भूलने का विपक्ष: वे दिन-बीकानेर के! / हेमन्त शेष
शहर, जिस से आपके पूर्वजों या आपका थोड़ा बहुत भी ताल्लुक कभी रहा हो और जिसे आप छोड़ चुके हों, घोड़े बेच कर गहरी नींद सोया रहता है| खून में बेआवाज़ बहते हुए उसे बरसों बीत जाते हैं और हमें अपने अचेतन मन के अँधेरे काठगोदाम में फेंक दी गयी ऊंघती हुई कुछ पुरानी चीज़ों की याद ही नहीं आती| किन्तु स्मृति की धुली-पुंछी हुई स्लेट से शायद पुराने अक्षर और इबारतें कभी पूरी तरह साफ़ नहीं होते|
जब किसी विलक्षण पल में कभी कोई दृश्य, गंध, आवाज़, आकृति, आपके भीतर सोए हुए उस भूले-बिसरे शहर की याद को हौले से थपकी दे कर जगा देती है- उस नगर के तमाम घरों की खिड़कियाँ भीतर झांक सकने के लिए आप के लिए खुल जाती हैं- भीतर दुबके लोग ‘आखातीज’ के दिन पतंगें और ‘लटाई’ (चरखियां) हाथ में लिए खुली सड़कों और छतों पर निकल आते हैं-... ठन्डे पड़े चूल्हों में से आँखें सुजाने वाला धुआँ उठने लगता है, स्कूल की घंटियाँ बजने लगती हैं और एक रेलवे-फाटक किसी व्यस्त सड़क की आवाजाही को तोड़ कर दौड़ती भागती भीड़ को दो उकताए हुए हिस्सों में बाँट देता है... “लादा” बेचने के लिए एक ऊँटगाड़ी सूखी लकड़ियों को लादे शहर भर में घूमती है-...आठ जनों के परिवार में सिर्फ एक थकी हुई साइकिल होती है, जिसे परिवार के सदस्य अपनी बारी आने पर चला पाते हैं ...लटके हुए थनों वाली भूरे रंग की ‘राठी’ गाय, जो हमेशा अधनंगे से गाछ्हीन पेड़ के नीचे बंधी मिलती है... मोटे-मोटे स्तनों वाली किसी काली, पर करारी युवा गाड़िया-लुहारन के तीखे नैन-नक्श रास्ता चलते आपको ठिठका देते हैं, टाटपट्टी वाले या टूटी हुई बेंचों वाले किसी देसी स्कूल में कोई हिंसक अध्यापक “मारजा” गा-गा कर ऊबती हुई नयी पीढ़ी को कठिन पहाड़े रटाता रहता है, चिपकी–चिपकी छतों पर जहाँ युवतर लड़कियां अभिभावकों की निगाह बचा कर आस-पड़ौस के नौजवानों से आँखें सेकती हैं, पर जहाँ गुप्त से गुप्त प्रेम-सम्बन्ध तक की सारे शहर को फ़ौरन खबर हो जाती है.... मेरी स्मृति के तालाब में डूबा एक ऐसा ही शहर है... बीकानेर!
ये सारा शहर जैसे अनंत फुर्सत में रहता है! यहाँ वक़्त की कमी की कोई शिकायत नहीं करता...हथेली पर चूना और तम्बाकू घिसते हुए घंटों निकाले जा सकते हैं....‘पाटा-संस्कृति’ बीकानेर में हर तरह की भाग-दौड़ और व्यस्तता का एक चिरंतन विपक्ष है! गाँव में जो महात्म्य चौपाल का है, ठीक वही यहाँ के चौकों में रखे ‘पाटों’ का.... सेंकडों सालों से लोग लकड़ी के इन आयताकार पाटों पर जमा हो कर निंदा-स्तवन, घर-बाहर, जाति-बिरादरी दीन-दुनिया की बेहिसाब बातें करते आये हैं | खाना-पीना, रोना-धोना, गाना-बजाना; सब इन खुले रंगमंचों पर संभव है! ‘पाटे’, जहाँ स्थानीय राजनीति के अखाड़े हैं, गंभीर बौद्धिक-विमर्श और आपसी संवाद के अन्तरंग-मंच भी! शतरंज, ताश, चंगा-पो और चौपड़ की बाजियां यहाँ जमती हैं, तो इन पर कभी-कहीं हुआ करता है, नाट्य-मंचन, ज्योतिष-कर्म और ख़ुफ़िया तौर पर सट्टा भी! यहाँ पाटों पर अपने चौक के गोधों का मल्लयुद्ध करवाने की चुनौतियाँ दी और स्वीकारी जाती हैं...अफवाहें उगाई और फैलाई जाती हैं| दिन भर की गर्मी से जब शहर का तापमान शाम ढले थोड़ा कम होता है- दैनिक मारामारी से निजात पाने को मुंह में ज़र्दा भरे लोग घरों से निकल कर अपने चहेते ‘पाटों’ का रुख करते हैं! दिन भर की खबरों पर टीका-टिप्पणी करने, ‘रामा-श्यामा’ और सामाजिक मेल-मुलाकातों के लिए इनसे बेहतर कोई जगह नहीं है, आज भी बीकानेर की जनता के पास इन ‘पाटों’ का कोई विकल्प नहीं! बेजुबान पाटों ने बीकानेर के पाँचों वाचाल सिनेमाघरों की जैसे हवा निकाली हुई है!
मेरी याददाश्त की धुंध में डूबा बीकानेर एक ऐसा ही शहर है| बीकानेर में बहुत दिन नहीं रहा, पर इसी एक छोटे शहर की गंध, कुछ अन्तरंग आकृतियाँ और उनकी स्मृतियाँ, मन के कैनवास पर न सूखे रंगों जैसी ही अब भी ताज़ा हैं| मैं चाहता हूँ किसी दिन उस बीकानेर पर भी जैसा-तैसा लिखूं, जिसे मैंने जाना- वक़्त की सफेदी खुरच कर उन उजली-धुंधली तस्वीरों को सामने लाऊं- जिन्हें कभी यहाँ मैंने देखा!
बीकानेर की यादों के इस काफिले में शरीक हैं – गलियों में गायों का भयंकरतापूर्वक पीछा करते कामोत्तेजित विकराल सांड, (जिन्हें यहाँ ‘गोधे’ कहा जाता है), कभी-कभार या अक्सर होने वाली बेहतरीन साहित्यिक-गोष्ठियां-परिसंवाद, बिजली के तारों पर स्थिर कबूतर, गलियों की लावारिस गायें और कुत्ते, तरह-तरह की सुस्वादु मिठाइयों-नमकीनों से सजी दुकानें, ट्रेफिक की रफ़्तार गाहे-ब-गाहे रोकता के ई एम रोड का कुख्यात रेलवे-फाटक, कोटगेट समेत स्टेशन रोड और दूसरे बाजारों की अराजक भीड़-भाड़, ‘गंगा-टाकीज’ की उखड़ी हुई सीटें, ‘प्रकाश-चित्र’ सिनेमा की बेहद ख़राब एकॉस्टिक-व्यवस्था, सुबह-शाम पब्लिक नलों से पानी की सप्लाई, खुली नालियों की वजह सड़कों के किनारे इकठ्ठा कर दिया गया कादा-कीच, वार-त्योहारों पर मंदिरों में रंग-बिरंगे लोगों की भीड़-भभ्भड़, भंग और डोडा पोस्त के ठेके, तम्बाकू के पान, शहर का बेहद बुरा ड्रेनेज सिस्टम, यहाँ की सेंकडों साल पुरानी बेहद पुरानी आत्मीय “पाटा-संस्कृति”, ‘पब्लिक-पार्क’ और रतन बिहारी पार्क की कुम्हलाती हुई घास, ‘सूरसागर’ में भर दिया गया शहर भर का कचरा, डागा-बिल्डिंग की पहली मंजिल पर ‘वातायन’ का दफ्तर, उनकी ज़र्दा-पीक-कल्चर, कुछ सुरीले बेंड-बाजे वाले, जूनागढ़ का किला, शहर के बीच महान शासक महाराजा गंगा सिंह और शार्दूल सिंह की अश्वारूढ़ धातु-प्रतिमाएं....और शहर के बेफिक्र-मस्तमौला लोग, कुछ बेहद ‘टिपिकल’, ठेठ, आम-चरित्र! मेरे निकट बीकानेर का अर्थ और भी अगड़म-बगड़म, न जाने क्या-क्या है!
