किस प्रकार का अभी तो ठीक ठीक समझ में नहीं आया है, आगे की नहीं कह सकते।
लार्ड केलविन ने इसी ईथर को जगत् का उपादान ठहराया है। उन्होंने कहा कि समस्त ग्राह्य द्रव्यखंड इसी ईथर के भँवर मात्र हैं। 2 सर विलियम कुक्स ने भी सब प्रकार के द्रव्यों या परमाणुओं का आधारभूत एक ही महाभूत माना है जिसके और सब परिणाम हैं। इस प्रकार जगत् के मूल प्राकृतिक उपादान की एकता विज्ञान
1 पृथ्वी से 12 योजन के आगे जो वायु है उसका हमारे यहाँ के प्राचीन ग्रन्थों में 'प्रवह' नाम है। 12 योजन तक 'आवह' वायु है।
2 तैत्तिरीयोपनिषद् में भी परमात्मा से पहले पहल आकाश की उत्पत्ति कही गई है, फिर आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। आकाशाद्वायु:, वायोरग्नि: अग्नेराप:, अद्भ्य: पृथ्वि।
में स्वीकृत हुई। हैकल ने जिस रूप में इस सिद्धांत को लिया है उसके अनुसार ईथर महाभूत की साम्यावस्था के प्रथम भंग का परिणाम है अर्थात साम्यावस्था भंग होने पर कुछ द्रव्य तो अण्वात्मक ग्राह्य रूप में आ जाता है और शेष कुछ और सूक्ष्म होकर अपने अग्राह्य और अखंड रूप में ही रहता है जिसे ईथर कहते हैं। पर किस प्रकार ईथर में भँवर पड़ते हैं और पहले पहल अणुओं का विधान होता है, किस प्रकार एक निर्विशेष महाभूत विशेषत्व की ओर प्रवृत्त होता है, किस प्रकार प्रकृति की साम्यावस्था भंग होती है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। यह एक समस्या रह सी जाती है। रहने दीजिए, यह औरों के काम की है।
विज्ञान की दृष्टि से जगत् की उत्पत्ति इस प्रकार निरूपित हुई है। अपनी साम्यावस्था भंग होने के पीछे द्रव्य अत्यंत सूक्ष्म नीहारिका के रूप में बहुत दूर तक फैला रहा। संयोजक शक्ति द्वारा द्रव्य-विस्तार के अणु खिंच कर परस्पर मिलने लगे जिससे संचित वियोजक या अपसारिणी शक्ति छूट पड़ी और दो रूपों में व्यक्त होकर कार्य करने लगी, अणुचालक और पिंडचालक। अणुचालक गति द्वारा अणुओं में एक प्रकार का स्पंदन या दोलन सा होने लगा। यह गति ताप और प्रकाश के रूप में व्यक्त होकर फैली। पिंडचालक गति द्वारा अणुओं से बने हुए पिंड लट्टू की तरह घूमते हुए गोल परिधि या मण्डल बाँधकर चक्कर लगाने लगे। इसी प्रकार नक्षत्रों, ग्रहों, उपग्रहों आदि की व्यवस्था का सूत्रापात हुआ। सौर जगत् की उत्पत्ति का विधान इसी रूप में निश्चित किया गया है। इस विधान को अब अपने सौर जगत् पर घटाकर देखिए कि नीहारिका मंडल से सूर्य और नाना ग्रहों-उपग्रहों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई।
ज्योतिष्क नीहारिका मंडल पहले अत्यंत वेग से घूमता हुआ गोला था। अणुओं के केन्द्र की ओर आकर्षित होने से वह क्रमश: भीतर की ओर सिमट कर जमने लगा जिससे उसके किनारे घूमते हुए नीहारिका के वलय या छल्ले रह गए। केन्द्र की ओर सिमटा हुआ द्रव्य हमारा सूर्य हुआ। नीहारिका वलय भी क्रमश: जमकर गोलों के रूप में हुए और केन्द्रस्थ द्रव्य (सूर्य) से अलग होकर उसके चारों ओर वेग से घूमने लगे। ये ही पृथ्वी, मंगल, बुध आदि ग्रह हुए। इनके जमने पर भी किनारे छल्ले रह गए जो क्रमश: जम कर इन ग्रहों के उपग्रह हुए-जैसा कि चन्द्रमा हमारी पृथ्वी का है। जो छल्ला केन्द्रस्थ द्रव्य से जितनी दूरी पर था उससे जम कर बना हुआ पिंड उतनी ही दूरी पर से उसकी परिक्रमा करने लगा। जिस ग्रह के किनारे जितने छल्ले थे उसके उतने ही चन्द्रमा हुए। जैसे, बृहस्पति की परिक्रमा करनेवाले आठ चन्द्रमा हैं। जितने ग्रह हैं सब एक अवस्था में नहीं हैं। ग्रहपिंड केन्द्रस्थ द्रव्य समूह या सूर्य से छूट कर अलग होने पर ज्वलंत वायु अवस्था से जम कर अपरिमित ताप से युक्त ज्वलंत द्रव द्रव्य-जैसे, गरमी से पिघलकर पानी से भी पतला होकर बहता हुआ लाल लोहा के रूप में हुए। क्रमश: उनका ऊपरी तल ठंढा होकर जमता गया और ठोस पपड़ी के रूप में होता गया। जो ग्रह जमते जमते सारा ठोस हो गया अर्थात जिसकी सब गरमी निकल गई वह मुर्दा हो गया; उसमें, जल, वायु आदि कुछ नहीं रह गया। हमारा चन्द्रमा इसी अवस्था में है। पृथ्वी का ऊपरी तल तो ठोस पपड़ी के रूप में हो गया है, पर बहुत गहराई तक नहीं। इसके भीतर वही ज्वलंत द्रवद्रव्य मौजूद है जो अपना अस्तित्व ज्वालामुखी के स्फोट और भूकंप आदि द्वारा प्रकट करता रहता है। बृहस्पति अभी ज्वलंत द्रव अवस्था से क्रमश: जमना आरंभ कर रहा है। मंगल पृथ्वी से भी अधिक जमकर ठोस हो चुका है। शनि और बृहस्पति दोनों अब तक वलयवेष्ठित हैं। ये सब बातें तो अच्छे अच्छे दूरवीक्षण यत्रों की सहायता से ही देखी जा सकती हैं। पर रंगों के हिसाब से भी तारों और ग्रहों की अवस्था का मोटा अदांज हो सकता है। जो ग्रह काला और कान्तिहीन दिखाई दे उसे समझना चाहिए कि मर चुका है। फिर जब किसी और तारे से वह टक्कर खाएगा तब उसमें नए तेज और नई शक्ति का संचार होगा और दूसरे लोकपिंड की सृष्टि होगी। ज्वलंत नीलाभ ग्रहों को पूर्ण यौवनावस्था में समझना चाहिए। कुछ विशेषताओं से युक्त लाल तारों को समझना चाहिए कि वे क्रमश: नाश को प्राप्त हो रहे हैं। जो ज्वालाखंड जितना ही बड़ा था उसके ऊपरी तल के ठंढे होकर द्रवरूप में आने और फिर और जमकर ठोस होने में उतना ही अधिक काल लगा है। अभी हमारा सूर्य वायु और द्रव अवस्था में ही है। भीतर तो वह जलती हुई वायु अर्थात ज्वाला या लपट के रूप में है जिसके प्रचण्ड ताप का अनुमान तक हम लोग नहीं कर सकते पर उसके ऊपर का तल कुछ गरमी निकल जाने से जम कर वायु से ज्वलंत द्रव द्रव्य के रूप में आ गया है।
पृथ्वी का यह ठोस तल जिस पर हम लोग बसते हैं धीरे-धीरे परत पर परत जमने से कई करोड़ वर्षों में बना है। इन परतों का जमना उस कल्पना से आंरभ हुआ है जिस कल्पना में पृथ्वी की पपड़ी इतनी ठंढी पड़ गई कि उसके ऊपर भाप की जो गहरी तह चढ़ी थी, जैसी कि बृहस्पति में अब तक दिखाई देती है वह जमी और जल का आविर्भाव हुआ, समुद्रों की सृष्टि हुई। नदियों का जल किस प्रकार पहाड़ों और ऊँचे स्थानों की मिट्टी या चट्टानों को काट काट कर अपने मार्ग में ईधर उधर रेत और मिट्टी की तह पर तह जमाता जाता है इसे प्राय: सब लोग जानते हैं। समुद्र भी सदा इसी व्यापार में लगा रहता है और अपने तटों की मिट्टी या चट्टानों को काट काटकर अपने गर्भ में बिछाता जाता है। सारांश यह कि जल का यह कार्य ही है। आदिकाल से ही वह ऊँचे स्थानों की चट्टानों को रेत, मिट्टी आदि के रूप में अपने नीचे बिछाता चला आ रहा है। यदि पृथ्वी पर केवल जल ही कार्य करता होता तो पृथ्वी का सारा तल कब का जल के भीतर हो गया होता और इस पृथ्वी के गोले के ऊपर जल ही जल होता, सूखी जमीन कहीं न होती। पर पृथ्वी के ठोस आवरण के भीतर तो अभी द्रव्य अग्नि का गोला ही है जो ऊपर पपड़ी छोड़ता हुआ क्रमश: ठंढा होता चला जाता है। अत: गर्भस्थ प्रचंड ताप की शक्ति दबाव पाकर समय समय पर पपड़ी के रूप में जमे हुए आग्नेय द्रव्य तथा पिघली हुई चट्टानों को बड़े वेग से ऊपर की ओर फेंका करती है जिससे बड़े बड़े पहाड़ निकलते हैं और कम गहरे समुद्रों का तल भी सूखे स्थल के रूप में उठा करता है। भूकंप, ज्वालामुख पर्वतों के स्फोट इसी अभ्यन्तर ताप के प्रभाव से होते हैं। भूकंप के धक्कों से कहीं एक बारगी समूचा पहाड़ निकल पड़ा है, कहीं पहाड़ी की पहाड़ी नीचे धँस कर गायब हो गई है। ये सब भूगर्भस्थ ताप के उग्र व्यापार हैं जिन पर हमारा ध्यान जाता है। पर ये व्यापार बराबर इतने धीरे धीरे भी होते रहते हैं कि हमें जान नहीं पड़ते हैं। पृथ्वी के नाना भागों की परीक्षा करने से देखा जाता है कि कोई खंड क्रमश: ऊपर की ओर उठ रहा है और कोई नीचे की ओर धँस रहा है। इस प्रकार जल को नई-नई परतें जमाने के लिए बराबर सामग्री मिलती जाती है।
नीचे के आग्नेय द्रव्य के ऊपर आने और पिघले हुए द्रव्य के ठंढे होकर जमने से जो चट्टानें बनी हैं उन्हें अग्न्युपल या बिना परत की चट्टानें कहते हैं। जल के भीतर थिरा कर परत पर परत जमने से जो चट्टानें (चट्टान शब्द से अभिप्राय उन सब ढेरों या तहों से है जिनसे पृथ्वी का ठोस ऊपरी तल बना है-क्या पत्थर, क्या मिट्टी, क्या रेत, क्या कोयला, क्या खरिया सब। भूगर्भविद्या में चट्टान शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है) बनी हैं उन्हें वरुणस्तर या परतवाली चट्टानें कहते हैं। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि परतवाली चट्टानें आग्नेय चट्टानों के ही धवंस या चूर्ण से बनी हैं। जल के भीतर बनी हुई इन्हीं परतवाली चट्टानों की परीक्षा द्वारा भूगर्भवेत्ता पृथ्वी के नाना कल्पों और युगों का विभाग करते और जंतुओं की उत्पत्ति का क्रम सूचित करते हैं। बात यह है कि इन्हीं की तहों के बीच पूर्व कल्प के जीवों के अवशेष (जैसे, अस्थिपंजर, पेड़ों के धाड़ और डालियाँ आदि) या उनके अस्तित्व के चिन्ह (जैसे, पक्षियों के पैरों के चिन्ह, कीड़ों के खोदे हुए बिल, पूर्वयुग के मनुष्यों के बनाए हुए पत्थर के हथियार इत्यादि) मिलते हैं। सबसे प्राचीन कल्प के अर्थात सबसे पहले बननेवाले स्तरों में शुक्तिवर्ग के क्षुद्र कीटों से लेकर सबसे निम्नकोटि की मछली (अर्थात अत्यंत क्षुद्र कोटि के रीढ़वाले जंतु) तक के अवशेष मिलते हैं। इनसे पीछे के स्तरों में मछलियों, सरीसृपों, पक्षियों तथा दूधा पिलानेवाले जंतुओं के पंजर मिलते हैं। जंतुओं के अवशेष से भी विशिष्ट पदार्थों की चट्टानें बनती हैं-जैसे, खरिया मिट्टी की चट्टानें जो समुद्र में रहनेवाले अत्यंत सूक्ष्म कृमियों की ठोस खोलड़ी के तह पर तह जमने से बनती हैं। पत्थर का कोयला क्या है? पूर्वयुग के पेड़ पौधों के अवशेष जो तह पर जमते गए वे ही अभ्यन्तर ताप की तरंगों के योग से कोयले के थक्के के रूप में हो गए। चट्टानों के जमने का हिसाब लगा कर भूगर्भवेत्ता पृथ्वी की प्राचीनता का अनुमान करते हैं। जैसे, पेड़ों की पचास पुश्त की लकड़ी के जमने से एक फुट मोटा कोयले का थक्का बनता है। कोयले की तह की मोटाई बारह हजार फुट तक मानी गई है। यदि पेडों की हर एक पीढ़ी के लिए दस दस वर्ष भी रख ले तो इस हिसाब से बारह हजार फुट कोयला जमने में कम से कम छ: करोड़ वर्ष लगे होंगे।
पृथ्वी की उत्पत्ति हुए कितना काल हुआ इस विषय में भूगर्भवेत्ताओं और भौतिक विज्ञानियों में थोड़ा मतभेद है। भूगर्भवेत्ता पृथ्वी का कालनिर्णय उस हिसाब से करते हैं जिस हिसाब से चट्टानों की तहें पानी के नीचे जम रही हैं या बरसाती पानी और नदियों के बहाव से जमीन के ऊपर की मिट्टी कट रही है। वे यह मानकर चलते हैं कि जिस गति से पृथ्वी पर परिवर्तन आज हो रहे हैं उसी गति से पहले भी बराबर होते आए हैं। पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। सम्भव है बहुत से परिवर्तन जिनके लिए उन्होंने लाखों वर्ष रखे हैं विप्लव के रूप में बात की बात में हुए हों। भूगर्भवेत्ताओं के हिसाब से उस काल को बीते दस करोड़ वर्ष के लगभग हुए होंगे जिसमें पहले पहल पानी के भीतर जमनेवाली चट्टानों की तह पड़ी और मूल आदिम अणुजीवों का प्रादुर्भाव हुआ। भौतिक विज्ञान वाले सूर्यके ताप की उत्पत्ति के और गति के विचार से, तथा जिस हिसाब से पृथ्वी का ऊपरी तल ठंढा होता गया है उसके विचार से और कम काल बताते हैं। एक दूसरी आधुनिक युक्ति सृष्टिकालनिर्णय की यह है कि प्रतिवर्ष नदियों का जो जल समुद्र में जाता है उसके द्वारा समुद्रजल में नमक की वृद्धि किस हिसाब से होती है इसका परत बैठा कर आंरभकाल निकाले। इस हिसाब से भी नौ दस करोड़ वर्ष आते हैं।
भूगर्भवेत्ता पृथ्वी पर जीवोत्पत्ति से लेकर आज तक के काल को चार मुख्य कल्पों में बाँटते हैं-
प्रथम कल्प- पौधों में सिवार, काई और पुष्पहीन पौधो। जंतुओं में स्पंज, मूँगे, शुक्तिवर्ग के कीड़े, कीटपतंग, ढालदार मछली जो रीढ़वाले जंतुओं में सब से निम्न कोटि की है।
द्वितीय कल्प- पेड़ों में खजूर, ताड़ इत्यादि जिनकी बाढ़ भीतर की ओर से सीधो ऊपर की ओर को होती है और जिनके धाड़ में लकड़ी, हीर और छाल का स्पष्ट भेद नहीं होता। जंतुओं में समुद्र में रहनेवाली विशाल आकार की छिपकलियाँ, पक्षी, पक्षियों और स्तन्य जीवों के बीच के अंडज स्तन्य (दूधा पिलाने वाले), अजरायुजों और जरायुजों के बीच के अजरायुज पिंडज (आजकल के वं+गारू से मिलते जुलते) जीव।
तृतीय कल्प- बड़े भारी जरायुज जंतु। मनुष्य के आकार के बनमानुस।
चतुर्थ कल्प- हाथी की तरह के पर उससे बहुत बड़े और रोएँदार मैमथ आदि जंतु। मनुष्य तथा वे सब जीव जो आजकल पाए जाते हैं।
किस प्रकार एक जाति के जंतु या पौधो से क्रमश: दूसरी जाति के जंतुओं और पौधों की उत्पत्ति होती गई है इसका निरूपण विकास सिद्धांत द्वारा किया गया है। इस पृथ्वी के पूर्वकल्पों में न जाने कितने ऐसे जंतु हो गए हैं जिनका वंश लुप्त हो गया है, जो अब कहीं नहीं मिलते, पर जिनकी ठटरियाँ जमीन के नीचे दबी मिलती हैं। मैमथ इसी प्रकार का जंतु हो गया है जो हाथी के रूप का था पर उससे बहुत बड़ा और रोएँदार होता था। बीस-बीस हाथ लम्बी ऐसी काँटेदार छिपकलियों की ठटरियाँ मिली हैं जो हवा में उड़ती थीं। अब वे भीमकाय और भयंकर जंतु पृथ्वी पर नहीं रह गए। एक प्रकार के जंतु से दूसरे प्रकार के जंतु एकबारगी तो उत्पन्न नहीं हो गए। दोनों के बीच की वंश परम्परा में ऐसे जंतु रहे होंगे जिनमें थोड़े बहुत दोनों के लक्षण रहे होंगे। इस प्रकार के मध्यवर्ती जंतु कुछ तो अब भी मिलते हैं और कुछ की ठटरियाँ भूगर्भ में मिलती हैं। इन ठटरियों से प्राणिविज्ञान विदों को एक प्रकार के जंतु से दूसरे प्रकार के जंतु की उत्पत्ति की शृंखला जोड़ने में बड़ा सहारा मिलता है। जैसे, विकास सिद्धांत द्वारा स्थिर हुआ है कि पंजेवाले जंतुओं से ही क्रमश: घोड़े आदि टापवाले जंतुओं का विकास हुआ है, पर आजकल घोड़े की तरह का कोई ऐसा जंतु नहीं मिलता जिसमें उँगलियों के चिन्ह हों। पर घोड़े की तरह के ऐसे जंतुओं की ठटरियाँ मिली हैं जिनके पैरों में उँगलियाँ या उँगलियों के चिन्ह हैं। वे घोड़ों के पूर्वज थे।
जीवधारियों के सम्बन्ध में पहले लोगों की धारणा थी कि जितने प्रकार के जीव आजकल हैं सब एकसाथ सृष्टि के आंरभ में ही उत्पन्न हो गए थे अर्थात जितने प्रकार के जीवों के ढाँचे आदि में थे वे सब बिना किसी परिवर्तन के अब तक ज्यों के त्यों चले आ रहे हैं। डारविन ने इस विश्वास का खंडन किया और 'विकास सिद्धांत' की स्थापना करके यह सिद्ध कर दिया कि ये अनेक प्रकार के ढाँचों के जो इतने जीव दिखाई पड़ते हैं, सब एक ही प्रकार के अत्यंत सादे ढाँचे के क्षुद्र आदिम जीवों से, क्रमश: करोड़ों वर्ष की वंशपरम्परा के बीच, स्थिति के अनुसार अपने अवयवों से भिन्न भिन्न परिवर्तन प्राप्त करते हुए और उत्तरोत्तर भेदानुसार अनेक शाखाओं में विभक्त होते हुए उत्पन्न हुए हैं। इसी विकास क्रम के अनुसार मनुष्य जाति भी पूर्व युग के उन जीवों से उत्पन्न हुई जिनसे बन्दर, बनमानुस आदि उत्पन्न हुए-अर्थात बनमानुसों और मनुष्यों के पूर्वज एक ही थे। इस विकासवाद से बड़ी खलबली मची। इसकी बात जनसाधारणा के विश्वास और धर्मपुस्तकों की पौराणिक सृष्टिकथा के विरुद्ध थी। हमारे यहाँ भी पुराणों में योनियाँ स्थिर कही गई हैं और उनकी संख्या भी चौरासी लाख बता दी गई है। गरुड़पुराण् में तो प्रत्येक वर्ग की योनियों की गिनती तक है। 1 डारविन ने यह अच्छी तरह सिद्ध करके दिखा दिया कि एक जाति के जीवों से ही क्रमश: दूसरी जाति के जीवों की उत्पत्ति हुई है। योनियाँ स्थिर नहीं हैं, स्थिति भेद के अनुसार असंख्य पीढ़ियों के बीच उनके अवयवों आदि में परिवर्तन होते आए हैं जिससे एक योनि के जीवों से दूसरी योनि के जीवों की शाखा चली है। जिस 'जात्यंतरपरिणाम' को एक व्यक्ति में तीव्र परिणाम के रूप में पतंजलि ने अपने योगदर्शन में प्रकृति की पूर्णता से सम्भव बतलाया था1 उसी को डारविन ने मृदु परिणाम के रूप में वंशपरम्परा के बीच प्रकृति का एक नियम सिद्ध किया।
यह 'जात्यन्तरपरिणाम' होता किस प्रकार है? 'वंशपरम्परा' और 'प्राकृतिक ग्रहण' के नियमानुसार। वंशपरम्परा का नियम यह है कि जो विशेषता किसी जीव में उत्पन्न हो जाती है वह पीढ़ी दर पीढ़ी चली चलती है और क्रमश: अधिक स्पष्ट होती जाती है। किसी जीव में कोई नई विशेषता उत्पन्न कैसे होती है? परिस्थिति के अनुसार। जिस स्थिति में जो जीव पड़ जाते हैं उसके अनुकूल उनके अंग और उनका स्वभाव क्रमश: होता जाता है। नई स्थिति में जिन अंगों के व्यवहार की आवश्यकता नहीं रह जाती वे निष्क्रिय होते होते कई पीढ़ियों के पीछे लुप्त हो जाते हैं। जिन अवयवों का जिस रूप में व्यवहार आवश्यक हो जाता है उस रूप के व्यवहार के उपयुक्त उनके ढाँचे में भी फेरफार हो जाता है। ऐसा एक दो दिन में नहीं होता, असंख्य पीढ़ियों के बीच मृदु परिणाम के रूप में क्रमश: होता जाता है। परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होना बराबर देखा भी जाता है। एक प्रकार का साँप होता है जो बालू में अण्डे देता है। उसे यदि पिंजड़े में बन्द करके रखते हैं तो वह बच्चे देने लगता है, अर्थात अण्डज से पिंडज हो जाता है। जो विशेषता एक बार उत्पन्न हो जाती है वह बराबर पीढ़ी दर पीढ़ी चली चलती है और बढ़ती जाती है। जंतुओं के व्यापारी इस बात को जानते हैं। वे प्राय: ऐसा करते हैं कि किसी जाति के कुछ जंतुओं में औरों से कोई विलक्षणता देख उन्हें चुन लेते हैं और उन्हीं के जोड़े लगाते हैं। फिर उन जोड़ों से जो जंतु उत्पन्न होते हैं उनमें से भी उनको चुनते हैं जिनमें वह विलक्षणता अधिक होती है। इस रीति से वे कुछ पीढ़ियों पीछे एक नए रूपरंग और ढाँचे का जंतु उत्पन्न कर लेते हैं। जंगली (गोले) नीले कबूतर से अनेक रंग ढंग के पालतू कबूतर इसी तरह पैदा किए गए हैं। यह तो हुआ मनुष्य का चुनाव या 'कृत्रिम ग्रहण'। इसी प्रकार का चुनाव या ग्रहण प्रकृति भी करती है जिसे 'प्राकृतिक ग्रहण' कहते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि मनुष्य अपने लाभ के विचार से जंतुओं को चुनता है, पर प्रकृति का चुनाव जंतुओं के लाभ के लिए होता है। नदीश्वर नाम का कोई व्यक्ति उसी शरीर में मनुष्य से देवता हो गया था। किस प्रकार एक योनि का जीव दूसरी योनि का जीव हो सकता है यही इस सूत्र में बताया गया है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि पतंजलि का अभिप्राय एक व्यक्ति को योन्यतरप्राप्ति है। डारविन ने असंख्य पीढ़ियों में जाकर ऐसा परिणाम होना बताया है।
'प्राकृतिक ग्रहण' का अभिप्राय यह है कि जिस परिस्थिति में जो जीव पड़ जाते हैं उस स्थिति के अनुरूप यदि वे अपने को बना सकते हैं तो रह जाते हैं, नहीं तो नष्ट हो जाते हैं। प्रकृति उन्हीं जीवों को रक्षा के लिए चुनती है जिनमें स्थितिपरिवर्तन के अनुकूल अंग आदि हो जातेहैं।
व्हेल को ही लीजिए। उसके गर्भ की अवस्थाओं का अन्वीक्षण करने से पता चलता है कि वह स्थलचारी जंतुओं से क्रमश: उत्पन्न हुआ है। उसके पूर्वज पानी के किनारे दलदलों में रहते थे। क्रमश: ऐसी अवस्था आती गई जिससे उनका जमीन पर रहना कठिन होता गया और स्थितिपरिवर्तन के अनुसार उनके अवयवों में फेरफार होता गया यहाँ तक कि कुछ काल (लाखों वर्ष समझिए) पीछे उनकी सन्तति में जल में रहने के उपयुक्त अवयवों का विधान हो गया-जैसे, उनके अगले पैर मछली के डैनों के रूप में हो गए, यद्यपि उनमें हड्डियां वे ही बनी रहीं जो घोड़े, गधे आदि के अगले पैरों में होती हैं। कई प्रकार के व्हेलों में पिछली टाँगों का चिन्ह अब तक मिलता है। जीवों के ढाँचों में बहुत कुछ परिवर्तन तो अवयवों के न्यूनाधिक व्यवहार के कारण होता है। अवस्था बदलने पर कुछ अवयवों का व्यवहार अधिक करना पड़ता है, कुछ का कम। मनुष्य को ही लीजिए जिसकी उत्पत्ति बनमानुसों से मिलते-जुलते किसी जंतु से धीरे धीरे हुई है। ज्यों ज्यों दो पैरों के बल खड़े होने और चलने की वृत्ति उसमें अधिक होती गई त्यों त्यों उसके दोनों पैर चिपटे, चौड़े और दृढ़ होते गए और एँड़ी पीछे की ओर कुछ बढ़ गई। उसी पूर्वज जंतु से बनमानुसों की भी उत्पत्ति हुई है। बनमानुस से मनुष्य के शरीर के ढाँचे मेंतो उतना अधिक भेद नहीं पड़ा, पर अन्त:करण या मस्तिष्क की वृद्धि बहुत अधिक हुई।
दार्शनिक अनुमान के रूप में तो विकाससिद्धांत बहुत प्राचीन काल से पूर्व और पश्चिम दोनों ओर चला आ रहा है। एक अव्यक्त मूल प्रकृति से किसी प्रकार क्रमश: जगत् का विकास हुआ है, सांख्य में इसका प्रतिपादन किया गया है। यूनानी तत्ववेत्ता भी जगत् का विकास इसी प्रकार मानते थे। पर वैज्ञानिक निश्चय और दार्शनिक अनुमान में बड़ा भेद होता है। दार्शनिक संकेत मात्र देते हैं और वैज्ञानिक ब्योरों की छानबीन करते हैं। जिस समय डारविन ने प्राणियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विकास सिद्धांत को बहुत से प्रत्यक्ष प्रमाणों से पुष्ट करके प्रकाशित किया उस समय बहुत से लोग विशेषत: पादरी लोग उसके विरोध में खड़े हुए। पर साथ ही बहुत से वैज्ञानिक नए नए प्रमाणों द्वारा उसे पुष्ट करने में तत्पर हुए। जर्मनी के जगतप्रसिद्ध प्राणिविद्या विशारद अध्यापक हैकल इनमें मुख्य थे। उन्होंने सन् 1866 में, अर्थात डारविन की पुस्तक प्रकाशित होने के 6 वर्ष पीछे, 'प्राणियों की शरीररचना' नामक एक बहुत बड़ा ग्रंथप्रकाशित किया जिसमें अनेक नए नए अनुसंधानों के आधार पर यह अच्छी तरह दिखाया गया है कि इस पृथ्वी पर क्रम क्रम से एक ढाँचे के जीव से दूसरे ढाँचे के जीव लाखों वर्ष की मृदु परिवर्तन परम्परा के प्रभाव से बराबर उत्पन्न होते आए हैं। हैकल ने सूक्ष्मअतिसूक्ष्म अणुजीवों से लेकर मनुष्य तक आने वाली शृंखला ही उत्पत्तिक्रम से दिखाकर संतोष नहीं किया बल्कि विकास को विश्वव्यापक नियम निश्चित करके निर्जीव, सजीव, जड़, चेतन सभी व्यापारों को उसके अन्तर्गत बताया। अब आजकल तो प्रत्येक विभाग के वैज्ञानिक अपने अपने विषय का निरूपण विकासक्रम के अनुसार ही करते हैं।
इस पृथ्वी पर जल की उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह ऊपर कहा जा चुका है। जल ही में जीवनतत्व की उत्पत्ति हुई। जल ही में उस सजीव या सेन्द्रिय1 द्रव्य का प्रादुर्भाव हुआ जिसे कललरस कहते हैं। जिन्हें हम सजीव व्यापार कहते हैं जैसे, आपसे आप चलना, खाना, पीना, बढ़ना, आहार की ओर दौड़ना, छूने से हटना वे सब इसी अद्भुत द्रव्य की क्रियाएँ हैं। इसकी सूक्ष्मअतिसूक्ष्म सजीव कणिका भी ये सब व्यापार करती है। यह अण्डे की जरदी से मिलता जुलता मधु के समान चिपचिपा दानेदार द्रव्य है जो अणुजीव के रूप में जल के भीतर भी ईधर उधर घूमता फिरता पाया जाता है और छोटे बड़े सब प्राणियों के शरीर में भी। इसकी गूढ़रचना अंगारक (कार्बन), अम्लजन गैस (आक्सिजन), नत्राजन गैस और हाइड्रोजन गैस द्वारा संघटित द्रव्यों के विलक्षण मेल से हुई। इन द्रव्यों में अंगारक ही मुख्य है। रासायनिकों की परीक्षा से ये ही चार मूल द्रव्य इसमें मुख्यत: पाए गए। जल, गन्धक, फासफर का अंश भी कुछ रहता है। यद्यपि अपने विश्लेषण द्वारा रासायनिक इस अद्भुत द्रव्य के मूल उत्पादानों को जान गए हैं पर वे उनके द्वारा संघटित अणुओं की विलक्षण योजना को कुछ भी नहीं समझ सके हैं।
विकाससिद्धांत के अनुसार इस सजीव द्रव्य की उत्पत्ति निर्जीव द्रव्य से माननी पड़ती है। पर कोई रासायनिक आज तक अपनी योजना द्वारा इसे उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हुआ। यह केवल सजीव प्राणियों-जंतुओं और पौधों में ही पाया जाता है। यह जब पाया जाता है तब शरीर (बिन्दुरूपी शरीर ही सही) रूप में ही जीवन के व्यापार करता पाया जाता है, निर्जीव द्रव्यों से बनता हुआ कहीं नहीं पाया जाता। इससे बहुत से लोग इसकी उत्पत्ति निर्जीव द्रव्य से नहीं मानते। विकासवाद के प्रसिद्ध निरूपक हक्सले तक ने कह दिया कि इस प्रकार की उत्पत्ति के प्रमाण नहीं मिलते। पर अधिकांश वैज्ञानिक इस प्रकार की उत्पत्ति मानना अनिवार्य समझते हैं। वे यह तो मान नहीं सकते कि आदि से ही ऐसे जटिल द्रव्य की योजना चली आ रही है या सजीवता एक अभौतिक तत्व के रूप में कहीं से टपक पड़ी है। अभी सन् 1912 में ब्रिटिश असोसिएशन के सामने शरीर विज्ञान के प्रसिद्ध आचार्य (एडिनबरा के) अध्यापक शेफर ने कहा है-
'सजीव द्रव्य उत्पन्न कर देने की सम्भावना उतनी दूर नहीं है जितनी साधारणात: समझी जाती है। इच्छानुसार सजीव द्रव्य उत्पन्न किया जाने लगे तो भी आकार और व्यापार में परस्पर भिन्न जो इतने असंख्य प्रकार के जीव दिखाई पड़ते हैं विज्ञान के परीक्षालयों में उनके तैयार होने की कोई आशा नहीं की जा सकती। यदि सजीव द्रव्य तैयार किया जा सकेगा, जिसमें मुझको कोई सन्देह नहीं है, तो वह द्रव्य के उबाले हुए अर्क से नहीं। चाहे आज तक काम में लाई गई युक्तियों और प्रमाणों पर हमें विश्वास न हो पर यह हमें मानना पड़ेगा कि निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य तैयार करने की सम्भावना है।'
निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य उत्पन्न होता कहीं पाया नहीं जाता इसी बात की पुकार सुनकर हैकल को यह मानना पड़ा है कि निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य इस पृथ्वी पर केवल एक बार आंरभ में उत्पन्न हुआ, उसके उपरान्त वह वंशवृद्धि क्रम से उत्तरोत्तार बढ़ता गया। इस सिद्धांत के सम्बन्ध में अध्यापक शेफर ने कहा-
'यदि हम यह मान लेते हैं कि पृथ्वी के इतिहास में केवल एक ही बार निर्जीव से सजीव का विकास हुआ है तो प्राणतत्व सम्बन्धिानी समस्याओं के अन्तिम समाधान की कोई आशा नहीं रह जाती। पर क्या हमें ऐसा मान लेना उचित है कि पृथ्वी पर केवल एक ही बार, वह भी न जाने किस शुभ संयोग से, निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य का विकास हुआ और प्राणतत्व की प्रतिष्ठा हुई? ऐसा मानने का कोई कारण न देख अन्त में यही धारणा पक्की ठहरती है कि निर्जीव से सजीव का विकास एक ही बार नहीं कई बार हुआ है और कौन जाने अब भी हो रहा हो।'
