भूमिहार ब्राह्मण सभा में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
सन 1914 के दिसंबर महीने की बात है। स्वामी पूर्णानंद सरस्वती और उनके कई साथियों ने बार-बार कह-सुन के मुझे राजी किया कि मैं सन 1914 ई. में होनेवाले भूमिहार ब्राह्मण महासभा के अधिवेशन में बलिया चलूँ। यूरोपीय महायुद्ध को छिड़े हुए अभी ज्यादा दिन न हुए थे। आखिर मैं तैयार हो गया और वहाँ गया।
मुझे ठीक याद नहीं कि दो बार वहाँ बोला या ज्यादा। मगर यह ठीक है कि एक बार संस्कृत भाषा के महत्त्व के बारे में बोलते हुए जर्मनी का नाम मैंने लिया। क्योंकि मेरा कटु अनुभव था कि हमारे पतन के करते जर्मनी के मोक्ष मूलर जैसे विद्वानों ने संस्कृत के, जाने, कितने ग्रंथों का उद्धार किया। जो वेद ग्रंथ छपे न थे उन्हें, खास कर ऋग्वेद को उनने छपवाया। प्रभाकर के मत की मीमांसावाली पुस्तक, जो प्रभाकर की लिखी हुई है, यहाँ मिलती ही नहीं। उसकी हस्तलिखित प्रति एक बार यहाँ जर्मनी से ही आई थी। जर्मनी की बात कहने से मेरा मतलब यहाँ के ब्राह्मणों को धिक्कारने से था। भूमिहार ब्राह्मणों को भी ब्राह्मण के नाते यही बात सुनाई। कोई राजनीतिक मतलब तो मेरा था नहीं। राजनीति तो मैं जानता भी न था कि कौन सी चिड़िया है। सच बात तो यह है कि लड़ाई का भी कोई महत्त्व और रहस्य मैं जानता तक न था। केवल सुना था कि जर्मनी और इंग्लैंड के मध्य युद्ध छिड़ा है। मगर जर्मनी का नाम इस प्रकार लेना भी शायद अक्षम्य अपराध था। फलत: सभापति के इशारे से एक सज्जन ने आ कर मुझसे धीरे से कहा कि जर्मनी की बड़ाई न करें।
असल में जमींदारों और राजा-महाराजाओं का जवाब था और वह ठहरे स्वभावत: राजभक्त। इसलिए यह बात वह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? पीछे मुझे पता चला कि भूमिहार ब्राह्मणों के नाम पर सभा खड़ी कर के वे लोग अपना काम निकालते और समाज की ओर से राजभक्ति का विश्वास सरकार को सदा दिलाते थे। इस प्रकार पहली बार राजनीति की हवा ने मेरे अंतस्तल में एक बार अनजान में जबर्दस्त ठो कर मारा। हालाँकि मैं उस समय उसे महसूस कर न सका।
वहाँ एक बार मैं और बोला और सबों को ब्राह्मण धर्म बताया। मैंने शास्त्रों के वचनों के आधार पर यह सिद्ध किया कि “पुरोहिती करना ब्राह्मणों के लिए जरूरी नहीं है।
प्रत्युत इसे आचार्य लोग एक प्रकार से निंदित ही समझते रहे है। ब्राह्मण के लिए भी खेती-गिरस्ती पुरोहिती से कहीं अच्छी है और उसके अभाव में ही पुरोहिती करने का हक उसे है' आदि-आदि। मनु का उद्धरण दे कर मैंने खेती और व्यापारवाली बात सिद्ध की, जैसा कि उन्होंने चतुर्थाध्याय के शुरू में ही ब्राह्मण की जीविकाओं को गिनाते हुए 'ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा' 'प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्' 'सत्यानतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते' आदि वचनों द्वारा बताया है।
महाभारत के शांति पर्व का 'ब्राह्मणा द्विविधा राजन धर्मश्च द्विविधा: स्मृत:। प्रवृत्तश्च निवृत्तश्च निवृत्तोऽहं प्रति ग्रहात' उध्दृत कर मैंने बताया कि प्रवृत्त और निवृत्त या याचक और अयाचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण सदा से होते आए हैं। फलत: आप लोग निवृत्त या अयाचक हैं। मेरी ये सब बातें सबों को नई दुनियाँ की अनोखी चीजें प्रतीत हुईं और उनकी आँखें अचानक खुलीं। उन्होंने देखा कि यह क्या है? वह तो अपने आपको गिरा हुआ समझते थे। लेकिन यहाँ तो उलटा ही सुना। विपरीत ही पाया। वे सभी भौंचक थे।
मैं भी उनकी भावभंगी देख कर एक प्रकार से क्षुब्धा सा हुआ और मेरे दिल पर चोट सी लगी। मैं समझता था कि जब भूमिहार ब्राह्मण में (ब्राह्मण) शब्द जुटा है, जैसे कान्यकुब्ज ब्राह्मण, मैथिलब्राह्मण आदि में। सुनता भी था कि वे लोग 20-25 वर्ष से लगातार यह सभा करते हैं, तो ब्राह्मणता का अभिमान तो उनमें होगा ही। मुझे तो इसकी कल्पना भी न थी कि वे लोग अपने को इतना गिरा समझते हैं। मेरा तो सदा संस्कार ही ब्राह्मण का रहा।
उपनयन संस्कार और संध्योपासनादि भी बराबर ब्राह्मणोचित ही हुआ। वंश भी ऐसा ही था। इसलिए मैं भी आश्चर्यचकित हो गया और दिल में एक बार सहसा यह बात आ कर फौरन चली गई कि क्या मैं इन्हें स्वाभिमान के मार्ग पर ला नहीं सकता? क्या मेरा यह काम नहीं है?क्या मेरा कर्त्तव्य नहीं कि इनके ब्राह्मणत्व को जाग्रत करूँ।
इसके बाद मैं फिर काशी आ गया और पढ़ने में लगा। लेकिन इस धक्के ने, जो मानसपटल पर अचानक लगा था, मेरे जीवन के मध्यभाग (संन्यास जीवन) के मध्यखंड के अंत का श्रीगणेश अनजान में ही किया। इसे मैं लक्षित न कर सका। पर, वह अपना काम भीतर ही भीतर अदृश्य रूप से करता रहा और इस प्रकार मध्य भाग के उत्तर खंड की तैयारी हो गई।