लेखक-मित्र भारत अशेष से पता लगा “पुराना बीकानेर अब भी बिलकुल नहीं बदला!” ये न बदलना भी शायद एक शहर की ताक़त का, लोगों की शहर के प्रति आत्मीयता का, उसकी संस्कृति की गहरी पैठी जड़ों का अकाट्य सबूत हो। इधर जब सारे क़स्बे और छोटे शहर तक बदलाव की अंधी-आंधी से अपने चरित्र को वर्णसंकर हो जाने के खौफनाक सच से खुद को बचा नहीं पा रहे, बीकानेर का ‘कम बदलना’ या ‘बिलकुल न बदलना’ मेरे निकट एक बड़ी राहत की खबर है। पर अगर ‘गूगल’ की मानें तो अन्तरिक्ष से ली गयी नवीनतम तस्वीरें बतलाती हैं- नत्थूसर, मुरलीधर व्यास कॉलोनी, नेहरु नगर, सुजानदेसर, भीनासर, विनायक नगर, सुदर्शना नगर, पवनपुरी, वल्लभ नगर, शिवबाड़ी, विष्णु-नगर, शरण नगर, इन्द्रपुरम, शौकत उस्मान नगर, हनुमान नगर, शुभम विहार, सरिता विहार, इन्द्रपुरी जनकपुरी, मेघवालों का मोहल्ला, वृन्दावन एन्क्लेव, ऊदासर, विराटनगर, मयूर विहार, डिफेंस कॉलोनी, ज्योति नगर, उरमूल-नगर, आई जी एन पी कॉलोनी, लालगढ़, मुक्ताप्रसाद नगर, विद्यानगर, अयोध्या नगर, से भी आगे शहर का अंधाधुंध विस्तार होता जा रहा है! हो सकता है- बस शहर की ‘सूरत’ भर बदल रही हो, इस नगर के लोग और उनकी ‘सीरत’ नहीं! एक पुराने ऐतिहासिक इस शहर की इन गलियों में जीवन और समाज के अनगिनत बिम्ब पुरानी शैली में यथावत जीवित हैं...अगर आप मेरी तरह रामपुरिया-चौक से गोस्वामी-चौक जाएं तो अनगिनत छोटे-बड़े मकान, गलियां और मोहल्ले, उनके दृश्य, आपका देर तक पीछा करते मिलेंगे... घरों में बच्चों की चिल्ल-पों, जवानों की बेफिक्र दिनचर्या और बड़े-बूढ़ों द्वारा गुज़रे हुए दिनों की जुगाली सब....।
एक अभिशप्त हवेलीनुमा घर
जहाँ हम कुछ दिन-बरस रहे- ‘भू ऋषि भवन’ ‘रामपुरिया चौक’ और शायद ‘मोहतों के चौक’ के बीच था। कभी चहल-पहल से भरी एक धनाढ्य, भव्य हवेली रही होगी वह .... उस बड़े से मकान ने यकीनन कभी संपन्न दिन भी देखे होंगे, पर उसे पुराना, ढहता हुआ, अकेला और प्रायः सुनसान सा देख कर मुझे अक्सर एक विषादपूर्ण, उजड़े हुए वैभव की ही याद आती थी। लाल पत्थर की सीढ़ियाँ, जो हवेली में ऊपर की ओर ले जातीं थीं- एक भूली बिसरी दुखांत कथा सी कहती जान पड़ती थीं। लोगों के आने-जाने से बनी उनकी चिकनाहट...उनके धब्बे और उनका एकांत। उस हवेली ने अगर अनगिनत नवागत बच्चों का रुदन सुना था, तो शायद अब तक पचासों अर्थियां भी इसी के दरवाज़े से निकलीं थीं, सीढ़ियों के बाद- एक अलंकृत भारी सा दरवाज़ा आता था, जिसके कुंडे दरवाज़ा खोलते, बंद होते आवाज़ करते थे- थके हुए पुराने लोहे की आवाज़। घर के नीचे था-एक ठंडा लम्बा तहखाना- तपती हुई लुओं वाले गर्म दिनों में रहने वालों की एकमात्र शरणगाह, कुछ ऐसे कमरे, जिनमें सदा पुराना ऐतिहासिक ताला लगा रहता, रियासती वक्त के टाइप किये कुछ पुराने लावारिस से राइस-पेपर उन कमरों से निकल कर हवाओं में उड़ते रहते थे...प्राचीन शैली की मध्यकालीन तारत, लम्बी सी ‘पिरोल’, सागवान या रोहिड़ा की लकड़ी से बनी अलंकृत छत, हवेली का खंडहर में तब्दील हो चुका तीसरा चौक...गिरते हुए “मालिये”, छोटी 2 छतें...रंग उड़े दरो-दीवारें... सबसे निचली सीढ़ी पर नाली की ठंडक लेता दुपहर की गर्मी से निजात पाने को सदा सोया मिलता था कोई भूरा या चितकबरा आवारा कुत्ता। याद आता है, प्रकाश परिमल का एक उपन्यास अंश “लाल पत्थर की हवेली” जो इसी मकान ‘भू ऋषि भवन’ और इस में रहने वालों के दारुण-जीवन पर लिखा जा रहा था, जिसे मैंने कभी पढ़ा और अपनी पत्रिका ‘कला-प्रयोजन’ में आधा-अधूरा छापा था!
मुझे याद आती है- हमारी पड़ौसी रामपुरिया हवेलियों की निस्तब्धता...उनकी कलात्मक दीवारों, जालियों, झरोखों, दालानों के अद्भुत अलंकरण...लाल-पत्थर की बेलबूटेदार बेमिसाल कारीगरी...उस पर बींट करते पंख फडफडा कर बैठते-उड़ते असंख्य कबूतर....उनके सजे-धजे खाली पड़े कमरे...प्रशस्त बरामदे और विशाल हवादार चौक... मेरे लिए रामपुरिया हवेलियों के सामने से गुजरने का एक ही अर्थ था- उस भव्य, किन्तु बेहद एकाकी; समृद्ध, किन्तु सुनसान पड़ी दुनिया के भीतर बस कुछ पल झाँकने का...ये एक अलग दुनिया थी जिसमें मुझ जैसे बच्चे बड़ी उत्सुकता कुतूहल और जिज्ञासा से दिलचस्पी रखते थे, क्यों कि हवेलियों की दीवारों पर तो बहुत रोचक भित्तिचित्र थे...बाहर से ही नज़र आते थे उनके रंग और मनोहर आकार...बिना घोड़े के कोई पुरानी सी महंगी बग्घी उस दालान में सुस्ताती हुई दिख जाती थी और चौक में बैठे उनके ठेठ मारवाड़ी स्वामिभक्त दरबान, जो लोगों की लालची निगाहों से हवेली के वैभव को बचाते हर वक़्त पहरा देते दिखलाई देते। इन हवेलियों के आकर्षण ने, जब तक मैं बीकानेर में रहा (और एयर फ़ोर्स एरिया में स्थित सेन्ट्रल स्कूल में सातवीं-आठवीं क्लास में पढ़ा), मुझे बरबस अपने मोहपाश से बांधे रखा....कितनी अजब बात है घर ‘रामपुरिया मोहल्ले’ में होते हुए भी मैं कभी उन हवेलियों की खूबसूरती को भीतर जा कर सराहने का अवसर न पा सका ....वह स्थानीय लक्ष्मीपतियों की एकान्तिक दुनिया थी, और हवेलियों के भीतर किसी जानकार या ‘बड़े’ को लेकर ही जाया जा सकता था, पर ऐसा मौका बीकानेर रहते कभी हाथ नहीं आया...हम बस ‘भू ऋषि भवन’ से पैदल चलते और ज्यादा से ज्यादा ‘गोस्वामी चौक’ दाऊजी के मंदिर या बहुत हुआ तो कोटगेट तक पैदल-पैदल हो आते....दशकों के बाद जब किसी विवाह समारोह के दौरान बीकानेर में पुनः होने का संयोग आया- मैंने इन्हें देखा- इस बार सिर्फ बाहर से नहीं- भीतर से भी।
बीकानेर रेलवे-स्टेशन से मुख्य धमनी जैसी जो एक सड़क शहर के दिल- ‘कोटगेट’ तक जाती है, वहीं शहर के परकोटे के भीतर अवस्थित था- शार्दूल स्कूल, जो शायद क्रमोन्नत हो कर कुछ और ऊंची क्लासों वाला स्कूल हो गया होगा- स्कूल से बाईं ओर मुड़िये तो ‘नए कुँए’ से ‘सिटी कोतवाली’ और वहीं से ‘दर्जियों की छोटी गुवाड’ की तरफ जाने पर रामपुरिया चौक में आपको दिख जाएँगी १८वीं सदी के उत्तरार्ध और १९वीं सदी के पूर्वार्ध में निर्मित ये अनूठी भवन संरचनाएं... हवेलियों तक पहुँचते 2 सड़क पर एक चढ़ाई सी आती है, मुझे स्मरण है, और संकरी सी सड़क के किनारे हरे फाटक और हरी काठ की खिडकियों वाली ये इमारत बीकानेर के उस्ताओं की बेजोड़ शिल्पकला से तार्रुफ़ करवाती जैसे किसी आश्चर्यलोक की तरह आसपास के बेहद मुफलिसी और गरीबी से भरे छोटे 2 घरों के ऐन पड़ौस में नज़र आ जाती है। ठीक वैसे- जैसे मुंबई के सिनेमा-नृत्यों में जैसे कोई सुदर्शना हीरोइन, सामान्य सी काली-कलूटी एक्स्ट्राओं के बीच नाच कर रही हो।
जब कला-सम्बन्धी थोड़ी बहुत पारिवारिक दिलचस्पी और गहरी हुई, पता लगा इन हवेलियों में हिन्दू, मुग़ल और विलायती-शिल्प और चित्रकला का ख़ूबसूरत समन्वय है। ‘घटपल्लव’, ‘कीर्तिमुख’, और ‘लहर-वल्लरी’ जैसे कई पारंपरिक हिन्दू शिल्प-रूप इन हवेलियों में अधिकांश मुस्लिम-शिल्पियों द्वारा दक्षतापूर्वक उत्कीर्ण किये गए हैं, वहीं भित्तिचित्रों की अंकन-शैली पर अंग्रेज़ी काल का ‘कम्पनी प्रभाव’ मुखर है! कुछ ऐसा प्रभाव, जो शेखावाटी-हवेलियों के देसज-भित्तिचित्रों में भी दिखता है।
बीकानेर में यों तो गोगा-गेट, ढढढ़ों का चौक आदि में डागा, मोहता और बच्छावत श्रीमंतों की बनवाई गयी दूसरी हवेलियाँ भी हैं, किन्तु शहर के एक प्रमुख श्रेष्ठी परिवार- ‘हीरालाल सौभाग्यमल रामपुरिया की हवेली’ सबसे कलापूर्ण और उल्लेखनीय हवेली है। मैं जब भी इस भवन के सामने से गुज़रा, इस हवेली की अपेक्षाकृत छोटी 2 कलात्मक खिड़कियों को हमेशा मैंने बंद ही देखा।