जीवों का विकास क्रम दिखाने के पहले यह कह देना आवश्यक है कि जंतु और पौधो दोनों सजीव सृष्टि के अन्तर्गत हैं, दोनों में जीव है। पहले लोग समझते थे कि जंतु चर हैं और पौधो अचर। मनुस्मृति में लिखा है 'उभिजा: स्थावरास्सर्वे बीजकांडप्ररोहिण:।' पर वास्तव में चर अचर का भी भेद नहीं है। बहुत से ऐसे जंतु हैं जो अचर हैं जैसे, स्पंज, मूँगा आदि और बहुत से ऐसे सूक्ष्म समुद्री पौधो होते हैं जो बराबर चलते-फिरते रहते हैं। बहुत से ऐसे पौधो होते हैं जो जंतुओं के समान मक्खियों आदि का शिकार करते हैं, उन्हें अपनी पत्तियों में बन्द करके पचा जाते हैं। जंतुओं और पौधों में मूलभेद नहीं है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण खुमी (कुकुरमुत्ता) की जाति के कुछ समुद्री पौधों में मिलता है जिनके बीजकण जंतु के रूप में अलग होकर अपनी रोइयों से पानी में तैरते फिरते हैं और कुछ दिन पीछे किसी चट्टान आदि पर जम जाते हैं और पौधो के रूप में होकर बढ़ते हैं। यह बात तो बहुत से लोग जानते ही हैं कि पौधों में भी पाचनक्रिया होती है और वे भी साँस लेते हैं। पर पहले लोग जंतुओं में यह विशेषता समझते थे कि उनमें पाचन के लिए अलग कोठा (पेट) होता है, वे अम्लजन वा प्राण वायु साँस द्वारा खींचते हैं और अंगारक (कार्बन) वायु निकालते हैं तथा उनमें संवेदन सूत्रात्मक विज्ञानमय कोश होता है। पर अब ऐसे क्षुद्र कोटि के जंतुओं का पता है जिनमें पेट, मुँह आदि कुछ नहीं होता और कई ऐसे पौधो देखे गए हैं जिनमें ये अंग होते हैं। पहले लोगों को केवल उच्च कोटि के जंतुओं का ही ज्ञान था जिनका खाद्य ठोस होता है और जिनके लिए पक्वाशय और मुँह की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार पेड़ पौधों में भी लोग उन्हीं को जानते थे जिनका आहार वायु या द्रव होता था। अब मांसाशी पौधों की पत्तियों की परीक्षा करने से ज्ञात हुआ है कि उनमें काँटों की तरह सूक्ष्म ग्रन्थियाँ होती हैं जिनमें पित्तारस रहता है (जैसे जंतुओं के यकृत और आँतों की ग्रन्थियों में)। यहीं तक नहीं अंकुरित बीजों में जंतुओं के पाचनरस का सा विधान देखा जाता है और बीजदल में जो खाद्य द्रव्य रहता है वह उसी प्रकार पचकर बीज को पुष्ट करता है जिस प्रकार पेट में भोजन पचता है। हरे पौधो प्रकाश में तो अंगारकवायु का विश्लेषण करके अम्लजन वायु छोड़ते हैं, पर अंधेरे में इसका उलटा करते हैं-अर्थात जंतुओं के समान अम्लजन का ग्रहण और अंगारक का विसर्जन करते हैं।
अब रहा संवेदन। संवेदन का सबसे आदिम रूप है प्रतिक्रिया, अर्थात किसी पदार्थ के साथ सम्पर्क होते ही शरीर में भी एक विशेष प्रकार का क्षोभ या क्रिया (गति) उत्पन्न होना। यह प्रतिक्रिया अचेतन व्यापार मानी जाती है, अर्थात यह ज्ञानपूर्वक नहीं होती-जैसे आँख के पास किसी वस्तु के जाते ही पलकों का आप से आप बन्द हो जाना, दूसरी ओर ध्यान रखने पर पैर में कुछ छू जाते ही पैर का आप से आप हट या सिमट जाना इत्यादि। अत्यंत क्षुद्र कोटि के जीवों में संवेदन इसी प्रतिक्रिया के रूप में ही माना जाता है। लजालू आदि पौधों में तो यह प्रतिक्रिया स्पष्ट देखी जाती है। और सब पौधों के भीतर भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया होती है पर वह सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं पड़ती। जिस प्रकार अणुजीव छू जाने पर संकुचित हो जाते हैं उसी प्रकार पौधों के घटक भी करते पाए जाते हैं। पौधों की जड़ों की नोकें अत्यंत संवेदनग्राहिणी होती हैं। जहाँ उन पर सम्पर्क आदि द्वारा संवेदन हुआ कि वह एक घटक से दूसरे घटक में उसी प्रकार पहुँचता है जिस प्रकार क्षुद्र जंतुओं में। फूल पत्तों में सोने जागने की गति देखी ही जाती है जो प्रकाश के प्रभाव से होती है। प्रकाश का प्रभाव जिस प्रकार हमारे संवेदन विधान या विज्ञानमय कोश पर पड़ता है उसी प्रकार पौधों के संवेदन विधान पर भी। कमल आदि बहुत से फूलों का दिन का प्रकाश पा कर खिलना और रात को बन्द हो जाना एक प्रसिद्ध बात है। मनु ने भी उभिजों की गिनती जीवों या प्राणियों में की है और उनमें अन्तस्संज्ञा मानी है, यथा-तमसा बहुरूपेणा वेष्टित: कर्महेतुना। अंतस्संज्ञा भवन्त्येते सुख दु:ख समन्विताड्ड अध्यापक जगदीशचन्द्र बसु ने तो पौधों के सुख दु:ख आदि के संवेदन को अर्थात उनके संवेदनसूत्रों में उत्पन्न क्षोभ को अपने सूक्ष्म और अद्भुत यत्रों द्वारा प्रत्यक्ष दिखा दिया है। यहीं तक नहीं उन्होंने अपनी खोज और आगे बढ़ाई है। उन्होंने धातुओं में भी संवेदन के क्षोभ का आभास दे कर निर्जीव और सजीव के बीच समझे जाने वाले भेदभाव को बहुत कुछ मिटा दिया है। अध्यापक शेफर ने भी अपने व्याख्यान में कहा था कि 'आजकल के नए नए अनुसंधानों से यह सूचित हुआ है कि निर्जीव और सजीव में जितना भेद प्रतीत होता है वास्तव में उतना भेद नहीं है और इन दोनों का एक सामान्य लक्षण स्थापित होने की सम्भावना बढ़ गई है।'
अत्यंत क्षुद्र कोटि के जंतुओं और पौधों में तो प्राय: सब बातों में समानता पाई जाती है। पर ज्यों ज्यों हम उन्नत पौधों की ओर आते हैं त्यों त्यों उनमें जंतुओं से विभिन्नता अधिक मिलती जाती है। इससे स्पष्ट है कि एक ही सजीव द्रव्य वा कललरस से जंतुओं और उद्भिजों दोनों की उत्पत्ति हुई पर आंरभ ही से उद्भिजों की शाखा अलग हो गई और उनकी विकासपरम्परा अलग चली। यह भेद पौधों में उस हरित धातु के कारण पड़ा जो उनके कललरस में मिली रहती है और जिसके कारण पेड़ पौधों का रंग हरा दिखाई पड़ता है। यह हरितधातु वास्तव में कललरस का ही एक विकार है जो जंतुओं के कललरस में नहीं होता। अत्यंत क्षुद्र कोटि के कुछ कृमियों में यह बहुत थोड़ी मात्र में पाई जाती है, पर जंतुओं में इसका अभाव ही समझना चाहिए। इस धातु में से इसका हरा रंग निकाला भी जा सकता है। शिशिर ऋतु में पत्तियों के रंग का बदलना इसी रंग के फटने के कारण होता है।
पौधों और जंतुओं में बड़ा भारी भेद आहार का है। ऊपर कहा जा चुका है कि पौधों का आहार वायु और मिट्टी आदि मिले हुए जल के रूप में होता है। जिस प्रकार ये वायु द्रव्यों को विश्लिष्ट करके अपना ठोस अंग बनाते हैं उसी प्रकार मिट्टी आदि को सजीव धातु के रूप में लाते हैं। इस प्रकार अदृश्य रूप में और निर्जीव को सजीव द्रव्य में परिणत करने की शक्ति पेड़ पौधों में ही है जंतुओं में नहीं जिनका भोजन किसी न किसी जीवधारी का शरीर ही होता है, चाहे जंतु का हो चाहे वनस्पति का। पौधों में यह अद्भुत शक्ति उक्त हरित धातु के ही कारण होती है1। जड़ों से जो जल पौधो खींचते हैं और पत्तियों के सूक्ष्म छिद्रों से जो अंगारक वायु भीतर लेते हैं उन्हें यह धातु सूर्य की गरमी पाकर विश्लिष्ट कर देती है जिससे अम्लजन वायु तो निकल जाती है उदजन वायु (हाइड्रोजन) और अंगारक रह जाता
1 छत्राक या खुमी की जाति के पौधों (कुकुरमुत्ता, ढिगरी, भूफोड़, भुकड़ी इत्यादि) में हरित धातु नहीं होती। इससे उनका रंग भी हरा नहीं होता और उनमें उभिद्धर्म भी नहीं होता। वे मिट्टी, पानी आदि निर्जीव द्रव्यों को अपने शरीर की धातु के रूप में नहीं ला सकते। उनका पोषण मिट्टी और पानी से नहीं हो सकता। उनके पोषण के लिए किसी जीव का अर्थात पौधो या जंतु का शरीर चाहिए। इससे वे जब उगेंगे तब सड़ी लकड़ी के ऊपर या ऐसी जगह जहाँ की मिट्टी में मरे हुए जंतुओं या पौधों के शरीरांश मिले होंगे। बरसात में फलों आदि के ऊपर जो सफेद सफेद भुकड़ी जम जाती है वह इसी जाति के पौधों का समूह है। दाद के चकत्तों में इन्हीं का समूह समझिए। सड़ाव और खमीर का कारण भी खुमी की जाति के सूक्ष्मअतिसूक्ष्म अणुजीव हैं।
है। इन दोनों से मिलकर यह उन अंगारक मिश्रणों को घटित करती है जो शरीर धातु कहलाते हैं और जिनसे पौधों के घटक, तन्तुजाल आदि बनते हैं। जंतु ऐसा नहीं करते। वे जल, क्षार, वायु, मिट्टी आदि निर्जीव द्रव्यों को खाकर सजीव द्रव्यों के रूप में नहीं ला सकते। वे पौधों से ही शरीर धातु बनी बनाई प्राप्त करते हैं।
पेड़ पौधो ही जड़ द्रव्य से इस धातु का निर्माण करते हैं।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कललरस की उत्पत्ति जल में ही हुई। इसी कललरस के अत्यंत सूक्ष्म कण जो स्वतंत्रा रूप से जीवों के मूल व्यापार करते हैं घटक कहलाते हैं। उनमें कुछ तो मधुबिंदुवत् खुले ही रहते हैं, कुछ के ऊपर झिल्ली होती है, कुछ के बीच में एक बहुत सूक्ष्म गुठली सी होती है और कुछ सर्वत्रा समान
वा एक रस होते हैं। इन्हीं घटकों के योग से पौधों और जंतुओं के शरीर संघटित हुए हैं। इन घटकों को अणु शरीर समझीए क्योंकि ये जिस प्रकार जीवधारियों के शरीर में तन्तुजाल के रूप में गुछे पाए जाते हैं उसी प्रकार जीव के रूप में समुद्र या गङ्ढों आदि के जल में भी चलते फिरते पाए जाते हैं। इन्हीं अणुशरीरों की योजना से छोटे बड़े सब शरीर बने हैं-क्या जंतुओं के, क्या पेड़ पौधों के1। शुक्रकीटाणु और रज:कीटाणु भी एक विशेष प्रकार के सूक्ष्म घटक मात्र हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि घटक अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। कुछ तो इतने सूक्ष्म होते हैं कि एक इंच के लाखवें भाग के बराबर भी नहीं होते। जैसे कुछ अणूभिद्। कुछ इतने बड़े होते हैं कि बिना खुर्दबीन की सहायता के भी देखे जा सकते हैं। पर अधिकांश घटक या घटकरूप जीव अच्छे सूक्ष्मदर्शक यत्रों के बिना नहीं दिखाई पड़ते। जो जीव एक घटक मात्र हैं वे एक घटक जीव या अणुजीव कहलाते हैं और जिनका शरीर दो या अधिक घटकों का होता है वे बहुघटक जीव कहलाते हैं।
आदि में एक घटक अणुजीव ही जल में उत्पन्न हुए जिनका शरीर एक घटक मात्र था। एक घटक अणूभिद् अब भी समुद्र, ताल आदि के जल में पाए जाते हैं। उनमें स्त्री पुं भेद नहीं होता। उनकी वृद्धि बीज से नहीं होती विभाग द्वारा होती है। अणुरूप एक घटक पौधो छोटे बड़े कई प्रकार के होते हैं। इन अणूभिदों के पहले पहल परस्पर मिलकर एक शरीर बनाने से अत्यंत क्षुद्र कोटि के बिना फूलवाले पौधो हुए, जैसे, सेवार, काई, भुकड़ी, खुमी इत्यादि जिनमें खुले हुए अंकुरबिंदु उत्पन्न होते हैं। इन खुले हुए अंकुरबिंदु वाले पौधों से फर्न आदि आवरण युक्त अंकुर बिंदुवाले पौधो हुए। इन अंकुर बिंदुवाले पौधों की वृद्धि गर्भकेसर और परागकेसर द्वारा नहीं होती, ये निष्पुष्प पौधो हैं। इनमें अंकुरबिंदु निकलते हैं जिनसे अंकुरित होकर नए पौधो उत्पन्न होते हैं। पर कुछ गूढ़लिंग निष्पुष्प पौधो ऐसे भी होते हैं जिनमें यद्यपि स्त्री पुं अवयव (गर्भकेसर, परागकेसर) अलग अलग नहीं होते पर जंतुओं के शुक्रकीटाणु और रज:कीटाणु के समान स्त्री पुं घटक अलग अलग होते हैं। अंकुरबिंदुवाले पौधों से क्रमश: फूलवाले अर्थात स्त्री पुं अवयववाले पौधो हुए जिनमें गर्भाधान गर्भकेसर के बीच परागकेसर के पराग के पड़ने से होता है। गर्भकेसर और परागकेसर ही वास्तव में पुष्प हैं, रंगीन दल या पंखड़ी नहीं। अत्यंत निम्न श्रेणी के फूलवाले पौधों में पंखड़ियाँ नहीं होतीं। फूलवाले पौधों में पहले देवदार आदि खुले बीज के पौधो हुए फिर उनसे आवरणयुक्त बीजवाले तृण, लता, गुल्म, वृक्ष इत्यादि हुए।
इसी प्रकार जंतुओं में सबसे मूल जंतु अणुरूप ही हुए। अणुजीव अब भी समुद्र या तालों में पाए जाते हैं और अत्यंत सूक्ष्म कलल बिंदु मात्र होते हैं। ये बहुत अच्छे सूक्ष्मदर्शक यत्रों द्वारा ही दिखाई पड़ सकते हैं। अत्यंत सूक्ष्म अणुरूप ऐसे जीवों को छोड़ जिनके व्यापार आदि स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं हो सके हैं सबसे ज्यादा और सूक्ष्म जीव जिसके कार्यकलाप देखे जा सकते हैं, मोनरा है। यह जल में पाया जाता है। इसका सारा शरीर मधुबिंदुवत् सर्वत्रा समान होता है, उसमें पेट, मुँह, आँख, कान, नाक, हाथ, पैर इत्यादि अलग अलग अंग नहीं होते। इन अंगों से जो व्यापार होते हैं वे आवश्यकतानुसार इस जंतु के प्रत्येक भाग से सम्पादित होते हैं। जीवों के व्यापार तीन हैं-पोषण, प्रजनन और वाह्यविषय ग्रहण। मोनरा प्रत्येक भाग से अपना आहार भीतर ले सकता है, प्रत्येक भाग से पचा कर निकाल सकता है, प्रत्येक भाग से वायु को खींच और छोड़ सकता है। यह अपने चारों ओर जिधर आवश्यक होता है उधर लम्बे लम्बे शंकु या पदाभास निकालता है। इसका शरीर मधुबिन्दुवत् तो होता ही है जिधर शंकु या पदाभास निकलते हैं उसी ओर को ढल पड़ता है। इसी प्रकार यह चलता है और अपने शिकार या आहार (जल में मिले हुए अत्यंत सूक्ष्म अणूभिद् या जंतु) को छोप लेता है। शरीर का प्रत्येक भाग आहार चूस सकता और मल बाहर निकाल सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अत्यंत क्षुद्र कोटि के जीवों में स्त्री पुं विधान नहीं होता। उनकी अमैथुन सृष्टि होती है। अब मोनरा में प्रजनन या वृद्धि किस प्रकार होती है यह देखिए। जो मोनरा आहार आदि पाकर खूब पुष्ट होता है वह कुछ अधिक लम्बा हो जाता है और उसका मध्य भाग पतला पड़ने लगता है, यहाँ तक कि बहुत कम रह जाता है और जंतु बीच से दो भागों में विभक्त दिखाई पड़ता है। अन्त में मध्य से टूट कर दोनों भाग अलग अलग हो जाते हैं अर्थात दो नए जंतु होकर अपना जीवन आंरभ करते और बढ़ते हैं। इस प्रकार पूर्व जंतु का व्यक्तित्व या जीवन समाप्त हो जाता है और उसके स्थान पर दो नए जंतु हो जाते हैं। ऐसे प्रजनन विधान को विभाग कहते हैं।
जंतुओं का प्रधान लक्षण वह क्रिया है जो उनमें वाह्य वस्तुओं के सम्पर्क से उत्पन्न होती है, जैसे ईथर या आकाश द्रव्य की लहरों का सम्पर्क जिसका ग्रहण नेत्रोन्द्रिय में प्रकाश रूप से होता है, वायु की तरंगों का सम्पर्क जिसका ग्रहण श्रोत्रोन्द्रिय में शब्द रूप से होता है, स्थूल पदार्थों का सम्पर्क जिसका ग्रहण त्वचा को स्पर्श रूप से होता है। मोनरा को अलग अलग अवयव या इन्द्रियाँ नहीं होतीं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि वह वाह्य विषयों का ग्रहण नहीं करता। भिन्न भिन्न विषयों का ग्रहण उसमें सर्वत्रा समान रूप से होता है। यह ग्रहण चाहे अत्यंत सूक्ष्म वा अल्प हो; पर होता अवश्य है। किसी वस्तु से छू जाने पर उसका शरीर सुकड़ जाता है। इस प्रकार स्पर्श का संवेदन उसमें प्रत्यक्ष देखा जाता है।
मोनरा से कुछ उन्नत कोटि का जीव अमीबा (अस्थिराकृति अणुजीव) है जिसमें एकरूपता या निर्विशेषत्व (एक भाग से दूसरे भाग में कोई विशेषता न होना) का भंग और अनेकरूपता का कुछ कुछ आंरभ होता है। मोनरा का शरीर मधुबिन्दुवत् सर्वत्रा एकरूप होता है पर अमीबा के शरीर पर अत्यंत महीन झिल्ली का आवरण होता है और भीतर कललरस के बीच में एक सूक्ष्म गुठली सी होती है जो यद्यपि कललरस की ही होती है पर अधिक तीव्र होती है। इस गुठली के अतिरिक्त कललरस के बीच झिल्ली से घिरा हुआ एक खाली स्थान भी होता है जो सुकड़ता और फैलता रहता है। मोनरा के समान इसकी गतिविधि और पाचन क्रिया भी कललरस की ही गति और क्रिया से होती है। अत्यंत सूक्ष्म अणुजीव या पौधो अथवा उनसे कुछ बड़े जीवों के शरीरखंड जो जल में रहते हैं और आहार के रूप में इसके भीतर जाते हैं, उनके सार भाग को तो कललरस अपनी ही क्रिया से अपने में मिला लेता है और शेष भाग को बाहर निकाल देता है। इसका चलना भी कललरस ही की क्रिया से होता है अर्थात जिस ओर शंकु या पदाभास निकलते हैं उस ओर सारा कललरस अर्थात शरीर ढल पड़ता है। इसी प्रकार यह अपना मार्ग निकालता चला जाता है। जल में जहाँ रेत या मिट्टी के सूक्ष्म कण होते हैं वहाँ यह उन्हें बड़ी सफाई से बचा जाता है। पदाभासों के निकालने का कोई निश्चित स्थान न होने से इसका आकार स्थिर नहीं होता।
ऊपर कहा जा चुका है कि कललरस का अत्यंत सूक्ष्म कण जो प्राणियों के सब आवश्यक व्यापार स्वतन्त्र रूप से कर सकता है, घटक कहलाता है और मोनरा या अमीबा इसी प्रकार का एक घटक मात्र है। अत: ये दोनों एक घटक जीव या अणुजीव कहलाते हैं। इसी प्रकार के घटकों के योग से सब जंतुओं के शरीर बने हैं। मनुष्य के रक्त की श्वेत कणिकाएँ जो अच्छे सूक्ष्मदर्शक यत्रों द्वारा ही देखी जा सकती हैं, अमीबा से मिलती जुलती होती हैं और उसी के समान सब व्यापार करती हैं। मोनरा और अमीबा अत्यंत सादे ढाँचे के जीव हैं। इनके अतिरिक्त छोटे बड़े और अनेक प्रकार के एक घटक अणुजीव होते हैं जिनमें से कुछ तो इतने बड़े (एक इंच के 100 वें भाग के बराबर) होते हैं कि आँख से अच्छी तरह दिखाई पड़ सकते हैं। बहुत से अणुजीव जल में से चूने आदि का संग्रह करके अपने ऊपर कड़ी खोलड़ी बनाते हैं। कुछ अणुजीवों की खोलड़ियाँ बहुत ही सुन्दर और चित्राविचित्रा होती हैं। जब वे अणुजीव मर जाते हैं तब खोलड़ियाँ गिर कर पानी के तल में बैठ जाती हैं। खरिया मिट्टी ऐसे ही जीवों की खोलड़ियों के तह पर तह जमने से बनती है।
जैसा कि पहले कहे हैं अणुजीवों में जोड़े नहीं होते; उनकी वृद्धि अमैथुन विधान से होती है-अर्थात कुछ अणुजीवों में तो यह होता है कि एक जीव के बीच से दो खंड होकर दो अलग अलग जीव हो जाते हैं; और कुछ के शरीर पर अंकुरबिन्दु निकलते हैं जो अलग होकर और बढ़कर स्वतन्त्र जीव हो जाते हैं। पर कुछ उन्नत कोटि के अणुजीव ऐसे भी होते हैं जिनमें मैथुन विधान अपने मूलरूप में देखा जाता है। वे पुछल्लेवाले अणुजीवों में से हैं और बहुत से मिल कर चक्र या छत्ता बना कर रहते हैं। इस छत्तो के अन्तर्गत अनेक जीव रहते हैं। तरुणावस्था प्राप्त होने पर कुछ जीव छत्तो से अलग हो जाते हैं और मिलकर एक अलग कीटाणुचक्र बनाते हैं और कुछ अलग अलग बढ़कर गर्भांड के रूप में हो जाते हैं। कीटाणुचक्र का प्रत्येक कीटाणु पुछल्लेदार सूक्ष्म कीट होता है (मनुष्य आदि जरायुज जंतुओं के शुक्रकीटाणु भी इसी प्रकार के होते हैं) जो गर्भांड रूप कीट से बहुत छोटा होता है। पुछल्लेदार पुं कीटाणुचक्र से छूटने पर अपने पुछल्लों को लहराते हुए जल में ईधर उधर तैरने लगते हैं पर गर्भांड रूप स्त्री कीटाणु अचल भाव से स्थिर रहते हैं। एक एक गर्भांड रूप स्त्री कीटाणु को अनेक पुं कीटाणु जा घेरते हैं और अन्त में एक उसके भीतर घुसकर संयुक्त हो जाता है। इस प्रकार संयोग हो जाने पर दोनों मिलकर एक अण्डे का आकार धारणा करते हैं। अण्डे के भीतर का कललरस विभागक्रम द्वारा अनेक कणों में विभक्त हो जाता है। अण्डे के फूटने पर ये कण बाहर निकलकर तैरने लगते हैं। थोड़े ही दिनों में इन्हें पुछल्ले निकल आते हैं और ये पूरे जंतु होकर ईधर उधर तैरते फिरते हैं। इन पुछल्लेवाले जीवों का शरीर सर्वत्रा समान नहीं होता, सूक्ष्म त्वचा और पुछल्ले के अतिरिक्त आहारमिश्रित जल के प्रवेश के लिए एक विवर भी होता है जिसे मुँह कह सकते हैं।
जीवोत्पत्ति का आंरभ मोनरा और अमीबा के समान अत्यंत सादे ढाँचे के कललबिंदु रूप अणुजीवों से हुआ जिनके शरीर का सारा भाग वाह्य भूतों के भिन्न भिन्न प्रकार के सम्पर्कों को समान रूप से ग्रहण करता था, प्रत्येक भाग प्रत्येक व्यापार कर सकता था। फिर असंख्य पीढ़ियों के पीछे होते होते यह हुआ कि जिस भाग पर स्थिति के अनुसार सम्पर्क अधिक हुआ उसमें अभ्यास के कारण सम्पर्क अधिक ग्रहण करने की विशेषता उत्पन्न हुई। इस गुणविकास के साथ ही उस भाग की आकृति में भी परिवर्तन हुआ। जैसे, मोनरा का शरीर जल में पड़े हुए मधुबिंदु के समान सर्वत्रा एकरूप था और उसके चारों ओर वाह्यभूतों के अण्वात्मक प्रवाहों का आघात पड़ता था। यह आघात पहले ऊपरी सतह पर पड़ कर तब भीतरी कललरस की कणिकाओं पर प्रभाव डालता था। अत: स्थिति के अनुसार जिनमें उक्त आघात का ग्रहण अधिक हुआ उनके ऊपरी तल में और कललरस के भीतरी कणों की स्थिति में, भौतिक और रासायनिक नियमों के अनुसार विशेषताएँ उत्पन्न होने लगी। ये विशेषताएँ बराबर वृद्धि को प्राप्त होती गईं यहाँ तक कि अमीबा का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके ऊपर झिल्ली का आवरण होता है और भीतर कललरस के बीच एक गुठली तथा फैलने और सुकड़नेवाला एक खाली स्थान होता है।
बहुत से अणुजीव मिल कर एक समूहपिंड या छत्ता सा बना लेते हैं। समूहचक्र में बाद्ध रहने पर भी प्रत्येक जीव अलग अलग कीटाणु होते हैं, सब मिल कर एक जीव या एक शरीर नहीं हो जाते। ये समूहपिंड या चक्र इस प्रकार बनते हैं। चक्रबद्ध अणुजीवों में जो वृद्धि विधान होता है उसमें मोनरा और अमीबा के समान पूरा विभाग नहीं होता। एक अणुजीव का शरीर जब दो भागों में विभक्त होने लगता है तब मोनरा या अमीबा के समान दोनों भाग अलग अलग नहीं हो जाते, कललरस के एक सूत्र द्वारा एक दूसरे से लगे रहते हैं। फिर वे दोनों भाग अपनी पूरी बाढ़ पर पहुँचने पर उसी प्रकार दो भागों में विभक्त हो जाते हैं। इसी क्रम से एक जीव से अनेक जीव हो जाते हैं जो एक दूसरे से लगे रहते हैं। इस प्रकार के समूहचक्र के कीटाणु सब एक ढाँचे के होते हैं और प्राय: अलग अलग कोशों में रहते हैं।
समूहचक्र या छत्तो की योजना के अतिरिक्त एक और भी घनिष्ठ और गूढ़तर योजना होती है जिससे एक शरीर या समवाय पिंड की उत्पत्ति होती है। इसमें बहुत से अणु जीवरूप घटक मिल कर एक शरीर या जीव हो जाते हैं। अणु जीवों को छोड़ और सब प्राणियों के शरीर बहुत से घटकों की ऐसी ही गूढ़ योजना से बने हैं। बड़े से बड़े जीवों का शरीर वास्तव में घटकों या अणुजीवों की एक ऐसी सुव्यवस्थित बस्ती है जिसमें एक प्रकार की एकता आ गई है। शरीर संघटित करने में घटकों की जो योजना होती है उसमें सब घटक मिल कर एक तन्तुपटल के रूप में हो जाते हैं और भिन्न भिन्न भागों में कार्यानुसार भिन्न भिन्न आकृतियाँ धारणा करते हैं। जंतुओं की पेशियाँ, हड्डियां, नसें, शिराएँ, संवेदन सूत्र इत्यादि सब अणु जीवरूप घटकों की योजना से संघटित हैं।
आंरभ में अणु जीवरूप घटक मिलकर झिल्ली के रूप में हुए अत: सब से सादे और आदिम कोटि के बहुघटक जीव दुहरी या तिहरी झिल्ली के कोश के अतिरिक्त और कुछ नहीं थे। स्पंज या मुर्दा बादल इसी प्रकार के जीव हैं। ये समुद्र की चट्टानों आदि पर जमे रहते हैं, चल फिर नहीं सकते और कई प्रकार के होते हैं। स्लेट पोंछने के लिए लड़के जो स्पंज रखते हैं उसे बहुतों ने देखा होगा। स्पंज का शरीर छिद्रमय कोश मात्र होता है जिसके भीतर बहुत सी नलियाँ होती हैं। सूक्ष्म जीवों से पूर्ण जल मुखविवर से होकर भीतर जाता है और नलियों के द्वारा चारों ओर घूम कर सारे घटकों का पोषण करता है। इन नलियों के अतिरिक्त और अलग अलग अवयव नहीं होते और ये नलियाँ भी भिन्न भिन्न कार्यों के लिए भिन्न भिन्न नहीं होतीं, सब समान रूप से जलवहन का कार्य करती हैं। ऐसा नहीं होता कि पाचन के लिए अलग नलियाँ हों और जलप्रवाह के लिए अलग। स्पंजों की वंशवृद्धि अमैथुन विधान से भी होती हैं और मैथुन विधान से भी। जिस निम्न कोटि के स्पंजों की वृद्धि अमैथुन विधान से होती है उनके शरीर पर कुड्मल या अंकुरबिंदु उत्पन्न होते हैं जो अलग होकर बढ़ते और पूरे जीव हो जाते हैं। बतलाने की आवश्यकता नहीं कि ये कुड्मल स्वतन्त्र घटक होते हैं जो विभाग परम्परा द्वारा एक से अनेक होकर शरीर की योजना करते हैं। मैथुन विधान वाले स्पंजों में पुं घटक और स्त्री घटक एक ही जीव के भीतर होते हैं; उसी प्रकार जैसे अधिकांश पौधों में गर्भकेसर और परागकेसर एक ही फूल में होते हैं। पुरुष घटक फूट कर अनेक छोटे कणों में विभक्त हो जाता है। एक एक कण बढ़ कर पुछल्लेदार कीटाणु जैसा कि शुक्रकीटाणु होता है, हो जाता है। स्त्री घटक बढ़ कर गर्भांड के रूप में हो जाता है। स्पंज के शरीर के भीतर ही पुरुष कीटाणु गर्भांड रूप कीटाणु में प्रवेश करता है। संयोग के उपरान्त एकीभूत पिंड भीतर ही भीतर कुछ काल तक बढ़ता है, फिर बाहर निकल कर डिंभ कीट के रूप में रोइयों के सहारे जल में तैरता फिरता है, और अन्त में किसी चट्टान पर जमकर बढ़ते बढ़ते स्पंज के रूप में हो जाता है।
स्पंज से उन्नत कोटि के जीव छत्राक, मूँगे आदि होते हैं जिनके शरीर में अवयव विधान कुछ अधिक होता है। उनके मुखविवर के नीचे एक बारीक खाली जगह नहीं पड़ती बल्कि नली के आकार का एक संकेत थोड़ी दूर तक होता है, पक्वाशय अलग होता है, शिकार पकड़ने के लिए बहुत सी भुजाएँ होती हैं।
छत्राक कृमि की उत्पत्ति विलक्षण रीति से होती है। समुद्र या झील आदि में लकड़ी के तख्तों या चट्टानों पर रुई की तरह कोमल एक प्रकार के कृमियों का समूहपिंड जमा मिलता है जो देखने में बिलकुल पौधो के आकार का होता है। इसे खंडबीज कहते हैं क्योंकि यदि इसके कई खंड कर डालें तो प्रत्येक खंड बढ़ कर पूरा कृमिपिंड हो जाता है। इसके प्रधान खंड में से जगह जगह शाखाएँ निकली होती हैं जो सिरे पर चौड़ी होकर गिलास के आकार की होती हैं। इसी गिलास के भीतर असली कृमि बन्द रहता है, केवल उसकी सूत की सी भुजाएँ ईधर उधर बाहर निकली होती हैं। अचरपिंड में बद्ध रहने वाले ये कृमि केवल नली के आकार के होते हैं। इनमें संवेदन सूत्र और इन्द्रियाँ आदि नहीं होतीं, संवेदन शरीरभर में होता है। पर कुछ शाखाओं के सिरों पर कुड्मलों का गुच्छा सा होता है। जब कुड्मल अपनी पूरी बाढ़ को पहुँच जाता है तब एक स्वतन्त्र जीव होकर खंड से अलग हो जाता है और चर जंतु के रूप में ईधर उधर तैरने लगता है। इसी को छत्राक कृमि कहते हैं। यह खुमी (छत्राक) के छाते के आकार का होता है और इसके चारों ओर चाबुक के आकार की लम्बी लम्बी भुजाएँ निकली होती हैं। इसके पेटे (नतोदर भाग) के बीचोबीच एक चोंगा सा निकला होता है जिसके सिरे पर मुँह होता है। इस चोंगे की जड़ से कई नलियाँ छाते की तीलियों की तरह निकल कर उस नली से मिली होती हैं जो मँडरे पर मंडलाकार होती है। मुँह के भीतर जो भोजन जाता है वह चोंगे के भीतर पचकर नलियों के द्वारा सारे शरीर में फैल कर पोषण करता है। मँडरे पर से जो भुजाएँ निकली होती हैं उनमें से आठ ऐसी होती हैं, जिनके मूल में एक एक सूक्ष्म गुठली सी होती है जिसे हम संवेदनग्रन्थि कह सकते हैं। इन इन्द्रियों या अवयवों से दिशा का ज्ञान होता है। सारांश यह कि छत्राक कृमि अपने जनक खंडबीज कृमि से बहुत अधिक उन्नत होता है। इसमें नेत्राबिन्दु के भी आभास होते हैं, संवेदनग्रन्थियों का भी विधान होता है। खंडबीज कृमि में स्त्री पुरुष विधान नहीं होता, कुड्मल विधान होता है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। पर उसी से उत्पन्न छत्राक कृमि में स्त्री पुरुष अलग अलग होते हैं। नर के शुक्रकीटाणु जल में छूट पड़ते हैं और जल के प्रवाह द्वारा मादा के गर्भाशय में जाकर गर्भकीटाणु को गर्भित करते हैं। गर्भाधान के उपरान्त गर्भकीटाणु शीघ्र डिंभकीट के रूप में प्रवर्द्धित होकर अलग हो जाते हैं और कुछ दिनों तक जल में तैरते फिरते हैं। पीछे किसी चट्टान, लकड़ी के तख्ते आदि पर जम जाते हैं और धीरे धीरे बढ़कर पूरे खंडबीज कृमि हो जाते हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इन्हीं खंडबीज कृमियों से फिर छत्राक कृमि की उत्पत्ति होती है। सारांश यह कि खंडबीज कृमि से छत्राक की उत्पत्ति और छत्राक से खंडबीज कृमि की उत्पत्ति होती है। प्रजनन के इस विधान को इतरेतर जन्म या 'योन्यंतर विधान ' कहते हैं।
