भूमिका / हाजी मुराद / लेव तोल्सतोय / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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मध्य गर्मियों का दिन था, मैं खेतों के रास्ते घर जा रहा था । खेतो में घास मौजूद थी और राई कटने के लिए तैयार थी । वर्ष के इन दिनों में खिले फूलों का चुनाव अदभुत था । लाल-सफेद-गुलाबी, सुगन्धित और रोंयेदार तिपतिया; दूध जैसे सफेद पर केन्द्र में चमकीले, पीले एवं मधु-कटु गन्ध वाले अक्षिपुष्प; मधुर सुगन्धि फैलाती पीली जंगली सरसों; लंबे, गुलाबी और सफेद धतूरे के घण्टाकार फूल; मोठ की चढ़ती बेलें; पीले, लाल और गुलाबी खुजलीमार पौधे; शान्त- गम्भीर बैंजनी कदली, जो नीचे पीली होने का सन्देह देती है और जिसमें से एक तीखी सुवास फूटती है; चमकीली नीली अनाज बूटियॉं जो सन्ध्या होने पर अरुणिम हो जाती हैं तथा बादामी गंध वाली कोमल वल्लरियॉं खिली हुईं थीं।

मैंने अलग-अलग फूलों के बडे़-बड़े गुच्छ तोड़ लिए थे और मैं घर की ओर बढ़ रहा था। तभी मैंने खाईं में उगा और पूरी तरह खिला बैंजनी गोखरू का एक शानदार पौधा देखा। इसे हम ‘तातार' कहते हैं। यह कभी दरांती से काटा नहीं जाता और यदि कभी संयोग से कट भी जाये तो घसियारे अपने हाथों को इसके कांटों से बचाने के लिए इसे घास में बीन कर फेंक देते हैं। मैंने सोचा, मैं इस कंटीले फूल को उठा लूं और इसे अपने फूलों के गुच्छे के बीच रख लूं। बस, मैं खाईं में उतर गया। एक झबरा-सा भौंरा तृप्त होकर फूल के बीच गहरी नींद में सोया पड़ा था। पहले मैंने उसे वहॉं से भगाया। अब मैंने फूल तोड़ने का प्रयत्न किया। लेकिन यह दुष्कर सिद्ध हुआ, क्योंकि डंठल कांटों से भरा हुआ था। मैंने अपने हाथ पर रूमाल लपेट लिया था, लेकिन वे रूमाल को बेध गये। डंठल भयंकर रूप से इतनी मजबूत थी कि मैं पॉंच मिनट तक उससे जूझता रहा और उसके रेशों को एक-एक करके तोड़ता रहा। अंतत: जब मैं फूल तोड़ने में सफल हुआ, तब डण्ठल फूटकर छितर चुकी थी। यह फूल भी उतना ताजा और सुन्दर प्रतीत नहीं हुआ। उसका रुक्ष स्थूल स्वरूप गुच्छे के दूसरे फूलों से मेल नहीं खा रहा था। मुझे पश्चाताप हुआ कि मैंनें एक फूल को खराब कर दिया, जो अपनी जगह खिला हुआ ही सुन्दर था। मैंने उसे फेक दिया। ‘‘कितनी ऊर्जा और जीवन-शक्ति!" अपने उस प्रयास को याद करते हुए मैंने सोचा, जो मैंने उसे तोड़ने में किया था। ‘‘कैसी निराशोन्मत्तता के साथ उसने अपना जीवन बचाने के लिए संघर्ष किया और फिर कैसे प्यार के साथ स्वयं को समर्पित कर दिया था।"

मेरे घर का रास्ता ताजे जुते और परती पड़े खेतों के बीच से होकर धूल भरी काली धरती पर से ऊपर की ओर जाता था। जुती हुई जमीन एक बहुत विस्तृत धर्मशुल्क भूमि थी और इसके दोनों ओर और सामने जहाँ तक नजर जाती थी, बस हल से बने सीधे खांचे, जिन पर अभी हेंगा नहीं चलाया गया था, ही दीख पड़ते थे। खेतों को भलीभॉंति जोता गया था, जिससे एक भी पौधा या घास की कोई पत्ती ऊपर निकली दीख नहीं रही थी। केवल काली जमीन ही सामने थी। ‘‘मानव कितना विध्वसंक प्राणी है! अपने जीवन निर्वाह के लिए वह किस प्रकार प्राकृतिक जीवन को ही नष्ट कर डालता है," उस जड़ काली धरती पर किसी सचेतन जीव को अनजाने ही खोजते हुए मैंने सोचा। तभी सामने मार्ग के दाहिनी ओर एक गुच्छा-सा कुछ मुझे दीख पड़ा। जब मैं निकट गया तो मैनें देखा कि यह भटकटैया (तातार) का एक गुच्छा था।

इस ‘तातार' की तीन शाखाएं थीं। एक टूट कर नीचे पड़ी हुई थी। इसका बचा हुआ भाग, कटी बांह के टुकडे़ की भॉंति पौधे से चिपका हुआ था। शेष दो में से प्रत्येक में एक फूल था। वे फूल कभी लाल रहे होगें लेकिन अब काले पड़ चुके थे। एक डंठल टूटी हुई थी। इसका ऊपर का आधा भाग अपने अंतिम छोर पर एक बदरंग फूल को लिए लटक रहा था। लेकिन इसका दूसरा हिस्सा ऊपर की ओर सीधा तना हुआ था। पूरा पौधा हल के पहिए के द्वारा कुचला जाकर विखंडित हो वक्राकार हो गया था। लेकिन वह तब भी खड़ा हुआ था, जबकि उसके शरीर का एक भाग विनष्ट हो चुका था, इसकी अंतडि़यॉं निकल आयी थीं, इसका एक हाथ और एक आँख समाप्त हो चुके थे, फिर भी वह उद्धत खड़ा दिख रहा था, इसके बावजूद कि मनुष्य ने इसके आस-पास के सहोदरों को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। ‘‘कितनी ऊर्जा" मैंने सोचा, ‘‘मनुष्य ने सब कुछ जीतने में, घास की लाखों पत्तियों को नष्ट करने में खर्च की होगी, फिर भी यह अपराजित-सा खडा़ है।"

तभी मुझे काकेशस की एक पुरानी कहानी याद आ गयी, जिसके कुछ हिस्से को मैंने स्वयं देखा, कुछ प्रत्यक्षदर्शियों से सुना और शेष को मैंने अपनी कल्पना से पूरा किया। वही कहानी, जिस रूप में मेरी स्मृति और कल्पना में साकार हुई, यहाँ प्रस्तुत है …