कहते हैं, हवेली के लिए लाल पत्थर बीकानेर के पास के गाँव ‘जामसर’ के करीब की खान ‘ढुलमेरा’ से सौ साल से भी ज्यादा पहले लाये गए थे। इस हवेली में घुसते ही चारों ओर बरामदे से घिरा एक आयताकार चौक या अहाता (आँगन) है, जहाँ चारों तरफ भित्तिचित्र बनाये गए हैं- कोई ३६ या उस से भी ज्यादा । आँगन, लाल पत्थर से बना है तो दीवारें चाइना टाइल्स से सज्जित। हवेली के दाहिने हिस्से में एक ‘अतिथि-कक्ष’ है । ‘प्लास्टर ऑफ़ पेरिस’ की छत.... बर्मा-टीक की नक्काशीदार कुर्सियां... ये कमरा भी बीकानेर लघुचित्र शैली के लगभग दर्जन भर चित्रों से सुसज्जित है। ऊपर की मंजिल पर जाने को अंग्रेज़ी शैली की सीढ़ियाँ....जिनकी इस्पाती रेलिंग बेहद कलापूर्ण है। दूसरी और तीसरी मंजिल की छत जर्मनी में निर्मित धातुओं से निर्मित है। तीसरी मंजिल पर बेल्जियम-कांच का काम ध्यानाकर्षक है- कांच की कुर्सियां, कांच की मेज़, और कांच का ही पलंग! यहाँ के ‘म्यूजियम-हॉल’ में ऐतिहासिक चित्र, मूर्तिशिल्प, कांच, हाथीदांत, चांदी और दूसरी धातुओं से निर्मित बहुत सारी चीज़ें प्रदर्शित की गयी हैं- खिलौने, क्रॉकरी, रेल का इंजन, तलवारें, चौपड़, पक्षी, बैलगाड़ी, कुप्पियाँ, बग्घी और सजावटी गुलदस्ते! सारी हवेली की दीवारों पर ‘आला-गीला’ की हिन्दुस्तानी चूना-तकनीक का ‘आराइश’ का स्निग्ध काम देखने लायक है! हवेली पर लाल-पत्थर के फूल यहाँ सदा खिले रहते हैं...गर्म हवाएं, धूल, धूप और बारिशें उनका बाल भी बांका न कर सकीं हैं! मुझे ठीक तरह पता नहीं, राजस्थान सरकार के पर्यटन महकमे ने ‘निजी संपदा’ होते हुए भी कला-हित में इन श्रेष्ठ हवेलियों के संरक्षण और प्रचार के लिए कुछ किया भी है या नहीं - पर मुझे ये सहज गर्व है कि मैं बचपन में कभी कुछ दिन इन्हीं कलापूर्ण-संरचनाओं का एक उत्सुक प्रशंसक पड़ौसी रहा! पर्यटन-उद्योग की हर बुराई के चलते भी, ये तो अच्छा हुआ इनमें से कुछ को अब ‘हेरिटेज’-होटलों में तब्दील किया जा चुका है और इनके बारे में दुनिया भर में प्रचार-प्रसार और इनकी सार-संभाल अब और बेहतर तौर-तरीकों से हो सकती है ।
वह अँधेरा अनाम पुस्तकालय
रामपुरिया मोहल्ले में श्वेताम्बर जैनियों का एक प्राचीन ‘उपासरा’ है। ‘भू-ऋषि भवन’ के ठीक सामने- जहाँ अधिकतर श्वेत-धवल वस्त्रों में नंगे पाँव, मुंह पर हरी-पट्टी बांधे कमंडल और चंवर लिए जैन साध्वियां अपने भक्तों के झुण्ड से घिरी आती-जाती दिखती थीं। वहां उपासरे में ही एक बेहतरीन वाचनालय और पुस्तकालय भी था। ऐसे अनेक मोहल्ले शहर में थे, जहाँ उनके अपने वाचनालय थे। बिना सदस्यता लिए कोई भी वहां जा कर किताबें पढ़ सकता था।
मुझे अपने बचपन में किताबें पढ़ने का चस्का उसी नि:शुल्क वाचनालय से लगा। खेलकूद में तब भी कोई खास दिलचस्पी न थी और दोस्तों की संख्या नगण्य, इसलिए उस ‘जैन-पुस्तकालय’ में जा कर किताबें पढ़ना तब एकमात्र शगल था।
ताज्जुब की बात है, उस लाइब्रेरी में अजीबोगरीब किताबों की भरमार थी। सब विषयों की किताबें थीं। सबसे पहले मैंने अपने अबोध बचपन- कहिये छुटपन में, रामायण, महाभारत या दूसरी कोई ढंग की, धार्मिक किताबें नहीं, सर आर्थर कानन डायल की जासूसी उपन्यासों और अपराध-कथाओं की सीरीज पढ़ी थी। किताबों का हिन्दी अनुवाद बेहतरीन था, और बेहद बुद्धिमान शरलक होम्स और उनके दोस्त डॉ. वाटसन के चरित्र मुझे बेहद रोचक मालूम देते, इसी तरह जासूस सैक्सटन ब्लैक और उसके सहयोगी टिंकर की खोजबीन भी मुझे हैरत में डाल देती।
दीन-दुनिया से बिलकुल बेखबर मैं घंटों किताबों की उस रोमांचक दुनिया का हिस्सा बना पुस्तकालय के नीम अँधेरे की ठंडक में अपना खाली वक़्त सिर्फ अपने सामने कहानियां या उपन्यास रखे गुज़ारा करता। नियमित रूप से वहां जाने और बैठने का एक फायदा यह हुआ कि पुस्तकालय-अध्यक्ष ने ये जान कर कि मैं सामने के घर में ही रहता हूँ, कुछ किताबें रजिस्टर में चढ़ा कर मुझे घर पर जा कर पढ़ने की सुविधा भी दे दी। पढ़ाकू किस्म के एक एकांतवासी मित्रविहीन बच्चे के लिए ये जैसे मुंहमाँगी मुराद थी। मेरे लेखक बनने के ‘संयोग’ में, साहित्य की अपनी सुदृढ़ पारिवारिक-पृष्ठभूमि के अलावा, बीकानेर के उस अनाम वाचनालय का हाथ भी कुछ कम नहीं।
भुजिये रसगुल्ले रबड़ी
बहरहाल, बीकानेर शहर की ख्याति जिन चीज़ों की वजह से अब ‘बहुराष्ट्रीय’ है, उनमें यहाँ के रसगुल्लों और भुजिये का हाथ भी कुछ कम नहीं। भुजियों के कई प्रकार हैं- और ज़्यादातर उन्हें मोठ से बनाये जाने की परम्परा रही है । सच क्या है- नहीं पता, लोग कहते हैं इन्हें स्वादिष्ट और सौंधा बनाने के लिए सीमित मात्रा में मुल्तानी मिट्टी भी मिलाई जाती है।
मैंने छोटू-मोटू जोशी और ‘हल्दीराम’ भुजिया वालों को, जो अब करोड़पति-अरबपति फर्में हैं, एक ज़माने में बेहद मामूली ढंग से स्टेशन रोड की छोटी 2 मामूली दुकानों में अपना व्यवसाय करते देखा है! गोस्वामी चौक से पुष्टिमार्गीय ‘दाऊजी-मंदिर’ से आगे हम तब दुकानों की जो कतारें देखते थे- उनमें बहुत सी दुकानें स्थानीय हलवाइयों की थीं, जिन में रखे चक्का जमे दही के बड़े-बड़े कूंडे और भट्टियों पर चढ़े गाढ़े दूध के काले-काले कढ़ाव दूर से पहचान में आ जाते थे। रसगुल्ले, केसर-बाटी, ‘खुर्माणी’, रबड़ी, माखनिया-लस्सी, ‘राबडिया’, भुजिया आदि-आदि की बेशुमार दुकानें स्टेशन रोड तक फ़ैली दिखतीं थीं। उनके कई ग्राहक तो नियमित और ‘बंधे-बंधाए’ थे। एक बार बातचीत में प्रकाश परिमल द्वारा मुझे बताया गया बीकानेर में रबड़ी की एक विलक्षण दुकान ऐसी भी थी, जिसका मालिक हर दिन रबड़ी बेचता था- तो अपने सिर्फ 25 या 30 उन्हीं दैनिक-ग्राहकों को, जो उसके यहाँ सालों से हर दिन बेनागा पहुँचते थे। उन सुनिश्चित ग्राहकों के अलावा (मुंहमांगा दाम देने पर भी) कोई और उस दुकानदार से रबड़ी खरीद नहीं सकता था- मुझे पता नहीं, खब्ती रबड़ी वाले कि वह प्राचीन दुकान अब भी है या नहीं, पर बीकानेर के लोगों की आदतों और उनकी झक्की ‘विलक्षणता’ को साबित करने को ये एक उदाहरण ही शायद पर्याप्त हो!
बीकानेर ने राजनीतिज्ञों को छोड़ कर जो अनेक स्मरणीय लोग अपने समय को दिए हैं, उनमें सिविल इंजीनियर स्व. कँवर सेन, सुप्रसिद्ध शूटर स्व. राजा करणीसिंह, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, और राजश्री, अर्थशास्त्रज्ञ विजयशंकर व्यास, शास्त्रीय गायक स्व. पंडित जगतनारायण गोस्वामी, कवि-लेखक-शोधकर्ता प्रकाश परिमल, चित्रकार- ऊँट की खाल से बने बर्तनों पर स्वर्णिम चित्रांकन करने वाले स्व.हिसामुद्दीन उस्ता, कार्टूनिस्ट पंकज गोस्वामी और स्व. सुधीर तैलंग, कथाकार स्व. यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, सम्पादक-कवि स्व. हरीश भादानी, हिन्दी आलोचक-कवि नन्दकिशोर आचार्य, कथाकार-पत्रकार अशोक आत्रेय, अनिरुद्ध उमट, कहानीकार भारत अशेष, शशिकांत, स्व. पूर्णेंदु, दरबार में रहे चित्रकार स्व. ए एच मूलर, स्व. आसारामजी, स्व. द्वारका प्रसाद शर्मा, आधुनिक शैली के चित्रकार स्व. रंजन गौतम, स्व. प्रेमचंद गोस्वामी, आर. बी. गौतम, सितारवादक स्व. पंडित जसकरण गोस्वामी, उनके दोनों प्रतिभाशाली पुत्र- अमित और असित, पत्रकार स्व. श्रीगोपाल पुरोहित और श्याम आचार्य...आदि आदि कई नाम हैं। मेरी याद में ऐसे अनगिनत चरित्र हैं- जो सिर्फ बीकानेर जैसे शहर ही में मुमकिन हो सकते थे! उदाहरण के लिए- हर शाम बेहतरीन मलमल के चुन्नटदार कुरता-धोती में नहा धो कर हमारी चौकी तक आते थे- पान की लाली से होंठ रचाए रिश्ते में बाबा- पुराने रियासती अफसर और शास्त्रीय संगीत-प्रेमी स्व. पंडित आशुकरण जी, सब-घरों की अन्तरंग खबरें रखने और उन्हें नि:शुल्क प्रचारित करने वाली ‘आंटो’ बुआ, हमेशा सफ़ेद साड़ी में रहतीं किसी स्कूल में पढ़ाने वाली ‘काकू’मौसी, अपने ध्वस्त होते घर को बुहारतीं कृशकाय उम्रशुदा मोटे चश्मे वाली नर्मदा मामीजी, तुलसी की कंठी और पुष्टिमार्गीय तिलक लगाये सदा बगलबंदी पहनने वाले मोटी तोंद के श्यामवर्ण ‘बूलाजी’, दुनिया भर का काठ-कबाड़ अपने तहखाने में इकठ्ठा करता उनका मानसिक रूप से विमंदित, पूर्णतया दिगंबर, छोटा भाई ‘मोतिया’, नियमित सुरा-सेवन से प्रायः लाल हुईं, अपनी मोटी-मोटी आँखों से ‘जग का मुजरा लेते’ अंग्रेजी और संस्कृत दोनों के उद्भट विद्वान प्रोफ़ेसर प्रिंसिपल कन्हैयालाल गोस्वामी, स्थूलकाय पुराने हिन्दी कहानीकार भगवानदत्त गोस्वामी और गोपीवल्लभ ’उपेक्षित’, बुक-बाइंडिंग की दुकान चलाते ‘देवकिया’ जी, जोधपुर में प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के संपादक देवी-उपासक, लाल गोल बिंदी लगाये हुए पान-प्रेमी लक्ष्मीनारायण जी....घर के सामने से रोज़ रोज़ निकलता था घसीटा रबड़ी-कुल्फी वाला, शरबत की रंग-बिरंगी बोतलें हाथ ठेले पर लादे ‘बर्फ के छत्ते’ बनाने वाला हमीरिया.... मंदिर के सामने तहखाने में भरी सब्जियां बेचती मालन मीरा, कहानी की कला के प्रति बहुत गंभीरता से उत्सुक अशोक आत्रेय के पक्के दोस्त लीलाधर स्वामी, जो बाद में जिला और सत्र न्यायाधीश भी बने.... और हाँ, बिलकुल चिपके हुए दाऊजी मन्दिर के पास नवगजा पीर की दरगाह के सामने ही तो रहती थीं- सुप्रसिद्ध मांड गायिका- अल्ला जुलाई बाई!.....नाम और लोग बेशुमार हैं, और यादें अनगिनत- कहाँ तक याद करूँ?