छत्राक कृमि से बारीक ढाँचा उन चिपटे केंचुओं का होता है जो कुछ रीढ़वाले जंतुओं के यकृत और अतड़ियों में होते हैं। भेंड़ के यकृत में पत्ती के आकार का जो चौड़ा चिपटा कीड़ा होता है उसके शरीर की ओर ध्यान देने पर दाहिने और बायें दो समविभक्त पार्श्व स्पष्ट दिखाई देंगे। कल्पित विभाग रेखा के दोनों ओर बिम्ब प्रतिबिम्ब रूप से प्राय: एक ही प्रकार के ढाँचे पाए जायँगे। इस प्रकार की रचना को अध्र्दांग योजना कहते हैं। कीड़े का अगला भाग चौड़ा होता है जिसके बीचोबीच निकली हुई नोक पर मुँह होता है। मुख की औंठ पर एक मांसल छल्ला सा होता है जिसके द्वारा यह जंतुओं के यकृत की दीवार से चिपटा रहता है। मुख की ओंठ से थोड़ा और पीछे हट कर पेट की ओर एक दरार सा होता है जो जननेन्द्रिय का मुख है। इसी के बीचोबीच एक तुंड या ठोंठी सी होती है जो पुं जननेन्द्रिय है। शरीर के पिछले छोर पर एक मलवाहक छिद्र होता है। मुख के भीतर थोड़ी दूर तक कंठनाल होती है जो आँतों से जा कर मिली होती है। आँतें इसकी अनेक शाखाओं में विभक्त होती हैं जिनमें काले रंग का रस या पित्ता भरा होता है। यह पित्तारस उसी जंतु के यकृत का होता है जिसके भीतर यह कीड़ा पलता है। उसी के पित्ता और उसमें मिले हुए द्रव्य से इस कीड़े का पोषण होता है। अन्त विधान दाहिनी और बाईं दोनों ओर का अलग अलग होता है। आँतों से मिला हुआ कोई गुदाद्वार नहीं होता, मुख ही एक द्वार होता है। आँतों के अतिरिक्त जलवाहक नलियों का पूरा जाल होता है। सब से बढ़ कर बात तो यह कि संवेदनसूत्रों का विधान होता है। कंठनाल के पास भेजे का छल्ला सा होता है जिसे हम मस्तिष्क का सादा रूप कह सकते हैं। इसी छल्ले से संवेदनसूत्रा पीछे की ओर गए रहते हैं जिनमें दो सूत्रप्रधान हैं जो दाहिने और बायें दोनों ओर होते हैं। देखने सुनने आदि के लिए अलग अलग इन्द्रियाँ नहीं होतीं।
अब इसकी प्रजननप्रणाली पर भी थोड़ा ध्यान दीजिए। स्त्री पुरुष जननेन्द्रियाँ एक ही कीड़े में होती हैं। पुरुष जननेन्द्रिय में अण्डकोश नलिकाएँ, शुक्रवाहिनी नलियाँ और शिश्न तथा स्त्री जननेन्द्रिय में डिंभकोश, गर्भनाली, योनिमुख, अंडपोषक रस की ग्रन्थियाँ और नलियाँ होती हैं। शुक्रकीटाणु द्वारा गर्भित होने पर गर्भांड पोषक रस से घिर जाता है और फिर एक छिलके के भीतर बन्द हो जाता है। बढ़ चुकने पर यह अंडा अंतड़ियों में होता हुआ बाहर निकल जाता है और कुछ दिनों में रोईंदार लम्बे डिंभकीट के रूप में हो जाता है, जिसमें सिर की ठोंठ और दो नेत्राबिंदुओं के अतिरिक्त कोई और भीतरी अवयव नहीं होता। यदि यह जल में पहुँचा तो कुछ काल तक तैरता फिरता है और यदि तर घास के बीच पहुँचा तो रेंगता फिरता है। यदि इसे घोंघा मिल गया तो यह उसके भीतर अपने सिर के बल घुस जाता है और भीतर ही भीतर बढ़कर लम्बी थैली के आकार का हो जाता है। कुछ काल में इस थैली के भीतर घटकगुच्छ उत्पन्न हो जाते हैं। इस घटकगुच्छ के घटक विभागक्रम द्वारा बढ़कर पुछल्लेदार कीटों के रूप में हो जाते हैं और घोंघे के शरीर से बाहर निकल कर घास की पत्तियों पर चिपट जाते हैं। पत्तियों को जब भेड़ें खाती हैं तब ये उनके यकृत में पहुँच जाते हैं और चौड़े चिपटे यकृतकीट के रूप में हो जाते हैं। इन कीटों से कुछ उन्नत रचना मनुष्य के पेट में रहनेवाले लम्बे केंचुओं की होती है। एक प्रकार के और केंचुए होते हैं जो जंतुओं के शरीर के भीतर नहीं होते, अधिकतर समुद्र में पाए जाते हैं। इन्हें मुँह और आँतों के अतिरिक्त रक्तवाहिनी नाड़ियाँ भी होती हैं। संवेदनग्राही अवयवों का विधान भी और केंचुओं से उन्नत होता है। भेजे के छल्ले के स्थान पर दो बड़ी संवेदनग्रन्थियाँ होती हैं जिन्हें हम मस्तिष्क कह सकते हैं। इसी मस्तिष्क से दो मोटे संवेदनसूत्रा पीछे की ओर शरीर की लम्बाई तक गए रहते हैं। आँखें भी होती हैं।
प्राणियों में इन्द्रियों का विधान किस प्रकार हुआ? पहले कहा जा चुका है कि अत्यंत आदिम कोटि के क्षुद्र जीवों में प्रकाश, शब्द तथा स्थूल पदार्थों का ग्रहण ऊपरी त्वचा पर सर्वत्रा समान रूप से होता है। ऊपरी त्वचा सर्वत्रा समान रूप से संवेदनग्राही होता है। क्रमश: ऊपरी त्वचा पर विभिन्नताएँ उत्पन्न होने लगीं। कुछ स्थानों में दूसरे स्थानों से कुछ विशेषता प्रकट होने लगी अर्थात कुछ स्थान वाह्य विषयसम्पर्क को विशेष रूप से ग्रहण करने लगे। क्रमश: अभ्यास द्वारा ये स्थान सम्पर्कग्रहण में अधिक तीव्र होते गए जिससे वाह्य विषयों का प्रभाव उन पर अधिक पड़ता गया। वाह्य विषयों के अधिक संयोग से उन स्थानों की बनावट में भी कुछ विशेषता आने लगी। फल यह हुआ कि संवेदनग्राही घटक अलग हो गए। उनसे संवेदनसूत्रों की योजना हुई। बाहरी त्वचा पर जहाँ कहीं प्रकाश, शब्द, स्थूल पदार्थ आदि का सम्पर्क हुआ कि इन्हीं सूत्रों के सहारे उसका संवेदन सारे संवेदनसूत्राजाल में दौड़ गया। क्रमश: इन संवेदनसूत्रों का एक केन्द्रस्थल ग्रन्थि के रूप में उत्पन्न हुआ जिसे ब्रह्मग्रन्थि कहते हैं। यही केन्द्रस्थान बड़े जीवों का मस्तिष्क है। वाह्य विषय भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं और उनका ग्रहण भी भिन्न भिन्न प्रकार से होता है। अत: वाह्य त्वचा के संवेदनग्राही स्थानों में भी क्रमश: भेद विधान होने लगा। एक स्थान एक प्रकार का विषय ग्रहण करने में अधिक तीव्र होता गया, दूसरा दूसरे प्रकार का। होते होते यहाँ तक हुआ कि एक प्रकार के विषय का ग्रहण एक ही निर्दिष्ट स्थान पर होने लगा जिससे भिन्न भिन्न इन्द्रिय गोलकों का विकास हुआ जो पहले त्वचा की परतों से बने हुए सादे कोशों के रूप में ही प्रकट हुए। जिस स्थान पर अणुप्रवाह के योग से उस रासायनिक क्रिया का विधान होने लगा जिससे गन्धा का अनुभव होता है वहाँ ज्ञाणेन्द्रिय (नाक) की उत्पत्ति हुई। जहाँ वह रासायनिक क्रिया होने लगी जिससे स्वाद का अनुभव होता है वहाँ रसनेन्द्रिय का विधान हुआ। इसी प्रकार जहाँ आलोकग्रहण की ही भौतिक क्रिया बराबर होने लगी वहाँ उस जटिल यत्रों का विधान हुआ जिसे आँख कहते हैं और जिसके द्वारा पदार्थों के आकृतिबिम्ब का ग्रहण होता है। विशेष प्रकार की वायुतरंगों का ग्रहण जहाँ होने लगा वहाँ कानों की रचना हुई। इन इन्द्रियों में सूक्ष्म से सूक्ष्म सम्पर्क के ग्रहण की शक्ति का विकास देखा जाता है। ज्ञाणेन्द्रिय द्रव पदार्थ के अणु के 3000,000,000 वें भाग तक का अनुभव कर सकती है। चक्षुरिन्द्रिय एक मिनट में सवा करोड़ मील के लगभग चलने वाली आलोकतरंग का ग्रहण करती है।
अब तक जिन क्षुद्र जंतुओं का वर्णन हुआ है उनका शरीर यहाँ से वहाँ तक एक होता है, खंडों में विभक्त नहीं होता। उनसे उन्नत कोटि के बहुखंड कीट होते हैं जिनका शरीर बहुत से जोड़ों से मिलकर बना जान पड़ता है; जैसे, मिट्टी के केंचुए, जोंक, कनखजूरे, केकड़े, भिड़, गुबरैले, फतिंगे, चींटियाँ इत्यादि। जंतुओं की बनावट में ध्यान देने की बात यह है कि मुख ही एक ऐसा द्वार है जिससे पहले पहल वाह्य जगत् का सम्पर्क होता है अत: उसी के पास मुख्य इन्द्रियों का विधान होता है। जो भाग क्रिया में अधिक तत्पर होता है उसी में उस क्रिया सम्पादन के अनुकूल विधान होते हैं। अत: इन बहुखंड जंतुओं में जो बहुत सादे ढाँचे के होंगे उनमें भी सिर अलग दिखाई देगा जिसमें आँख, कान आदि इन्द्रियद्वार होंगे और भीतर संवेदन का केन्द्रस्वरूप मस्तिष्क वा ग्रन्थि होगी जिससे संवेदनसूत्रा पीछे की ओर को गए होंगे। इन कीड़ों के हृदय भी होता है जो लम्बी नली के आकार का और पीठ की ओर होता है; छाती की ओर नहीं जैसा कि रीढ़वाले बड़े जीवों का होता है। बहुखंड कीटों के साधारणात: दो विभाग किए गए हैं-अपाद और सपाद। मिट्टी के केंचुए, जोंक आदि अपाद कीटों में हैं और झिंगा, केकड़ा, कनखजूरा, गुबरैला, चींटी इत्यादि सपाद कीटों में हैं। सपाद कीटों में षट्पद या पतंग कुल के कीट सबसे अधिक उन्नत होते हैं। चींटी, तितली, गुबरैला, टिवी, फतिंगा, किलनी, भौंरा, मक्खी इत्यादि इनके अन्तर्गत हैं। इनमें कुछ को पूरे पर निकलते हैं (जैसे तितली, गुबरैला, टिवी), कुछ को अधूरे और कुछ को निकलते ही नहीं (जैसे, किलनी)। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें नर और मादा में से किसी एक को पर होते हैं, दूसरे को नहीं।
ध्यानपूर्वक देखने से पतंगकुल के कीटों का शरीर तीन खंडों में विभक्त दिखाई पड़ता है-सिर, वक्ष और उदर। किसी किसी कीट (जैसे, भिड़) में तो ये खंड केवल एक पतले तागे से जुड़े मालूम होते हैं। ये तीनों खंड भी कई जोड़ों से मिल कर बने होते हैं। सिरवाले खंड में मुँह पर पकड़ने, काटने या रस चूसने के लिए टूँड़ और आर होते हैं। वक्ष में जो तीन टुकड़े होते हैं उनमें से प्रत्येक में टाँगों का एक एक जोड़ा होता है। टाँगों के अतिरिक्त दोनों ओर पर भी होते हैं। उदरखंड में टाँगें आदि नहीं होतीं, छोर पर डंक तथा अंडवाहक अवयवों का विधान होता है। मुख के भीतर जो संकेत होता है उसमें कई नलियाँ और थैलियाँ होती हैं। पाचन के लिए कई कोठों की अलग थैली होती है जिसमें पाचनरस की ग्रन्थियाँ होती हैं। यह थैली आँतों से मिली होती है। किसी किसी कीट में इसी थैली से लगा हुआ एक और कोठा होता है जिसमें आरी की तरह के दाँत या दंदाने होते हैं। सिर के नीचे मस्तिष्क का अच्छा विधान होता है। बड़े कीटों के मस्तिष्क में कई लोथड़े होते हैं जिसमें से एक पर आँखों का जटिल ढाँचा स्थित रहता है। इन कीटों की आँख की बनावट बड़ी विलक्षण होती है। एक ढेले के अन्तर्गत हजारों आँखें होती हैं। बड़ी मक्खी को बारह हजार आँखें होती हैं। बहुत से कीटों को इन यौगिक नेत्रों के अतिरिक्त सादी आँखें भी होती हैं और कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें आँखें बिलकुल नहीं होतीं। पतंगकुल के कीटों के संवेदन सूत्रभी उन्नत कोटि के होते हैं, उनमें स्थान स्थान पर ग्रन्थियाँ होती हैं।
पतंगकुल के कीटों में कुछ ही ऐसे होते हैं जिनके बच्चों का आकार अंडे से निकलने पर पूरी बाढ़ के जीवों का सा होता है। अधिकांश कीटों में कायाकल्प होता है अर्थात अंडे से निकलने पर बच्चों में पूरे कीटों का कुछ भी आकार नहीं होता। डिंभपिंड परिवर्तन की गई अवस्थाओं में होकर तब पूरे अंग और अवयव को प्राप्त करता है। भिड़, गुबरैले, तितली, रेशम के कीड़े इत्यादि इसी प्रकार के जीव हैं। तितली को ही लीजिए। अंडे से निकलने पर उसका बच्चा एक लम्बे ढोले या सूँड़े के आकार का होता है जिसके आगे की ओर छ: जोड़दार पैर होते हैं और पीछे की ओर कई बेजोड़ के और भद्दे पैर होते हैं। चबाने के लिए जबड़े भी होते हैं। यह डिंभकीट कुछ काल तक इसी अवस्था में पेड़ पौधों पर रेंगता फिरता है। इसके उपरान्त यह सूत की तरह कात कर एक कोश बनाता है जिसके भीतर निश्चेष्ट और नि:संज्ञ होकर यह बन्द हो जाता है और कुछ काल तक उसी अवस्था में रहता है। कोश के भीतर ही इसका पूरा कायाकल्प होता है। कायाकल्प का काल जब पूरा हो जाता है तब यह सब अंग अवयवों से युक्त उड़नेवाली तितली होकर निकल आता है।
पतंगकुल के कीट इस बात के प्रमाण हैं कि जटिल और उन्नत अवयवों का विधान छोटे से छोटे जीवों में भी हो सकता है। हाथी का डीलडौल मनुष्य के डीलडौल से बहुत बड़ा होता है पर उसके वाह्य और अन्त:करण उतनी पूर्णता को प्राप्त नहीं रहते जितने मनुष्य के रहते हैं। बिना रीढ़वाले जंतुओं में पतंग सबसे अधिक उन्नत इन्द्रियवाले और बुद्धिमान होते हैं। भिड़, मधुमक्खी, चींटी इत्यादि में कैसी संचयबुद्धि होती है, किस कौशल और व्यवस्था के साथ वे समाज बाँधा कर रहती हैं। डारविन ने कहा है कि चींटी का मस्तिष्क, जो और कीड़ों के मस्तिष्क से बड़ा होने पर भी आलपीन की नोक का चौथाई भी नहीं होता, संसार में सबसे चमत्कारपूर्ण द्रव्यकणा है।
अधिकतर विद्वानों का मत है कि जिन जीवों का लालन पालन माता पिता द्वारा बहुत दिनों तक होता है अर्थात जो बहुत दिनों तक माता पिता के स्नेह के आश्रित रहते हैं उनमें सहानुभूति और समाजबुद्धि का विकास अधिक होता है; जैसे, बन्दर, बनमानुस, मनुष्य आदि में। चींटी तथा समाज बाँधकर रहनेवाले और कीट भी; जैसे, भिड़, मधुमक्खी आदि, गुबरैले की दशा में बहुत दिनों तक पलते हैं इसी से उनमें इतनी संघबुद्धि पाई जाती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस संघबुद्धि का विकास क्रमश: लाखों वर्ष की परम्परा के उपरान्त हुआ है।
बिना रीढ़वाले जंतुओं में शुक्तिवर्ग के सीप, घोंघे, शंख आदि कोमलकाय जीव भी हैं जो सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़े से बड़े होते हैं। इस वर्ग के सबसे क्षुद्र कोटि के जीव चट्टानों आदि पर काई के समान जमे रहते हैं। अष्टपद ऐसे बड़े जीव भी इसी वर्ग में हैं जो अपने चारों ओर फैली हुई बड़ी बड़ी भुजाओं या पैरों से बड़े बड़े जंतुओं को पकड़ लेते हैं। शुक्तिवर्ग के कुछ जीवों के कपाल हृदय आदि अलग अलग अंग नहीं होते। सीप को अलग सिर नहीं होता। इसी सीप के शरीर पर मोती होता है। एक प्रकार केंचुओं के डिंभ सीप के शरीर पर लगकर बन्द हो जाते हैं। जहाँ जहाँ वे बन्द हो जाते हैं वहाँ वहाँ गोल चमकीले उभार या फोड़े पड़ जाते हैं जो काल पाकर मोती के रूप में हो जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि शुक्तिवर्ग के सब जीव जलचारी हैं और उनके शरीर का ढाँचा उन्नत कोटि का नहीं होता, बहुत सादा होता है। अष्टपद को छोड़ और किसी के शरीर के भीतर किसी प्रकार का ढाँचा (जैसा कि रीढ़वाले जंतुओं का अस्थिपंजर होता है) नहीं होता। पर उनमें शरीर के ऊपर एक कड़े आवरण की विशेषता होती है जल में मिले हुए चूने आदि द्रव्यों के संग्रह से बनता है।
बिना रीढ़वाले जंतुओं से रीढ़वाले जंतुओं में किन किन बातों की विशेषता होती है यह देख लेना चाहिए। पहली बात तो यह है कि बिना रीढ़वाले जंतुओं में पाचनक्रिया, रक्तसंचार और संवेदनकेन्द्र तीनों के लिए एक ही घट होता है तथा शरीर कोधारणा करनेवाला ढाँचा जो कुछ होता है, ऊपर ही होता है। यह ढाँचा प्राय: आवरण के रूप में होता है और कड़े पड़े हुए चमड़े के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। पर रीढ़वाले जंतुओं में दो अलग अलग घट होते हैं। छोटे वा कपालघट में विज्ञानमय कोश का केन्द्र अर्थात मस्तिष्क और मेरुरज्जु, रहता है और मध्यघट में पाचन और रक्तसंचार के कारण (यकृत, आँत और हृदय) होते हैं तथा शरीर को धारणा करनेवाला ढाँचा कड़े अस्थिपंजर के रूप में भीतर होता है। इस ढाँचे का सबसे विलक्षण भाग है रीढ़ या मेरुदंड। रीढ़ हवी गुरियों की बनी होती है जो मेरुदंड के पूर्वरूप लचीले सूत्रादंड के अवशिष्ट से परस्पर जुड़ी रहती हैं। बनावट की इस विशेषता के कारण सारी रीढ़ आवश्यकतानुसार लचक और मुड़ सकती है जिससे रीढ़वाले जंतुओं को चलने, फिरने, उछलने, कूदने में बड़ी आसानी होती है। मछलियों का झपटना, मेंढकों का कूदना, साँपों का रेंगना, हिरन का चौकड़ी भरना, शेर का उछलना देखने से यह बात ध्यान में आ सकती है। रीढ़वाले जंतुओं को सजीव हड्डियां होती हैं जिनके भीतर रक्त का संचार होता है। वे शरीर के कोमल भागों की रक्षा करती हैं। ढाँचे की इसी विशेषता के कारण ये बिना रीढ़ के जंतुओं से इतने बढ़े चढ़े होते हैं। बहुखंड कीटों के समान इनका शरीर भी दो समान पाश्र्वों दाहिने और बाएँ में बँटा होता है और कई खंडों के जोड़ से बना होता है। इनके शरीर के भी तीन विभाग होते हैं-सिर, वक्ष और उदर। पर चारी अंग (हाथ पैर) चार से अधिक नहीं होते अर्थात उनका एक एक जोड़ा दोनों ओर होता है-चाहे वह मछली के मुख्य परों के रूप में हो (इन जोड़ेदार परों के अतिरिक्त मछली के और छोटे छोटे पर होते हैं जिनका कोई हिसाब नहीं होता), चाहे चिड़ियों की टाँगों और डैनों के रूप में, चाहे चौपायों के अगले और पिछले पैरों के रूप में और चाहे मनुष्यों के हाथ पैर के रूप में। इन सब जीवों के ढाँचे एक ही आदिम ढाँचे से क्रमश: उत्पन्न हुए हैं।
विकास परम्परा के अनुसार बिना रीढ़वाले जंतुओं से ही क्रमश: रीढ़वाले जंतुओं की उत्पत्ति हुई है। पहले बिना रीढ़वाले और रीढ़वाले जंतुओं के बीच के जीव हुए होंगे जिनके शरीर के भीतर कुछ कुछ पंजराभास प्रकट हुआ होगा। इस प्रकार के कुछ अवशिष्ट जीव अब तक पाए जाते हैं। समुद्र में थैली के आकार का एक जंतु होता है जो चट्टानों पर चिपटा रहता है। इसके एक मुँह और एक उत्सर्ग छिद्र होता है। मुँह के नीचे साँस लेने की थैली होती है जिसमें बहुत से छेद होते हैं। यह थैली नीचे उदराशय से मिली होती है जिसमें अतड़ियाँ होती हैं, और झुककर उत्सर्गद्वार तक गई होती हैं। भीतर खींचा हुआ पानी अम्लजन या प्राणदवायु शरीर में पहुँचा कर इसी द्वार से निकल जाता है। हृदय एक लम्बी नली के आकार का होता है और शरीरघट के पिछले भाग में स्थित होता है। इसका विज्ञानमय कोश एक संवेदनग्रन्थि मात्र होता है जो मुँह और उत्सर्गद्वार के बीच में रहती है। इस संवेदनग्रन्थि की स्थिति में रीढ़वाले जंतुओं के साथ इसके सम्बन्ध का पता लगता है। पर सबसे बढ़कर प्रमाण अंडे से निकलने पर इसकी वृद्धि के क्रम की ओर ध्यान देने से मिलता है। अंडे से जो डिंभकीट निकलता है वह मेंढक के डिंभकीट (छुछुमछली) से बिलकुल मिलता है। दोनों में उन चार विशेष अंगों का विधान होता है जो समस्त रीढ़वाले जंतुओं में गर्भावस्था से लेकर किसी न किसी अवस्था में पाए जाते हैं। चारों अंग ये हैं-
(1) गला और गलफड़ों के छिद्र,
(2) मेरुदंडाभास, जो एक चिकने सूत्रादंड की तरह का होता है और रीढ़ का पूर्व रूप है,
(3) मस्तिष्क और मेरुरज्जु तथा
(4) दर्शनेन्द्रिय जो मस्तिष्क के भीतर होती है। आँखवाले बिना रीढ़ के जंतुओं की दर्शनेन्द्रिय का संवेदन पटल (प्रकाश ग्रहण करनेवाला भाग) ऊपरी त्वचा से ही उत्पन्न होता है। डिंभकीट अवस्था से आगे चल कर इस समुद्रजंतु और मेंढक के डिंभकीट एक दूसरे से भिन्न अवस्था को प्राप्त होते हैं। मेंढक का डिंभकीट तो छुछुमछली की अवस्था से जलस्थलचारी जंतु हो जाता है, गलफड़ों के स्थान पर साँस लेने के लिए उसे फेफड़ा उत्पन्न हो जाता है, दुम उसकी गायब हो जाती है और चार पैर निकल आते हैं। अर्थात जलचर मछली के रूप में जलस्थलचारी मेंढक के रूप में आने में मेंढक के प्राचीन पूर्वजों ने जिन अवस्थाओं को पार किया है, मेंढक के डिंभ वृद्धिक्रम में उनकी संक्षिप्त उद्धरिणी देखी जाती है। पर उक्त समुद्र जंतु काडिंभ कीट आगे चलकर भिन्न अवस्था को प्राप्त होता है। उसकी दुम, मेरुरज्जु, संवेदनरज्जु और आँख गायब हो जाती है, मस्तिष्क छोटा सा रह जाता है, गलफड़ों के छिद्र अधिक हो जाते हैं, त्वचा कड़ा हो जाता है और अन्त में वह बिना हाथ पैर और आँख का थैली के आकार का जंतु होकर अचल पौधो की तरह किसी चट्टान आदि पर जम जाता है और वहीं पौधो की तरह पर उसका पोषण होता है।
थैली के आकार के समुद्री जंतु से कुछ उन्नत कोटि का एक और जंतु होता है जिसे अकरोटी मत्स्य (बिना सिर की मछली) कहते हैं। यह देखने में जोंक की तरह का एक झलझलाता हुआ कीड़ा होता है जिसे सिर नहीं होता और आँख भी एक ही होती है। इसके मुँह पर खड़े खड़े सूत से होते हैं जिसके द्वारा यह खाद्यपूर्ण जल भीतर लेता है। यह जल मुँह के नीचे चौड़ी गलनाल में जाकर प्राणदवायु प्रदान करता हुआ उत्सर्गद्वार से होकर निकल जाता है। कोई हृत्पिण्ड न होने के कारण रक्त का संचालन नलियों के आकुंचन द्वारा होता है। इस जंतु की गिनती रीढ़वाले प्राणियों में की गई है क्योंकि इसे रीढ़ के स्थान पर एक सूत्रादंड होता है, जिसके ऊपर यहाँ से वहाँ तक एक संवेदनसूत्रा होता है जो मुँह के पास जा कर कुछ निकला सा होता है। ऊपर थैली के आकार के जिस समुद्र जंतु का उल्लेख हो चुका है उसकी संवेदन ग्रन्थि यदि लम्बी कर दी जाय तो इसके और उसके संवेदन विधान बिलकुल एक से हो जायँ। इससे सिद्ध होता है कि दोनों एक ही पूर्वज जंतु से निकले हैं।
अब हम मछलियों को लेते हैं जो रीढ़वाले जंतुओं में सबसे सादे ढाँचे की समझी जाती हैं। इनमें जो आदिम कोटि की होती हैं जैसे. शार्क आदि, उनके भीतर कड़ी हड्डियां नहीं होतीं। नरम हवी की रीढ़ होती है और पीठ पर दालदार खोलड़ी होती है जिस पर चौखूँटे उभरे हुए खाने कटे होते हैं। और मछलियों के भीतर कड़ी हड्डीयों का ढाँचा होता है। मछलियों को साँस लेने के लिए फुप्फुस या फेफड़ा नहीं होता, वे गलफड़ों से साँस लेती हैं। मछलियों से ही विकास परम्परानुसार क्रमश: मेंढक आदि जलस्थलचारी जंतु उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार बिना रीढ़वाले जंतुओं और रीढ़वाले जंतुओं के बीच के जंतुओं के कुछ नमूने अब तक पाए जाते हैं, उसी प्रकार जलचर मत्स्यों और जल स्थलचारी जंतुओं के मध्यवर्ती जंतु भी अब तक मिलते हैं। मछलियों का एक भेद होता है जो उभयश्वासी कहलाता है। उभयश्वासी मछलियों को साँस लेने के लिए गलफड़े भी होते हैं और एक हवा की थैली भी जो फेफड़े का काम देती है। इससे ये मछलियाँ पानी में भी साँस ले सकती हैं अर्थात जल में मिली हुई अम्लजन वा प्राणदवायु ग्रहण कर सकती हैं, और पानी के बाहर जमीन पर भी। ऐसी दो मछलियाँ पाई गई हैं - एक दक्षिण अमेरिका में और एक आस्ट्रेलिया में। इन दोनों के पर नहीं होते, पर के स्थान पर चार लम्बे लम्बे अंकुर से होते हैं जिन्हें पैरों का पूर्व रूप समझना चाहिए। ये जमीन पर बहुत देर तक रह कर साँस ले सकती हैं। हिन्दुस्तान की बाँग मछली भी बहुत देर तक पानी के बाहर रह सकती है।
इस प्रकार जलचारी और स्थलचारी जंतुओं के मध्यवर्ती उभयचारी जंतुओं तक हम पहुँचते हैं जिनमें सबसे अधिक ध्यान देने योग्य है मेंढक। अंडे से फूटने पर मेंढक का डिंभकीट मछली के रूप में आता है, जल ही में रहता है, गलफड़े से साँस लेता है और घासपात खाता है। उसे लम्बी पूँछ होती है, पैर नहीं होते। फिर धीरे धीरे कायाकल्प करता हुआ वह उभयचारी जंतु का रूप प्राप्त करता है और जालीदार पंजों से युक्त पैरवाला, फेफड़े से साँस लेनेवाला, कीड़े-फतिंगे खाने वाला मेंढक हो जाता है। उन्नत कोटि के समस्त रीढ़वाले प्राणी फेफड़े से साँस लेते हैं जो, जैसा ऊपर दिखाया गया है, गलफड़ों का ही क्रमश: समुन्नत रूप है।
उभयचारी जंतुओं से ही विकास परम्परा द्वारा सरीसृपों की उत्पत्ति हुई है। इस सरीसृपवर्ग के अन्तर्गत साँप, छिपकली, गिरगिट, मगर, घड़ियाल इत्यादि बहुत से जंतु हैं। पृथ्वी के एक पूर्वकल्प में इस वर्ग के बड़े बड़े भीमकाय जंतु होते थे। तीस तीस हाथ लम्बी आरेदार छिपकलियाँ होती थीं जो हवा में उड़ती थीं। धीरे धीरे पृथ्वी पर ऐसे परिवर्तन होते गए जो उनकी स्थिति के प्रतिकूल थे। इस प्रकार क्रमश: उनका लोप हो गया। अब भूगर्भ के भीतर उनकी ठठरियाँ कभी कभी मिल जातीहैं।
पंजेवाले सरीसृपों से पक्षियों की उत्पत्ति हुई। दोनों में ढाँचे की बहुत कुछ समानता अब तक है - जैसे दोनों में रीढ़ के साथ खोपड़ी एक ही जोड़ से जुड़ी होती है; दो जोड़ों के द्वारा नहीं जैसा कि अधिकांश उभयचरों तथा सब रीढ़वाले जंतुओं में होता है और खोपड़ी के साथ जबड़े कुछ हड्डीयों से इस प्रकार जुड़े रहते हैं कि वे बहुत अधिक खुल सकते हैं। पर इन समानताओं के होते हुए भी पक्षियों के ऊपरी और भीतरी ढाँचे में बहुत कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं जिनका विधान कई लाख वर्षों के बीच स्थिति के अनुसार क्रमश: होता गया है। सरीसृपों का तीन कोठों का हृदय पक्षियों में आ कर चार कोठों का हो गया जिससे शुद्ध ताजा रक्त शरीर में घूम कर लौटे हुए अशुद्ध रक्त से अलग रहने लगा और शरीर में गरमी रहने लगी। सरीसृपों की केंचुल या खोपड़ी और पक्षियों के पर दोनों ऊपरी त्वचा के विकार हैं। इसी प्रकार दूसरे जंतुओं के बाल, मुख और खुर भी त्वचा से ही उत्पन्न हैं, त्वचा के ही विकार हैं। इन्द्रियाँ भी ऊपरी त्वचा के ही विकार हैं। एक प्रकार के प्राणियों में ही कुछ के ढाँचों में किसके प्रभाव से ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न होती गईं कि उनसे नए नए ढाँचे के जीव उत्पन्न हुए? इसका सीधा उत्तर यही है कि वाह्य सम्पर्क के प्रभाव से। यह सोच कर आश्चर्य अवश्य होता है कि आदिम क्षुद्र अणुजीवों की सूक्ष्म झिल्ली से विज्ञानमय कोशयुक्त उन्नत प्राणियों की कई परतों की विचित्रा त्वचा का प्रादुर्भाव हुआ। पर यह भी समझना चाहिए कि यह बात दो चार दिनों में तो हुई नहीं, कई लाख वर्षों के बीच लगातार प्रभाव पड़ते रहने से शनै: शनै: हुई है।
विकासक्रम में सरीसृपों से आगे होने के कारण पक्षियों का मस्तिष्क बड़ा होता है। उनमें बुद्धि का विकास सरीसृपों से कहीं अधिक देखा जाता है। उनमें दृष्टि का विस्तार मनुष्यों से कहीं अधिक होता है। स्मरणशक्ति भी उनकी मनुष्य से बहुत बढ़चढ़ कर होती है। हजारों कोस समुद्र पार के देशों से होकर एक सी चिड़िया फिर उसी पेड़ वा झाड़ी पर आ जाती है जिस पर पिछले वर्ष उसने घोंसला बनाया था।
पक्षियों से अब हम स्तन्य वा दूधा पिलानेवाले जीवों की ओर आते हैं। आदिम रूप के स्तन्य जंतु पक्षियों से कई बातों में मिलते जुलते हैं। एक तो उन्हें दाँत नहीं होते, दूसरे हृदय और आँतों आदि सबके लिए एक ही कोठा होता है। इस प्रकार के जंतु अब तक दो ही पाए गए हैं और दोनों आस्ट्रेलिया में, एक तो बत्ताखघूँस जिसे बत्ताख की तरह कड़ी, चौड़ी चोंच होती है और जिसके पंजों की उँगलियों के बीच झिल्लियाँ होती हैं; दूसरा चींटीखोर जो खरहे के इतना बड़ा होता है। ये दोनों जानवर अंडे देते हैं। अंडे से निकलने पर बच्चे माता का दूधा पीकर पलते हैं। सरीसृपों, पक्षियों और स्तन्य जीवों के मध्यवर्ती इन जंतुओं के वर्ग को अंडज स्तन्य वर्ग कहते हैं। इस वर्ग से कुछ उन्नत वर्ग में अजरायुज स्तन्य हुए जिनके दो नमूने अब तक मिलते हैं - आस्ट्रेलिया का कंगारू और ओपोसम। ये यद्यपि पिंडज जंतु हैं पर इनके बच्चे पूरे बने हुए नहीं पैदा होते और बहुत दिनों तक माता उन्हें अपने पेट में बनी हुई एक थैली में रखती है। बाहर निकल कर डोलते हुए बच्चे किसी प्रकार की आहट पाने पर झट थैली में घुस जाते हैं।
तीसरा वर्ग जरायुजों का है जो सब से अधिक उन्नत है और जिसके अन्तर्गत कुत्तो, बिल्ली, हाथी, घोड़े, बन्दर, मनुष्य आदि हैं। इस वर्ग के जंतुओं में जरायुज की विशेषता होती है जिसके द्वारा भ्रूण गर्भ में ही बढ़ता और अपने आकार को पूर्ण करता है। इनके बच्चे सब अंगों से युक्त हिलते डोलते पैदा होते हैं। इन्हीं जरायुजों की एक शाखा किंपुरुष हैं जिसके अन्तर्गत बन्दर, बनमानुस और मनुष्य हैं। बिना पूँछ के बनमानुसों से मिलते जुलते पूर्वजों से ही क्रमश: विकास परम्परा द्वारा मनुष्य का प्रादुर्भाव हुआ जो भूमण्डल के प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ है।
