भूमिगत (उपन्यास):प्रो.आदित्य प्रताप सिंह / सुधा गुप्ता
रीवा (मध्य प्रदेश) के वरिष्ठ साहित्यकार प्रो.आदित्य प्रताप सिंह, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, नाना विधाओं में अपनी लेखनी का कौशल स्थापित कर चुके हैं। तेज़-तर्रार भाषा-शैली में लिखा गया, 'भूमिगत' एक ऐसा उपन्यास है जो अपनी अति काल्पनिकता के कारण अविश्वसनीयता कि हद तक नाटकीय, उलझन भरी ज़िन्दगी को चित्रित करने की भरपूर कोशिश करता है। स्वयं उपन्यासकार के अपने शब्दों में ' यह उपन्यास कल्चर वल्चर्स एक्स रे है, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति जगत के हवाल-चित्रों का हवाला है।
उपन्यासकार का उद्देश्य वास्तव में एक सत्साहित्यकार का महत् उद्देश्य है-वह आज के भारतीय समाज में व्याप्त भयावह स्थिति-शिक्षा और राजनीति में गहरे धँसे भ्रष्टाचार की सड़ी-गली, परत-दर-परत उखाड़कर, उघाड़ कर दिखा देने को आकुल-व्याकुल है और अपनी समग्र एकाग्रता, ऊर्जा एवं रचना कौशल इस उद्देश्य की प्रतिपूर्ति के लिए 'भूमिगत' नामक उपन्यास लिखने में व्यय करता है। भाषा कि मज़बूत पकड़, व्यंग्यात्मक, तीखी, धारदार शैली और मार्मिक घटनाओं के चुनाव द्वारा निःसन्देह समाज में नर-दानवों की काली करतूतों का पर्दाफ़ाश करने में उसका कौशल असंदिग्ध है। कथानक से जुड़े सभी पात्र अपने-अपने स्तर पर अपनी समस्याओं से जूझते एवं वास्तविक संघर्ष करते नज़र आते हैं। नारी-चरित्र: तसनिम, निनामा एवं 'रविराज' की माँ-वृद्धा 'दादी अम्मा' सभी बड़े जीवट से भरे चरित्र हैं। विशेष रूप से दादी अम्मा कि सुलझी हुई, विवेक पूर्ण विचार धारा ग्रहणीय है और उपन्यास की लक्ष्य-पूर्ति में भरसक सहयोग देती हैः 'धर्म कोई दुर्बल वस्तु नहीं, रबड़ का फुलना तो नहीं, कुम्हड़े की बतिया तो नहीं जो छूने से भ्रष्ट हो जाए——-यदि धर्म अफ़ीम है, तो राजनीति संखिया है, विज्ञान पोटैशियम साइनाइड है, दर्शन धतूरा है' आदि।
उधर धनीराम, क़ासिम, आप़फ़ताब, अब्बास-सभी अपने-अपने संघर्ष में रत हैं। असंख्य विषमताओं, विद्रोहों, असामंजस्य, हत्या, जन-विद्रोह, लाठी-गोली-अश्रु गैस, छात्र-संघर्ष और मुक़दमों से भरी, घटनापूर्ण यह आक्रोश-परिचालित कथा, नायक रविराज के माध्यम से 'नए इंसान' का एक काल्पनिक ही सही, सुन्दर रूप प्रस्तुत करती है: 'मैं रचना चाहता हूँ नया इंसान। कर्मठ भारतीय जो सस्पंद फौलाद का हो। जिसमें हिन्दू का ज्ञान हो, मुसलमान का ईमान। ईसाई का प्रेम। सिक्खों का तेज। बुद्ध की करुणा। जैन की उदारता। गाँधी जी की सत्य दर्शिता। मार्क्स का नव संघर्ष। अरविन्द का प्रणव प्रकर्ष——।'
इस आदर्श को बघारने और गाँधी की सत्यदर्शिता तथा बुद्ध की करुणा का राग अलापने वाला नायक स्वयं कठघरे में खड़ा हो जाता है। अधर में टँगे रह जाते हैं, कुछ अनुत्तरित प्रश्न: नायिका द्वारा अवसरवादी 'मामू' की हत्या, नायक तथा नायिका द्वारा उसकी लाश को ठिकाने लगाने, मुक़दमे में नायिका द्वारा 'ख़ाला' पर हत्या का मिथ्यारोप लगाने और अन्त में धनीराम का पिस्तौल छीनकर उसकी भी हत्या कर देने वाली नायिका ने जिस निर्ममता से 'सत्य, शिव, सुन्दर' की हत्या कर डाली है, उस अपूरणीय क्षति की भरपाई कैसे होगी? 'भूमिगत' शीर्षक की सार्थकता-स्थापन के लिए क्या वास्तव में रविराज के पास क़ब्रिस्तान के सड़ाँध भरे नरक में रहने और ज़िन्दा चूहे खाकर (ज़िन्दा) के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था? या, उसकी स्वार्थपरता, बीस हज़ार की अनुग्रह-राशि मृत्यु घोषणा के बाद बीमा राशि-प्राप्ति की आशा ने उसे यह जीवन जीने को मजबूर किया? ऐसे दर्जनों प्रश्न हैं।
'भूमिगत' उपन्यास का सबसे कमजोर पक्ष है, समुचित विराम चिह्नों का प्रयोग न किया जाना जिसके कारण अर्थ की स्पष्टता एवं भाव की सुबोध सुगम्यता कि गम्भीर हानि हुई है। उद्धरण चिह्न एवं विवरण चिह्न न होने से, कहाँ एक पात्र का कथन समाप्त हुआ और दूसरे का आरम्भ हो गया, इसका पता ही नहीं चलता। परिणामतः अस्पष्ट भ्रामकता का साम्राज्य स्थापित हो गया है।