‘सिविल एन्ड मिलिट्री टेलर्स’ नाम की वह दर्जियों की दुकान थी- जो शायद रतन बिहारी मंदिर जी मंदिर के सामने की लाइन में हुआ करती थी, उसके मालिक मेरे दिवंगत पिता के मामा ‘भाटी महाराज’ के पुराने दोस्तनुमा शिष्य थे। अपनी साइकिल पर मुझे एक शाम वह ‘मिलिट्री टेलर्स’ ले गए, जहाँ अंगुश्ताना पहने खुद दुकान मालिक टेलर मास्टर साहब, अपनी मूंछों समेत कपड़ों की सिलाई के काम में अपने दो-तीन दूसरे सहयोगी दर्जियों के साथ तल्लीनता से मशगूल थे। (ये तथ्य तो मुझे बरसों बाद पता लगा- दूकान लेखक पूनम दइया के निकटतम परिवारजन की थी) हमारे वहां पहुँचते ही टेलर मास्टर साहब ने फ़ौरन हाथों तले दबा अधसिला कपड़ा एक तरफ रख दिया और खुद उस आठ-नौ साल के बच्चे की खातिरदारी में जुट गए, जो उनकी दुकान पर उनके गुरु-दोस्त की साइकिल पर आया था! चाय-वाय का रिवाज़ तब सन १९६१-६२ में उतना प्रचलित न था। उसके लिए फ़ौरन कहीं पास की दुकान से रसीले रसगुल्ले और मोठ के ताज़ा भुजिये मंगवाए गए, वह रसगुल्लों का आनन्द उठाता रहा और उक्त उल्लेखित दोनों गुरु-चेले देर तक दुनिया-जहान की बातों में डूबे रहे.... ‘सिविल एन्ड मिलिट्री टेलर्स’ के आसपास ही कहीं थी- डागा-बिल्डिंग, मुझे याद पड़ता है, हरीश भादानी का साहित्यिक मासिक ’वातायन’ तब वहां से शायद शुरू नहीं हुआ था, डागा-बिल्डिंग की पहली मंजिल पर टंगा इस पत्रिका का साइन बोर्ड मैंने १९६५ या १९६६ में पढ़ा था, जहाँ ‘वातायन’ के परंपरागत रूप से धनवान और उदार मालिक मंच के सुरीले गीतकार हरीश भदानी के दफ्तर में ‘’लोक-साहित्य’ की नौकरी करते आधुनिक-साहित्य के अध्येता प्रकाश परिमल, छगन मोहता, महावीर दाधीच, बिशन सिन्हा, रामदेव आचार्य, राजानंद, पूनम दैया, शुभू पटवा, सांवर दैया, और हरदर्शन सहगल जैसे कई वरिष्ठ और यशःप्रार्थी स्थानीय लेखक ‘गप्प-गोष्ठियों’ के लिए अक्सर आया-जाया करते थे। नंदकिशोर आचार्य तब बीकानेर की साहित्यिक राजनीति के केंद्र में न थे। (हो सकता है वह तब बस एक जिज्ञासु साहित्य-विद्यार्थी रहे हों!)
मैंने यहीं अपने बचपन में बीकानेर में शार्दूल स्कूल के परिसर में निर्मित शामियाने में जुड़ी एक सेमिनार में पहली बार ‘अज्ञेय’ जी जैसे बड़े लेखकों को देखा-सुना था और गोष्ठी की समाप्ति पर आठवीं क्लास के बच्चे की सी उत्सुकता से अपनी ‘ऑटोग्राफ पुस्तिका’ में उनके हस्ताक्षर लिए थे । युवा पंडित विद्यानिवास मिश्र, देवराज उपाध्याय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोग भी उसी संगोष्ठी में आये ज़रूर थे, पर सबसे प्रमुख और आकर्षक उपस्थिति प्रकटतः ‘अज्ञेय’ जी ही की थी। मुझे याद है – मेरे साथ ही अशोक आत्रेय ने भी अज्ञेय जी के भी हस्ताक्षर किसी कागज़ पर लिए थे, और ‘अज्ञेय’ जी ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ “अच्छा अपना ठाठ फकीरी मंगनी के सुख साज से, अच्छी कुंठा रहित इकाई सांचे ढले समाज से ....” बतौर ‘सन्देश’ उनके दिए कागज़ पर लिखी थीं! बीकानेर ने ही सन १९६३-६४ में हिंदी को यह कहानीकार दिया था- अशोक आत्रेय, जो तब धुआंधार रूप से कहानियां लिख रहे थे और भारत भर की तब की साहित्यिक पत्रिकाओं- नई कहानी, कहानी, विकल्प, ज्ञानोदय, माध्यम, सारिका, आवेश, बिन्दु, वातायन, लहर, कल्पना, उत्कर्ष, हस्ताक्षर, गल्प-भारती के अलावा कई लघु-पत्रिकाओं में सम्मान से छप चुके थे । डूंगर कॉलेज में अपनी आधी अधूरी बी एससी की पढाई में बिलकुल अरुचिशील, तब युवा लेखक के रूप में अशोक आत्रेय, निर्माणाधीन मणि मधुकर और (उस समय तक बिलकुल साहित्यकार नहीं)- नन्दकिशोर आचार्य से अधिक सक्रिय और मकबूल थे । हिन्दी साहित्य की फितरत अजीबोगरीब है, हमारी यह भाषा स्मृति-भ्रष्ट और इतिहासशून्य होने के अलावा नितांत राजनैतिक गुटबाजियों और साहित्यिक ‘गुंडागर्दी’ के चलते तथ्यों को भुला देने और तोड़-मरोड़ने या गलत ढंग से पेश करने वाले षड्यंत्रकारियों की पसंदीदा भाषा भी है। राजस्थान में अपनी ही तरह की कहानी लिखते वरिष्ठतर कहानीकार अशोक आत्रेय का हिंदी में, आधुनिक कहानी में राजस्थान के इतिहास से गायब कर दिए जाने का मामला कुछ ऐसा ही समझिये!
बीकानेर में गंभीर साहित्यिक संगोष्ठियों की जो परंपरा बनी थी, वह बरसों जारी रही । लोक साहित्य के विद्वान अगरचंद नाहटा जैसे लोग तब बीकानेर में थे तो छगन मोहता जैसे विलक्षण वक्ता, और कन्हैयालाल गोस्वामी जैसे अंग्रेजी-संस्कृत-दर्शन के असाधारण विद्वान भी! अगर सूची के रूप में नाम याद करिये तो न जाने कितने ही नए-पुराने भूले-बिसरे लोग उसमें शामिल होंगे ।
बात तब की है जब तब पूरे बीकानेर शहर को पैदल या साइकिल के सहारे आसानी से और बहुत जल्दी मापा जा सकता था। लोग अक्सर पैदल ही चला करते थे क्यों कि साइकिल जैसी महँगी सवारी हर एक के भाग्य में न बदी थी।
आंधियां : काली-पीली
बीकानेर के दिनों की स्मृति में जाते हुए शहर में आतीं कुछ खौफनाक काली-पीली आँधियों की याद मुझे आज भी है। ये आंधियां गाहे-ब-गाहे अक्सर क्षितिज के छोर से उठा करतीं और समूचे परिदृश्य को एक अजीब से पीले रंग में डुबो देतीं। ‘राजस्थान नहर’ तब पूरी नहीं हुई थी और बीकानेर का पश्चिमी हिस्सा रेत के ऊंचे ऊंचे पर्वताकार टीलों से भरा था। अब तो खैर नहर की वजह से उन ‘धोरों’ की जगह लहलहाते हरे-भरे खेतों ने ले ली है और ऐसी विकट आंधियां बस भूले हुए अतीत की बात हो कर रह गयी हैं, पर राजस्थान नहर के आने से पहले ऐसी आंधियां अक्सर इस छोटे से शहर को एक विलक्षण किरकिरे आतंक में लपेट लिया करती थीं! जब-जब काली-पीली आंधी का उद्दाम ज्वार चढ़ता, जिन्दगी का कामकाज कुछ वक्त के लिए जैसे थम सा जाता था और लोग और मवेशी अधिक निस्सहाय और दयनीय दिखते। दृष्टि-पथ मंद हो जाते और रेत की किरकिरी परतें चीज़ों पर छा जातीं ...बीकानेर से छूटती हर रेलगाड़ी में ‘ऑफिशियली’ १०-२० मजदूरों का एक रेलवे-दल गेंतियाँ फावड़े और परात आदि साथ ले कर इसलिए साथ चला करता था ताकि वह उतर कर रेल की पटरी पर बिछ गयी बालू के टीलों को उलीच कर पटरियां साफ़ करे और इंजन आगे बढ़ सके!