संक्षेप में विकास सिद्धांत का यही सारांश है जिसे डारविन ने जीवन भर लगातार श्रम करके अनेक प्रमाणों के संग्रह के उपरान्त प्रतिष्ठित किया। डारविन के पीछे अनेक वैज्ञानिकों ने अपने नए नए अनुसंधानों द्वारा इस मत को पुष्ट किया। भूगर्भ के भीतर अतीत युगों के जीवों के पंजरों की जो खोज हुई उससे इस सम्बन्ध में बहुत सहायता मिली। एक वर्ग और योनि के जीवों से दूसरे वर्ग और योनि के जीवों का विधान एकबारगी तो हुआ नहीं, क्रमश: लाखों पीढ़ियों में जाकर हुआ है। किसी योनि
के कुछ प्राणियों में स्थिति के अनुरूप औरों से कुछ विशेषताएँ उत्पन्न हुईं जो पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती गईं यहाँ तक कि लाखों वर्षों की अखंड परम्परा के उपरान्त उनका कुल ही अलग हो गया। इससे यह प्रकट है कि किसी एक ढाँचे के जीव से जब कि दूसरे ढाँचे के जीव की उत्पत्ति हुई है तब ऐसे जीव भी अवश्य होने चाहिए जो दोनों के बीच के हों। ऐसे जीव कुछ तो अब तक वर्तमान हैं और कुछ के पंजर भूगर्भ के भीतर पाए गए हैं। विकास सिद्धांत के पहले लोगों का विश्वास था कि इस समय पृथ्वी पर जितने प्रकार के जीव हैं सब के सब सृष्टि के आदि में एक साथ ही उत्पन्न किए गए। डारविन ने यह दिखाकर कि एक ही प्रकार के आदिम क्षुद्र जीवों से क्रमश: नाना प्रकार के जीवों का विधान होता आया है, स्थिर योनि सिद्धांत का पूर्णरूप से खंडन कर दिया।
सूक्ष्म अतिसूक्ष्म आदिम अणुजीवों से उत्तरोत्तर उन्नत कोटि के जीवों की उत्पत्ति की जो परम्परा स्थूल रूप से ऊपर दिखाई गई है, उसकी संक्षिप्त उद्धरणी प्रत्येक प्राणी के भ्रूण के वृद्धिक्रम में देखी जाती है। जिस प्रकार सृष्टि के करोड़ों वर्षों के इतिहास में एक रूप के जीव से क्रमश: दूसरे रूप के जीव की उत्पत्ति होती आई है, उसी प्रकार प्रत्येक जीव का भ्रूण गर्भ के भीतर या बाहर एक रूप से दूसरे रूप में तब तक आता रहता है जब तक उसका सारा ढाँचा अपने माता पिता के अनुरूप नहीं हो जाता। कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी जंतु का भ्रूण समूचा शरीर बनने के पहले जिस क्रम से एक के उपरान्त दूसरा रूप उत्तरोत्तर प्राप्त करता है, वह प्राय: वही क्रम है जिस क्रम से पृथ्वी पर एक ढाँचे के जीव से दूसरे ढाँचे के जीव उत्पन्न हुए हैं। मेंढक को लीजिए जो उभयचारी (जलस्थलचारी) जीव है। पहले दिखाया जा चुका है किजलचर मत्स्यों से क्रमश: उभयचर जंतुओं की उत्पत्ति हुई है। अंडे से निकलने पर कुछ दिनों तक मेंढक के बच्चे मछली के रूप में रहते हैं, फिर मेंढक के रूप में आते हैं। पिंडवृद्धि का यह विधान मेंढक में गर्भ के बाहर होता है इससे हम लोग देख सकते हैं। पर बड़े जीवों में पिंडवृद्धि का सारा विधान गर्भ के भीतर होता है-जिस क्रम से सृष्टि के बीच आदिम एक घटक अणुजीवों से आंरभ होकर एक ढाँचे के जीव से दूसरे ढाँचे के जीव की उत्पत्ति हुई है, उसी क्रम से गर्भस्थ पिंड एक रूप से दूसरा रूप तब तक उत्तरोत्तर प्राप्त करता जाता है जब तक वह उस जंतु का पूरा आकार प्राप्त नहीं कर लेता जिसका वह भ्रूण होता है। गर्भपरीक्षा द्वारा यह बात देखी जा सकती है।
ऊपर कहा जा चुका है कि एक घटक अणुजीवों से बहुघटक जीवों की उत्पत्ति हुई है। पहले अत्यंत क्षुद्र कोटि के जीवों में सब घटक सब प्रकार के कर्म और संवेदन व्यापार करते थे। पर क्रमश: कार्य विभाग द्वारा घटकों में विभिन्नता आती गई। कुछ घटक एक प्रकार के व्यापार करने लगे और कुछ दूसरे प्रकार के। इस प्रकार उनके ढाँचे भी एक दूसरे से भिन्न हुए। आँख के घटक, कान के घटक, नाक के घटक, नाड़ियों के घटक, आँतों के घटक, संवेदनसूत्रों के घटक, मस्तिष्क के घटक भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। स्पंज आदि अत्यंत क्षुद्र कोटि के जीवों में स्त्री घटक और पुरुष घटक एक ही प्राणी के शरीर में होते हैं। आगे चलकर जो उनसे उन्नत कोटि के जीव हुए उनमें नर और मादा अलग अलग हुए। नर में पुरुष घटक और मादा में स्त्री घटक रहते हैं। पुरुष के शुक्र कीटाणु और स्त्री के रज:कीटाणु इसी प्रकार के घटक हैं। शुक्र कीटाणु अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। एक बूँद वीर्य में ये लाखों होते हैं। ये पुछल्लेदार होते हैं। रज:कीटाणु इनसे बड़े होते हैं अर्थात एक इंच के 125 वें भाग के बराबर होते हैं। समुद्र में पाए जाने वाले पुछल्लेदार अणुजीवों का पहले वर्णन हो चुका है जो तरुणावस्था प्राप्त होने पर दो भिन्न प्रकार के पिंडों में विभक्त हो जाते हैं, एक पुरुष कीटाणुचक्र और दूसरा गर्भांड। पुरुष कीटाणुचक्र का प्रत्येक पुछल्लेदार कीट मनुष्य, कुत्तो, बिल्ली आदि के शुक्र कीटाणु से मिलता जुलता होता है। गर्भांड जल में छूट कर उसी प्रकार अचल रहता है जिस प्रकार प्राणियों के गर्भ के भीतर का रज:कीट या गर्भांड। जल के भीतर किस प्रकार कीटाणुचक्र के कीट और गर्भांड का संयोग होता है यह पहले दिखाया जा चुका है। बहुत से कीट जल में अपने पुछल्लों को लहराते हुए गर्भांड को जा घेरते हैं जिनमें से कोई एक गर्भांड के भीतर प्रवेश कर जाता है। यही गर्भांड का गर्भित होना कहा जाता है। जैसा संयोग उक्त अणुजीवों में बाहर होता है ठीक वैसा ही मनुष्य आदि प्राणियों में गर्भाशय के भीतर होता है। मनुष्य के ही गर्भ को लीजिए।
गर्भाशय के भीतर जब शुक्र कीटाणु गर्भांड में प्रवेश कर जाता है तब दोनों मिलकर एक घटक हो जाते हैं जिसे अंकुर घटक कहते हैं। यह कलल रसपूर्ण एक सूक्ष्म कणिका मात्र; एक इंच के 125 वें भाग के बराबर होता है। एक घटक अणुजीवों के समान इसकी वृद्धि भी विभाग द्वारा उत्तरोत्तर होती है। कुछ काल तक तो सब घटक एक गुच्छे के रूप में होते हैं, फिर सब बाहरी सतह पर आकर एक झिल्ली के रूप में मिल जाते हैं और भीतर खाली जगह पड़ जाती है। इस प्रकार एक झिल्ली का खोखला गोला सा बन जाता है। थोड़े ही दिनों में इस गोले की झिल्ली एक ओर से पचक कर धँसने लगती है जिससे दोहरी झिल्ली का एक कटोरा सा बन जाता है। इसको 'द्विकल घट' कहते हैं जिससे क्रमश: सब अंगों और अवयवों का विधान होता है। बाहरी कला या झिल्ली से ऊपरी त्वचा की और संवेदनसूत्रों से संघटित मनोविज्ञानमय कोश की रचना होती है और भीतरी झिल्ली से अंत्रावलि आदि का प्रादुर्भाव होता है। द्विकलघट के भीतर के खाली स्थान को पेट का आदिम रूप समझना चाहिए और उसके सादे छिद्र को मुँह का। हैकल ने सूचित किया कि यही द्विकलघट सब बहुघटक प्राणियों का आदिम रूप है। इसी से विकास परम्परानुसार सब बहुघटक प्राणियों की उत्पत्ति हुई है। उन्होंने स्पंज आदि अब तक पाए जानेवाले द्विकलात्मक सादे जीवों की ओर ध्यान दिलाकर अपने कथन की पुष्टि की।
इस पृथ्वी पर सादे द्विकलघट जीवों से क्रमश: एक दूसरे के उपरान्त जिन जिन ढाँचों के जीव मनुष्य तक आनेवाली उत्पत्ति परम्परा में उत्पन्न हुए हैं उन ढाँचों को गर्भ के भीतर गर्भपिंड उत्तरोत्तर प्राप्त करता हुआ मनुष्य के रूप में आता है। मनुष्य रीढ़वाला जंतु है और रीढ़वाले जंतुओं में सबसे आदिम और क्षुद्रकोटि की मछलियाँ हैं। अस्तु, और रीढ़वाले जंतुओं के समान मनुष्य का विकास भी जलचर पूर्वजों से क्रमश: हुआ है। इसी से आंरभ में मनुष्य के मूलपिंड में भी जलचरों के समान गलफड़े होते हैं जो आगे चलकर गायब हो जाते हैं। हृदय भी पहले पहल सुकड़ने फैलनेवाला एक सादा कोठा मात्र होता है जैसा कि क्षुद्र कीटों का होता है। पीठ की रीढ़ पूँछ के रूप में दूर तक बढ़ी होती है। आगे चलकर जब हाथ पैर का ढाँचा तैयार होता है तब पहले पैर का अंगूठा लम्बा होता है और हाथ के अंगूठा के समान ईधर उधर सब उँगलियों पर उसी प्रकार जा सकता है जिस प्रकार बन्दरों और बनमानुसों का। प्रसव के दो तीन महीने पहले हथेलियों और तलवों को छोड़ सारे शरीर में रोएँ रहते हैं। गर्भ से बाहर आने पर भी बच्चे का सिर और अंगों के हिसाब से कुछ बड़ा होता है और हाथ भी कुछ लम्बे होते हैं। नाक में बाँसा (बीचो बीचवाली ऊपर की हवी) न होने के कारण वह चिपटी होती है। ये सब लक्षण बनमानुसों के हैं। एक ढाँचे के जीव से दूसरे ढाँचे के जीव उत्पन्न होने की करोड़ों वर्ष की परम्परा की उद्धरणी नौ महीनों के भीतर इस प्रकार संक्षेप में हो जाती है। गर्भ विधान में किसी एक अवस्था में पहुँचे हुए पिंड सब जीवों के समान होते हैं। यदि हम मनुष्य, कुत्तो और कछुवे के दो महीने के पिंड को लेकर देखें तो उनमें कुछ भी अन्तर न पायेंगे, उनका ढाँचा एक ही होगा।
विकास नियम की चरितर्थता पहले सजीव सृष्टि (जंतु और वनस्पति) में ही दिखाई गई। फिर वैज्ञानिकों ने उसे लेकर सम्पूर्ण जगद्विधान पर घटाया और नाना रूपों के पदार्थों को एक ही मूलरूप के द्रव्य से उत्तरोत्तर उत्पन्न सिद्ध किया। इस प्रकार विकास एक विश्वव्यापक नियम माना जाता है। नाना मतों और सम्प्रदायों की पौराणिक सृष्टिकथाओं का इस सिद्धांत से सर्वथा विरोध है। वे इस विकासवाद के अनुसार असंगत ठहरती हैं; क्योंकि वे सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का एक ही समय में ईश्वर द्वारा उसी प्रकार रचित बतलाती हैं जिस प्रकार कोई कारीगर नाना प्रकार की वस्तुएँ बना कर सजाता है।
इसी विकासवाद को लेकर हैकल आदि ने अपने प्रकृतिवाद या अनात्मवाद की प्रतिष्ठा की है जिसका विरोध पौराणिक कथाओं तक ही नहीं रह जाता बल्कि सारे ईश्वरवादी या आत्मवादी दर्शनों तक पहुँचता है। विकास सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी अधिकांश दर्शन नित्य चेतन तत्व मानते हैं और उसकी भावना कई प्रकार से करते हैं। हैकल चैतन्य को द्रव्य का एक परिणाम कहते हैं जिसका विकास जंतुओं के मस्तिष्क ही में होता है। उनका कहना है कि आत्मा शरीरधर्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अत: उसे शरीर से पृथक् एक अभौतिक नित्य तत्व मानना भूल है। शरीर के साथ ही उसकी भी इतिश्री हो जाती है। अन्त:करण को अपने व्यापारों का जो बोध होता है वही चेतना है। जिस प्रकार विषयसम्पर्क द्वारा इन्द्रियों और संवेदनसूत्रों में कई प्रकार के क्षोभ होते हैं उसी प्रकार मस्तिष्क में जाकर उनके द्वारा उत्पन्न संकारों का बोध भी होता है। अत: चेतना भी भौतिक अन्त:करण का ही व्यापार है जो उस कारण के नष्ट होने पर नष्ट हो जाती है। विकास सिद्धांत को लेकर हैकल ने दिखाया है कि अत्यंत क्षुद्र कोटि के जंतुओं में, जिनमें संवेदन सूत्रों और मस्तिष्क आदि का पूरा विधान नहीं होता, अन्त:करणव्यापार चेतन अवस्था को नहीं पहुँचे रहते। उनमें अत्यंत सादी चाल के संवेदन व्यापार होते हैं जिनके अनुसार उनके शरीर का आकुंचन, प्रसारण और संचालन आदि होता है पर उनके अन्त:करण में उस अवयव का विधान न होने के कारण, जिसमें संवेदनव्यापार का प्रतिबिम्ब पड़ता है, उनमें चेतना का अभाव होता है। पर विकास परम्परा में ज्यों ज्यों हम उन्नत कोटि के प्राणियों की ओर आते हैं त्यों त्यों उसका उत्तरोत्तर अधिक विधान पाते हैं। अत: चैतन्य कोई नित्य और अपरिच्छिन्न सत्ता नहीं, वह परिणामशील है और उसमें घटती बढ़ती होती है।
यहाँ पर स्थूल मनोविज्ञानमय कोश का अर्थात उस शरीर विधान का जिसके द्वारा संवेदना और मनोव्यापार होते हैं, थोड़ा वर्णन आवश्यक है। शरीर का कोई भाग यदि खोला जाता है तो हम देखते हैं कि बहुत से मोटे, महीन तन्तुओं और सूत्रों का घना जाल फैला है। ये तन्तु और सूत्रकई प्रकार के दिखाई देते हैं - कोई लाल, कोई- नीले, कोई सफेद। उनमें से लाल और नीले डोरे तो रक्तवाहिनी नलियाँ हैं जो पोली होती हैं। जो ठोस सफेद डोरे दिखाई देते हैं वे ही संवेदन सूत्रहैं। ये बहुत दृढ़ होते हैं। इन्द्रियों पर पड़ा हुआ सम्पर्क प्रभाव इन्हीं से होकर मस्तिष्क में पहुँचता है और संस्कार उत्पन्न करता है तथा उस संस्कार द्वारा उत्पन्न क्षोभ फिर इन्हीं सूत्रों से प्रवाह के रूप में चलकर मांसपेशियों में गति उत्पन्न करता है और अंगों को प्रेरित करता है। इन सूत्रों का मूलकेन्द्र मस्तिष्क और उससे मिला हुआ मेरुरज्जु है जो रीढ़ के बीचोबीच होता हुआ बराबर नीचे की ओर को गया है। यह मेरुरज्जु भेजे और तन्तुओं की बनी हुई मोटी बत्ती की तरह का होता है और कपाल में पहुँच कर मस्तिष्क के लोथड़ों के रूप में फैला रहता है। यही बत्ती (मेरुरज्जु) और लोथड़े (मस्तिष्क) संवेदन के केन्द्र हैं जिनसे संवेदनसूत्रा निकलकर अनन्त शाखाओं प्रशाखाओं में विभक्त होते हुए मोटे महीन डोरों के रूप में शरीर के प्रत्येक भाग में फैले रहते हैं।
रीढ़ की गुरियों की प्रत्येक सन्धि पर मेरुरज्जु के संवेदन सूत्रों के दो दो जोड़े दो ओर को जाते हैं। रीढ़ के पीछे से जो सूत्रनिकलते हैं वे अन्तर्मुख या संवेदनात्मक सूत्रकहलाते हैं। उनसे होकर इन्द्रिय सम्पर्क घटित अणुक्षोभ भीतर केन्द्र वा मस्तिष्क की ओर जाता है और उसमें पहुँच कर संवेदन उत्पन्न करता है। रीढ़ के आगे से जो सूत्रनिकले होते हैं वे बहिर्मुख या गतिवाहक सूत्रकहलाते हैं, क्योंकि संवेदन जनित प्रेरणा उन्हीं से हो कर मांसपेशियों की ओर आती है और अंगों में गति उत्पन्न करती है। मेरुरज्जु से निकल कर ये दोनों प्रकार के सूत्रज्यों ज्यों आगे चलते हैं त्यों त्यों उत्तरोत्तर अनेक पतली शाखाओं में फैलते जाते हैं, यहाँ तक कि त्वचा में जाकर उनका ऐसा घना जाल फैला होता है कि शरीर के किसी स्थान पर महीन से महीन सुई की नोक चुभाई जाय तो भी वह किसी न किसी संवेदन सूत्रको अवश्य पीड़ित करेगी। इस प्रकार शरीर का सारा तल तारबर्की के घने जाल द्वारा मस्तिष्क से सम्बद्ध है।
अब मस्तिष्क की बनावट देखिए। मस्तिष्क कई भागों में विभक्त है जिन सबके ठीक ठीक व्यापारों का पता नहीं लग सका है। मुख्य विभाग चार हैं-
1. मज्जादल - मेरुरज्जु जहाँ से कपाल के भीतर पहुँचता है वहाँ चौड़ा हो गया है। यही अंश मज्जादल है। यहीं से चेहरे की ओर जानेवाले तथा हृदय और फेफड़े की क्रिया सम्पादित करनेवाले सूत्रनिकले होते हैं। इसी से इस पर आघात लगने से मनुष्य नहीं बचता।
2. मज्जादल से थोड़ा ऊपर चल कर तन्तुओं का एक छोटा लच्छा सा मिलता है जिसे सेतुबन्धा कहते हैं।
3. इसी से लगा हुआ बगल में एक छोटा लोथड़ा सा निकला होता है जिसे छोटा मस्तिष्क कहते हैं। इसका ठीक ठीक क्या कार्य है इस पर मतभेद है। जहाँ तक जान पड़ता है शरीर की कुछ गतियों का विधान इसके द्वारा होता है। यह तो प्रत्यक्ष देखा गया है कि इसे हटाने से पीछे फिरने की शक्ति जाती रहती है, यद्यपि कुछ दिनों में वह फिर हो जाती है।
4. सब के ऊपर चल कर वह बड़ा लोथड़ा मिलता है जो सारे कपाल में फैला है। यही प्रधान मस्तिष्क है। देखने में यह सफेद और भूरा मिला हुआ मुलायम गूदा सा जान पड़ता है। भूरा अंश सूक्ष्म घटों या घटकों के मेल से बना होता है और सफेद अंश सूक्ष्म तन्तुओं के मेल से। छोटी बड़ी बहुत सी दरारों के कारण मस्तिष्क का तल अखरोट की गिरी की तरह बिलकुल खुरदुरा होता है। सबसे बड़ी दरार लोथड़े के बीचो- बीच से जाकर उसे दाहिने और बाएँ दो भागों में विभक्त करती है। इसके अतिरिक्त और बहुत सी दरारें होती हैं। इस बड़े मस्तिष्क के ऊपरी तल पर जो संवेदनसूत्रागत घटक होते हैं वे स्मृति और धारणा के कारण प्रतीत होते हैं जो संवेदनसूत्रों द्वारा प्राप्त संस्कारों को धारणा और पुनरुद्भूत करते हैं।
मनुष्य का मस्तिष्क और जंतुओं के मस्तिष्क की अपेक्षा बहुत अधिक खुरदुरा होता है, उसमें उभार अधिक होते हैं। निम्नकोटि के जंतुओं का मस्तिष्क प्राय: समतल होता है। सारा मस्तिष्क पिंड रक्तवाहिनी नाड़ियों के घने जाल से गुछा रहता है इससे तोल में शेष शरीर के चालीसवें भाग के बराबर होने पर भी वह प्रवाहित रक्त का पंचमांश ग्रहण करता है। प्राय: सब लोग जानते हैं कि मानसिक श्रम में कितनी शिथिलता आती है और ताजा रक्त पहुँचने की कितनी आवश्यकता होती है। निद्रा की अवस्था में रक्त मस्तिष्क से नीचे उतरा रहता है। इससे सूचित होता है कि मस्तिष्क के व्यापार में शरीर शक्ति का व्यय होता है।
मस्तिष्क के मूल से संवेदनसूत्रों के दो जोड़े निकलकर दो ओर गए होते हैं। पहला जोड़ा तो ज्ञाणेन्द्रिय की ओर जाता है और दूसरा जोड़ा थोड़ा और नीचे से निकलकर चक्षुरिन्द्रिय की ओर जाता है। चेहरे की ओर जानेवाले और बाकी संवेदनसूत्रा मज्जादल से निकले हुए होते हैं। उनमें से पाँचवाँ जोड़ा चेहरे की त्वचा तथा जीभ और जबड़ों की गतिविधि का सम्पादन करता है। आठवाँ जोड़ा श्रवणेन्द्रिय से मिला रहता है और नौवाँ रसनेन्द्रिय से। इनके अतिरिक्त जो संवेदनसूत्रा और नीचे से अर्थात रीढ़ के भीतर गए हुए मेरुरज्जु से निकले होते हैं वे स्पर्शसंवेदनात्मक और गत्यात्मक सूत्रहैं जो शरीर के सब भागों में जा कर फैले होते हैं।
वाह्य विषयों को भिन्न भिन्न रूपों से ग्रहण करने के लिए यह आवश्यक है कि भिन्न भिन्न इन्द्रियों तक आए हुए संवेदनसूत्रों के छोरों की रचना और व्यवस्था भिन्न भिन्न प्रकार की हो। नेत्रागत संवेदनसूत्रों के सिरे प्रकाश ग्रहण करने के उपयुक्त हैं, श्रवण के वायुतरंग ग्रहण करने के, त्वचा के स्पर्श ग्रहण करने के, इसी प्रकार और भी समझिए। पर अभी तक शरीर विज्ञानियों का इस विषय में एकमत नहीं हुआ है कि विशेष विशेष विषयों के ग्रहण के लिए संवेदनसूत्रों में क्या क्या विशेषताएँ कहाँ तक होनी चाहिए।
ऊपर जिस अन्त:करण या मनोव्यापारयत्रों का वर्णन हुआ है वह मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों का है। विषय सम्पर्क होने से अंगों में गति इस प्रकार होती है। नेत्रा, त्वचा, रसन आदि इन्द्रियों अर्थात अन्तर्मुख संवेदनसूत्रों के विशेष विशेष प्राप्तकारी छोरों पर विषय सम्पर्क होते ही एक प्रकार का विकार या संस्कार उत्पन्न होता है जो गतिप्रवाह के रूप में मस्तिष्क में पहुँचता है। उसके वहाँ पहुँचते ही संवेदना जाग्रत होती है। इस संवेदना के कारण प्रेरणा उत्पन्न होती है जो गतिवाहक सूत्रों द्वारा बाहर की ओर पलट कर किसी अंग को हिलाती है। यदि किसी का पैर अचानक मेरे पैर के ऊपर पड़ जाय तो मैं अपना पैर बिना इच्छा या संकल्प के भी झट हटा लूँगा।
सम्पर्क पाकर अंगों में गति उत्पन्न होने के लिए चेतना की आवश्यकता नहीं। अणुजीवों तथा और क्षुद्र कोटि के जीवों में मस्तिष्क और संवेदनसूत्रों का विधान नहीं होता। अणुजीव तो कललरस की सूक्ष्म कणिका मात्र होते हैं। पर वे भी छू जाने पर सुकड़ते या हटते हैं। उनकी यह क्रिया चेतन नहीं, प्रतिक्रिया मात्र है। क्षुद्र जीवों के शरीर पर बाहरी सम्पर्क या उत्तोजन से उत्पन्न क्षोभ गतिवाहक के रूप में कललरस के अणुओं द्वारा भीतर केन्द्र में पहुँचता है, और वहाँ से प्रेरणा के रूप में बाहर की ओर पलट कर शरीर में गति उत्पन्न करता है। वस्तुसम्पर्क के प्रति यह एक प्रकार की अचेतन क्रिया है जो ज्ञानकृत या इच्छाकृत नहीं होती, केवल कललरस के भौतिक और रासायनिक गुणों के अनुसार होती है, जैसे, छूने से लजालू की पत्तियों का सिमटना, क्षुद्र कीटों का अंग मोड़ना या हटना इत्यादि। चेतनाविशिष्ट पूर्ण अन्त:करण से युक्त मनुष्य आदि बड़े जीवों में भी यह अचेतन प्रतिक्रिया होती है। उनमें विषय सम्पर्कजनित इन्द्रिय संस्कार अन्तर्मुख संवेदनसूत्रों द्वारा भीतर की ओर जाता है पर मस्तिष्क तक नहीं पहुँचता, बीच ही से मेरुरज्जु या और किसी स्थान से बहिर्मुख गत्यात्मक सूत्रों द्वारा पलट पड़ता है और अंग विशेष में गति उत्पन्न करता है। जैसे, आँख के पास किसी वस्तु के आते ही पलकें आप से आप बिना इच्छा या संकल्प के गिर पड़ती हैं। यह अकसर देखा गया है कि आदमी का मेरुरज्जु टूट गया है और शरीर के निचले भाग में चेतन वेदना नहीं रह गई है पर तलवे को सहलाने से पैर सिमटता रहा है।
यही अचेतन प्रतिक्रिया सबसे आदिम और सादा संवेदन है जो कललरस की वृत्ति है और सूक्ष्म से सूक्ष्म अणुजीवों से लेकर बड़े से बड़े जीवों तक में पाई जाती है। यह संवेदन और गति ज्ञान व चेतना पर अवलम्बित नहीं। प्राणिमात्र में यह होती है। हैकल आदि प्राणिविज्ञानविदवानों का मत है कि प्रतिक्रिया चेतन व्यापार नहीं है - वह ज्ञान और संकल्प द्वारा नहीं होती। अत: क्षुद्र अणुजीवों आदि में जो संवेदन अर्थात वाह्य विषयों का ग्रहण होता है वह जड़ वा अचेतन है - अर्थात उसी प्रकार होता है जिस प्रकार निर्जीव पदार्थों में पदार्थ विशेष के संसर्ग से गति या स्फोट होता है जैसे, बारूद का चिनगारी पाकर भड़कना, लोहे का चुम्बक पाकर उसकी ओर चलना। जिन जीवों में संवेदनसूत्रा तो होते हैं पर मस्तिष्क के रूप में केन्द्रीभूत नहीं होते उनमें भी, इन जीवविज्ञानियों के अनुसार, संवेदन नि:संज्ञ या अचेतन दशा में ही होते हैं। चेतना उन जीवों से आंरभ होती है जिनमें मस्तिष्क या अन्त:करण की रचना होती है। सारांश यह कि क्षुद्र जीवों में चेतना नहीं होती, आगे चलकर कुछ उन्नत कोटि के जीवों से ही चेतना मिलने लगती है।
उपर्युक्त निरूपणों के आधार पर आधिभौतिक पक्ष के अनात्मवादी तत्ववेत्ता आत्मा की ऐकान्तिक स्वतन्त्र सत्ता अस्वीकार करते हैं। वे चेतना को एक शरीर धर्म मात्र कहते हैं जिसका विकास उसी प्रकार होता है जिस प्रकार और भौतिक गुणों का। शरीर के साथ वह भी बढ़ती, विकृत होती और अन्त में नष्ट होती है। आत्मा भूतों से परे कोई नित्य और अपरिच्छिन्न सत्ता नहीं, वह मस्तिष्क की ही वृत्ति है। मस्तिष्क के बिना चेतन व्यापार असम्भव है। अनात्मवादी भूतों से परे आत्मा की सत्ता का अस्तित्व 'गतिशक्ति की अक्षरता' और 'द्रव्य की अविचलता' के सिद्धांत द्वारा असिद्ध कहते हैं। गतिशक्ति की अक्षरता का सिद्धांत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यह है कि गतिशक्ति जितनी है उतनी ही रहती है, परिणाम द्वारा वह घट बढ़ नहीं सकती। यदि भौतिक शरीर जो व्यापार करता है उससे चेतना को भिन्न मानें तो इसका मतलब यह है कि संवेदनसूत्रों के क्षोभ के रूप में जो भौतिक क्रिया होती है वह अभौतिक चेतन क्रिया के रूप में परिवर्तित हो जाती है1 अर्थात उतनी गतिशक्ति नहीं रह जाती, उसका क्षय हो जाता है। यह बात भौतिक विज्ञान से असिद्ध है। द्रव्य की अविचलता का सिद्धांत यह है कि कोई द्रव्यखंड जब तक भौतिक गतिशक्ति द्वारा अवरुद्ध या विचलित न होगा तब तक या तो एक सीधा में बराबर चला चलेगा या अचल रहेगा। जितने भौतिक व्यापार होते हैं सब दिग्बद्ध होते हैं, दिक ही में उनकी अभिव्यक्ति होती है। इन व्यापारों को दिक से अनवच्छिन्न किसी सत्ता द्वारा प्रेरित या उत्पन्न नहीं मान सकते। अत: न तो शरीर को ही चलानेवाली कोई अभौतिक सत्ता है, न जगत् को। व्यापारों के प्रेरक या उत्पादक भौतिकव्यापार ही हो सकते हैं, यह विज्ञान का एक अखंड सिद्धांत है। इन सब प्रमाणों से सिद्ध है कि चेतनाशक्ति भी एक भौतिक शक्ति है। संवेदनसूत्रों और मस्तिष्क के व्यापारों के हिसाब से ही चेतना के व्यापारों का होना इस बात को प्रत्यक्ष प्रकट करता है।
आत्मसत्तावादी इन बातों का इस प्रकार उत्तर देते हैं। पहली बात तो यह कि शक्ति की अक्षरता का जो सिद्धांत है उसकी पहुँच वहीं तक समझनी चाहिए जहाँ तक मनुष्य परीक्षा कर सका है। दूसरी बात यह है कि आत्मसत्ता संकल्प द्वारा भौतिक शरीर में संचित गतिशक्ति की मात्र में वृद्धि या न्यूनता नहीं करती, केवल निर्मित्तारूप से यह भार निश्चय कर देती है कि वह कौन सा रूपधारणा करे, किस ओर प्रवृत्त हो। शक्ति का वेग या मात्र और बात है और किसी विशेष ओर को उसकी प्रवृत्ति और बात। गति और विधि में जो भेद है उसे समझ लेना चाहिए। आत्मा केवल विधि का निर्णय करती है, गति की न वृद्धि करती है, न क्षय। अपने अंगों को जिस ओर जितनी बार चाहें हम बिना किसी भौतिक कारण के केवल आत्मसंकल्प द्वारा हिला सकते हैं। इससे सिद्ध है कि आत्मसत्ता भूतों से परे और स्वतन्त्र है। कोई अभौतिक सत्ता भौतिक गतिविधि पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती, इसके प्रमाण में जो 'द्रव्य की अविचलता' का सिद्धांत उपस्थित किया जाता है, आत्मवादी उसके प्रतिवाद में गणितज्ञों का गतिशास्त्रों सम्बन्धी यह निरूपण पेश करते हैं - 'कोई द्रव्यखंड जिस दिशा को जा रहा है उस पर जिस शक्ति का पथ समकोण बनाता हुआ होगा वह शक्ति उस द्रव्यखंड का पथ बिना गतिशक्ति के व्यय या वृद्धि के बदल सकती है'। इसी रूप से आत्मसत्ता भी चलते द्रव्य की दिशा में, बिना उसकी शक्ति की वृद्धि या ह्रास किए, फेरफार कर सकती है। इस प्रकार आत्मस्वातन्त्रय के सम्बन्ध में आधिभौतिक पक्ष की जो शंकाएँ हैं उनका समाधान हो सकता है।
ह्यूम आदि कुछ दार्शनिकों ने बौध्दों के समान क्षणिक ज्ञान को ही आत्मा या मन कहा। क्षण क्षण पर बदलनेवाले ज्ञानों अथवा विज्ञानों से भिन्न उनका अधिष्ठान रूप कोई स्थिर या एक ज्ञाता नहीं है। भिन्न भिन्न ज्ञानों के बीच एक स्थिर 'अहम्' का जो भान होता है वह एक आरोप मात्र है क्योंकि उसकी उत्पत्ति किसी इन्द्रियज ज्ञान या संस्कार से नहीं है। मन या आत्मा क्षणिक चेतन अवस्थाओं की परम्परा का ही नाम है। इस मत में मिल आदि तत्वज्ञों को यह अनिवार्य बाँधा दिखाई दी कि संस्कारों की परम्परा को अपने परम्परा होने का बोध क्यों कर होता है। प्रो. जेम्स ने भी अपने मनोविज्ञान में कहा है कि प्रत्येक क्षण में आया हुआ भाव या ज्ञान ही भावुक या ज्ञाता है। एक क्षण का अहंभाव विगत क्षण के अहंभाव से भिन्न होता है, पर भिन्न होने पर भी उसका उत्तराधिकारी या संग्रहक होता है। वह पिछले क्षण का भाव भी अपने से पूर्ववर्ती भाव का संग्रहक था, अत: उसके संग्रह के साथ उससे पिछले भाव का भी संग्रह समझ लेना चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सब चक्कर सम्बन्धसूत्रा के अभाव की पूर्ति के लिए काटना पड़ा है। विकासवाद की पद्धति के अनुसार आजकल मनोविज्ञान के अधिकतर ग्रंथमनोव्यापारों के क्रम विधान की ही मीमांसा करते हैं, सत्ता के विचार में प्रवृत्त नहीं होते। ये व्यापार किसके हैं, शरीर से अलग कोई आत्मसत्ता है या नहीं, इन बातों को वे अपने विषय - जिसे वे शुद्ध विज्ञान की एक शाखा मानते हैं, से अलग सत्तादर्शन या परविद्याका विषय बतलाते हैं। यहाँ तक कि मनोविज्ञान के बहुत से ग्रन्थों में अब आत्मा शब्द भूल कर भी नहीं आने पाते, जहाँ तक हो सकता है बचाया जाता है।
सब ज्ञानों का ज्ञाता कोई एक है जो क्षण क्षण पर उदय होने वाले नाना ज्ञानों के बीच भी सदा वही रहता है, इस बात के विरुद्ध प्रमाण में वह विलक्षण मानसिक रोग भी उपस्थित किया जाता है जिसे 'दोहरी चेतना' या 'छाया' कहते हैं। इसमें एक व्यक्ति कभी कभी बिलकुल दूसरे व्यक्ति का सा आचरण करने लगता है, उसका व्यक्तित्व एकदम बदल जाता है। किसी देवता या भूत प्रेत का सिर पर आना इसी प्रकार का रोग है। इस रोग के कई विलक्षण दृष्टान्त युरोप में भी देखे गए हैं। फेलिडा नाम की एक लड़की सन् 1848 में पैदा हुई। 14 वर्ष तक तो उसकी दशा ठीक रही। सन् 1865 में वह एक दिन एक बार बेहोश हो गई। कुछ देर में जब उसे होश हुआ तब उसकी प्रकृति एकदम बदली हुई पाई गई। पहले वह चुप्पी, हठी, शान्त तथा मन्द बुद्धि और चेष्टा की थी, पर बेहोशी के पीछे वह हँसमुख, चंचल और तीव्र बुद्धि की हो गई। इस दूसरी अवस्था में उसे अपनी पहली अवस्था की सब बातों का स्मरण था और देखने में वह सब प्रकार भली चंगी थी। कुछ महीनों पीछे बेहोशी का दूसरा दौरा हुआ और वह फिर अपनी पहली अवस्था को प्राप्त हो गई। इस अवस्था में उसे अपनी दूसरी अवस्था की बातों का कुछ भी स्मरण नहीं था। जब तक वह रही बारी बारी से ये दोनों अवस्थाएँ उसकी होती रहीं। अत: यह कहा जा सकता है कि उसकी दो अलग अलग चेतनाएँ या आत्माएँ थीं। इसी सम्बन्ध में वे व्यापार भी ध्यान देने योग्य हैं जिन्हें 'प्रतिक्रिया' और 'गौण चेतना' कहते हैं। सोने में यह प्राय: देखा जाता है कि छूने से पैर हट जाता है, यद्यपि इस व्यापार का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। जब ध्यान किसी दूसरी ओर लगा रहता है तब सब इन्द्रियाँ खुली रहने पर भी हमें कभी कभी शब्द, स्पर्श, दृश्य का ज्ञान नहीं रहता। कोई बैठा लिख रहा है। बाहर जो शब्द हो रहा है, उँगलियों से जो वह कलम पकड़े हुए है, उसका उसे कुछ भी ज्ञान नहीं है। जब मैं जानबूझकर ध्यान ले जाऊँगा तभी उन बातों का ज्ञान होगा। एक ओर जोर जोर से पढ़ते जाना और दूसरी ओर अर्थ भी ग्रहण करते जाना, बाजे पर उँगली रख रख कर बजाते भी जाना और गाते भी जाना, विभक्त चेतना के व्यापार हैं। इस प्रकार के युगपद् मनोव्यापार यह सूचित करते हैं कि चेतना की प्रधान धारा से अलग होकर गौण धारा भी चलती है। अत: चेतना के एक अखंड, निर्विकार, सदा एकरस आत्मा होने का प्रमाण नहीं मिलता। 1
आत्मवादी कहते हैं कि यदि मन केवल चेतन अवस्थाओं की परम्परा मात्र होता, यदि क्षणिक ज्ञानों का ही नाम मन होता तो विचार, तर्क, आत्मनिरीक्षण आदि असम्भव होते। तर्क के लिए यह आवश्यक है कि भिन्न भिन्न अवयवों को व्यवस्थित करने वाली कोई एक सत्ता हो। ज्ञानकृत पुनरुभावना और स्मृति के लिए पूर्व प्रत्ययों के साथ वर्तमान प्रत्ययों का मिलान करनेवाला कोई एक स्थिर द्रष्टा चाहिए। इस समय मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं कल घूमने गया था, पर साल प्रयाग में था, इत्यादि। इसका मतलब यही है कि कल घूमने और पर साल प्रयाग में रहने का अनुभव करने वाला वही था जो इस समय सोच रहा है। यदि मन और आत्मा क्षणिक ज्ञानों का ही नाम होता तो यह असम्भव होता2। यदि आधिभौतिक पक्ष के लोग यह कहें कि स्थूल भौतिक मस्तिष्क ही अधिष्ठान रूप में इन भिन्न भिन्न ज्ञानों का समाहार करने वाला है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि शरीरविज्ञानी कहते हैं कि ओर घटकों
1 मस्तिष्क के विवरण में दिखाया जा चुका है कि सम्पर्क पाकर अंग को हटाना, किसी वस्तु को पकड़ना आदि व्यापार बड़े जीवों में मस्तिष्क और संवेदनसूत्रों की क्रिया से होते हैं। संवेदनसूत्रों द्वारा जब स्पन्दन मस्तिष्क में पहुँचता है तब गतिवाहक सूत्रों में स्पन्दन होता है जो अंगविशेष में पहुँच कर उसे हिलाता है। यदि अंगव्यापार चेतना संकल्प द्वारा उत्पन्न नहीं है तो प्रतिक्रिया मात्र है, शुद्ध अन्त:करण (मस्तिष्केन्द्र) का व्यापार नहीं। हमारे यहाँ के दार्शनिक इसे मन का व्यापार न कहेंगे, इन्द्रियों का स्थूल व्यापार कहेंगे। इन्द्रियाँ मन से सम्बद्ध होकर जो व्यापार करेंगी उसी को वे मनोव्यापार के अन्तर्गत लेंगे। मन के एकत्व का प्रतिपादन करते हुए नैयायिक मन के युगपद् व्यापार असम्भव कहते हैं। उनका कहना है कि एक क्षण में एक ही ज्ञान होता है। अत: बाजा बजाते हुए गाने में जो एक साथ दो दो मनोयोग कहे गए हैं उनके बीच वे सूक्ष्म कालान्तर की कल्पना करेंगे।
2 पाश्चात्य आत्मवादी मनोविज्ञानियों के आत्मसत्ता सम्बन्धी ये प्रमाण वे ही हैं जो न्याय में दिए गएहैं।
दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् 3। 1। 1
तद्व्यवस्थानादेवात्मसद्भवादप्रतिषेष: 3।1।7
सव्यदृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानात् 3।1।7
इसी प्रकार स्मृति का व्यापार भी प्रमाण में लाया गया है-
तदात्मगुण सभावादप्रतिषेधा: 3।1।14
बात यह है कि जिस प्रकार पाश्चात्य ग्रन्थों में मन और आत्मा के व्यापारों में कोई भेद नहीं किया गया है उसी प्रकार न्याय में भी अन्त:करण विशिष्ट आत्मा का ही विचार हुआ है। सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि आत्मा के ही व्यापार कहे गए हैं।
पर सांख्य और वेदान्त में शुद्ध आत्मा अकर्ता कहा गया है। उसमें कोई व्यापार नहीं, वह द्रष्टा मात्र है। व्यापार करता है मन, आत्मा तो केवल उसके व्यापारों का साक्षी या देखनेवाला है। जैसे, मैं कुछ सोच रहा हूँ या स्मरण कर रहा हूँ। यह सोचना या स्मरण करना आत्मा का व्यापार नहीं, आत्मा का तो केवल यह ज्ञान है कि 'मैं यह सोच रहा हूँ' या 'मैं स्मरण कर रहा हूँ'। शुद्ध चैतन्य का लक्षण यही है।
के समान मस्तिष्क के घटक भी अपनी उत्पत्तिपरम्परा के अनुसार अल्पकाल में ही बदल जाते हैं। इससे सिद्ध है कि कोई एक परिणामरहित सत्ता है जो सब अवस्थाओं में एक रूप बनी रहती है। चेतना की यह एकता ही चेतन सत्ता की एकता का प्रमाण है। आत्मा एक वस्तु या सत्ता है, द्रव्यगुण या वृत्तिमात्र नहीं है यह बात तो सिद्ध हुई। अब यह सत्ता अभौतिक है - भूतों से परे है - इसके प्रमाण में आत्मवादी जो कहते हैं वह भी थोड़े में सुन लीजिए।
विकास सिद्धांत पर लक्ष्य रखने वाले मनोविज्ञानी कहते हैं कि इन्द्रियज ज्ञान या संवेदन ही मूल उपादान हैं जिनके पुनरुभावन, समाहार और मिश्रण द्वारा जाति या सामान्य, जैसे, गोत्व, पशु आदि की भावना, विचार, तर्क, संकल्प विकल्प आदि की योजना होती है। आत्मवादियों का कहना है कि ये उन्नत वृत्तियाँ संवेदनों से सर्वथा भिन्न कोटि की हैं। पहली बात तो यह कि संवेदन न तो अपने अस्तित्व का आप अनुभव कर सकता है, न पदार्थों के गुणों से जाति की भावना कर सकता है और न दूसरे संवेदनों के साथ अपने सम्बन्ध का बोध कर सकता है। हमारे सामने एक नारंगी रखी है। यों ही हमारी दृष्टि उस पर पड़ रही है और हमें उसके वहाँ रहने भर का ज्ञान है। यहाँ तक तो संवेदन या इन्द्रियज ज्ञान हुआ। अब हम उसकी ओर ध्यान देते हैं-अर्थात मन या आत्मा को उसकी ओर प्रवृत्त करते हैं। अब हमें उसकी गोलाई की, रंग की और स्वाद की भावना होती है और हम इन गुणों को दूसरे फलों के गुणों से मिलाते हैं। 1
शुद्ध गुणों की यह भावना और उनका मिलान करनेवाला संवेदन से भिन्न कोई दूसरा ही है। दो वस्तुओं अर्थात उनसे प्राप्त इन्द्रियज संवेदनों को आगे रखकर देखनेवाला उन दोनों संवेदनों से भिन्न होना चाहिए। इसी प्रकार सामान्य और जाति की भावना भी इन्द्रियज ज्ञान से परे है और एक अभौतिक सत्ता का आभास देती है। इन्द्रियों द्वारा जो कुछ हमें ज्ञान होता है वह विशेष का ही। हमें राम, गोपाल आदि विशेष मनुष्यों, हरे, पीले आदि विशेष रंगों, भूखे को अन्नदान आदि विशेष व्यापारों का ही प्रत्यक्ष होता है; मनुष्य, रंग, दया आदि सामान्यों का नहीं जो देशकाल से परे हैं। समस्त भौतिक व्यापार देशकाल के भीतर होते हैं, अत: ये अभौतिक व्यापार हैं। ये व्यापार किसी वस्तु या सत्ता के हैं, अत: वह वस्तु या सत्ता भी भूतों से परे ठहरी। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि मनोविज्ञान की ओर से आत्मा के खंडनमंडन की बात अब नहीं उठती, अब सत्ता का विषय ही उससे अलग कर दिया गया है।
ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे इस बात का पता लग सकता है कि विकास सिद्धांत का प्रभाव कितनी विद्याओं पर पड़ा है और उन्होंने किस प्रकार अपनी व्यवस्था इस सिद्धांत के अनुकूल की है। जगत की उत्पत्ति, जीवों की उत्पत्ति, मनोविज्ञान, कत्ताव्यशास्त्र, इतिहास, धार्माधर्म, समाजशास्त्र सबकी व्याख्या विकास पद्धति का अवलम्बन करके की गई है। भाषा की उत्पत्ति का क्रम अनेक जर्मन भाषातत्वविदों ने अपनी पुस्तकों में दिखाया है। जेगर ने लिखा है कि बनमानुसों से मिलते जुलते पूर्वजों से उत्पन्न मनुष्य में दो पैरों पर खड़े होने की विशेषता सबसे अधिक हुई जिससे उसे श्वास की क्रिया या प्राणवायु पर पूरा अधिकार हो गया। इसी विशेषता से उसमें वर्णात्मक वाणी की सामर्थ्य आई। आजकल ऐसा ही कोई होगा जो इतिहास लिखने में इस बात का ध्यान न रखता हो कि किसी जाति के बीच ज्ञान, विज्ञान, आचार, सभ्यता इत्यादि का विकास क्रमश: हुआ है। इन सबको पूर्णरूप में लेकर किसी जाति के जीवन का आंरभ नहीं हुआ है। इसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान के ग्रंथ शुद्ध बद्ध पूर्ण चेतन आत्मा को लेकर नहीं चलते। जो पशुओं की चेतन प्रवृत्ति से आंरभ नहीं भी करते वे भी इन्द्रियसंवेदन की क्रमश: योजना से आंरभ करके भावों और विचारों तक पहुँचते हैं। विकास के आधिभौतिक अनुयायियों का कहना है कि जैसे और सब वस्तुओं का वैसे ही मन या मानसिक वृत्तियों का भी संघटन वाह्य जगत् के नियमों के अनुकूल होता है। अन्तर्जगत् या आध्यात्मिक जगत् की भूतों से परे कोई सत्ता नहीं है। विचार और वस्तुव्यापार का जो समन्वय दिखाई पड़ता है वह वस्तुव्यापार के ही प्रतिबिम्ब के कारण। अद्वैत आत्मवादी जर्मन दार्शनिक इसका उलटा मानते हैं।
इसी प्रकार धार्माधर्म यार् कत्ताव्यशास्त्र की नींव भी लोकरक्षा और फलत: आत्मरक्षा पर डाली गई है। एक मूल रूप से क्रमश: अनेक रूपों की उत्पत्ति, एक सादे ढाँचे से अनेक जटिल ढाँचों का उत्तरोत्तर विधान, यही विकास का सारांश है। इस सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार यह असिद्ध है कि मनुष्य ऐसा प्राणी सृष्टि के आदि में ही एक बार ही उत्पन्न हो गया, उसी प्रकार यह भी असिद्ध है कि मनुष्य जाति के बीच धर्म, ज्ञान और सभ्यता आदिम काल में भी उतनी ही या उससे बढ़ कर थी जितनी आजकल है। आधुनिक मत यही है कि मनुष्य जाति असभ्य दशा से उन्नति करते करते सभ्य दशा को प्राप्त हुई है। अत्यंत प्राचीन लोगों को बहुत अल्प विषयों का ज्ञान था। धीरे धीरे उस ज्ञान की वृद्धि होती गई है। इसी प्रकार धर्मभाव भी पहले बहुत स्वल्प और सादे रूप में था, पीछे सामाजिक व्यवहारों की वृद्धि के साथ साथ उसका भी अनेक रूपों में विकास होता गया।
लोकव्यवहार और समाज विकास की दृष्टि से ही धर्म और आचार की व्याख्या की गई है, परलोक और अध्यात्म की दृष्टि से नहीं। दूसरों के प्रति जो आचरण हम करते हैं उसी में अच्छे और बुरे का आरोप हो सकता है। व्यवहार सम्बन्ध से ही क्रमश: सदद्विवेक बुद्धि उत्पन्न हुई है। व्यवहार सम्बन्ध जीवननिर्वाह के लिए आवश्यक था। परस्पर मिलकर कार्य करने में उन बातों की प्राप्ति अधिक सुगम प्रतीत हुई जिनसे सबको समान लाभ था। एक ही पूर्वज से उत्पन्न अनेक परिवार इसी समान हित की भावना से प्रेरित होकर कुलबद्ध होकर रहने लगे। एक व्यक्ति के जिस कर्म से सबका जितना हित या अहित होता - अर्थात सबको जितना सुख या दु:ख प्राप्त होता - उसी हिसाब से उस कर्म की स्तुति या निन्दा होती। इस प्रकार 'कुल धर्म' की स्थापना हुई। पहले प्रत्येक कुल को दूसरे कुलों से बहुत लड़ाई भिड़ाई करनी पड़ती थी अत: आदिम काल में यह धर्म स्वरक्षार्थ ही था। इस धर्म के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वार्थवृत्ति और इच्छा पर कुछ अंकुश रखना पड़ता था। यदि प्रत्येक मनुष्य मनमाना कार्य करने लगे, दूसरों का कुछ भी ध्यान न रखे, तो धर्मव्यवस्था और उसके आधार पर स्थित समाज व्यवस्था नहीं रह सकती। अत: किसी समाज को बद्ध रखने के लिए यह धर्मव्यवस्था आवश्यक है। चोरों और डाकुओं तक के दल में यह धर्मव्यवस्था पाई जाती है। चोर चाहे दुनियाभर का माल चुराया करें पर अपने दल के भीतर उन्हें धर्मव्यवस्था रखनी पड़ती है। वे यदि आपस में अन्याय और बेईमानी करने लगें तो उनका दल टूट जाय। अत: सिद्ध हुआ कि लोक या समाज को धारणा करनेवाला धर्म है। इसी से कहा गया है कि 'धर्मो रक्षति रक्षित:'।
डारविन ने अपने 'मनुष्य की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ में विस्तार के साथ दिखाया है कि साथ रहने से उत्पन्न परस्पर सहानुभूति की स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा, मनुष्य किस प्रकार दूसरों की प्रसन्नता और साधुवाद की कामना और उस कामना के अनुसार बहुत से कार्य करने लगा। क्षुधा, इन्द्रियसुख, प्रतिकार इत्यादि की निम्न कोटि की वासनाएँ यद्यपि प्रबल होती थीं, पर तुष्टि के उपरान्त उनका जोर नहीं रह जाता था। किन्तु संग की वासना सदा बनी रहती थी, मनुष्य अकेला रहनेवाला प्राणी नहीं। संग का अर्थ है सहानुभूति अत: सहानुभूति का भाव अधिक स्थायी रहता था। यदि कोई मनुष्य निम्न कोटि की वासनाओं के वशीभूत होकर कोई ऐसा कार्य कर बैठता जिससे दूसरों को अप्रसन्नता होती तो वह शान्त होने पर उसके लिए पश्चात्ताप करता। विकासवाद की व्याख्या के अनुसार धर्म कोई अलौकिक, नित्य और स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। समाज के आश्रय से ही उसका क्रमश: विकास हुआ है। धर्म का कोई ऐसा सामान्य लक्षण नहीं बताया जा सकता जो सर्वत्रा और सब काल में-मनुष्य जाति की जब से उत्पत्ति हुई तब से अब तक - बराबर मान्य रहा हो। समाज की ज्यों ज्यों वृद्धि होती गई त्यों त्यों धर्म की भावना में भी देश कालनुसार फेरफार होता गया। कोई समय था जब एक कुल दूसरे कुल की स्त्रियों को चुराना या लड़कर छीनना अच्छा समझता था। देवताओं की वेदियों पर नरबलि देने में किसी के रोंगटे खड़े नहीं होते थे। बाइबिल में इसके कई उल्लेख हैं, शुन:शेप की वैदिक गाथा भी एक उदाहरण है। उद्दालक और श्वेतकेतु का व्याख्यान इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य है। ये दोनों वैदिक काल के ऋषि थे। एक दिन उद्दालक, उनकी स्त्री और उनके पुत्र श्वेतकेतु बैठे थे। एक आदमी आया और श्वेतकेतु की माता को लेकर चलता हुआ। श्वेतकेतु को बहुत बुरा लगा। पिता ने पुत्र को यह कहकर शान्त किया कि यह स्नातन धर्म है -एष धर्म: स्नातन: - ऐसा सदा से होता आया है। श्वेतकेतु ने नियम किया कि जो स्त्री एक पति को छोड़कर जायगी उसे भ्रूणहत्या का पाप होगा और जो पुरुष पतिव्रता को छीन कर ले जायेगा उसे भी पाप लगेगा।
इसी प्रकार दीर्घतमस् ऋषि ने भी अपनी स्त्री के आचरण पर क्रुद्ध होकर शाप दिया था कि 'अब से कोई स्त्री, चाहे उसका पति जीता हो या मर गया हो, दूसरे पुरुष से संसर्ग न कर सकेगी'। स्त्रियों के लिए जो पतिव्रत्य पहले 'दीर्घतमस् का शाप' था वही आगे चलकर एकमात्र धर्म हुआ। इस बात की पुष्टि महाभारत के अन्य स्थलों से भी होती है। आदि पर्व में कुन्ती के प्रति जो उपदेश है उसमें लिखा है कि प्राचीन समय में केवल ऋतुकाल में पतिव्रत्य आवश्यक था-
ऋतावृतौ, राजपुत्रि, स्त्रिया भत्तरा पतिव्रते।
नातर्वत्ताव्यमित्येवं धार्मं धर्मविदो विदु:ड्ड
शेषेष्वन्येषु कालेषु स्वातंत्रयं स्त्री किलार्हति।
धर्ममेवं जना: सन्त: पुराणां परिचक्षतेड्ड
राक्षसविवाह, नियोग इत्यादि उसी असभ्य काल के स्मारक हैं। तात्पर्य यह कि दूसरे जनपदों को लूटना, दूसरे कुल की स्त्रियों को छीनना, नरवध इत्यादि पहले अधर्म नहीं समझे जाते थे। असभ्य जंगली जातियों में अब तक ये बातें प्रचलित हैं पर सभ्य जातियों के बीच अब ये बहुत बुरी समझी जाती हैं। धर्म का विकास धीरे धीरे समाज की उन्नति के साथ हुआ है। अत: विकास वादियों के अनुसार इहलोक या समाज से परे धर्म कोई नित्य और स्वत:प्रमाण पदार्थ नहीं है।
तत्वज्ञवर हर्बर्ट स्पेंसर ने विकास सिद्धांत की जो दार्शनिक स्थापना की है उसमें धर्मतत्व की भी विस्तृत मीमांसा है। स्पेंसर ने अणुजीवों से लेकर मनुष्य तक सब प्राणियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके अन्त में यही सिद्धांत स्थिर किया 'परस्पर सहाय्य की प्रवृत्ति' धर्म की मूल प्रवृत्ति है जो सजीव सृष्टि के साथ ही व्यक्त हुई और उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करती गई। यह प्रवृत्ति आदि में सन्तानोत्पादन और सन्तानपालन के रूप में प्रकट हुई। एकघटात्मक अणुजीवों में स्त्री पुरुष भेद नहीं होता। उनकी वंशवृद्धि विभाग द्वारा होती है। अत: हम कह सकते हैं कि सन्तान के लिए दूसरे के लिए-अणुजीव अपने शरीर को त्याग देता है। इसी प्रकार आगे के उन्नत श्रेणी के जोड़ेवाले जीव अपनी सन्तान के लालनपालन के लिए स्वार्थ त्याग करने में प्रसन्न होते हैं। यही प्रवृत्ति बढ़ते बढ़ते इस अवस्था को पहुँचती है कि लोग अपनी सन्तति के सहायतार्थ ही नहीं, अपने जाति भाइयों के सहायतार्थ भी सुख से स्वार्थ का त्याग करते हैं। अस्तु, सब जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य को इसी प्रवृत्ति के उत्कर्षसाधान में 'वसुधौव कुटुम्बकम्' के भाव की प्राप्ति के प्रयत्न में-लगा रहना चाहिए।
यहाँ पर कह देना आवश्यक है कि विकास सिद्धांत रूप में विज्ञान की सब शाखाओं में स्वीकृत हो गया है। पर ये शाखाएँ अपने अन्वेषणों में निरन्तर उन्नति करती जाती हैं; इससे जिन बातों को पूर्व पीढ़ी के विकासवादी अपने प्रमाण में लाए हैं उनके ब्योरों में ईधर बहुत कुछ फेरफार हुआ है। बहुत से भौतिक विज्ञानिकों ने परमाणु के भी अवयवों या विद्युतअणुओं तक पहुँचकर यह कहना आंरभ कर दिया है कि द्रव्य वास्तव में विद्युत् का ही संघातविशेष है, विद्युतशक्ति का ही एक रूप है। इस बात को मान लें तो द्रव्य और शक्ति का द्वन्द्व तो मिट गया। द्रव्य शक्ति की ही एक विशेष अभिव्यक्ति या रूप ठहरा। यदि सब कुछ शक्ति ही है तो बाकी क्या बचा? बाकी बचा ईथर (आकाश द्रव्य) जिसके विषय में हम अभी तक बहुत कम बातें जान सके हैं। इस प्रकार 'ईथर और शक्ति' पर आकर अब विज्ञान अड़ा है।
ईथर है किस प्रकार का, इसे समझने के लिए वैज्ञानिक बुद्धि लड़ा रहे हैं। पृथ्वी जो ईथर के बीच घूमती है तो क्या सचमुच उसे चीरती हुई घूमती है। यदि चीरती हुई घूमती है तो इस रगड़ का परिणाम बड़ा भारी होगा। चलती हुई वस्तु यदि बराबर रगड़ खाती हुई जायगी तो उसका वेग बराबर धीमा होता जायेगा। इससे पृथ्वी अपने वेग के बल से सूर्य से दूर जो मण्डल बाँधाकर भन्नाटे के साथ घूम रही है, कभी न कभी वह मण्डल टूट जायेगा और वह सूर्य पर जा पड़ेगी। पर आजकल के गणितज्ञ ज्योतिषी इसकी उलटी कल्पना करने लगे हैं। वे कहते हैं कि जो स्थूल द्रव्य हम देखते हैं उससे कहीं अधिक घनत्व और शक्तिसंचय ईथर में है। वह ठोस सीसे से भी न जाने कितने लाख गुना ठोस होगा। पृथ्वी आदि जो स्थूल लोकपिंड हैं उन्हें ईथर के बीच बीच में खाली या खोखले स्थान समझिए।
अस्तु, अब ईथर और शक्ति में क्या सम्बन्ध है, यह देखना है। यह बड़ी ही गूढ़ समस्या है। ईथर के सम्बन्ध में जो मोटी धारणा बँधाती है वैज्ञानिक कहते हैं वह ठीक नहीं है। हम यह समझते हैं कि ईथर एक निष्क्रिय अखंड सूक्ष्म भूत का विस्तार है जिस पर या जिसके आश्रय से द्रव्य क्रिया (आकर्षण, प्रकाश प्रवाह) करता है। सर आलिवर लाज कहते हैं यह ख्याल गलत है। ईथर गतिशक्ति का अनन्त भंडार है। परमाणुगत शक्ति के समान यह शक्ति भी पकड़ में नहीं आती। यदि पकड़ में आ जाय तो इससे बात की बात में प्रलय उपस्थित किया जा सकता है।
हैकल ने अपने ग्रंथ में जगह जगह 'प्रकृति के नियम' या 'परम तत्व के नियम' की झड़ी बाँध दी है। यह वाक्य बहुत ही भ्रामक हो गया है। लोग इसका बहुत ही अतिव्याप्त अर्थ लेते हैं। 'दो और दो चार होते हैं' यह भी प्रकृति का नियम, और 'गतिशक्ति का क्षय नहीं होता' यह भी प्रकृति का नियम। 'दो और दो चार होते हैं' इसे प्रकृति का नियम नहीं कहना चाहिए। प्रकृति के जितने परिणाम या व्यापार होते हैं वे इस गणित के नियम के आधार नहीं, उनपर यह अवलम्बित नहीं, उनसे यह सर्वथा स्वतन्त्र है। यह चिन्तन का नियम है, इसका सम्बन्ध चित् से है। जिसे हम प्रकृति का नियम कहते हैं वह सत्य भी हो सकता है, असत्य भी। जितने दिक्कालखंड तक हमारी पहुँच है वह उतने ही के बीच के व्यापारों से संग्रह किया हुआ है। पर तर्क और गणित के जो नियम हैं वे अपरिहार्य सत्य हैं, उनके अन्यथा होने की भावना त्रिकाल में नहीं हो सकती। वाह्य जगत् पर वे निर्भर नहीं, उससे सर्वथा स्वतन्त्र हैं। वे स्वत:प्रमाण हैं। भौतिक विज्ञान में जो 'प्रकृति के नियम' कहलाते हैं उनकी सत्यता भौतिक व्यापारों या परिणामों के सम्बन्ध में ठीक उतरने पर अवलम्बित है।
जगद्विकास का सिद्धांत यही प्रतिपादित करता है कि प्रकृति परिणामपरम्परा में एक अवस्था मात्र है। 'प्रकृति के नियमों' के सम्बन्ध में हम लाख कहा करें कि वे सब काल और सब देश को देख कर निरूपित हुए हैं पर हम अपनी बात का पूर्ण निश्चय नहीं करा सकते।
इसमें सन्देह नहीं कि विकास सिद्धांत के नियमों की चरितार्थता के लिए वैज्ञानिक निरन्तर प्रयत्न करते जा रहे हैं जिससे मार्ग की कठिनाइयाँ बहुत कुछ दूर होती जा रही हैं। निर्जीव से सजीव द्रव्य की उत्पत्ति को ही लीजिए। अब लोग यह देखने लगे हैं कि रासायनिकों को सजीव द्रव्य की योजना में अब तक जो असफलता होती आई है वह इस कारण कि सजीव द्रव्य के मूल आदिम रूप की उन्हें ठीक धारणा ही नहीं रही है। वे अमीबा (अणुजीव) या अणूद्भिद को आदिम रूप मान कर चले हैं। पर अमीबा या अणूद्भिद् को जिस जटिल रूप में हम देखते हैं वह लाखों वर्ष की विकासपरम्परा का परिणाम है। अत: सजीव द्रव्य का आदिम रूप इन दोनों से कहीं सूक्ष्म और सादा रहा होगा। अणुजीव और अणूद्भिद दोनों का आहार सजीव द्रव्य है। अत: ये आदिम नमूने कभी नहीं हो सकते। सजीव द्रव्य का आदिम रूप उद्भिदों का सा रहा होगा जो निर्जीव द्रव्य को सजीव द्रव्य (शरीरधातु ) में परिणत कर सकते हैं। प्रथम जीवोत्पत्ति जल में ही हुई इसका एक नया प्रमाण एक फरासीसी शरीरविज्ञानी ने उपस्थित किया है। उसने कहा है कि रक्त में लवण आदि का योग उसी हिसाब से है जिस हिसाब से पूर्वकाल के समुद्रजल में रहा होगा।
पहले के वैज्ञानिकों का परमाणुओं के भीतर की गतिशक्ति की ओर ध्यान नहीं था, इससे द्रव्य की मूल व्यष्टियों के व्यापार को समझने के लिए उन्हें शक्ति का बाहर से आरोप करना पड़ता था। पर अब, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, रेडियम के मिलने से परमाणु के भीतर विद्युतशक्ति के केन्द्रों का पता मिल गया है जिससे सजीव और निर्जीव द्रव्य का अन्तर बहुत कुछ कम हो गया है। कुछ विशेष प्रकार के परमाणु किण्व या खमीर; जो वास्तव में सूक्ष्मअतिसूक्ष्म किण्वाणुओं या अणूद्भिदों द्वारा संघटित होता है, का काम करते हैं। आजकल कई रासायनिकों ने विशेष परमाणुओं के योग से ही (महुए, आटे, राई आदि सजीव द्रव्य के अवशेषों से तो लोग बहुत दिनों से बनाते आते हैं) मदसार (अलकोहल) और कुछ सादे प्रकार के प्रोटीन (शरीर धातु ) तक संघटित कर लिए हैं। ये द्रव्य पहले पौधों या जंतुओं के शरीर द्रव्य में ही पाए जाते थे इससे लोग समझते थे कि ये शरीर के भीतर ही बन सकते हैं। पहले इन शरीर द्रव्यों से सम्बन्ध रखनेवाले रसायनशास्त्र का अलग विभाग था। पर अब यह भेद नहीं रहा। रसायनशास्त्र से शरीरद्रव्य और साधारणा द्रव्य का भेद अब उठ गया।
किण्वसम्बन्धी रसायन बराबर उन्नति करता जा रहा है। कई प्रकार के किण्व या खमीर, पौधों या जंतुओं से प्राप्त शरीरद्रव्य के आश्रय के बिना, कुछ मूल द्रव्यों के परमाणुओं के योग से बना लिए गए हैं। सजीव द्रव्य की उत्पत्ति के पास तक यही विधान पहुँच सका है, और इसी से बहुत कुछ आशा है। सजीवता वा जीवन वास्तव में किण्वपरम्परा ही है1। जितने सजीव पदार्थ हैं सबके शरीर में किण्व वर्तमान है। किण्वक्रिया के बन्द होते ही जीव मर जाते हैं। गर्भपिंड से लेकर जीवों की जो अंगवृद्धि होती है वह अंकुर घटक के भीतर किण्व विधान के ही अनुसार।
जात्यन्तर परिणाम के अन्तर्गत प्राणियों के ढाँचे के भेद विधान के सम्बन्ध में डारविन ने जो निरूपण किया था उस पर भी ईधर बहुत कुछ छानबीन हुई है। प्रो बेटसन ने इस विषय का उत्पत्ति विज्ञान के नाम से अलग ही विचार किया है। उन्होंने कहा है कि भेद विधान दो प्रकार के होते हैं –
(1) अखंड वा व्यापक और
(2) विशिष्ट
डारविन ने अपने प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत में केवल प्रथम का विचार किया है, दूसरे का नहीं। पर कुछ भेद जो जात्यन्तर के लक्षण माने जाते हैं एक ही पुश्त में साधारणा भेद विधान द्वारा उपस्थित हो सकते हैं। सच पूछिए तो उत्पन्न प्राणी के लक्षणों में से बहुत थोड़े ऐसे होते हैं जो माता पिता के धातु गत लक्षणों से संघटित होते हैं। इन लक्षणों की प्राप्ति भी कुछ बँधनों नियमों के अनुसार होती है। जैसे, यदि माता पिता में से किसी में कोई लक्षणविशेष नहीं है तो किसी सन्तति में वह लक्षण न होगा। यदि दोनों में कोई एक लक्षण वर्तमान है तो सब बच्चों में वह पाया जायेगा। यदि कोई लक्षण माता पिता में से एक ही में है, दूसरे में नहीं तो आधे लड़कों में वह होगा आधे में नहीं। इसमें एक बात जो ध्यान देने की है वह यह है कि लक्षण की एक स्थिर मात्र रहती है जैसे यदि माता पिता में से एक ही में कोई लक्षण है तो आधे सन्तानों में ही वह लक्षण जायेगा।
विकासवाद जगत् की समस्याओं के सम्बन्ध में हमारा कहाँ तक समाधान करता है चलती नजर से यह भी देख लेना चाहिए।
जगत् के सम्बन्ध में दो प्रकार की जिज्ञासा हो सकती है –
1 पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्वानि तेभ्य एव देहाकारपरिणतेभ्य: किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत् चैतन्यमुपजायते। तेषु विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति।-चार्वाक। (सर्वदर्शनसंग्रह)।
(1) यह जगत् क्या है, अर्थात इसकी मूल सत्ता किस प्रकार की है?