बचपन के दिनों की याद करते हुए मुझे बीकानेर के आसपास के भूगोल की स्मृति भी हो आती है...शिवबाडी, गजनेर, करणी माता, कोडमदेसर, कोलायत- जैसे सब ‘तीर्थों’ की यात्राओं की... और ये भी कि इन जगहों पर जाने के लिए असुविधाओं से भरी बस-यात्राओं के दौरान हमें दोनों ओर पेड़ अक्सर कम मिलते थे। देसी बबूल के रूंख, जंगली बेर, काचरी और कैर की झाड़ियाँ....खेजडी के ऐंठते हुए कलापूर्ण तने, उनके आकार, मटमैले धूसर में चमक जाता उनका हरापन और पेड़ों के एक दूसरे से न मिलते चेहरे देखना और देखते रहना ही सफ़र के दौरान मेरा मनोरंजक शगल था।
पानी की कमी के चलते सब्जियां कम उगाई जाती थीं और महंगी हुआ करतीं, इसलिए बीकानेर के घरों में ‘कैर-सांगरी’ जैसी तेल वाली सूखी सब्जियां खासी लोकप्रिय थीं। मैंने यहीं आकर पहली दफा 'पापड़ की सब्जी' 'भुजिया की सब्जी' और ‘आलू-काचरी के अचार’ का स्वाद चखा, पहली बार अपने एक इंजीनीयर भतीजे हर्षवर्धन की शादी में 'दाख-ग्वारपाठा' का बहुत जायकेदार 'साग' खाया और स्वाद पाया एक और नयी बेह्तरीन मिठाई - 'गोंद-गिरी-पाक' का!
बीकानेर से फलौदी वाया बाप
हम एक दफा बहुत धीरे चलने वाली हिचकोले खाती एक बस में बीकानेर से सड़क के रास्ते जोधपुर में ‘बाप’ नामक क़स्बे तक भी गए थे, 140 किलोमीटर का सफ़र कई घंटों में पूरा किया गया ....रेत के आकार बदलते टीलों के बीच बसे दूर-दूर छितराए गाँव और ढाणियां छोटे- पर चित्रोपम थे, घास-फूस की गोलाकार छतों वाली झोंपड़ियाँ और उनके चौक दिलचस्प...थार मरुस्थल होने के कारण बीकानेर में भी चूरू नागौर जैसलमेर बाड़मेर और जोधपुर जिलों ही की तरह हर गाँव-ढाणी में कुएँ का महत्व असाधारण है।
जहां कहीं कुआँ खोदने की सुविधा हुई अथवा पानी जमा होने लायक स्थान मिला, लोग बस गए। यही कारण है कि बीकानेर के अधिकांश स्थानों में नामों के साथ ‘सर’ शब्द जुड़ा हुआ मिलता है (जो शायद सरोवर जैसे शब्द का छोटा रूप हो) - कोडमदेसर, नौरंगदेसर, लूणकरणसर आदि जैसे पचासों नाम, नाम सुनते ही पता लग जाया करता कि इस स्थान पर कोई पुराना तालाब अथवा कुआं ज़रूर होगा। यहां के अधिकतर कुएं ३०० फुट या उससे भी गहरे हैं। असाधारण भूमिगत गहराई से आने की वजह से इनका जल बहुधा खनिजयुक्त और स्वास्थ्यकर होता आया है
मैंने पानी का महत्व ऐसी सुदूर सूखी जगहों पर जा कर ही जाना। जहाँ पानी को अहतियात से खर्च करने का हैरतंगेज़ कौशल यहाँ के निवासियों से सीखा जा सकता है । वे ‘देसी घी’ की तुलना में स्वाभाविक तौर पर पानी को अधिक मूल्यवान आंकते हैं, लोग जो जीवन के आधार; जल का उचित महत्व समझते हैं। इसी आशय की एकाध लोकोक्ति बहुत प्रसिद्ध है।
हमने इस खडखडाहट से भरी बस-यात्रा में बीकानेर से बाप और बाप से फलौदी तक (जो जोधपुर जिले में हैं), पानी की कमी को हर जगह महसूस किया, खेत सूखे थे, मुंडेरें बेज़ार, एक निपट, उजड़ी हुई अदृश्य उदासी हर चीज़ पर तारी थी- झाड़ियों पर, खपरैलों पर, भेड़-बकरियों पर, लोग और उनके मवेशी सिकुड़े-सिमटे, इंद्र के कोप से आहत नज़र आते थे तब के दिनों में रेत जैसे एक असमाप्त दृश्य था- उचाट निस्संग आकाश और बांझ पृथ्वी के बीच टंगा हुआ..लू भट्टी जैसी दहकती थी और आंधी किसी लताड़ की तरह पड़ती थी...बस की खिड़की से कुछ मटके पानी की तलाश में दूर-दूर तक पैदल चलती औरतें आसमान से बरसते हुए अंगारों के बीच मुझे जिंदा ताज्जुब जैसी दिखती थीं...दारुण दुःख और लाचारी के लहुलुहान अदृश्य रंग उनके चारों ओर उड़ते रहते थे....अकाल की विभीषिका ने पूरे इलाके की खेती-बाडी बिलकुल चौपट करते जन-जीवन की रंगतें छीन लीं थीं, पर समूचे पश्चिमी राजस्थान में कष्टपूर्ण और भयानक रेतीले भूगोल के बावजूद लोगों की जिजीविषा, उनका जीवट, उनकी जुझारू संघर्षशीलता सदा से अपराजित रही थी, वह तब भी थी और आज भी है। जीवन-संजीवनी के इस अज्ञात और विलक्षण रसायन ने आज तक मुझे अपने प्रान्त के निवासियों के प्रति गहरे सम्मान-भाव और ताज्जुब में डाले रखा है।
उदास पानी का रंग
कुछ गलियां बहुत संकरी हैं जैसे आसपास उगे मकान उनका दम भींचते हों।
जब भी गुज़रता हूँ- ‘दर्जियों की छोटी गुवाड’ में अजीब सी शक्ल-सूरत का एक देसी दर्जी उसके घर की खुली खिड़की से हमेशा मुझे अपनी सिलाई मशीन को पांवों से चलाते मिल जाता है । पुरानी एक कहानी में वह रस्ते से गुजरने वाले एक निरीह शांतिप्रिय हाथी की सूंड में बदमाशी से सुई चुभोता है और अगले ही दृश्य में उसी रस्ते से लौटता हुआ हाथी सूंड में कीचड़ भर कर दर्जी और उसके कपड़ों को गंदगी से तरबतर करता दिखता है। ‘रामपुरिया चौक’ से ‘चूनगर मोहल्ले’ की तरफ जाते उस दर्जी को अक्सर मैं ध्यान से देखता और ‘बदमाश दर्जी और बुद्धिमान हाथी’ की कहानी को याद करता रहता।
रास्ते भर हर चौक में गलियों के नुक्कड़ पर नलों पर सुबह-शाम पानी भरने वालों की भीड़ जमा रहती। पानी, बीकानेर में तब सिर्फ दो वक़्त निश्चित अवधि में सप्लाई किया जाता था और सार्वजनिक नलों-नलकों पर कलसों, गागरों, घड़ों, बर्तनों की कतारें लगतीं।
राजस्थान नहर का पानी तो लिफ्ट कैनाल की मेहरबानी से बीकानेर ने बहुत सालों बाद देखा और पिया। अपने संगीतज्ञ मामा, पंडित लक्ष्मण भट्ट तैलंग जैसा- शरीर से खूब सुदृढ़ और मुझ से बहुत लम्बा, मेरी ही उम्र का सुशील, मेरा कर्मठ चचेरा भाई- घर भर के लिए पानी लाने के महत्वपूर्ण काम के लिए अनौपचारिक तौर पर नामांकित था।
नलों में पानी आने से पहले बहुत देर तक उनके सूखे बम्बों में सूं सूं सूं सूं की तेज़ आवाजें होतीं। ये सनसनाती हुई हवा की आवाज़ थी- ऐसी आवाज़ जो पानी के लिए प्रतीक्षारत भीड़ के लिए राहत और इंतजार ख़त्म होने का संकेत होती। सुशील पानी से भरी चरियां कन्धों पर ढो कर एक के बाद एक फुर्ती से लाता और घर भर की टंकियां भरता। घर में भोजन बनने का काम सुशील के पानी ले आने के बाद ही शुरू होता, पर खाना बन जाने के बाद ‘ब्यालू’ – शाम का भोजन, बहुत देर से कोई भी नहीं करता था। सूर्यास्त के तत्काल बाद रसोईघरों में औरतों की खटर-पटर शुरू हो जाती और सोये हुए चूल्हों से आँखें जलाने वाला धुआँ उठने लगता।
बाल-विधवा होने की वजह से सादा, बस नीली कोर की मामूली सूती या खादी की साड़ी पहनतीं मेरे पिता की नानी स्व. मनसुखी देवी, जिन्हें लोग ‘गुसाईं चौक’ में सब लोग ‘लाधी-नानी’ कहा करते थे- चूल्हे पर भोजन पकाया करतीं। । अपने वक़्त में वह बीकानेर की पहली महिला-शिक्षकों में थीं वह- स्वाधीनता-संग्राम के दौरान क्रांतिकारी-दल के यशपाल और मन्मथनाथ गुप्त जैसे ‘गरम-दल के मुजरिमों’ को अंग्रेज़ी पुलिस से बचाने के लिए अपने घर में पनाह देने वाली! चूल्हे पर रोटियां सेंकने के अलावा वह बुरादे वाली अंगीठी भी जलातीं।
इलेक्ट्रौनिक ग्रिल इलेक्ट्रिक ओवन और एल पी जी की संस्कृति में पैदा पली-बढ़ी नौजवान पीढ़ी तो आज चिमनी, लालटेन और लकड़ी के चूल्हे का नाम तक शायद न जानती होगी, पर लोहे की बुरादे वाली अंगीठी को जलाने से पहले उसे ‘तैयार करना’ अपने आप में बड़े धीरज और अहतियात का काम होता था। लाधी नानी, पहले पुराना जला बुरादा हटातीं, सिगड़ी को सूखे कपड़े से साफ़ करतीं, और तब कूट-कूट कर सिगड़ी में बुरादे का नया महीन चूरा भरतीं। हवा आने-जाने के लिए लोहे का एक सिलेंडरनुमा बम्बा भी बुरादे के बीच ठुंसा रहता था, जो बुरादा पूरा पैक हो जाने के बाद अंत में होशियारीपूर्वक बाहर खींच लिया जाता। बुरादा भरभरा कर सिगड़ी ही को ‘चोक’ न कर दे ये ध्यान रखा जाना बहुत ज़रूरी था।
इसी तरह बिना तोड़े लालटेन का कांच साफ़ करना, उसकी कालिख पोंछना, सूती बत्ती को यथोचित ढंग से लगाना, घासलेट का तेल बिना ज़मीन पर गिराए लालटेन की कुप्पी भरना, और इस तरह, उसे बिजली जाने की दशा में इस्तेमाल के लिए तैयार रखना भी काफी करीने से किये जाने वाले पुराने दिनों के काम थे।
रबड़ी-बैंड
मुझे याद पड़ता है जब अपने एक चचेरे भाई प्रतीक की शादी में शामिल होने कई साल पूर्व जब गंगानगर से एक दफा फिर बीकानेर गया तो दूल्हे की घोडी के आगे खड़े बैंड के नाम को देख कर सर चकरा गया! बैंड का नाम था- “रबड़ी बैंड”....यकीनन नाम ज़ोरदार था- बिलकुल बीकानेर-लायक... बैंडमास्टर ने जो क्लेर्नेट हाथ में लिए हुए था, सबसे पहले मेरे पिता के विकट-संगीतज्ञ छोटे मामा, (जिन्हें सब लोग ‘ढुन्ढ महाराज’ के नाम से ही जानते थे और पंडित जगतनारायण गोस्वामी के नाम से कम), के पाँव लगभग साष्टांग प्रणाम करते छुए और ‘कुछ बजाने’ की आज्ञा प्राप्त की! सदा की तरह भंग की तरंग में रहने वाले परम मनमौजी मामाजी ने उस से सिर्फ वे फ़िल्मी गाने ही बजाने का आदेश सुना डाला, जो शास्त्रीय-संगीत पर आधारित हों!