(2) जगत् के नाना व्यापार किस प्रकार होते हैं?
उस गति का विधान कैसा है जिसके अनुसार नाना पदार्थ अपने वर्तमान रूप को प्राप्त हुए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि विकास सिद्धांत का सम्बन्ध असल में दूसरे प्रक्ष से है। उसी का उत्तर उसके निरूपण देते हैं। सत्ता की मीमांसा विकास का विषय नहीं। पर दार्शनिक प्रवृत्ति रखने वाले हैकल ऐसे विकासवादी नाना व्यापारों को सत्ता के लक्षण मान उसके अनुमान में भी प्रवृत्त होते हैं।
इस जगत् के अन्तर्गत दो प्रकार के व्यापार देखने में आते हैं - भौतिक और मानसिक। इन दोनों के उत्तरोत्तर क्रम विधान का वैज्ञानिक निरूपण विकासवाद करता है। इन निरूपणों को दो दृष्टियों से हम देख सकते हैं - द्वैत दृष्टि से और अद्वैत दृष्टि से।
द्वैत पक्ष यह है कि भूत और आत्मा अर्थात अन्त:करण विशिष्ट आत्मा, दो सर्वथा पृथक् सत्ताएँ हैं। भौतिक व्यापार और मानसिक व्यापार दोनों एक ही नहीं हैं। अद्वैत पक्ष दो प्रकार का है-
(क) आधिभौतिक और आध्यात्मिक। आधिभौतिक अद्वैतवाद केवल एक महाभूत की सत्ता मानता है और आत्मा या मन को उसी का एक गुण या अभिव्यक्ति विशेष कहता है। इसके अनुसार आत्मा कोई अलग तत्व या सत्ता नहीं। हैकल ने स्पिनोजा के जिस तत्तवाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है वह इससे विशेष भिन्न नहीं। हैकल के अनुसार भौतिक और मानसिक एक ही परमतत्व के दो पक्ष या रूप हैं। एक ही तत्व या सत्ता की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है - द्रव्य या भूत के रूप में तथा गति शक्ति या आत्मा के रूप में। अर्थात, आत्मा एक प्रकार की गति या शक्ति का ही नाम है। जिस प्रकार पानी का बहना, हवा का चलना, बारूद का भड़कना आदि गतिशक्ति के रूप हैं उसी प्रकार बोध करना और सोचना विचारना भी। हैकल की अद्वैत सत्ता चेतन नहीं, उसके सिद्धांत में चेतना एक गुणपरिणाम है जो अनेक परिणामों के उपरान्त उत्पन्न होता है और फिर नष्ट हो जाता है। यह वैज्ञानिक या आधिभौतिक अद्वैतवाद है।
(ख) आध्यात्मिक अद्वैतवाद केवल आत्मसत्ता ही मानता है। उसके अनुसार चैतन्य ही एकमात्र सत्ता है। भौतिक जगत् या उसके नाना रूपों को वह आत्मा के विविध भावमात्र कहता है। आधुनिक दर्शन में इसी मत की प्रधानता है। इसे युरोप का वेदान्त कह सकते हैं। इसके प्रतिष्ठाता जर्मनी में हुए हैं।
प्रकृति में जितने व्यापार या परिणाम हम देखते हैं, द्वैत या अद्वैत दृष्टि के अनुसार उनके दो प्रकार के कारण हम सोच सकते हैं - निमित्त कारण और समवायिकारण। द्वैत पक्ष के अनुसार जितने व्यापार होते हैं, सब किसी निमित्त या उद्देश्य से होते हैं, और उद्देश्य क्रोधारणा करनेवाला कारण भूतों से परे है। भूतातीत नियन्ता या विश्वविधायक आत्मा माननेवाले समस्त भौतिक क्रियाओं को उद्देश्य द्वारा प्रेरित मानते हैं। ये समवायिकारणों को निमित्त कारण के अधीन मानते हैं। जो विधायकआत्मा को भूतसमष्टि विश्व में समवेत या ओतप्रोत मानते हैं, वे भी इन्हीं के अन्तर्गत लिए जा सकते हैं क्योंकि अद्वैतवादियों के अन्तर्गत वे नहीं आ सकते। आधिभौतिक अद्वैतवादी कहते हैं कि समवायिकरण ही मानने से प्रकृति के सब व्यापारों की सम्यक् व्याख्या हो जाती है, उद्देश्य रखनेवाले किसी निमित्त कारण को मानने की आवश्यकता नहीं। भूतद्रव्य और उसकी गतिशक्ति द्वारा ही जगत् का विकास होता है। वे किसी भूतातीत नियन्ता का अस्तित्व नहीं स्वीकार करते और न आत्मा को कोई नित्य चेतन पदार्थ मानते हैं। सम्पूर्ण व्यापार द्रव्य और उसकी गतिशक्ति द्वारा आप से आप होते हैं। 1
आधिभौतिक पक्षवालों को चेतना की व्याख्या में अड़चन पड़ती है। सर्वथा जड़ से चेतन की उत्पत्ति वे समाधान पूर्वक नहीं समझा सकते हैं। इस बाधा से बचने के लिए वे दो निकास निकालते हैं। कुछ लोगों को तो ईथर के समान एक अत्यंत सूक्ष्म मूल मनोभूत-जो प्रकृति या प्रधान भूत का ही एक विकार है; या आत्मभूत की कल्पना करनी पड़ी है जिससे प्राणियों के मन या आत्मा की योजना हुई है। कुछ लोग प्रत्येक भूतखंड में किसी न किसी रूप का संवेदन मानते हैं और कहते हैं कि अणुओं और परमाणुओं के परस्पर आकर्षण और अपसारण को संवेदन का मूलरूप समझना चाहिए। हैकल के सिद्धांत में इन दोनों का मेल है।
विकासवाद को दार्शनिक रूप हर्बर्ट स्पेन्सर द्वारा ही प्राप्त हुआ है। उसी ने उसके नियमों को विश्वव्यापक रूप दिया है। उसने विकास की परिभाषा इस प्रकार की है-'एकरूपता या निर्विशेषता से अनेकरूपता या सविशेषता की ओर, अव्यक्त से व्यक्त की ओर गति का नाम विकास है।' इस गति का कारण द्रव्य में समवेत है। भौतिक शक्ति के व्यापक नियमों द्वारा ही इसका विधान होता है। उससे परे किसी और शक्ति की प्रेरणा अपेक्षित नहीं। निर्विशेषता या साम्यावस्था क्षणिक होती है और एक कारण से अनेक कार्य होते हैं, अत: विकास अनिवार्य है। गतिशक्ति के संयोजक और वियोजक जो दो रूप हैं उन्हीं के द्वन्द्व का परिणाम चला चलता है। इस परिणाम परम्परा की प्रवृत्ति दोनों शक्तियों के साम्य की ओर रहती है, अत: विकास या विकृति के नाना रूप कभी न कभी प्रकृतिस्थ होकर नष्ट होंगे। प्रकृति से फिर विकृति होगी। यह क्रम बराबर चला चलता है।
इन नियमों का निरूपण करके स्पेन्सर ने इन्हें जड़ जगत् की उत्पत्ति और सजीव सृष्टि के विकास पर घटाया है। मन या अन्त:करण के विकास को भी इन्हीं
1 सांख्य में भी प्रधानभूत या प्रकृति का स्वभाव ही परिणाम कहा गया है, उसमें प्रवृत्ति आपसे आप होती है, किसी की प्रेरणा से नहीं। प्रकृति जड़ है, अत: यह प्रवृत्ति भी अचेतन है-
वत्सविवृद्धिनिमित्तां क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य।
पुरुषविमोक्षनिमित्तां तथा प्रवृत्तिप्रधानस्यड्ड -कारिका 57
नियमों के अन्तर्गत करके उसने समाज के विकास की मीमांसा की है। वाह्य विषयों के साथ अनर्तव्यापारों के सामंजस्य का ही नाम जीवन है। जीवों की उत्पत्ति परम्परा में जब यह सामंजस्य एक विशेष जटिल अवस्था को पहुँच जाता है तब मन (चेतना जिसकी वृत्ति है) का प्रादुर्भाव होता है। शक्तिसंयुत द्रव्य के साथ साथ कोई नित्य चेतन सर्वसत्ता भी ओतप्रोत भाव से रहती है, इस विषय में उसने कुछ नहीं कहा है। चेतना को उसने उन्हीं प्राणियों में माना है जिनमें संवेदनसूत्रों और मस्तिष्क का पूर्ण विधान होता है। चेतना को उसने कोई ऐकान्तिक अखंड सत्ता न कहकर एक यौगिक व्यापार ही कहा है जिसकी गूढ़ योजना अत्यंत सादे और सूक्ष्म अव्यक्त संवेदनों के योग से होती है। स्मृति, संकल्प, विवेचना, मनोवेग इत्यादि सब वृत्तियाँ इन्हीं आदिम मूल संवेदनों के सम्बन्ध भेद से संघटित हैं। अन्त:करण वृत्तियों के नाना रूपों की संप्राप्ति वाह्य विषयों के साथ सामंजस्य प्रयत्न द्वारा होती है। दिक्सम्बन्धी,1 धर्मसम्बन्धी आदि जो सांसिद्धिक भाव कहे जाते हैं वे पूर्वजों के अनुभव की अखंड परम्परा द्वारा प्राप्त हुए हैं। जिन कार्यों से सुख का अनुभव हुआ वे प्राणी के लिए लाभदायक और जिनसे दु:ख का अनुभव हुआ वे हानिकारक पाए गए। अत: कुछ कार्यों के आभास से प्रसन्नता और कुछ के आभास से भय वा विरक्ति, मस्तिष्क या अन्त:करण में संस्कार रूप में मूलबद्ध होती गई और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई। आंरभ में यह हानिलाभ का विचार या कार्यकारण का भाव स्पष्ट था पर क्रमश: वह दब गया, अर्थात कुछ कार्यों के साक्षात्कार से आनन्द और कुछ के साक्षात्कार से भय वा विरक्ति, बिना हानिलाभ या परिणाम आदि की भावना के यों ही बद्धसंस्कार के रूप में होने लगी। बहुत छोटे गोद के बच्चे को जब हम क्रूर आकृति बनाकर डाँटते हैं तब वह रोने लगता है और जब हँस हँसकर बुलाते हैं तब प्रसन्न होता है। उस बच्चे को कार्यकारण के अनुमान की शक्ति नहीं रहती, वह यह नहीं जानता कि क्रूर आकृति का परिणाम चपत या प्रसन्न आकृति का परिणाम मीठा दूधा है। वह जो भय या आनन्द प्रकट करता है उसका कारण उस अन्त:करण द्रव्य में बद्ध संस्कार है जिसकी परम्परा लाखों पीढ़ियों से बच्चे तक चली आई है।
1 रेखागणित के निरूपण दिक् सम्बन्धी होते हैं, जैसे, 'केवल दो रेखाएँ कोई स्थान नहीं घेर सकतीं, 'दो समानान्तर रेखाएँ कभी नहीं मिल सकतीं।' ऐसे निरूपणों को भी ह्यूम आदि संवेदनवादी दार्शनिकों ने स्वत:सिद्ध न कह कर अनुभव सिद्ध बतलाया है। यह देखते देखते कि दो रेखाएँ कोई स्थान नहीं घेर सकतीं, दो समानान्तर रेखाएँ कभी नहीं मिलतीं, मनुष्य जाति के भीतर लाखों पीढ़ियों से जो संस्कार बँधा चला आया है उसी के कारण ये बातें स्वत: सिद्ध सी जान पड़ती हैं। आत्मसत्तावादी, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इन्हें इन्द्रियज संवेदनों से प्राप्त नहीं मानते। वे कहते हैं कि हमारा जो यह निश्चय है कि ऐसा होना त्रिकाल में और किसी लोक में सम्भव नहीं, वह वाह्य पदार्थों या व्यापारों द्वारा उत्पन्न परिमित ज्ञानों से प्राप्त नहीं हो सकता। वह दिक् काल आदि से अपरिच्छिन्न सत्ता का लक्षण है।
इस प्रकार आदिम काल में ही मनुष्य जाति के बीच यह संस्कार जम गया कि जिन कार्यों से औरों की आकृति क्रूर हो जाय उनसे बचना और जिनसे प्रसन्न हो उन्हें करना चाहिए। अर्थात आंरभ में भय और आनन्द द्वारा ही उपादेय और अनुपादेय का भाव उत्पन्न हुआ। यही मूलभय क्रमश: देवभय आदि के रूप में और मूल आनन्द देवतुष्टि या स्वर्ग आदि के आनन्द के रूप में विकसित हुआ। दयाधर्म के सम्बन्ध में आधिभौतिक विकासवादियों का कहना है कि उसकी उत्पत्ति सहानुभूति से है जिसका विकास समाज बाँधकर रहनेवाले प्राणियों में स्वाभाविक है। एक प्रकार का आहार विहार रखनेवाले प्राणी जब एक दूसरे के समक्ष एक ही प्रकार के मनोद्गार प्रकट करते हैं तब उन मनोद्गारों के सम्बन्ध में भी एक प्रकार का मानसिक सहयोग स्थापित हो जाता है। यही सहानुभूति है जिसके कारण मनुष्य दूसरे को पीड़ा पहुँचाने से बचता है और दूसरे की पीड़ा देखकर दुखी होता है। सौन्दर्य की ओर जो प्रवृत्ति पाई जाती है वह एक प्रकार की फालतू वृत्ति या क्रीड़ावृत्ति है जो प्रयोजन से अधिक मानसिक वृत्तियों के विकास के कारण उत्पन्न होती है।
स्पेन्सर ने शरीर विकास और समाज विकास का तारतम्य दिखाकर कहा है कि जिस प्रकार प्राणी की जीवनयात्रा उपस्थित वाह्य विषयों के साथ आभ्यन्तर वृत्तियों का सामंजस्यप्रयत्न है, उसी प्रकार प्राणियों की समष्टि या समाज की जीवनयात्रा भी। अत: वह युग आयेगा, जब यह सामंजस्य पूर्ण रूप से स्थापित हो जायेगा और मनुष्य जीवन आनन्दमय हो जायेगा।
स्पेन्सर ने विकास की जो व्याख्या की है वह आधिभौतिक ही है। सब प्रकार की चेतना को उसने मूल संवेदनों से संघटित बताया है जो सूत्रों की अणुस्पन्दन रूप गति के सहगामी हैं। पर उसने यह भी कहा है कि इन संवेदनों को हम उसी भौतिक गति का रूप नहीं कह सकते जिसे हम चारों ओर देखते हैं। विषय और विषयी को, ज्ञाता और ज्ञेय को किसी प्रकार एक नहीं समझते बनता। 1 इस प्रकार भूतक्रिया और मनोव्यापार का पृथकत्व स्वीकार करते हुए भी उसने दोनों को एक ही अज्ञेय सत्ता के दो पक्ष या रूप कहा है। पर इस रीति से अद्वैतपक्ष पर आने पर भी द्रव्य और मन का आत्मा की पृथक् भावना द्वारा उसका द्वैतवाद लक्षित होता है। हैकल के समान उसने जड़ और चेतन व्यापारों को एक ही नहीं कहा है, दोनों को अलग रखा है। हैकल ने परमतत्व के जो दो पक्ष कहे हैं वे द्रव्य और गतिशक्ति - जिसके अन्तर्गत संवेदन, संकल्प विकल्प, आत्मबोध आदि मनोव्यापार भी हैं। स्पेन्सर ने अज्ञेय सत्ता के जो दो पक्ष कहे हैं वे गतिशक्तियुक्त द्रव्य और मन हैं। 'मन (चेतन अवस्थाएँ और संवेदनसूत्रों की भौतिक क्रिया एक ही वस्तु के विषयी और विषय अर्थात ज्ञातृ और ज्ञेय दो पक्ष हैं। दोनों के एक ही वस्तु के रूप में या विभाव होने का प्रमाण उनका नित्य सम्बन्ध है। वह वस्तु या सत्ता जिसके ये दोनों पक्ष हैं, ज्ञेय पक्ष में नहीं आ सकती।
इस प्रकार वस्तु या सत्ता के विवेचन में उसने अपने को भूतवादी कहे जाने से यह कहकर बचाया है कि 'एक अज्ञेय सत्ता है जो भौतिक और मानसिक या आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में अभिव्यक्त होती है'। इस अज्ञेय सत्ता को उसने प्राय: शक्ति के नाम से अभिहित किया है जो कहीं कहीं (उसी के ग्रंथ में) भौतिक गतिशक्ति से भिन्न नहीं जान पड़ती। स्पेन्सर की अज्ञेय मीमांसा के साथ उसकी विकास की व्याख्या मेल नहीं खाती। सच पूछिए तो उसका विकासवाद उसके अज्ञेयवाद पर प्रतिष्ठित ही नहीं है। सत्ता के विवेचन में उसने जो निरूपण किए हैं उनसे उसने विकास की व्याख्या में कुछ भी काम नहीं लिया है। न तो उसने यह बताया है कि अज्ञेय सत्ता क्यों देशकाल के भीतर अभिव्यक्त होती है और न यह कहा है कि वह क्यों पहले जड़ जगत् के रूप में व्यक्त हुई, पीछे चैतन्य रूप में।
यहाँ तक तो हर्बर्ट स्पेन्सर की बात हुई। अब यह देखना चाहिए कि विकासवाद जगत् की व्याख्या में कहाँ तक पहुँचा है। विकासवाद भौतिक और मानसिक दोनों व्यापारों की परिणामपरम्परा की व्याख्या करता है और इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् की समस्या को अपने अन्तर्भूत करता है। पर बहुत सी बातें ऐसी रह जाती हैं जिनके सम्बन्ध में हमारा ठीक ठीक समाधान नहीं होता। कुछ उदाहरण लीजिए। विकासवाद यह नहीं बता सका है कि क्यों एक पुरातन प्रधान भूत निर्विशेषता से सविशेषता की ओर, एकरूपता से अनेकरूपता की ओर प्रवृत्त होता है, प्रकृति की विकृति का कारण क्या है। इसी प्रकार जड़ से चेतन की उत्पत्ति का ब्योरा भी वह स्पष्ट रीति से नहीं समझा सका है।
अब प्रश्न यह होता है कि क्या विकासवाद जगत् के समस्त व्यापारों के मूल की सम्यक् व्याख्या कर देता है? सच पूछिए तो उसकी पहुँच की भी हद है। शरीर विकास और आत्मविकास को ही लीजिए। शरीर व्यापार और मनो व्यापार दोनों में, एक ही प्रकार के नियमों की चरितार्थता, दोनों का साथ साथ उत्तरोत्तर क्रम से विकास, दिखाया गया है सही, पर दोनों एक नहीं सिद्ध हो सके हैं। विकासवाद के सारे निरूपण मन या आत्मा की प्रथमोत्पत्ति नहीं समझा सके हैं। और तो जाने दीजिए किस प्रकार संवेदनसूत्रा का भौतिक (स्थूल) स्पन्दन संवेदन के रूप में परिणत हो जाता है यही रहस्य नहीं खुलता। इस प्रकार का और कोई परिणाम भौतिक जगत् में देखने में नहीं आता। इस कठिनता को कुछ लोग यह कहकर दूर किया चाहते हैं कि द्रव्य के प्रत्येक परमाणु में एक प्रकार की अन्त:संज्ञा या अव्यक्त संवेदन होता है जो आकर्षण और अपसारण के रूप में प्रकट होता है। पर हम तो चेतना अर्थात मन की अपने ही संस्कारों के बोध की वृत्ति-की उत्पत्ति जानना चाहते हैं जिससे यह अन्त:संज्ञा भिन्न है। हैकल ने मस्तिष्क के भीतर प्रतिबिम्ब या संस्कार ग्रहण करनेवाला जो एक प्राप्तकारी अवयव बताया है उससे भी चेतना का व्यापार समझने में सुविधा नहीं होता। केवल यही कह देने से कि एक वस्तु पर प्रतिबिम्ब पड़ता है यह समझ में नहीं आ जाता कि वह वस्तु यह बोध भी करती है कि मुझ पर प्रतिबिम्ब पड़ रहा है या प्रतिबिम्ब इस प्रकार का है। 1
ऐसी बातों में हमारा समाधान विकासवाद द्वारा नहीं होता। विकासवाद केवल गोचर व्यापारों की पूर्वपरपरम्परा या स्फुरणक्रम मात्र दिखाता है। ये सब व्यापार किसके हैं, वस्तु या सत्ता का शुद्ध (इन्द्रिय निरपेक्ष) स्वरूप क्या है यह वह नहीं बताता। वह केवल तटस्थ लक्षण कहता है, स्वरूप लक्षण नहीं। अत: सत्ता के विवेचन के लिए हमें विज्ञान क्षेत्र से निकलकर पर विद्या या शुद्ध दर्शन की ओर आना पड़ता है।
यह जगत् क्या है? इसकी सत्ता का वास्तव स्वरूप क्या है? इस सम्बन्ध में दर्शन में दृष्टिभेद से तीन पक्ष हैं-
(1) भूतवाद या लोकायत मत जिसके अनुसार शरीर या भूत ही एकमात्र सत्ता है;
(2) अद्वैत आत्मवाद या भाववाद। अद्वैत आत्मवादियों में कुछ लोग तो आत्मा को एक वस्तु या सत्ता मानते हैं और कुछ लोग बौध्दों के समान क्षणिक विज्ञानों या चेतन अवस्थाओं को ही मानते हैं। पर दोनों दल के लोग भौतिक शरीर या वाह्य जगत् की स्वतन्त्र सत्ता अस्वीकार करते हैं।
(3) वाह्यार्थवाद, जो भूत और आत्मा दोनों को भिन्न सत्ताएँ मानकर वाह्य जगत् को वास्तविक कहता है।
1. भूतवाद के अनुसार जो कुछ है वह भूत ही है, जिसे हम आत्मा कहते हैं वह उसकी व्यापारसमष्टि या गुणविशेष मात्र है। यद्यपि हैकल ने अपने मत का नाम भूतवाद नहीं रखा है पर है वह भूतवाद ही। जगत् के मूल उपादान या प्रधान
1 यह दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार वैज्ञानिकों ने 'शक्ति की अक्षरता' के सिद्धांत को लेकर यह प्रतिपादित किया है कि न भौतिक शक्ति किसी अभौतिक शक्ति के रूप में परिणत हो सकती है और न कोई अभौतिक शक्ति भौतिक शक्ति में कोई वृद्धि (अतिशय) या विकार कर सकती है। मनोविज्ञानियों ने इसी आधार पर यह सिद्धांत स्थिर किया कि शरीरव्यापार और मनोव्यापार एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते अर्थात उनमें कार्यकारण सम्बन्ध नहीं, वे दोनों समानान्तर (साथ साथ पर अलग अलग) चलते हैं। जब आधिभौतिक अद्वैतवादी इस बात को अपनी ओर यह सिद्ध करने के लिए ले गए कि जगत् किसी आत्मसत्ता या चेतन का कार्य नहीं है और प्राणश्नियों के प्रयत्न किसी अभौतिक सत्ता द्वारा प्रेरित या उत्पन्न नहीं होते तब ईश्वरकर्तृत्ववादी इसके खंडन के प्रयास में लगे (दे भूमिका पृ 48-50, पर हमारे यहाँ वेदान्त में क्रिया मात्र से शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) की भावना अलग होने से उपर्युक्त वैज्ञानिक सिद्धांत स्वीकृत हैं। उपदेशसाही की टीका (10। 112) में स्पष्ट लिखा है कि 'सन्निहिताधयक्ष कृतातिशय: बुद्धयादेर्नास्त्येव'। यह भी खोल कर लिखा गया है कि बुद्धयादि जड़ क्रिया और ज्ञान में केवल 'समकालाभिव्यक्तिधर्म' के सिवा और कोई सम्बन्ध नहीं है। यह वेदान्त का 'साइको फ़िजिकल पैरेललिज्म' है।
2 एवं वाह्यार्थवादमाश्रित्य समुदायाप्राप्त्यादिषु दूषणेषूभावितेषु विज्ञानवादी बौद्ध इदानीं प्रत्यवतिष्ठते।-सूत्रा 28 पर, शंकर भाष्य।
भूत तक पहुँचकर उसने उसका नाम परमतत्व रखा जो नित्य है और अपने नित्य नियमों से बद्ध है। उस परमतत्व की अभिव्यक्ति द्रव्य और गतिशक्ति दो रूपों में होती है। मूल वृत्ति या प्रवृत्ति ही उसका संवेदन (जड़ संवेदन)1 है जिसके कारण वह स्थान स्थान पर घनीभूत होकर अनेकत्व की ओर प्रवृत्त हुआ। परमाणुओं की प्रवृत्ति में वह कुछ और अधिक व्यक्त हुआ। शुक्र कीटाणुओं और रज:कीटाणुओं में हैकल ने घटकात्मा कहा, गर्भांड में अंकुरात्मा, पौधों में तत्तवात्मा और जंतुओं में सूत्रात्मा। इस प्रकार संवेदन को भूत का व्यापक गुण मानकर उसने अपने सिद्धांत का नाम भूतवाद न रखकर तत्तवाद्वैतवाद रखा। पर उसका यह संवेदन जड़ ही है अत: उसका जड़ाद्वैतवाद वास्तव में भूतवाद ही है। चैतन्य की असंहत नित्य सत्ता का स्वीकार उसमें नहीं है। उसके संवेदन को यदि हम एक प्रकार का आत्मव्यापार मान भी लें तो भी वह क्रिया या गुणमात्र ही है, वस्तु या सत्ता नहीं।
भारतवर्ष का चार्वाक या लोकायत मत भी इसी प्रकार का था जो चैतन्यविशिष्ट देह के अतिरिक्त आत्मा की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं स्वीकार करता था2। चार्वाकों का कहना था कि जिस प्रकार किण्व या खमीर से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार देहाकारपरिणत भूतचतुष्टय से चैतन्य उत्पन्न होता है। भूतों के इस संयोग विशेष के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है।
2. युरोप में अध्यात्मवाद या भाववाद का आंरभ डेकार्ट के इस सूत्र से समझना चाहिए कि 'मैं बोध करता हूँ इसलिए मैं हूँ।' उसने कहा-जो कुछ बोध आत्मा को होता है वह अपने भावों या प्रत्ययों का ही। अत: यदि किसी सत्ता का पूर्ण निश्चय है तो आत्मसत्ता का। पर ईश्वर की कृपा से आत्मा के प्रत्ययों या भावों द्वारा हम दो प्रकार की सत्ताओं-दिग्बद्ध वस्तु (भूत) और ज्ञातृवस्तु या आत्मा-का अनुमान कर सकते हैं। सच पूछिए तो अद्वैत आत्मवाद का आधार कांट ने खड़ा किया। उसी ने ज्ञान के मूल की विस्तृत परीक्षा की। वाह्य जगत् का ज्ञान हमें किस प्रकार होता है? संवेदन द्वारा, अर्थात हमारे अन्त:करण वा मन में वस्तुसत्ता के प्रभाव से एक संस्कार उत्पन्न होता है और मन उसी का बोध करता है। जैसे, स्पर्श का जो ज्ञान है वह वस्तुत: दबाव का ज्ञान नहीं है उस दबाव की भावना करने वाले संस्कार या संवेदन का ज्ञान है। वर्ण का जो ज्ञान होता है वह वास्तव में वर्ण का ज्ञान नहीं है, वर्ण के उस संवेदन का ज्ञान है जो अन्त:करण या मन में ही होता है। अर्थात, मन को जिन रूपों का बोध होता है वे उसी के रूप हैं, किसी बाहरी वस्तु के नहीं। प्राप्त संवेदनों को देश काल के साँचे में ढालकर ही मन उनका ग्रहण करता है।
मनुष्य के ज्ञान की परीक्षा करके कांट ने यह निर्धारित किया कि उसका कितना अंश बाहर से प्राप्त होता है और कितना मन में पहले ही से आधार या मूल के रूप में वर्तमान रहता है। ये आधार या मूल चित् के स्वरूप ही हैं, ये स्वत: प्रमाण हैं, इनके बोध या निश्चय के लिए किसी प्रकार का अनुमान या तर्क नहीं करना पड़ता है। इस प्रकार ज्ञान के कुछ स्वरूपसिद्ध मूलाधार मानकर कांट ने इन्द्रियसंवेदन, मनन और प्रज्ञा या बुद्धि में उनको क्रमश: दिखलाया है। प्रत्यक्ष या इन्द्रियज ज्ञान में मूलाधार दिक् और काल दिक् हैं और इन्हीं दो मूल स्वरूपों के भीतर सब प्रकार का प्रत्यक्ष (इन्द्रियज) ज्ञान सम्भव है। मनन या अनुमान में मूलाधार कुछ वर्ग या खंड होते हैं जिनमें प्राप्त संवेदनों या विषयों को बाँटकर मन अपने अनुमान को फैलाता है। तीन तीन भेदों से युक्त ये वर्ग चार हैं - परिमाण, गुण, सम्बन्ध और प्रकार। इन चार रूपों में से किसी एक में आ जाने पर ही मन किसी वस्तु या विषय का ग्रहण कर सकता है। जो बातें इनमें नहीं आ सकतीं वे तर्क या अनुमान द्वारा सिद्ध नहीं हो सकतीं। अत: परमाणु, शून्य, ईश्वर, दैव आदि असिद्ध हैं। प्रज्ञा या बुद्धि के सांसिद्धिक स्वरूप हैं तीन भाव - ईश्वर, आत्मा और जगत्। बुद्धि इन्हें केवल विचार की व्यवस्था के लिए अपनी ओर से प्रदान करती है, इनका बोध नहीं करती। इनके द्वारा अनुमान के वर्ग विधान परिमिति के कारण खंडित नहीं रह जाने पाते। ये प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा प्राप्त परिमित और बद्धज्ञान को अपरिमित और स्वतन्त्र (वाह्यनिरपेक्ष) ज्ञान का स्वरूप देकर ज्ञान को पूर्णता और एकता तक पहुँचाते हैं। जैसे; इन्द्रियज्ञान द्वारा जो देशकाल का आरोप होता है उसे लेकर देशकालगत सब विषयों को एक कर बुद्धि उसका नाम जगत् रखती है। अनुमान के जो खंड हैं उन सबको मिलाने से आत्मा का भाव बनता है। कारणता को लेकर सबसे आदि कारण को हम ईश्वर कहते हैं। पर अनुमान के वर्गों से जिस प्रकार हमें अपने से वाह्य वस्तु का जैसा विविक्त ज्ञान होता है, प्रज्ञा या बुद्धि के इन आरोपित भावों से वैसे ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती। बुद्धि अपनी ओर से इनका आरोप भर करती है, विषय रूप में ग्रहण नहीं करती। इन भावों से केवल इतना ही होता है कि अनुमान के जो वर्गात्मक खंड हैं वे चरमावस्था को पहुँच जाते हैं, बस। ईश्वर, आत्मा और जगत् क्या हैं यह बुद्धि नहीं स्थिर कर सकती। इस प्रकार कांट ने दिखाया है कि प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रज्ञा के जो सांसिद्धिक स्वरूप अर्थात देश, काल, वर्ग तथा ईश्वर, आत्मा और जगत् हैं वे वाह्य वस्तु के स्वरूप नहीं हैं, मन के स्वरूप हैं जिनमें लाकर वह वाह्य जगत् को देखता है। बुद्धि आदि द्वारा वाह्य जगत् का जो बोध होता है वह नाम रूपात्मक है, वास्तव नहीं है। इन्द्रिय और मन अपने रंगों में रँगकर जिन रूपों में जगत् को देखता है, उनसे स्वतन्त्र उसकी वास्तव सत्ता किस प्रकार की है यह ज्ञान शुद्ध बुद्धि द्वारा नहीं हो सकता। अपनी 'शुद्ध बुद्धि की परीक्षा' में कांट ने ईश्वर, जगत् और आत्मा के पक्ष विपक्ष के प्रमाणों का खंडन किया है।
शुद्ध बुद्धि की परीक्षा के उपरान्त कांट ने कर्मसंकल्परूपिणी 'व्यवसायत्मिका बुद्धि' को ले लिया है जिसके द्वारा कर्म होते हैं। कर्म क्षेत्र में आकर हम नामरूपात्मक जगत् से परे वस्तु तत्व तक पहुँच जाते हैं। संकल्पित कार्यावली हमारे मन में उत्पन्न होकर वाह्य जगत् में अभिव्यक्त होती है। कर्मसंकल्पवृत्ति ही चित् के वास्तव स्वरूप को सूचित करती है। यह न तो बुद्धि से बद्ध या नियन्त्रित है और न वाह्य जगत् नियमों से। इस पर आदेश रखनेवाले केवल नित्य और सर्वगत धर्म नियम (कैटेगारिकल इंपरेटिव्स) हैं। ये धर्म नियम व्यवसायत्मिका बुद्धि के स्वप्रवर्तित नियम हैं। कर्मसंकल्पवृत्ति का यह आत्मशासन (आटोनामी आव् द विल) हमें नामरूपात्मक दृश्य जगत् से अगोचर चिन्मय जगत् में ले जाता है जहाँ हमें धर्मनियम, स्वतन्त्र अमर आत्मा और ईश्वर का अस्तित्व मिल जाता है। इसी धर्मशासन द्वारा कांट ने ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है। जीवन का चरम मंगल क्या है? न अकेला धर्म; न अकेला सुख। धर्म का सुख से कोई स्वत:सिद्ध सम्बन्ध नहीं। जीवन के चरम मंगल में धर्म और सुख दोनों की परोकाष्ठा है। अब इन दोनों का संयोग होता कैसे है? इसके लिए ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ता है। ईश्वर दोनों के बीच संयोग का स्थापक है। इसी प्रकार आत्मा का अमरत्व भी मानना पड़ता है। धर्म परोकाष्ठा और सुख की परोकाष्ठा के साधान के लिए यह अल्पकालिक जीवन काफी नहीं है। अत: अनन्त जीवन मानकर चलना पड़ता है।
कुछ लोगों को व्यवसायत्मिका बुद्धि सम्बन्धी इस निरूपण का, कांट के दर्शन की मूलभित्ति के साथ विरोध दिखाई पड़ता है। पहले तो उसने यह कहा कि प्रत्यक्षनुभव के रूप में जिन मानस संस्कारों की उपलब्धि होती है उन्हें लेकर बुद्धि जो कुछ निरूपित करेगी वह भी मानस वस्तु होगी, चित् का ही स्वरूप होगा; पीछे उसने कहा कि धर्म की व्यवस्था के लिए वह वास्तव (चित्तानिरपेक्ष) पदार्थों का आरोप करती है। पर यदि देखा जाय तो कांट ने वास्तव सत्ता के अस्तित्व की जगह यह कहकर पहले से ही रख ली थी कि मानस संस्कार अज्ञेय वस्तुसत्ता के प्रभाव से होते हैं, और बहुत सम्भव है कि चित् के इन स्वरूपों की तह में जो वस्तुसत्ता है वह इन्हीं के कुछ मेल में हो। जो हो, इतना तो निर्विवाद है कि कांट ने चित् या प्रमाता से वाह्य किसी अज्ञेय वस्तुसत्ता का अस्तित्व माना है। उसके दर्शन में वाह्यार्थवाद की कुछ गन्धा बनी हुई है।
सच पूछिए तो कांट का सबसे बड़ा काम 'शुद्ध बुद्धि की परीक्षा' ही है जिसके द्वारा उसने वाह्यार्थज्ञान के सामान्य अवयवों देश, काल और कार्य कारण सम्बन्ध के वाह्य अस्तित्व का प्रतिषेधा किया। युरोप में अद्वैत आत्मवाद का मूलाधार यही हुआ। नीचे संक्षेप में कुछ प्रमाण उध्दृत किए जाते हैं।
दिक् कोई वाह्य वस्तु नहीं, चित् का ही स्वरूप है
1. दिक् का ज्ञान बाहर से नहीं आता क्योंकि जो कुछ प्रत्यक्षनुभव हमें होता है दिक् की भावना पहले करके तब होता है। प्रत्यक्षनुभव है क्या? मन अपने कुछ संवेदनों को अपने से वाह्य वस्तु से प्राप्त मानता है। इस अन्तर और वाह्य के ज्ञान में देश का ज्ञान पहले से मिला हुआ है। इसी प्रकार वस्तुभेद के ज्ञान में परत्व अपरत्व का देशसम्बन्धी ज्ञान मिला हुआ है।
2. वाह्य जगत् का जो चित्र अपने मन में हम धारणा करते हैं उसमें से हम सब कुछ निकाल सकते हैं, पर देश को नहीं अलग कर सकते। जगत् के जितने पदार्थ हैं सब के बिना हम जगत् की भावना कर सकते हैं पर देश शून्य जगत् की भावना हमारे चित्ता में हो ही नहीं सकती।
3. शुद्ध देश के सम्बन्ध में जो निरूपण होते हैं वे अनिवार्य होते हैं, उनका अन्यथा सम्भव नहीं। जैसे किसी वस्तु तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि उसके और हमारे बीच जो देशखंड है वह तय किया जाय। इसी प्रकार किसी जगह न होना या एकसाथ दो जगहों पर होना असम्भव है। थोड़े विचार से यह स्पष्ट हो सकता है कि इस प्रकार के निश्चय उन निश्चयों से सर्वथा भिन्न हैं जो बराबर देखते देखते निरन्तर अभ्यास द्वारा हमें प्राप्त होते हैं। अनुभव केवल हमें यही बता सकता है कि अब तक ऐसा नहीं हुआ है, यह निश्चय नहीं करा सकता कि त्रिकाल में ऐसा नहीं हो सकता।
4. रेखागणित के सब निरूपण नित्य और अपरिहार्य सत्य के रूप में होते हैं, अत: वे बार-बार के अनुभव से प्राप्त नहीं हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये निरूपण शुद्ध देशसम्बन्धी होते हैं।
5. प्रत्येक वाह्य अनुभव भिन्न भिन्न संवेदनों (आत्मा या मन की अलग अलग अवस्थाओं या संस्कारों) के योग से होता है, जिनका मेरे साथ तो सम्बन्ध होता है पर परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं होता। अत: उनको जोड़नेवाला सम्बन्धसूत्र चित् से बाहर नहीं है, उसके भीतर है। यह सम्बन्धसूत्र देश है जो हमारे चित्ता का ही भाव या स्वरूप है।
6. दिक् अनन्त है। हमें इस बात का पूरा निश्चय है कि सौर जगत् क्या अनेक सौर जगतों से परे, जहाँ तक न दूरबीन की पहुँच है और न हमारे अनुभव की, दिक् बराबर चला गया है। यह अनुभव की बात नहीं, अनन्तता का अनुभव हमें बाहर से प्राप्त हो नहीं सकता।
काल कोई वाह्य वस्तु नहीं, चित् का ही स्वरूप है
1. काल की भावना जगत् से नहीं प्राप्त होती क्योंकि प्रत्येक प्रत्यक्षनुभव में काल की भावना पहले से मिली रहती है। प्रत्यक्षनुभव में यह आवश्यक है कि संवेदन एक साथ हों या आगे पीछे। एक साथ या आगे पीछे होने का यह भाव कालसम्बन्धी है।
2. मान लीजिए कि जगत् की सारी गति, सारे व्यापार-घड़ियों के चलने से लेकर पृथ्वी आदि ग्रहों के घूमने तक, जिनसे हम काल नापते हैं बन्द हो जायँ, फिर भी काल बराबर चला चलेगा, एक क्षण के उपरान्त दूसरा क्षण आता रहेगा। सब प्रकार के प्रत्यक्षनुभव के लुप्त हो जाने पर भी काल की भावना बराबर बनी रहेगी।
3. कालसम्बन्धी निरूपण अपरिहार्य होते हैं, उनका अन्यथा सम्भव नहीं। जैसे किसी भविष्य काल तक रहने के लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान काल और उस काल के बीच जितना काल है उतने में रहा जाय, न कम में न अधिक में। विगत क्षण का लौटना असम्भव है। इस प्रकार के निश्चय किसी प्रत्यक्षनुभव द्वारा प्राप्त नहीं। कालिदास को कुछ लोग ई–पू का मानते हैं और कुछ लोग चतुर्थ शताब्दी का। यदि कोई कहे कि दोनों सम्भव है तो वह विक्षिप्त समझा जायेगा।
4. अंकगणित के निरूपण भी इसी प्रकार अपरिहार्य होते हैं। यह शास्त्र काल सम्बन्धी है क्योंकि यह गिनने की संक्षिप्त विधि मात्र है। गिनना एकाई का कई बार निर्धारण है जिसके लिए हम भिन्न भिन्न संकेत रख लेते हैं। 'कई बार' यह काल परम्परा का भाव है अत: अंकगणित कालसम्बन्धी शास्त्र है। उसके अपरिहार्य निरूपण काल का वाह्यनिरपेक्षत्व सिद्ध करते हैं।
5. प्रत्येक प्रत्यक्षनुभव कुछ काल तक मन के प्रभावित होने पर होता है। यह काल चाहे कितना ही अल्प हो कई सूक्ष्म खंडों के योग से बना होता है जिनके बीच कई सूक्ष्म अनुभव होते हैं। आत्मा के ये सूक्ष्म अनुभव मुझसे सम्बन्ध रखते हैं पर एक दूसरे से नहीं। वह सूत्र जिसमें वे पिरोए जाकर एक समवाय ज्ञान उत्पन्न करते हैं काल है जो अनुभवों द्वारा प्राप्त नहीं होता, चित्ता द्वारा प्रयुक्त किया जाता है।
6. काल अनादि और अनन्त है। हमें यह पूर्ण निश्चय है कि काल बराबर था और बराबर रहेगा। हमारा यह निश्चय किसी अनुभव द्वारा प्राप्त नहीं, यह चित् से ही आता है।
कार्यकारणसम्बन्ध वाह्य विषय नहीं, चित् का ही स्वरूप है
जैसे दिक् वस्तुओं के अवस्थान की चित्ताप्रयुक्त व्यवस्था है और काल परम्परा की, उसी प्रकार कार्यकारणभाव वस्तुओं के क्रिया या व्यापार की व्यवस्था है जिसे चित्ता अपनी ओर से प्रदान करता है। प्रत्येक कार्यविशेष का निर्धारण प्रत्यक्षनुभव द्वारा होता है, पर कार्यकारणभाव, जिसके बिना क्रिया या व्यापार की भावना सम्भव नहीं, अन्तरात्मा से ही आता है। प्रमाण-
1. चित् का स्वरूप ही ऐसा है कि यदि किसी व्यापार का चित्र उसमें उपस्थित होता है तो उसका सम्बन्ध बिना किसी कारण से लगाए वह रह ही नहीं सकता। प्रत्येक प्रत्यक्षनुभव में कार्यकारणभाव समवेत रहता है। बाहर से जो कुछ हमें प्राप्त होता है वह अन्त:करण का संवेदनसूत्रों द्वारा संहत संस्कार मात्र है। यदि हमारे मन में कार्यकारणभाव का साँचा न होता तो उस संस्कार के द्वारा वाह्य वस्तु के होने का कुछ भी ज्ञान न होता। इसी भाव के द्वारा हम संस्कार को कार्यरूप से ग्रहण करते हैं और अपने से बाहर दिक् में उसके कारण का अवस्थान (स्थूल भूत के रूप में) करते हैं। कार्यकारण के भाव बिना वाह्य जगत् की प्रतीति का असम्भव होना ही इस बात का प्रमाण है कि यह भाव हमें बाहर से प्राप्त नहीं होता, बुद्धि द्वारा ही प्राप्त होता है।
2. शुद्ध कार्यकारण भाव का चित्र हमारे मन में उपस्थित नहीं हो सकता, विषय रूप में जब वह उपस्थित होगा तब देशकाल के योग में अर्थात भूत के रूप में। भूत वास्तव में देशकालव्यवस्थित कार्यकारणभाव का ही नाम है। इस भूत का भाव परिहार्य, अपरिहार्य दोनों है। इस भूत का भाव हम चिंत्ता से निकाल सकते हैं, पर जो भूत है उसका प्रागभाव, प्रधवंसाभाव मन में नहीं धारणा कर सकते। भूत के प्रागभाव और प्रधवंसाभाव (उत्पत्ति और नाश) की धारणा का असम्भव होना इस बात को सूचित करता है कि हम उपस्थित भूत के अस्तित्व को अपने मन से किसी प्रकार निकाल नहीं सकते। अत: वह आत्मसत्ता से स्वतन्त्र नहीं है, अर्थात भूत भी चित् द्वारा ही प्रदत्ता भाव है।
3. कार्यकारणभाव अपरिहार्य है। किसी कार्य का कारण क्या है, इसका अनिश्चय हमें हो सकता है पर कोई कारण है इसका निश्चय अवश्य रहता है। यदि कार्यकारणभाव हमें प्रत्यक्षनुभव द्वारा प्राप्त होता तो जैसे और सब प्रत्यक्षनुभव द्वारा प्राप्त नियमों (जैसे, नित्य सबेरे सूर्य का उदय होना) की वैसे ही इसकी भी अन्यथा भावना हो सकती। बार बार के प्रत्यक्षनुभव द्वारा प्राप्त नियमों की भावना अपरिहार्य नहीं, कार्यकारण का भाव अपरिहार्य है। अत: वह प्रत्यक्षनुभव द्वारा प्राप्त नहीं है।
4. भौतिक विज्ञान के जो नियम प्रत्यक्षनुभव द्वारा प्राप्त हुए हैं उन सबको यदि निकाल दें तो कोई क्रिया नहीं रह जायगी, क्रिया की सम्भावना, अर्थात कार्यकारण भाव मात्र रह जायेगी, दिक् काल द्वारा व्यवस्थित होने पर जिसकी प्रतीति भूत के रूप में होती है। भूत की यह अक्रिय और सक्रिय भावना अपरिहार्य है, अत: चित्ता प्रदत्ता है।
5. जब कि अलग अलग संस्कारों द्वारा दिक् काल का सूत्र नहीं प्राप्त होता तब कार्य और कारण के बीच का सम्बन्धसूत्र अलग अलग प्रत्यक्षनुभवों से कैसे प्राप्त हो सकता है? अत: व्यापार के रूप में शक्ति की जो अभिव्यक्तियाँ होती हैं उन्हें मन ही कार्यकारणभाव की व्यवस्था प्रदान करता है।
6. कार्यकारण परम्परा अनादि और अनन्त है क्योंकि जिस अवस्था को हम आदि मानेंगे उसका परिणाम होने के लिए कोई पूर्व परिणाम मानना पड़ेगा और अनवस्था आ जायगी। अनादि और अनन्त का भाव कभी किसी प्रत्यक्षनुभव द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। वह चित् का ही स्वरूप है।
अन्त:करण अपनी इन्हीं तीन व्यवस्थाओं (दिक्, काल और कार्यकारणभाव) द्वारा वाह्य जगत् का चित्र खींचता है। पहले तो वह संवेदनों को कालबद्ध कर पूर्वापर क्रम की भावना करता है। फिर कार्यकारणभाव द्वारा बाहर उसके कारण का आरोप करता है। अन्त में इस कारण को दिग्बद्ध कर भौतिक स्थूल पदार्थ के रूप में उसकी भावना करता है। सारांश यह कि जगत् जो हम देखते हैं वह हमारे चित्ता का ही खड़ा किया हुआ स्वरूप है, अर्थात तत्व दृष्टि से मिथ्या है। यही तर्क विलायती वेदान्त का आधार हुआ। कांट के इस निरूपण में चित् से भिन्न उस पर संस्काररूप प्रभाव डालनेवाली अज्ञेय वाह्य सत्ता का स्वीकार है। अत: वाह्यार्थवाद का कुछ लेश उसमें बना हुआ है। इस अज्ञेय वाह्य सत्ता की भावना उसने शक्तिरूप में की है। एक स्थान पर उसने कहा कि भौतिक पदार्थ और कुछ नहीं 'शक्तिपूरित दिक्खंड' मात्र हैं।
कांट में जो कुछ वाह्यार्थवाद का लेश था उसे फिक्ट ने दूर कर दिया। उसने सूचित किया कि चित् से भिन्न उस पर प्रभाव डालनेवाली कोई वस्तु नहीं है, आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष है। वह आपसे आप उन स्वरूपों का उदय करती है जिसकी समष्टि को जगत् कहते हैं; किसी बाहरी वस्तु (भूत, शक्ति, अज्ञेय सत्ता या ईश्वर आदि) के प्रभाव या प्रेरणा से नहीं। जगत् पूर्णतया उसी की रचना है। आत्मा पहले अपना अवस्थान करती है, फिर अपने से भिन्न अनात्मा का और पीछे इस अनात्मा का अपने में अवस्थान करती है। इसी पद्धति से वह जगत् की प्रतीति करती है। अत: जो कुछ सत्ता है वह चैतन्य में ही, चैतन्य के बाहर नही। 1। मोहवश आत्मा को इस स्वावस्थान क्रिया का विस्मरण हो जाता है और उसे इस विवर्त द्वारा अनात्मा की भी स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। इस प्रकार आत्मा के अवस्थानभेद मानकर फिक्ट ने विषय विषयी, ज्ञाता ज्ञेय, प्रमाता प्रमेय में परमार्थभेद नहीं रखा। जिसे कांट ने अज्ञेय वस्तुसत्ता कहा था उसको भी फिक्ट ने विषय रूप में आत्मा का स्वावस्थान ही कहकर ज्ञेय बताया; क्योंकि जब वह आत्मा की ही स्वप्रमिति ठहरी तब उसके लिए अज्ञेय कैसे हो सकती है। इस प्रकार फिक्ट के दर्शन में आत्मसत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया।
अद्वैत आत्मवाद या भाववाद में बड़ी भारी अड़चन यह थी कि यदि संसार में जो नाना पदार्थ दिखाई पड़ते हैं वे चित् के भाव ही हैं तो किसी एक वस्तु की समान प्रतीति सब आत्माओं में कैसे होती है, सब लोग एक सूर्य की भावना कैसे करते हैं। कांट की तरह वाह्यसत्ता का कुछ लेश रखने पर तो इसका समाधान यह मानकर हो सकता है कि एक वस्तुसत्ता भिन्न भिन्न आत्माओं में एक ही प्रकार की अलग अलग प्रतीति उत्पन्न करती है। पर उस वाह्य वस्तु को भी चित् का स्वरूप मान लेने पर केवल दो रास्ते रह जाते हैं। या तो यह कहें कि जितनी आत्माएँ हैं उतने ही सूर्य (या सूर्य की प्रतीति) हैं अथवा यह कहें कि आत्मा एक ही है, अनेक नहीं। इंग्लैण्ड के भाववादी दार्शनिक बर्कले ने पहला रास्ता पकड़ा था। पर फिक्ट ने भिन्न भिन्न आत्माओं का प्रत्याख्यान करके भारतीय वेदान्तियों के समान एक ही आत्मा माना। यूरोपीय दर्शन में इस प्रकार एक ही पूर्ण और व्यापक चैतन्य की प्रतिष्ठा हुई।
फिक्ट के पीछे शेलिंग ने प्रतिपादित किया कि एकान्त चैतन्य सत्ता ही ब्रह्म है। जगत् चैतन्य वा ब्रह्म का ही भाव विधान है। ब्रह्मसत्ता शाश्वत सर्वव्यापिनी बुद्धिस्वरूपा है। यह सम्पूर्ण जगत् उसी बुद्धि का निरूपण है जिसकी पहले जड़ जगत् के रूप में और फिर होते होते चेतन मनुष्य के रूप में अभिव्यक्ति होती है। विषयी निरन्तर विषय रूप होता रहता है और ऐसी सृष्टि करता है जिसमें विषय और विषयी का एक में पर्यवसान होता है। द्वैत में अद्वैत, भेद में अभेद का यह क्रम ही आकर्षण और अपसारण का मूल है और इसकी उद्धरणी जगत् में बराबर होती रहती है। शेलिंग का कहना है कि विषयी जो विषय हो जाता है वह 'भेद में अभेद' भाव होकर फिर पलटकर अपने में मिलने के लिए ही। जगत् और ज्ञान दोनों का क्रम बुद्धिक्रम है। विषय और विषयी, ज्ञाता और ज्ञेय के भेद का परम चैतन्य या पूर्णबुद्धि में जाकर अभेद हो जाता है। अभेदरूप इस ऐकान्तिक पूर्ण चैतन्य सत्ता का बोध क्यों कर हो सकता है? शेलिंग का कथन है कि प्रज्ञा से।
शेलिंग के इसी 'भेद में अभेद' के ऊपर हेगल ने अपना अद्भुत चमत्कारपूर्ण भवन खड़ा किया जिससे वाह्यार्थवादी इतना घबराते हैं। उसने शेलिंग के इस कथन को अयुक्त बताया कि पूर्ण चैतन्य सत्ता का बोध प्रज्ञा द्वारा हो सकता है। उसने कहा कि संवेदन या इन्द्रियज ज्ञान से ऊपर जो बोध होगा वह अनुमान या तर्कपद्धति द्वारा ही होगा। इसके लिए उसने एक नया अन्तर तर्क खड़ा किया जिसका आधार यह है कि दो जुदी वस्तुएँ यदि समान हों तो गुण की एकता से एक ही हो सकती हैं। इसी तर्कपद्धति द्वारा उसने दिखाया कि किस प्रकार अपरिच्छिन्न सत्ता परिच्छिन्न होकर भी अपरिच्छिन्न बनी रहती है, किस प्रकार चित् का भाव जगत् हो जाता है और फिर आत्मा होकर अपने में लौट आता है, सत्य किस प्रकार असत्य हो जाता है और फिर अपने में लौट आता है अर्थात किस प्रकार एक परम चैतन्य विषय विषयी, ज्ञाता ज्ञेय, प्रमाता प्रमेय के भेद की ओर प्रवृत्त होता है और फिर भी अभेद रूप रहता है। इस प्रकार हेगल ने सत्य और असत्य दोनों का अन्तर्भाव एक परम भाव में किया। हेगल के हाथ में पड़कर जर्मनी का भाववाद चरमसीमा को पहुँच गया।
हेगल के पीछे जर्मनी में शोपेनहावर, हार्टमान, लोज, फेकर, पालसन आदि कई भाववादी दार्शनिक हुए हैं। इनमें से शोपेनहावर ने बौद्ध आदि पूरबी दर्शनों और उपनिषदों का भी परिशीलन किया था। शोपेनहावर भी कांट का यह निरूपण स्वीकार करके चला है कि वाह्य (नामरूपात्मक, दृश्य) जगत् चित् का भाव या प्रत्यय मात्र है, पर जगत् की जो वस्तुसत्ता है वह कर्मसंकल्पवृत्ति या इच्छास्वरूप है। यह कर्मप्रवृत्ति या कृतिशक्ति उद्देश्य ज्ञानपूर्वक चेतन नहीं है, जड़ है। बुद्धि और चेतना क्या इसमें संवेदन तक नहीं, यह सर्वथा जड़ प्रवृत्ति है। इस प्रकार उसने फिक्ट, शेलिंग और हेगल के अनन्तपूर्ण चैतन्य अर्थात सर्वव्यापिनी चेतनसत्ता का प्रतिषेध किया और कहा कि अन्धा जड़ प्रवृत्ति या इच्छा ही परिणामस्वरूप से हम लोगों में चैतन्य की उत्पत्ति करती है। यह दु:खमय संसार इसी रजोगुणमयी प्रवृत्ति या शक्ति का कार्य है। शोपेनहावर के दर्शन में दु:खवाद भरा हुआ है। कामना की निवृत्ति से ही दु:ख की निवृत्ति हो सकती है। शोपेनहावर के अनुयायियों में ही डयूसन हुए हैं जिन्होंने वेदान्त आदि भारतीय दर्शनों की भी आलोचना की है।
शोपेनहावर ने सबसे जड़ और दु:खमयी प्रवृत्ति को ही जगत् के मूल में रखा है। उसका यह दु:खवाद जर्मनी में निट्शे ने ग्रहण किया और अपनी चमत्कारपूर्ण अनोखी उक्तियों द्वारा अपने देश में एक इन्द्रजाल सा फैला दिया। वह शोपेनहावर के दर्शन से जड़ प्रवृत्ति या संकल्पशक्ति को लेकर विकासवाद की ओर ले गया और कहने लगा कि जीवन की यही कामना विकास के इस नियम में देखी जाती है कि 'जो जीव समर्थ होते हैं वे ही रह जाते हैं और सब नष्ट हो जाते हैं।' प्रकृति द्वारा जीवित रहने का अधिकार बलवानों को ही प्राप्त है। वे दुर्बलों को संसार से हटाकर अपने लिए-अपने ज्ञान, बल, वैभव आदि के पूर्ण विस्तार के लिए-जगह करें और इस प्रकार 'ग्रहण पद्धति' द्वारा एक मनुष्योपरि योनि का विकास करें। इस मनुष्योपरि योनि के विकास के उन्माद में जर्मनी ने हाल में जो करतब किए उन्हें संसार देख चुका है।
यद्यपि भारतीय वेदान्त की पद्धति युरोप की ज्ञानपरीक्षावाली पद्धति से भिन्न है पर अन्त में दोनों दर्शन किस प्रकार एक ही सिद्धांत पर पहुँचे हैं यह बात ध्यान देने योग्य है। वेदान्त यह मानकर चला है कि क्रिया परिणामिनी है, पर चैतन्य अपरिणामी है। एक क्रिया दूसरी क्रिया के रूप में परिणत होती है पर उन क्रियाओं का ज्ञान सदा वही रहता है। बुद्धयादि अन्त:करण की सब वृत्तियाँ जड़ क्रिया के अन्तर्गत की गई हैं, केवल उनका ज्ञान अविकृत रूप से स्थित कहा गया है। खंडज्ञान या विज्ञान का कारण बुद्धयादि क्रिया की विच्युति या विकार है। क्रियानुगत ज्ञाता ज्ञेय रूप में केवल क्रियाओं का ज्ञान करता है, अपने स्वरूप का नहीं जो अखंड, निर्विशेष और परिणामी है। इससे सिद्ध हुआ कि परिणामबद्ध क्रिया या क्रियाबीज शक्ति स्वतन्त्र सत्ता नहीं हो सकती, उसकी अक्षर सत्ता चैतन्य की सत्ता में ही है। शक्ति का जो स्फुरण है उसका अधिष्ठान चैतन्य है। अत: चैतन्य ही एकमात्र शुद्ध सत्ता है। इस स्फुरण व्यापार में ब्रह्म या चैतन्य का ही आभास मिलता है। 'सर्व विशेषप्रत्यस्तमित स्वरूपत्वात् ब्रह्मणो वाह्यसत्ता सामान्यविषयेण 'सत्य' शब्देन लक्ष्यते'-(तैत्तिारीय भाष्य)। शुद्ध चैतन्यस्वरूप का केवल आभास मिल सकता है। उसका बोध केवल लक्षण द्वारा हो सकता है साक्षात् सम्बन्ध द्वारा नहीं। जबकि सब प्राकृतिक व्यापार चैतन्य के ही लक्षणाभास हैं और हमें केवल इन्हीं लक्षणाभासों का ही ज्ञान हो सकता है तब इनके अनुसंधान को वेदान्ती अनावश्यक नहीं कह सकते।
इस संक्षिप्त निरूपण से यह स्पष्ट है कि ब्रह्म अनन्त ज्ञानस्वरूप और अनन्त शक्तिस्वरूप दोनों है। इस शक्ति को ब्रह्म का संकल्प ही समझना चाहिए जो अव्यक्त रूप में चैतन्य में अधिाष्ठित रहता है। यह एक प्रकार से ज्ञान का ही एक अंग या पक्ष है जिसकी अभिव्यक्ति सर्गोन्मुख गति या क्रिया के रूप में होती है। इसी अर्थ में ब्रह्म या चैतन्य को 'भूतयोनि' (कारण ब्रह्म) कहते हैं। ज्ञाता ज्ञेय रूप से अपना अवस्थान कर क्रियारूप में अपनी संकल्पशक्ति को व्यक्त करता है।
वाह्यार्थवाद
वाह्यार्थवादी सर्वसाधारणा की धारणा का समर्थन करते हुए भूत और आत्मा दो अलग सत्ताएँ मानते हैं। उन्हें दोनों ओर के अद्वैतवादियों के खंडन में प्रवृत्त होना पड़ता है। अद्वैत आत्मवाद की प्रचंड युक्तियों के निराकरण में भी वे प्रवृत्त होते हैं और भूताद्वैतियों की त्रुटियों का भी दिग्दर्शन कराते हैं। जर्मनी में ही डयूरिंग आदि कई वाह्यार्थवादियों ने कांट के निरूपण के विरुद्ध प्रयास किया है। वाह्यार्थवादी भी दो प्रकार के हैं। कुछ तो भौतिक जगत् को प्रत्यक्ष नहीं मानते, अनुमान मानते हैं। वे इस युक्ति को मानते हैं कि मन का जो ज्ञान होता है वह अपने ही स्वरूपों या संस्कारों का, पर इन संस्कारों द्वारा इस बात का पूरा अनुमान होता है कि भौतिक जगत् है। शुद्ध वाह्यार्थवादी कहते हैं कि हमें भौतिक जगत् का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, मानसिक संस्कार मध्यस्थ नहीं। इंग्लैंड में रीड, स्टिवर्ट, और हेमिल्टन शुद्ध वाह्यार्थवाद के अनुयायी हो गए हैं। मार्टिना, माइवर्ट और मेकाश आधुनिक अनुयायियों में हैं। इंग्लैंड की स्वाभाविक प्रवृत्ति इसी मत की ओर अधिक है जिसमें न्याय और विशेषिक के समान ईश्वर, आत्मा और भूत के लिए उसी प्रकार अलग अलग जगह है जिस प्रकार सर्वसाधारणा के मन में।
इस मत के समर्थक भाववादियों की इस मूल प्रतिज्ञा को असिद्ध कहते हैं कि मन को जो संवेदन या ज्ञान होता है वह अपने ही संवेदन का न कि वस्तु का। वे कहते हैं कि जिसका ज्ञान होता है वह भौतिक पदार्थ से उत्पन्न भौतिक प्रभाव है, चित् का ही स्वरूप नहीं। यदि जगत् के व्यापारों को हम चित्ता के भाव या कल्पना मान लें तो फिर नाना विज्ञानों के जो अन्वेषण हैं वे व्यर्थ हैं। भौतिक व्यापार अपने नियमों के अनुसार तब से बराबर होते आ रहे हैं जबसे उनकी प्रतीति करनेवाले मनुष्य के चित्ता का कहीं पता भी नहीं था। यदि भूत की सत्ता स्वतन्त्र न होती तो एक ही बात का पता दो अलग अलग अन्वेषकों को कैसे लगता। नेपचून नामक ग्रह का पता आडम्स और लवेरियर नामक ज्योतिषियों ने अपनी अपनी स्वतन्त्र गणना के अनुसार एक ही समय में पाया। इस प्रकार वाह्यार्थवादी अनेक युक्तियों से योरोपीय भाववादियों (अद्वैत आत्मवादियों) के निरूपण के प्रत्याख्यान में प्रवृत्त होते हैं। पर सच पूछिए तो वैज्ञानिकों के अनुसंधान का द्वार भाववादी बन्द नहीं करते हैं। सत्ता के पारमार्थिक स्वरूप का जो कुछ उन्होंने प्रतिपादन किया है उसके साथ वाह्यार्थ क्रम विधान का समन्वय भी उन्होंने किया है। कांट ने वस्तुसत्ता को शक्तिस्वरूपा कहा था, शोपेनहावर ने उसी शक्ति को संकल्प कहा। फिक्ट ने उस शक्ति को 'विषयी की विषयरूप से स्वावस्थान' कहकर उसका अधिष्ठान चैतन्य में ही कर दिया था। पहले कहा जा चुका है कि किस प्रकार भौतिक विज्ञान भूत या द्रव्य के मूलरूप का पता लगाते लगाते अन्त में शक्ति तक पहुँच रहा है। कुछ वैज्ञानिक अब कहने लगे हैं कि द्रव्य या भूत का सबसे सूक्ष्म रूप1 शक्ति ही है। अत: विज्ञान के नाना अनुसंधानों को भाववादी यही समझेंगे कि संकल्प या कृतिशक्ति के स्वरूप का निरूपण हो रहा है। जब कि इस संकल्प या क्रियाबीज की सत्ता भी चैतन्य सत्ता से स्वतन्त्र नहीं, जब कि यह ज्ञान का ही एक विशेष (ज्ञेय) रूप में अवस्थान है, जबकि इसके नाना विशेषों या क्रियाओं की तह में अधिष्ठान रूप से निर्विशेष चैतन्य व्याप्त है तब इस ज्ञेय के द्वारा ज्ञान, चैतन्य या ब्रह्म का ही आभास अध्यात्मवादी क्यों न मानेंगे?