किसी और शहर का बैंड मास्टर होता तो ऐसी अटपटी फरमाइश सुन कर ही बिना पारिश्रमिक लिए, मौके से भाग खड़ा होता, पर कमाल की बात ये देखिये कि पूरे रास्ते उस गुमनाम से “रबड़ी बैंड” ने बेहद सुरीले ढंग से मामा की आज्ञापालन में कुछ ऐसा बजाया, एक के बाद एक सिर्फ वे कर्णप्रिय फ़िल्मी गाने ही, जो शास्त्रीय-संगीत पर आधारित थे । मुझे बरसों से वह शास्त्रीय-किस्म का “रबड़ी बैंड” याद है! यह दिलचस्प रहस्योद्घाटन बाद में हुआ कि एक ज़माने में वह बैंड मास्टर कभी खुद ‘ढुन्ढ महाराज’ से संगीत की तालीम ले चुका उनका एक शिष्य था! चित्रकार सुशील गोस्वामी मुम्बई ने मुझे बतलाया वह क्लेर्नेट वादक खुर्शीद था। खेद, वह खुर्शीद इस दुनिया में नहीं, अल्लाह को अपना मधुर क्लेर्नेट-वादन सुनाने आसमान में पहुंच गया है!
आदमी और जानवर : एक अटूट सहअस्तित्व
एक और दृश्य है- इस शहर का । मैं इस दृश्य से खूब परिचित हूँ...मुहल्लों के गोधों ( सांडों) को देसी घी पिला-पिला कर बलिष्ठ और मदमस्त करने का, उन्हें दूसरे मोहल्ले के सांडों से लड़वाने और मोहल्ले भर की गायों को गर्भवती करवाने का। ऊंचे कंधे वाले बेहद ताकतवर भव्य सांडों का छोटी 2 गलियों में ऐठते हुए मस्तानी-मंथर चाल चलना, उनका घंटों एक जगह गर्व से खड़े रहना, निरीह सी सुन्दर गायों का भयंकर जोशो-खरोश से पीछा करना....मोहल्लेवार सांड पालना यहाँ प्रतिष्ठासूचक है और हरी घास या चारा ‘रजका’ हर दिन बिना नागा किये रोज़ आवारा गायों को परोसना-शहर की धर्म-परायण आबादी का दैनिक क्रम! साढ़े छः लाख से भी ज्यादा आबादी वाले शहर में आवारा गायें, गोधे और कुत्ते इफरात से हैं- और बेलगाम घूमते हैं! शहर के ऐन बीच से गुज़रते रेलवे इंजन के सामने अक्सर कोई गाय आ कर पटरी पर आसन जमाये मिल सकती है! गाय को लाइन से हटाने तक भारतीय रेल उसके सामने एक विनम्र भक्त की तरह सर झुकाए खड़ी हो जाती है। पूरी रात कुत्तों के आवारा झुण्ड गलियों में भोंकते हुए घूमते फिरते हैं। वे जगह-जगह ऊंघते, हर गली-मोहल्ले में मिल जाते हैं। जानवरों के प्रति लोगों का यह सहज-सद्भाव है- उनके सर्वव्याप्त होने से किसी को कोई गिला-शिकवा नहीं। वे आपको अपनी चिरंतन बेफिक्र मुद्रा में, आसपास के ट्रेफिक से बेज़ार, कोटगेट की व्यस्ततम सड़क पर भी दिखेंगे और सुदूर रिहाइशी इलाकों के एकांत में भी। यहाँ नगर-परिषद् भी बेबस और लाचार है- सारे कांजी-हाउस बीकानेर में बुरी तरह फेल हैं। किसी ने बीकानेर के बारे में ये भी बतलाया था– “ये वह शहर है जहाँ यहाँ आज भी जब कोई सड़क-छाप कुतिया तक पिल्ले जनती है तो गली मौहल्ले के उत्साही लड़के अपने पूरे मौहल्ले में घूम कर आटा, गुड़ व तेल इकट्ठा करते हैं और अपनी गली की कुतिया को खिलाने के लिए स्वादिष्ट हलवा बनाते हैं
आज भी शहर के ‘बड़ा बाजार’ सहित कईं स्थानों पर रात को लोग मोटी-मोटी रोटियाँ बनाते मिलेंगे- अपने लिए नहीं, बल्कि शहर भर के लावारिस जानवरों के लिए
यहॉ के पशु-पक्षी भी अपने दिलदार अन्नदाताओं की भाषा, उनके वाहनों के हौर्न की ध्वनि, उनके संकेत, गंध और पदचाप तक बखूबी पहचानते हैं । अगर कभी आपको इसका नजारा देखना हो तो लक्ष्मीनाथजी के मंदिर या ‘भैरव कुटिया’ की तरफ जाइए जहाँ किसी के स्कूटर के हार्न की आवाज सुन कर अनगिनत कौवे रोज़-रोज़ परोसे जाने वाली खाद्य-सामग्री के लिए इकट्ठे हो जाते हैं, तो कहीं किसी की एक ‘टिचकारी’ पर मंदिर के आसपास मंडराती गायें रोज़ एक जगह आ कर जम जाती हैं
कोई अपने साइकिल की घंटी से हर दिन कबूतरों को ज्वार चुगने बुला लिया या करता है तो कोई अपने पदचापों की आहट मात्र से रोटियां डालने की गरज से दुनिया भर के आवारा कुत्तों को इकट्ठा कर लेता है... और ये सब लोग, रोज़ रोज़ ऐसा बरसों से करते आ रहे हैं! ”
कुछ मकान बहुत छोटे हैं- लोगों से ठसाठस भरे हुए- कुछ बहुत बड़े। कुछ बड़े-बड़े मकान एकदम खाली हैं। एकाध पुराने नौकर को छोड़ कर उनमें अब कोई नहीं रहता। सेठ-साहूकारों के कुनबे अपना वतन और हवेलियाँ छोड़ कर कलकत्ता, गुवाहाटी, बंगलौर, मुंबई और मद्रास जैसे बड़े शहरों में बस गए हैं। होली-दिवाली भी वे लोग इस तरफ झांकते नहीं। पर जीवन-चक्र रुका नहीं है, उन सूने बड़े- बड़े घरों के दालानों और मुंडेरों पर सालों से कबूतर घोंसले बनाते और अंडे देते आये हैं। मैं आते जाते देखता था- कबूतरों को चुगाने के लिए ज्वार अक्सर हर घर में रखी जाती थी। बिजली के तारों पर भी असंख्य कबूतर बैठे रहते थे और उनकी बीटों से काली सड़क तक सफ़ेद नज़र आती थी।
वर्दी पर भारी धोती : सन पेंसठ की लडाई
१९६५ युद्ध के दौरान मैं बीकानेर में सेन्ट्रल स्कूल का विद्यार्थी था । हमारा स्कूल- शहर से कुछ दूर, उस सड़क पर था- जो अंततः शायद रतनगढ़ की तरफ जाती थी। साफ-सुथरे सजे-धजे मिलिट्री एरिया में- ‘बी एस ऍफ़’ के कैमल-कैम्प, और “नाल” हवाई अड्डे की ज़द में था हमारा एक-मंजिला बैरकनुमा स्कूल! हालाँकि वायुसेना के इस सामरिक हवाई अड्डे का काफी हिस्सा भूमिगत भी था, पर हवाई लड़ाकों की ‘सौर्टीज़’ उनके नियमित दैनिक-अभ्यास का हिस्सा थीं और हम लड़कों के कान, हर दिन उड़ते फौजी-विमानों की कानफोड़ सुपरसोनिक आवाजों के आदी।
अप्रेल १९६५ में जब एक दिन बीकानेर-छावनी में हलचलें एकाएक तेज़ हो गयीं, सड़कों पर हथियारबंद फौजियों, ट्रॉलियों पर लदी तोपों, बख्तरबंद-गाड़ियों और आकाश में लड़ाकू विमानों की कतारें नज़र आने लगीं, हमारे चारों ओर 'सामरिक-आमदरफ्त' जब एकाएक बेतहाशा बढ़ गयी, हमें पता लगा, पाकिस्तान ने भारत पर सैन्य-हमला किया है। इस दौरान जैसे बीकानेर का तो कायाकल्प ही हो गया था।
ये भयानक युद्ध सितम्बर १९६५ तक चला था ।
इन पांच महीनों में मुगलसराय के एक मामूली से दिखने वाले धोतीधारी आदमी ने सीने पर फौजी तमगे लटकाने वाले एक मगरूर फ़ौजी-जनरल को धूल चटा दी थी! लालबहादुर शास्त्री, अय्यूब खान का गुरुर तोड़ कर एक लौहपुरुष के रूप में उभरे थे।
चूँकि स्कूल बिलकुल मिलिट्री एरिया में था, हवाई हमलों का सर्वाधिक खतरा फ़ौजी छावनी को था... लिहाजा हमारे स्कूल में सबसे पहले हुआ- खाइयाँ खोदने का ज़रुरी काम। अंग्रेज़ी के ‘ज़ेड’ अक्षर की शक्ल की एक खंदक में तीन लोग पेट के बल लेट कर बमों के उड़ते हुए घातक छर्रों से अपनी जान बचा सकते थे। एल आकार की खाई दो लोगों के लिए! केन्द्रीय-विद्यालय का मैदान बहुत बड़ा था और कुछ ही दिनों में जहाँ फुटबॉल खेली जाती थे- वहां नागरिक-सुरक्षा के लिए खोदी गयीं खाइयाँ ही खाइयाँ नज़र आने लगीं।
आशंकाओं, अफवाहों, भय और चिंता के बावजूद बीकानेर शहर में व्याप्त थी- एकता, देशप्रेम, भाईचारे और राष्ट्रगौरव की अटूट लहर। पारंपरिक औरतों तक ने अपने स्वर्ण-मंगलसूत्र तक राष्ट्रीय-सुरक्षा कोष में डाल दिए थे...प्रधानमंत्री के आवाहन पर हजारों लोग सोमवार का व्रत रखने लगे थे, तब हर साधु को कमंडल में ट्रांसमीटर छुपा कर रखने वाला पाकिस्तानी जासूस मान लिया जाता था। अफवाहों का बाज़ार बेहद गर्म था और रेडियो के हर समाचार बुलेटिन पर पर शहर भर के हजारों कान लगे रहते थे। अजीब से दिन थे वे- ब्लैक-आउट और राजस्थान के पश्चिमी आकाश में होते धमाकों के!