प्रकृति के नाना व्यापारों के अनुसंधान द्वारा ही वैज्ञानिकों को 'भेद में अभेद' इस गूढ़ तत्व की उपलब्धि हुई है जो सत्ता सम्बन्धी ज्ञान का मूल है। भूतों की विशेष क्रियाओं के अभ्यास द्वारा ही क्रिया के एक निर्विशेष रूप अक्षर शक्ति तक विज्ञान पहुँचा है, नाना क्रियाएँ जिसकी अभिव्यक्ति मात्र हैं। विज्ञान के किसी क्षेत्र में जाइए वहाँ एक सामान्य अनेक की तह में ओतप्रोत मिलेगा। यही सामान्य सत्ता के स्वरूप का आभास है।
नाना भेदों के बीच जो अभेद मिलता जाय उसे सत्ता के स्वरूप के पास तक पहुँचता हुआ समझना चाहिए। शुद्ध विज्ञान अपने सूक्ष्म अन्वीक्षणों द्वारा सर्वभूत की सामान्य सत्ता, शक्ति तक पहुँच रहा है। ईथर का एक अड़ंगा रह गया है। ईश्वर भी शायद एक दिन शक्तिरूप ही प्रमाणित हो जाय। (अव्यक्त मव्याकृताकाशादि शब्द वाच्यम्-कठ भाष्य)। पहले कहा जा चुका है कि विज्ञान अपनी पद्धति से चैतन्य को इस भूतशक्ति के अन्तर्गत करने में समर्थ नहीं हुआ है। अत: चैतन्य और शक्ति का ही द्वैत अब रह गया है। सांख्य ने जहाँ छोड़ा था वहीं पर विज्ञान ने भी लाकर छोड़ दिया है। सांख्य भी पुरुष प्रकृति का सदा सलामत रहनेवाला जोड़ा देख कर लौटा था।
अब इस द्वैत को लेकर दोनों प्रकार के अद्वैतवादी का क्या रूप होगा यह देखना चाहिए। अब या तो आधिभौतिक अद्वैत के अनुसार चैतन्य को शक्ति के अन्तर्भूत करें या अद्वैत आत्मवाद के अनुसार शक्ति को चैतन्य के अन्तर्भूत करें-या तो शक्ति को चैतन्य का अधिष्ठान कहें, अथवा चैतन्य को शक्ति का। हैकल ने परम तत्व के भूत और शक्ति जो दो पक्ष कहे थे उनमें से भूत तो प्राय: शक्ति के ही अन्तर्भूत हो गया। अत: उसका परम तत्व भी शक्तिरूप ही रह गया। उसने चैतन्य को इस शक्ति का ही एक रूप या क्षणिक परिणाम कहा है। युरोप के भाववादी और भारत के वेदान्ती चैतन्य को ही शक्ति का अधिष्ठान कहेंगे जैसा कि वे बराबर कहते आए हैं। आधिभौतिकों या लोकायतिकों की इस युक्ति का उन पर कोई प्रभाव नहीं कि शरीर या मष्तिष्क के विकृत या नष्ट होने से चेतना भी विकृत या नष्ट होती है क्योंकि उनका पक्ष तो यह है कि मस्तिष्क (अन्त:करण या बुद्धयादि जड़ क्रिया) के विकृत या नष्ट होने से केवल वह क्रियाविशेष नष्ट हो जाती है जिसके द्वारा चैतन्य के लक्षण का आभास मिलता है।
जब हैकल आदि कुछ वैज्ञानिक अपने क्षेत्रों से निकल कर ईश्वर, परलोक आदि के खंडन द्वारा ईसाई धर्म पर टूटे तब बहुतों ने अपने मजहब की पौराणिक और स्थूल बातों को किनारे कर हेगल आदि के पूर्णचिद्वाद (फिलासफी आव् एब्सोल्यूट) या ब्रह्मवाद की ही शरण ली जिसकी आधिभौतिकों ने हँसी उड़ाई क्योंकि भाववाद में उनके स्थूल ईश्वर, फरिश्तों, दोजख की आग, पितापुत्र आदि के लिए कहीं ठिकाना नहीं था। कैथलिक सम्प्रदाय के ईसाइयों ने शुद्ध वाह्यार्थवाद का अवलम्बन किया। अधिकांश वैज्ञानिक अपने विषय के बाहर न जा कर संशयवादी रहे, और अब भी हैं। वे चैतन्य और उसकी सत्ता असत्ता के विषय में कुछ कहना नहीं चाहते। डारविन, हक्सले आदि विकासवाद के प्रतिष्ठाता संशयवादी थे, अनीश्वरवादी नहीं। हर्बर्ट स्पेन्सर को भी एक प्रकार का संशयवादी ही कहना चाहिए। पर लार्ड केलविन, सर आलिवर लाज ऐसे कुछ परम प्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने लड़ाई में धर्माचार्यों का पूरा साथ दिया है। सर आलिवर लाज इंग्लैण्ड के प्रधान वैज्ञानिकों में से हैं। वे ईश्वर, परलोक, अमरत्व आदि के मण्डन में बराबर दत्ताचित रहते हैं। सन् 1913 में ब्रिटिश असोसिएशन के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर सर आलिवर लाज ने 'अखंडत्व' पर जो व्याख्यान दिया था उसका कुछ अंश नीचे दिया जाता है-
'परलोक आदि का पुराना झगड़ा ईधर मुल्तवी है। जिस गढ़ में परलोकवादी ने शरण ली है वह आक्रमण के लिए लोगों को आकर्षित नहीं करता। जिस कोने को दबाकर वह बैठा है उस पर उसका पूरा हक है। अब जो झगड़ा चल रहा है वह वैज्ञानिक दलों के बीच है जिसमें दार्शनिकों का भी योग है। परलोकवादी तो अब एक कोने में बैठा दूर से आसरा लगाए देख रहा है कि इस झगड़े में कभी न कभी उसके काम की बात निकल आयेगी। वह बैठा बैठा सोचता है कि बहुत सी बातें जिन्हें लोगों ने उतावली करके अधूरे प्रमाण पर ही झूठ ठहराया था वे किसी न किसी रूप में आगे चलकर ठीक प्रमाणित होंगी। इस प्रकार धार्मोपदेशकों (पादरियों) का पुराना द्वेष तो ईधर शान्त है।
'भौतिक विद्या में शक्ति पर विवाद चल रहा है। रसायन में अणुओं की बनावट का झगड़ा है। प्राणिविज्ञान में वंश परम्परा के नियमों की छानबीन है। शिक्षापद्धति में बच्चों को अधिक स्वतन्त्रता देने के लाभ बताए जा रहे हैं। राजनीति, और समाजनीति में तो दुनिया की कौन ऐसी बात है जिस पर वाद न हो-केवल 'धन धरती' पर ही नहीं, अदन के पुराने बाग से लेकर स्त्री पुरुष के परस्पर सम्बन्ध तक पर विवाद छिड़ा हुआ है। इसी प्रकार गणित और विज्ञान की शाखाओं में आजकल का संशयवाद अखंडत्व के सम्बन्ध में है।
'इन सब खंडवादों से बढ़कर गूढ़ और तत्वमूलक सब प्रकार के विज्ञानों के आधारों की गहरी परीक्षा है जो आजकल हो रही है। एक प्रकार का दार्शनिक संशयवाद भी बढ़ती पर है जिससे बुद्धि के शुद्ध निरूपण क्रम पर भी अविश्वास किया जा रहा है और विज्ञान की पहुँच भी परिमित बताई जा रही है।
'वैज्ञानिक भी पुराने सिध्दान्तों के खंडन में लगे हैं। एक पूरा अन्यूटनिक सिद्धांत ही निकाला गया है जिसके आधार हाल में जाने हुए वे परिवर्तन हैं जो प्रकाश के तुल्य वेग से गमन करते हुए पदार्थों में पाए गए हैं। वास्तव में यह पाया गया है कि परिमाण और आकृति वेग की क्रियाएँ या गुण हैं। जैसे जैसे वेग बढ़ता है वैसे ही वैसे परिमाण बढ़ता है और आकृति में फेरफार होता है, पर साधारणा अवस्था में हद से ज्यादा सूक्ष्म रूप में। भौतिक विज्ञान के अधिकांश विभागों में सुगमता के स्थान में जटिलता बढ़ती जाती है। आजकल भौतिक विज्ञान में जो मुख्य विवाद चल रहा है उसका झुकाव खंडत्व और अखंडत्व के विषय में है।
'ऊपर से देखने में सृष्टि के बीच पहले हम खंडत्व पाते हैं अर्थात हम ऐसे पदार्थ देखते हैं जिन्हें अलग गिन सकते हैं। फिर हम वायु तथा और अन्तरवर्तियों का अनुभव करते हैं और अखंडत्व या प्रवाहित द्रव्य का समर्थन करते हैं। इसके अनन्तर हम अणुओं का पता लगाते हैं और फिर खंडत्व हमारे सामने आता है। तब हम ईथर का पता लगाते हैं और फिर अखंडत्व पर विश्वास करते हैं। पर इसका अन्त यहीं नहीं होने का। अन्तिम परिणाम क्या निकलेगा, या कुछ निकलेगा भी, यह बताना कठिन है। आजकल की प्रवृत्ति तो प्रत्येक पदार्थ को सखंड या अणुमय बताने की है। विद्युत् या विद्युत्प्रवाह भी-सुनकर आश्चर्य होगा-अणुमय प्रमाणित हुआ है और उसके अणु का नाम विद्युतअणु रखा गया है। चुम्बकशक्ति तक के अणुमय होने का सन्देह किया गया है और उसकी व्यष्टि या अणु का नाम चुम्बकाणु रख दिया गया है। प्राणिविज्ञान में घटक रूप में शरीराणुवाद की प्रतिष्ठा थी ही, अब वंश परम्परा के नियमों का अध्ययन कर मेंडल आदि ने बताया है कि वृद्धिकारक घटकों (शुक्रकीटाणु, गर्भांड) में भी संख्या और खंडत्व प्रत्यक्ष है और सन्ततिभेद भी गिने और पहले से बताए जा सकते हैं। जहाँ डारविन के अनुसार अखंड परम्परागत भेद द्वारा ही ढाँचे में फेरफार माना जाता था वहाँ उसके स्थान पर या कम से कम उसके साथ साथ अब आकस्मिक या आगन्तुक रूपान्तर द्वारा विशिष्ट, असम्बद्ध और परम्पराखंडित परिवर्तन माना जाने लगा है। इतने पर भी यह निश्चय है कि अखंडत्व ही विकास सिद्धांत का मूल है। गतिशक्ति तक अण्वात्मक बताई जाने लगी है। प्रो प्लांक का शक्त्यणु (क्वांटम) वाद अत्यंत चित्ताकर्षक - कुछ लोगों की समझ में अत्यंत प्रबल भी - है। ज्योति:प्रवाह के भी सखंड और अणुमय सिद्ध होने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। ज्योति:प्रवाह के अणुमय होने की चर्चा अब उतनी धीमी नहीं है जितनी कि कुछ पहले पड़ गई थी। इस बात में यथार्थता चाहे जितनी हो पर ज्योति:प्रवाह सम्बन्धी जो विवाद है वह है बड़े महत्त्व का, क्योंकि वह ईथर और द्रव्य के बीच की सबसे अधिक ज्ञात और परीक्षित शृंखला है। ज्योति:प्रवाह यद्यपि वेगप्रेरित विद्युतअणु से ही उत्तेजित होता है पर आगे चलकर वह आकाशतत्व ईथर में ही विचरण करता है और एक विशिष्ट वस्तु की तरह सम तथा नियमित गति से गमन करता है। इससे ज्योति:प्रवाह के द्वारा हम बहुत सी बातें जान सकते हैं।
पर लक्ष्यों को हटाने में धैर्य से काम लेना चाहिए। इन लक्ष्यों में सबसे प्रधान अखंडत्व है। मैं शून्य आकाश में किसी सूक्ष्म से सूक्ष्म भौतिक शक्ति की क्रिया का अनुमान नहीं कर सकता। उसके लिए एक अखंड मध्यस्थ अवश्य चाहिए। ईथर की किसी प्रकार की परीक्षा अत्यंत दु:साधय है। उसके विषय में हम केवल इतना ही जानते हैं कि किस वेग से उसके द्वारा शक्ति प्रवाह गमन करते हैं। वह हमारी पकड़ में नहीं आता। यदि हम उसके बीच से कोई द्रव्य तेजी से ले जायें तो भी कोई पदार्थ घटित सम्बन्ध नहीं मिलता। प्रकाश को लेकर परीक्षा करते हैं तो भी सफलता नहीं होती। जब तक कि प्रकाश की गति हमारे सापेक्ष है तभी तक हम उसका अनुभव कर सकते हैं। पर जहाँ एक द्रव्य की गति दूसरे के सापेक्ष नहीं है वहाँ उसकी गति का कुछ भी पता नहीं चलता। जैसे यदि दो मनुष्य साथ साथ समान गति से गमन करते हैं तो एक को दूसरे की गति नहीं मालूम हो सकती। इसी से कुछ लोगों का यह विचार हो रहा है कि किसी गति को ईथर के सापेक्ष बताना बात ही बात है। इसका पता कभी लग ही नहीं सकता।
हम लोगों का यह युग अत्यंत सूक्ष्म कल्पनाओं का है। बीसवीं शताब्दी का बड़ा भारी आविष्कार द्रव्य का विद्युत् सिद्धांत (अर्थात द्रव्य विद्युत् का ही एक रूप है) है। परिमाण और आकार जो वेग की क्रियाएँ निश्चित हुए हैं वह इसी सिद्धांत के बल से। इसकी सहायता से हम उन परीक्षाओं को करते हैं जिससे ईथर और द्रव्य के सम्बन्ध का कुछ कुछ आभास मिलता है। इससे किसी दिन यह भी सम्भव है कि हम विद्युतअणुओं की आकृति आदि के परिवर्तनों का भी पता लगा लें क्योंकि यद्यपि वे अत्यंत सूक्ष्म हैं पर उनकी गति प्रकाश की गति के लगभग है। फिर कौन जाने इसी प्रकार ईथर के गुणों तक हमारी पहुँच हो जाय और अखंडत्व को हम अच्छी तरह समझ सकें।'
कहने की आवश्यकता नहीं कि अखंडत्व का निर्धारण नाना विशेषों के भीतर एक निर्विशेष का निर्धारण है जिसके द्वारा सत्ता का आभास मिल सकता है। आधुनिक वैज्ञानिक स्थिति की संक्षिप्त समीक्षा कर लॉज ने अन्त में प्राणशक्ति, आत्मा, अमरत्व, परलोक आदि के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए हैं-
'जो बात निश्चित जान पड़ती है वह यह है कि भूत के बिना प्राणशक्ति की कोई भौतिक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। इसीसे कुछ लोगों का यह कहना या इस कहने को पसन्द करना स्वाभाविक ही है कि 'हम भूत में प्रत्येक प्रकार की प्राणशक्ति की सम्भावना और सामर्थ्य देखते हैं'। ठीक है, पर प्रत्येक प्रकार की प्राणशक्ति की नहीं, प्रत्येक प्रकार की प्राणशक्ति की भौतिक अभिव्यक्ति की। क्योंकि प्राणशक्ति हमें भूत द्वारा व्यक्त होने के अतिरिक्त और किस प्रकार व्यक्त हो सकती है? यह भी कहा जाता है कि 'प्राणी में हम रसायन और भूविज्ञान के नियमों के अतिरिक्त और कुछ पाते ही नहीं'। बहुत ठीक, यह भी स्वाभाविक ही है क्योंकि लोग प्राणशक्ति के भौतिक या रासायनिक रूप या व्यक्तता का तो अध्ययन ही कर रहे हैं, स्वयं प्राणशक्ति का अर्थात मन और चेतना का अध्ययन तो वे करते नहीं हैं, उनको तो वे अपनी छानबीन के बाहर रखते हैं। भूत ही हमारी इन्द्रियों को ग्राह्य है। भूतवाद भौतिक जगत् के उपयुक्त है, पर दार्शनिक सिद्धांत के रूप में नहीं, बल्कि चलते हुए व्यापार की व्यवस्था के रूप में, बीच की कारण परम्परा के अनुसंधान रूप में। इसके परे जो बातें हैं वे दूसरे क्षेत्र की हैं और दूसरे उपायों से मानी जाती हैं। आध्यात्मिक बातों को रसायन और भूतविज्ञान के शब्दों में बताना असम्भव है, इसी से उनका अस्तित्व ही अस्वीकार किया जाता है, वे केवल भ्रान्तिलक्षण मानी जाती हैं। पर ऐसी अनधिकार मीमांसा अनुचित है।
प्राणशक्ति का पता प्रयोगशालाओं में नहीं लगता। केवल उसकी रासायनिक और भौतिक अभिव्यक्ति ही देखी जाती है, पर यह मानना पड़ेगा कि वह एक विशेषरूप से भूतों का परिचालन करती है। उसे हम तटस्थ (केटेलिटिक=जो स्वयं विकारप्राप्त न होकर भी दो रासायनिक द्रव्यों में विकार उत्पन्न करता है) परिचालक कह सकते हैं। प्राणशक्ति के व्यापारों को समझने के लिए हमें सूक्ष्म जीवों की ओर न जाना चाहिए, स्वयं अपने में उसका अधिक व्यक्त आभास समझ अपने ही अनुभवों की ओर ध्यान देना चाहिए।'
जगत् में चारों ओर क्रमव्यवस्था देखते हुए भी लोग जो नित्य चैतन्य का अधिष्ठान रूप से अस्तित्व अस्वीकार करते हैं, लाज के अनुसार यह उनकी दृष्टि की संकीर्णता है। उन्होंने कहा है-
प्राकृतिक पदार्थों के भीतर एक गूढ़ रहस्य भरा हुआ है। कट्टर वैज्ञानिक इस विषय में जो बातें बतलाते हैं वे उनकी विद्या की पहुँच के अनुसार ठीक हैं, पर अंशत:। जब हम मोर की पूँछ की चन्द्रिकाओं में रंगों का चित्रविचित्र मेल देखते हैं कि किस प्रकार वे अपनी अपनी जगह पर एक निश्चित नमूने और नक्शे को भरते हुए बैठे हैं तब यह कहना अत्यंत कठिन हो जाता है कि ऐसी क्रमव्यवस्था के साथ मेल केवल रासायनिक नियमों द्वारा होता है। फूल गर्भाधान के लिए कीड़ों को आकर्षित करते हैं और फल बीजों को फैलाने के लिए जानवरों को। पर इस सम्बन्ध में इतनी ही व्याख्या काफी नहीं है। फूलों में इतनी सुन्दरता केवल कीड़ों को आकर्षित करने के लिए ही नहीं है। हमें जीवन के लिए जो इतनी हाय हाय रहती है उसे समझना चाहिए। इस प्रयत्न का कोई रहस्य होगा और विकास का कोई उद्देश्य होगा। 'प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत' जहाँ तक पहुँचता है हेतुनिरूपण करता है। पर यदि इतने सौन्दर्य की आवश्यकता कीड़ों के लिए है तो हम वन, पर्वत, मेघमाला आदि के सौन्दर्य के लिए क्या कहेंगे? उनके सौन्दर्य से कौन सा काम निकलता है, कौन सा लौकिक अर्थसाधान होता है? विज्ञान सौन्दर्य का विवेचन नहीं करता न करे, पर उसका अस्तित्व अवश्य है। मैं केवल इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि हमारे अनुसंधान में ब्रह्मांड की सारी बातें नहीं आ जातीं। इससे यदि हम निषेष करने चलते हैं और कहते हैं कि भूतविज्ञान और रसायन के ही अन्तर्गत हम सारी बातों को ला सकते हैं तो हम केवल संकीर्ण पांडित्य का दम्भ दिखाते हैं और अपने मनुष्यजन्म के अधिकार की पूर्णता और समृद्धि खोते हैं।
विकास परम सत्य है, बड़े महत्त्व का सिद्धांत है। सामाजिक उन्नति के लिए हमारे प्रयत्त इसलिए उचित हैं कि हम समष्टि के एक अंग हैं, अंग भी ऐसे जो चेतन हो गए हैं। अत: समष्टि में उद्देश्य विधान का अभाव नहीं हो सकता क्योंकि हम उसके एक अंग होकर अपने आप में उसका अनुभव करते हैं। शरीर वियोग के उपरान्त भी आत्मा बनी रहती है। यदि न्याय से पूछा जाय तो मैं केवल इतना ही नहीं कहता कि जो बातें अभी परोक्षवाद के अन्तर्गत समझी जाती हैं वे वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा जाँची और निरूपित की जा सकती हैं बल्कि यहाँ तक कहता हूँ कि जहाँ तक परीक्षा हुई है उससे हमें यही निश्चय हुआ है कि स्मृति और अन्त:करणवृत्तियाँ भूतसम्बन्ध ही तक परिमित नहीं हैं, संस्कार रूप में वे बराबर बनी रहती हैं। परीक्षा द्वारा मुझे यह प्रतीत होता है कि यद्यपि शुद्ध भूतनिर्लिप्त चैतन्य का साक्षात् ज्ञान हमें नहीं हो सकता पर उसका आभास भौतिक जगत् में दिखाई देता है। अत: वह कुछ घुमाव फिराव के साथ हमारी वैज्ञानिक परीक्षा के अन्तर्गत आ सकता है। कुछ सच्चे और विश्वस्त अन्वेषक आशापूर्वक ज्ञान के एक नए क्षेत्र का आभास दे रहे हैं।
यह हम कभी नहीं कह सकते कि इस लोक में सत्य का प्रादुर्भाव केवल दो एक शताब्दियों से ही होने लगा। वैज्ञानिक काल के पूर्व की प्रतिभा की पहुँच भी बड़े महत्व की थी। प्राचीन महात्माओं और कवियों का विश्व की आत्मा के विषय में बहुत कुछ प्रवेश था। हमारी अनुसंधान प्रणाली ऐसी है जिससे किसी अखंड निर्विशेषता का पता नहीं लग सकता। यहाँ पर सापेक्षिकता का सिद्धांत चलता है। इससे जब तक हमें व्याघात या विभेद नहीं मिलता तब तक हमें कोई परिज्ञान नहीं होता। हम लोग अपने चारों ओर की अनर्तव्याप्त विभूति को देख सुन नहीं सकते; इतना ही कर सकते हैं कि कालरूपी करघे से निकलकर पूर्णता की ओर अनन्त गति से गमन करते हुए वस्त्र को भूतों से परे उस परमात्मा का परिधान समझें।'
जैसा पहले कहा जा चुका है लाज उन थोड़े से वैज्ञानिकों में से हैं जो संशयवाद से निकलकर ईश्वर परलोक आदि के मंडन में तत्पर रहते हैं। युरोप और अमेरिका में कुछ दिनों से परोक्षशक्ति के साधाक भी खड़े हुए हैं जो अनेक प्रकार की सिद्धियाँ दिखाकर आत्मसत्ता का अस्तित्व प्रतिपादित करने का उद्योग करते हैं। ये मृत पुरुषों की आत्माओं से बातचीत करने, उनके द्वारा अलौकिक घटनाओं के होने का हाल सुनाया करते हैं। इनकी ओर से कई पत्रपत्रिकाएँ भी निकलती हैं। पर इनमें से अधिकतर छल और प्रवंचना का आश्रय लेते हैं इससे शिक्षितों और वैज्ञानिकों की इनपर आस्था नहीं है। बहुतेरे अन्त:करण की असामान्य वृत्तियों या अवस्थाओं (जैसे, दोहरी चेतना आदि) को अपने प्रयोग में लाते हैं। पर इन युक्तियों से शिक्षितों का समाधान नहीं होता।
जैसा कि लाज ने कहा है परलोक, आत्मा आदि के प्रत्याख्यान की ओर वैज्ञानिकों की प्रवृत्ति ईधर कम हो गई है। 'अपने काम से काम' वाली नीति पर वे चल रहे हैं। पर हैकल के सम्प्रदाय के अनुयायियों और आत्मवादियों के बीच छेड़छाड़ होती रहती है। हैकल की पुस्तक के जिस अंग्रेजी भाषान्तर का यह हिन्दी अनुवाद है वह जोजफ मेककैब का किया हुआ है। इन्होंने हैकल का एक जीवनचरित और हैकल पर किए हुए आक्षेपों के उत्तर में एक पुस्तक भी लिखी है। अभी हाल में एक सभा के बीच इनसे और इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध कहानी लेखक ए कनन डायल से परलोक आदि विषय पर शास्त्रार्थ हुआ है जो पुस्तककार छपा है। ए कनन डायल पूरे अध्यात्मवादी हैं।
अब तक जो कुछ लिखा गया उससे शिक्षित जगत् के ज्ञान की वर्तमान स्थिति का कुछ आभास मिला होगा और यह स्पष्ट हो गया होगा कि नाना मतों और मजहबों की विशेष स्थूल बातों को लेकर झगड़ा टंटा करने का समय अब नहीं है। सब मतों और सम्प्रदायों में धर्म और ईश्वर की जो सामान्य भावना है उसी का पक्ष अब शिक्षित पक्ष के अन्तर्गत आ सकता है। ईश्वर साकार है कि निराकार, लम्बी दाढ़ीवाला है कि चार हाथवाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजनेवालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठानेवालों से, इन बातों पर विवाद करनेवाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे। इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है उनके सम्बन्ध में जो प्राचीन पौराणिक कथाएँ और कल्पनाएँ (6 दिन में सृष्टि की उत्पत्ति, आदम हौवा का जोड़ा, चौरासी लाख योनि इत्यादि) हैं वे अब ढाल तलवार का काम नहीं दे सकतीं। अब जिन्हें मैदान में जाना हो वे नाना विज्ञानों से तथ्य संग्रह करके सीधे उस सीमा पर जायें जहाँ दो पक्ष अड़े हुए हैं - एक ओर आत्मवादी, दूसरी ओर अनात्मवादी; एक ओर जड़वादी, दूसरी ओर नित्य चैतन्यवादी। यदि चैतन्य की नित्य सत्ता सर्वमान्य हो गई तो फिर सब मतों की भावना का समर्थन हुआ समझिए क्योंकि चैतन्य सर्वस्वरूप है। नाना भेदों में अभेददृष्टि ही सच्ची तत्वदृष्टि है। इसी के द्वारा सत्य का अनुभव और मतमतान्तर के रागद्वेष का परिहार हो सकता है।
इतिहास से प्रकट है कि आदि में सब देशों के बीच प्रकृति की भिन्न भिन्न शक्तियों और विभूतियों या उनके भिन्न भिन्न अधीश्वरों की भावना हुई और बहुदेवोउपासना प्रचलित हुई। कुछ देशों में 'भेद में अभेद' की तत्वदृष्टि का क्रमश: विकास हुआ और सब देवों की समष्टि के रूप में एक ईश्वर की प्रतिष्ठा हुई। जिन दो देशों में सबसे पूर्व इस प्रकार स्वाभाविक क्रम से एक ब्रह्म की भावना का विकास हुआ वे भारत और बाबुल थे। भारतीय आर्यों के बीच एक ईश्वर या ब्रह्म की भावना का विकास शुद्ध तत्वदृष्टि से हुआ। पहले प्रकृति की भिन्न भिन्न शक्तियों या विभूतियों की उपासना चली, फिर तत्वदृष्टि से उन सबका एक में समाहार करके ब्रह्मवाद की स्थापना हुई। संहिताकाल में ही अग्नि, वायु, वरुण, इन्द्र आदि एक ही ब्रह्म के नाना रूप माने जा चुके थे-
इन्द्र, मित्रां, वरुणामग्निमाहुरथो दिव्यस्स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदंत्यग्ंनि यमं मातरिश्वानमाहु:।
(ऋग्वेद मं 1।2। 164।64)
उपनिषत्काल में तो एक ब्रह्म की भावना पूर्णता को पहुँच गई थी और 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' 'नेह नानाऽस्ति किंचन' 'तत्वमसि' इत्यादि वेदान्त के महावाक्यों का पूर्ण रूप से प्रचार हो गया था। ठीक इसी रीति से पृथ्वी पर की अत्यंत प्राचीन खाल्दी जाति के बीच एक ईश्वर की भावना का विकास हुआ था। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व के बाबुल के एक खेल में वहाँ के भिन्न भिन्न देवता एक ही प्रधान देवता मरदक के भिन्न भिन्न रूप कहे गए हैं। एक नमूना देखिए-
नरगल युद्ध का मरदक है। बेल राजसत्ता का मरदक है।
शम्श धर्म का मरदक है। अदु वर्षा का मरदक है।
नबो व्यापार का मरदक है।
जहाँ एकेश्वरवाद का पहले पहल तत्वदृष्टि द्वारा स्वाभाविक क्रम से विकास हुआ वहाँ तो बहुदेववाद के साथ उसका पूरा समन्वय रहा और किसी प्रकार के द्वेष, कलह और उपद्रव का सूत्रापात नहीं हुआ, पर जहाँ उसका कलम लगाया गया वहाँ आफत खड़ी हो गई। उपदेश देने में अधिकारियों का भेद इसीलिए किया जाता है। जब तक अन्त:करण विकास द्वारा जिस ज्ञान का जो अधिकारी नहीं हो लेता तब तक न वह उसे पूरा पूरा ग्रहण ही कर सकता है, और न अधूरा ग्रहण करके पचा ही सकता है। बाबुल के इस एकेश्वरवाद की कुछ खबर यहूदियों को लगी। फिर क्या था, दर्शन विज्ञानविहीन पुराने यहूदियों की एक शाखा को अपने कुलदेवता 'यहोवा' को दूसरी जातियों के देवताओं से बड़ा प्रकट करने की धुन समाई। जैसे लड़के एक दूसरे से अभिमान के साथ कहते हैं कि हमारा खिलौना तुम्हारे खिलौने से अच्छा है वैसे ही अपने देवता को लेकर वे कहने लगे। पहले यह 'यहोवा' साधारणा कुलदेवता था जिसे इसराईल के वंशवाले बलि चढ़ाया करते थे। इसकी शक्ति और इसका ज्ञान बहुत परिमित था। जब मिदेश के राजा ने इसराईलवंशवालों को बहुत सताया तब उन्होंने अपने कुलदेवता की दुहाई दी। यहोवा ने कहा 'अच्छा, आज रात को मैं मिश्रियों का नाश करूँगा। पर एक काम करना, बलिदान करके पहचान के लिए रक्त का छापा अपने दरवाजों पर लगा देना, जिससे उन घरों को मैं बचा जाऊँ। पीछे मूसा की कृपा से यही 'यहोवा' जमीन और आसमान का बनानेवाला खुदा हो गया। मूसाई मत से ही ईसाई मत निकला। यहूदियों और ईसाइयों को इस प्रकार द्वेषवश दूसरी जातियों की निन्दा करने तथा उन्हें पापी और धर्मविमुख कहने का अवसर मिला। ज्ञान की असंस्कृत दशा में मनुष्य ऐसे अवसरों को हाथ से नहीं जाने देना चाहता। दूसरी जातियों के जो आचार व्यवहार और उपासना विधान (जैसे, मूर्तिपूजन) थे आसमानी किताब में वे पापों की सूची में डाल दिए गए। इस प्रकार अन्त:करण की इन वृत्तियों से प्रेरित होकर एशिया के पच्छिमी कोने पर जिस एकेश्वरवाद की स्थापना हुई उसके कारण बड़े बड़े अनर्थ संसार में हुए। अरब में पहुँचकर उसने जो रूपधारणा किया उसका साक्षी इतिहास है।
उपर्युक्त तीनों अनार्य (शामी) पैगम्बरी मतों में एक ईश्वर की जो प्रतिष्ठा हुई वह तत्वचिन्तन के उपरान्त नहीं, अत: उसमें उस व्यापकत्व का अभाव रहा जो उदार दृष्टि के लिए आवश्यक है। बहुदेवोपासना में जो उदार भाव था वह इस एकेश्वरोपासना में जाता रहा। बहुदेवोपासक जगत् में अनेक देवता मानते थे इससे दूसरी जातियों को अपने से भिन्न देवताओं की उपासना करते देख वे द्वेष नहीं मानते थे। दूसरी जाति के देवताओं को ग्रहण करने या अपने देवताओं का नामान्तर समझने तक के लिए वे तैयार रहते थे। 1 पर जिन जातियों के बीच इस पैगम्बरी एकेश्वरवाद का प्रचार हुआ वे एक ईश्वर को अपना अलग देवता मानने लगीं जिसका परिचय यदि किसी को हो सकता था तो उन्हीं के पैगम्बरों द्वारा। प्रत्येक पैगम्बरी मत के ईश्वर के साथ साथ एक एक पैगम्बर लगा हुआ है जिसे मानना उस एक ईश्वर के मानने से कम आवश्यक नहीं है।
इस पैगम्बरी एकेश्वरवाद के पहले संसार में मतसम्बन्धी युद्ध नहीं होते थे। भारतीय आर्य, पारसी, खाल्दी, मिश्री, यूनानी और रोमन इत्यादि जो ज्ञानसमृद्ध और सभ्य बहुदेवोपासक जातियाँ थीं उनके बीच कभी इस बात को लेकर युद्ध नहीं हुआ कि हमारा देवता तुम्हारे देवता से बड़ा है, तुम हमारे देवता को मानो। युरोप में साहित्य, दर्शन, विज्ञान और शासनकला की जो इतनी उन्नति हुई वह बहुदेवोपासक प्राचीन यूनानियों और रोमनों के प्रसाद से, अनार्य ईसाई मत के प्रसाद से नहीं। ईसाईमत के द्वारा, सच पूछिए, तो ज्ञान की गति में बाधा ही पड़ती रही। संकीर्ण नींव पर पैगंबरी मतों की स्थापना होने के कारण उनके अनुयायियों में व्यापक उदारता का अभाव रहा। उनकी समझ में उन्हें छोड़ और सारे संसार के लोग उनके खुदा के दुश्मन थे। ऍंगरेज कवि अन्धो मिल्टन तक ने प्राचीन सभ्य जातियों के देवताओं को शैतान की फौज में भरती करके अपने कट्टरपन का-अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति का-परिचय दिया है। उसने यह न सोचा कि ईसाई मत के प्रचार के बहुत पूर्व सभ्य मनुष्य जातियों में धर्म, शील और आचार के अत्यंत उच्च आदर्श प्रतिष्ठित थे।
भारतीय आर्यों के बीच उपनिषत्काल में ब्रह्म की भावना पूर्णता को पहुँच गई थी इससे उसके स्थूल निरूपण से भी किसी प्रकार का विप्लव नहीं हुआ। केनोपनिषद् में ब्रह्म के बोध के सम्बन्ध में एक गाथा है जो शायद ईसाई उपदेशकों को बहुत पसन्द आये। एक बार एक बड़ा भारी यक्ष प्रकट हुआ। इन्द्र ने अग्नि को उसका परिचय जानने के लिए भेजा। अग्नि से उस यक्ष ने पूछा 'तुम कौन हो और तुम्हारी शक्ति क्या है?' अग्नि ने कहा 'मैं अग्नि हूँ, यदि चाहूँ तो क्षण भर में सब लोकों को भस्म कर सकता हूँ।' यक्ष ने एक तिनका दिखा दिया और कहा-'इसे तो भस्म करो'। अग्नि ने बहुत यत्न किया पर वह तिनका न जला, ज्यों का त्यों रहा। फिर वायुदेवता उस यक्ष के पास गए। यक्ष ने पूछा-'तुम कौन हो और तुम्हारी शक्ति क्या है?' वायु ने कहा-'मैं वायु हूँ, यदि चाहूँ तो क्षण भर में सब कुछ उड़ा सकता हूँ।' यक्ष ने वायु को भी वही तिनका दिखाकर कहा-'इसे तो उड़ाओ'। वायु ने बहुत वेग दिखाया पर वह तिनका जगह से न हटा। अन्त में इन्द्र आप वहाँ गए, पर उनके जाते ही यक्ष अन्तध्र्दान हो गया। इतने में वहाँ 'उमा हैमवती' प्रकट हुईं। उन्होंने बताया कि वह यक्ष ब्रह्म था।
ब्रह्म या ईश्वर की इस स्थूल भावना से भी यहाँ किसी प्रकार का मतोन्माद नहीं उत्पन्न हुआ। बात यह थी कि जब आर्यजाति सम्यक् तत्वदृष्टि प्राप्त कर चुकी तब आगे चल कर 'एक' और 'अनेक' को लेकर झगड़ा करने की सम्भावना सब दिन के लिए जाती रही। अधिकारभेद से एक और अनेक की उपासना साथ साथ बराबर चलती रही। एक ब्रह्म का ज्ञान हो जाने पर भी अनेक देवताओं के निमित्त यज्ञादि होते रहे, बन्द नहीं हो गए। अनेकत्व और एकत्व के बीच इस अविरोधबुद्धि ने हिन्दूधर्म के क्षेत्र को आंरभ ही से ऐसा अपरिमित रखा कि वह व्यक्तिबद्ध न होने पाया, उसमें वह संकीर्णता न आने पाई जो व्यक्ति विशेष के आश्रित पैगम्बरी मतों में देखी जाती है। कर्म, ज्ञान और उपासना तीनों कांडों के परस्पर सम्बद्ध होने से जिस प्रकार एक में ऊँची नीची श्रेणियाँ मानी गईं उसी प्रकार दूसरे में भी। एक सत्य से दूसरे, दूसरे से तीसरे, इस प्रकार छोटे से बड़े, फिर उससे बड़े सत्य की अखंड परम्परा स्वीकृत हो गई। इंग्लैंड के प्रसिद्ध दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर ने भी यही कहा है कि कोई मत कैसा ही हो उसमें कुछ न कुछ सत्य का अंश रहता है। भूतप्रेतवाद से लेकर बड़े दार्शनिक वादों तक सब में एक बात समान रूप से देखी जाती है सब के सब संसार का मूल कोई अज्ञेय और अप्रमेय रहस्य समझते हैं जिसका वर्णन प्रत्येक मत करना चाहता है, पर कर नहीं सकता। इसी बात पर दृष्टि रखने से हिन्दुओं को दूसरी जातियों से अनाचार और अस्वच्छता (अशौच) आदि के कारण चाहे कुछ घृणा रही हो, पर अन्य देवता की उपासना के कारण द्वेष रखने की प्रवृत्ति नहीं हुई। श्रीकृष्ण भगवान् का स्पष्ट कहना है कि येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजंते श्रद्धयान्विता:। तेऽपिमामेव, कौन्तेय, यजंत्यविधिपूर्वकम्। केवल 'अविधि पूर्वकम्' के लिए मारकाट की कोई जरूरत नहीं समझी गई।
प्राचीन आर्य (भारतीय) धर्म में धर्माधर्म ईश्वर की किसी विशेष रूप में भावना या किसी देवता विशेष की आराधना पर नहीं ठहराया गया। वेदव्यासजी ने अत्यंत उदार भाव से कहा है कि धार्मात्मा पुरुष वर्णाश्रमधर्म (आर्य या हिन्दूधर्म) के बाहर भी हैं। उन्होंने आर्यधर्म को न जानने या न माननेवाली विदेशी जातियों को धर्मशून्य नहीं बताया। श्रीकृष्ण ने कहा है -' ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्'। यही कारण है प्राचीन आर्यों को अपना आचार और अपना विचार दूसरों के गले मढ़ने की उत्कण्ठा नहीं हुई। देशकाल के अनुसार जहाँ जो धर्मव्यवस्था स्थापित थी वहाँ के लिए वे उसी को उपयुक्त समझते थे। उपनिषत्काल में एक ईश्वर या ब्रह्म की भावना परिपक्व होकर पूर्णरूप से जब प्रतिष्ठित हुई तब तक भूमंडल पर शायद बाबुल को छोड़ और कहीं नहीं हुई थी। पर उस एक ईश्वर या ब्रह्म को लेकर प्राचीन आर्य दूसरी सभ्य या असभ्य जातियों का गला काटने के लिए नहीं दौड़े थे। उन्हें यह पूर्ण ज्ञान था कि यह 'एक' 'अनेक' की समष्टि है अथवा 'अनेक' इस 'एक' के ही आभास हैं।
जैसा पहले कहा जा चुका है 'भेदों में अभेद' दृष्टि ही सच्ची तत्वदृष्टि है। इसी के द्वारा सत्ता का आभास मिल सकता है। यही अभेद ज्ञान और धर्म दोनों का लक्ष्य है। विज्ञान इसी अभेद की खोज में है, धर्म इसी की ओर दिखा रहा है।