बीकानेर में ही जन्मे और बड़े हुए एक हिंदी कहानीकार सुभाष दीपक की एक लम्बी कहानी “ भीड़” कई बरस बाद इधर जब पुनः पढ़ी तो सन १९६५ की भारत-पाकिस्तान लड़ाई के वे रोमांचक दिन मेरे मन में जैसे फिर ताज़ा हुए।
युद्धकाल में तो जैसे पूरा शहर ही एक हो गया था! बीकानेर में हिंदू और जैन धर्म को मानने वाले लोग की संख्या सबसे अधिक है।
हिंदुओं में वैष्णवों की संख्या अधिक है। जैन धर्म में श्वेताबर, दिगंबर और स्थानकवासी (ढूंढिया) आदि भेद हैं, जिनमें थानकवासियों की संख्या अधिक है। सिख और इस्लाम धर्म को मानने वाले भी ठीक ठाक संख्या में है, पर यहां ईसाई बौद्ध एवं पारसी धर्म के अनुयायी बहुत कम हैं। हिंदुओं में यहां बिश्नोई संप्रदाय भी है। ब्राह्मण, राजपूत, महाजन, चारण, कायस्थ, जाट, गूजर, वाल्मीकि, भाट, सुनार, दरोगा, दर्जी, लुहार, खाती, कुम्हार, तेली, माली, नाई, धोबी, अहीर, बैरागी, गोस्वामी, गिरिपुरी, स्वामी, डाकोत, कलाल, लेखरा, छींपा, सेवक, भगत, भड़भूंजा, रैगर, मोची, चमार आदि 2 जैसी कई जातियाँ हैं। खेती और मजदूरी करते आदिवासियों में मीणा, बावरी, थोरी आदि प्रमुख हैं तो मुसलमानों में संख्या सुन्नियों की अधिक है।मुसलमानों में राजपूतों के वंशज ‘कायमखानी’ मुसलमान हैं। उनके रिवाजों में धर्मांतरण से पूर्व के हिंदूरीति-रिवाजों के बीज ढूंढे जा सकते हैं।
मुसलमानों में शेख, सैयद, मुगल, पठान, कायमख़ानी, राठ, जोहिया, रंगरेज, चूनगर, भिश्ती और कुंजड़े आदि हैं, वहीं परीज़ादे और राढ मुसलमान मुख्यतया पशुपालन के काम में लगे हैं। यहां हिंदुओं के त्योहारों में शीतला-सप्तमी, अक्षय तृतीया, रक्षा बंधन, दशहरा, दिवाली और होली मुख्य हैं।
राजस्थान के अन्य क्षेत्रों की तरह गणगौर, दशहरा, नवरात्र, रामनवमी, शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी आदि पर्व भी मनाये जाते हैं पर यहां तीज का यहां विशेष महत्व है। गणगौर एवं तीज स्त्रियों के मुख्य त्योहार हैं। रक्षाबंधन विशेषकर पुष्करणा ब्राह्मणों का तथा दशहरा क्षत्रियों का त्योहार है। दशहरे के दिन बड़ी धूम-धाम के साथ ‘महाराजा की सवारी’ निकलती रही है। मुसलमानों के मुख्य त्योहार मुहर्रम, इदुलफितर, इदुलजुहा, शबेबरात, बारहवफ़ात आदि हैं। महावीर जयंती एवं पर्युषण पर्व जैनों द्वारा मनाया जाता है तो सिख देश के अन्य भागों की तरह वैशाखी, गुरु नानक जयंती तथा गुरु गोविंद जयंती उत्साह के साथ मनाते आये हैं
बीकानेर, अपने तीज-त्यौहारों के लिए भी प्रसिद्ध है। "बीकानेर स्थापना दिवस" के रूप में अक्षय तृतीया (आखा-तीज) का त्यौहार पतंगबाजी के दिन के रूप में मनाया जाता है, इतना ही रंगीन यहाँ त्यौहार का होली है और होली के कई दिन पहले ही यहाँ पूरे शहर में हर मोहल्ले में रम्मत, गेर आदि के रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । रम्मतों का रिहर्सल होली से कई कई दिन पहले से शुरू हो जाता है। नाथ सम्प्रदाय का अग्नि-नृत्य भी सच पूछें तो बड़ा रोमांचक है। अधिकांश लोगों की भाषा ‘मारवाड़ी’ है, जो अनेक स्थानीय भेदों सहित राजस्थान में बोली जाने वाली प्रमुख बोली है
यहां उसके प्रकार हैं- थली, बागड़ी तथा शेखावटी की कुछ बोलियाँ। बीकानेर का उत्तरी हिस्सा पंजाब से सम्बद्ध है- इसलिए उत्तरी भाग के लोग मारवाड़ी मिश्रित पंजाबी भी बोलते हैं। घसीट रुप में लिखी जाती लिपि नागरी है।
पर इस रंगारंग विविधता के बावजूद शहर के बारे में एक और उल्लेखनीय तथ्य इन सब की एकता और भाईचारा है- साम्प्रदायिकता के ज़हर ने लोगों के दिल यहाँ कभी विषाक्त नहीं किये
इतिहास-पुरुष बीकाजी :
बीकानेर का पुराना नाम "जांगळ प्रदेश ", तथा "विक्रमाखण्ड", "विक्रम नगर" या " विक्रमपुरी" था। इसके संस्थापक राव बीकाजी (1465-1504 ई.) के बारे में चलते चलाते कुछ जान लें।
बीकाजी का जन्म 5 अगस्त 1438 में जोधपुर में हुआ। इनके पिता राव जोधा व माता रानी नौरंगदे थी। बीकाजी की शादी करणी माता की उपस्थिति में पूगल के राव शेखा भाटी की पुत्री "रंगकंवर" के साथ हुई।
कहा जाता है- जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के पुत्र राव बीका ने अपने पिता से अलग हो कर अपने विश्वस्त 5 सरदारों के साथ नये राज्य की स्थापना हेतु जोधपुर से उत्तर पूर्व की ओर कूच किया और अपनी कुलदेवी ‘करणीमाता’ के वरदान से अनेक छोटे-बड़े स्थानों स्थानीय जाटों एवं कबीलों को जीत कर ‘जांगल’ नामक इस प्राचीन क्षेत्र में सन् 1456 में राठौड़ राजवंश की नींव रखी।
आसोज सुदी 10, संवत 1522, सन 1465 को बीकाजी ने जोधपुर से कूच किया तथा पहले मण्डोर पहुंचे! राव बीका ने दस वर्ष तक भाटियों का मुकाबला किया मगर विजय हासिल न देख संवत 1442 में वर्तमान बीकानेर आ गये! उन्हीं ने 1488 ई.में बीकानेर नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया
बीकाजी ने विक्रम संवत 1542 में वर्तमान लक्ष्मीनाथ मन्दिर के पास बीकानेर के प्रथम किले की नींव रखी जिसका प्रवेशोत्सव संवत 1545, वैशाख सुदी 2, शनिवार को मनाया गया! इस संबंध में एक लोक-दोहा बहुप्रचलित है -
‘पन्द्रह सौ पैंतालवे, सुद बैसाख सुमेर, थावर बीज थरपियो, बीका बीकानेर।।
राज्य का दूर-दूर तक विस्तार करने वाले राव बीका का निधन इतिहास की किताबों में आसोज सुदी 3 संवत 1561, सन् 1504 अंकित है!
बीकानेर की स्थापना के पीछे दो कहानियाँ सुनने में आती हैं
पहली तो यह कि, नापा साँखला ने, जो बीकाजी के मामा थे, जोधाजी से कहा –“आपने भले ही सांतळ जी को जोधपुर का उत्तराधिकारी बना दिया है, किंतु बीकाजी को कुछ सैनिक और सारुँडे का पट्टा दे दीजिये
वह वीर तथा भाग्य का धनी है, अपने बूते खुद अपना राज्य स्थापित कर लेगा
’जोधाजी ने नापा की सलाह मान ली और 500 सैनिकों की टुकड़ी सहित सारुँडे का पट्टा नापाजी को दे दिया
बीकाजी ने यह फैसला राजी खुशी मान लिया
उस समय कांधल जी, रूपा जी, मांडल जी, नत्थू जी और नन्दा जी- ये पाँच सरदार (जो राव जोधा के सगे भाई थे) के अलावा नापा साँखला, बेला पडिहार, लाला लखन सिंह बैद, चौथमल कोठारी, नाहर सिंह बच्छावत, विक्रम सिंह पुरोहित, सालूजी राठी आदि लोगों ने बीकाजी का साथ दिया। इन सब सरदारों के साथ बीकाजी ने बीकानेर की स्थापना की। सालू जी राठी जोधपुर के ओसिंयां गाँव के निवासी थे।वे अपने साथ अपने आराध्यदेव मरूनायक या मूलनायक की मूर्ति भी साथ लाये थे जिसके सम्मान में आज भी उनके वंशज ‘साले की होली’ मोहल्ले में होलिका-दहन करते है। साले का असल अर्थ बहन के भाई के रूप में न होकर सालू जी के अपभ्रंश के रूप में लिया जाना चाहिए।
बीकानेर की स्थापना के पीछे दूसरी एक लोकप्रिय जनश्रुति ये है कि एक दिन जोधपुर नरेश राव जोधा दरबार में बैठे थे तो बीकाजी कुछ देर से आये तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांथल से कानाफूसी करने लगे। यह देख कर राव जोधा ने व्यंग्य में कहा “मालूम होता है कि दोनों चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य की स्थापना की योजना बना रहे हैं।
“इस पर बीका और कांथल ने कहा कि यदि आप की कृपा हुई तो ऐसा ही होगा” और ये कहने के साथ ही साथ चाचा– भतीजा दोनों राजदरबार से उठ के चले आये। इन्हीं दोनों ने मिल कर नए बीकानेर राज्य की स्थापना की।
इस प्रकार एक ताने की प्रतिक्रिया से बीकानेर की स्थापना हुई। वैसे ये क्षेत्र तब भी निर्जन नहीं था इस क्षेत्र में जाटों की बसावट के कई 2 गाँव थे।
बहरहाल, पांच दरवाजों (कोट-गेट, जस्सूसर गेट, नत्थूसर गेट, गोगा गेट और शीतला गेट) दरवाज़ों के साथ पुराना बीकानेर शहर चारों तरफ ऊंची सी दीवार ‘परकोटा’ से घिरा है! 'गोगा गेट' जिसे पहले 'दिल्ली का दरवाजा 'कहते थे, की स्थापना 12 अगस्त 1738 को हुई! जस्सूसर गेट को पहले " यशवंत सागर दरवाजा" कहते थे ( पुरातत्व विभाग में इसका उल्लेख " जसवंत गेट" के नाम से मिलता है!) नत्थूसर गेट का नाम पहले "गणेश दरवाजा" था! शहर के इस परकोटे में 6 बारियाँ (छोटे दरवाजे) भी हैं- (1) ईदगाह बारी (जिसे वर्तमान में "धर्मनगर द्वार " कहते हैं, (2) बेणीसर बारी, (3) पाबू बारी, (4) कसाई बारी, (5) हमालों की बारी तथा (6) पाबू बारी!
राजा रायसिंह
यहां के छठे शासक राजा रायसिंह, जो अकबर के एक सेनापति थे, ने सन 1593 में बीकानेर में ‘जूनागढ़’ किले का निर्माण करवाया था। जूनागढ़ संवत 1645 में बनना शुरू हुआ और संवत 1650 में बन कर तैयार हुआ, महाराजा रायसिंह ने इसके निर्माण का जिम्मा महाराजा ने अपने दीवान करमचन्द बच्छावत को सौंपा था! जूनागढ़ किले की परिधि 1078 गज है! परकोटे की दीवारें 14.5 फुट चौड़ी तथा 40 फुट ऊंची हैं! इस किले का निर्माण लाल-बलुए पत्थर और संगमरमर दोनों के योग से हुआ है। किले में कई मनमोहक महल हैं- जो चन्द्रमहल, अनूप-महल, गंगा-निवास, कर्ण-महल, रंग-महल, डूंगर-निवास और गज-मंदिर कहे जाते हैं।
जूनागढ़ किले को भीषण लड़ाइयों के दौर में भी कभी जीता नहीं जा सका था।
क़िले के चारों ओर लगभग एक किलोमीटर परिधि की लंबी दीवार है, इसके चारों तरफ मानवनिर्मित कृत्रिम खाई है, जो पुराने राजमहलों के सुरक्षा-उपायों का एक अनिवार्य हिस्सा थी। इस के साथ गढ़ में 37 बुर्ज (सुरक्षा-चौकियाँ) भी हैं, जिन पर पहले के ज़मानों में तोपें रखी जाती थीं! किले में प्रवेश करते ही गणेश का मंदिर है- जिन्हें यहाँ ‘गढ़-गणेश’ के नाम से भी जाना जाता है। किले परिसर में ही एक और मंदिर ‘हरमंदिर’ का निर्माण तत्कालीन शाही परिवार की निजी पूजा-अर्चना के लिए करवाया गया था।
अनूपसिंह
बीकानेर-इतिहास की चर्चा करते कुछ और नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें अनूपसिंह का योगदान बहुत स्मरणीय है।
1669 ई. में बीकानेर का शासन संभालने वाले अनूपसिंह (१६६९-९८ ई.) की दक्षिण में मराठों के विरूद्व की गई कार्यवाहियों से प्रसन्न हो कर औरंगजेब ने इन्हें ‘महाराजा‘ एवं ‘माही मरातिब’ का खिताब देकर सम्मानित किया था और औरंगाबाद का सूबेदार नियत किया था
अनूपसिंह वीर, कूटनीतिज्ञ और विद्यानुरागी शासक होने के साथ-साथ खुद संगीतज्ञ और बड़े पुस्तक-प्रेमी थे। उन्होंने 'अनूप-विवेक', 'काम-प्रबोध', 'श्राद्धप्रयोग-चिन्तामणि’ पुस्तकों की रचना की वहीं जयदेव के 'गीतगोविन्द' पर ‘अनूपोदय’ टीका भी लिखी थी
दक्षिण में रहते हुए उन्होंने अनेक भारतीय पांडुलिपियों और ग्रंथों को नष्ट होने से बचाया और उन्हें बाकायदा खरीदकर अपने पुस्तकालय के लिए ले बीकानेर ले आए। यहाँ आ कर अपने संगीत-प्रेम के चलते महाराणा कुम्भा के लिखे संगीत-ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाने का काम भी उन्होंने अपनी व्यक्तिगत देखरेख में करवाया। औरंगाबाद (दक्षिण) में रहते हुए उन्होंने अनेक प्राचीन मूर्तियों का संग्रह किया और उन्हें नष्ट होने से बचाया। मूर्तियों का उनका यह आंशिक संग्रह बीकानेर के ‘‘तैतीस करोड़ देवताओं के मंदिर’’ में सुरक्षित है। उन के राज्य में पंडित भाव भट्ट जैसे संगीतज्ञ और महापुरा (जयपुर) से लाये गए शिवानन्द गोस्वामी जैसे उद्भट तांत्रिक आश्रय पाते थे।
महाराजा अनूप सिंह द्वारा अपने राजगुरु महाराज शिवानन्द गोस्वामी को दो गांवों – ‘पूलासर’ और ‘चिलकोई’ की जागीरें भेंट की गई थीं। बाद में राजपरिवार ने शिवानंदजी के वंशजों को और कई गाँव भेंट किये। (इन पंक्तियों का यह मामूली लेखक उन्हीं परम-प्रतापी सत्रहवी शताब्दी के तैलंग ब्राह्मण, दार्शनिक-कवि, तंत्र-चूड़ामणि शिवानन्द गोस्वामी (सं. १७१०-१७९७) का अधकचरा और अज्ञानी वंशज है।)
अनूपसिंह के शासन काल में तत्कालीन लघु-चित्रकारों ने एक मौलिक, किंतु स्थानीय रंग की परिमार्जित चित्रशैली ‘बीकानेर कलम’ को जन्म दिया
अनूपसिंह द्वारा अपने संकलन की पांडुलिपियों और निजी पुस्तकालय की पुस्तकों से आरम्भ किया गया लालगढ़ महल (पैलेस), में अवस्थित एक पुस्तक-केंद्र आज भी है, जिसमें अनेकानेक ग्रंथों और पुरानी पांडुलिपियों का व्यवस्थित संकलन है
गंगा सिंह : एक असाधारण राजा
बात बीकानेर की हो और जनरल सर गंगासिंह को याद न किया जाए तो कोई भी वृत्तान्त आधा-अधूरा ही कहा जाएगा। सन १८८८ से १९४३ तक बीकानेर राज्य के आधुनिक सुधारवादी और दूरदर्शी शासक महाराजा गंगासिंह, पहले महायुद्ध के दौरान ‘ब्रिटिश इम्पीरियल वार केबिनेट’ के अकेले गैर-अँगरेज़ सदस्य थे । ३ अक्तूबर १८८० को बीकानेर के महाराजा लालसिंह की तीसरी संतान के रूप में जन्मे गंगासिंह, डूंगर सिंह के छोटे भाई थे, जो बड़े भाई के देहांत के बाद १८८७ ईस्वी में १६ दिसम्बर को बीकानेर-नरेश बने।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा पहले घर ही में, फिर बाद में अजमेर के मेयो कॉलेज में १८८९ से १८९४ के बीच हुई। ठाकुर लालसिंह के मार्गदर्शन में १८९५ से १८९८ के बीच इन्हें प्रशासनिक प्रशिक्षण मिला। १८९८ में गंगा सिंह फ़ौजी-प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए देवली रेजिमेंट भेजे गए जो तब ले. कर्नल बैल के अधीन देश की सर्वोत्तम मिलिट्री प्रशिक्षण रेजिमेंट मानी जाती थी ।
पहले विश्वयुद्ध में गंगा सिंह ने ‘बीकानेर कैमल कार्प्स’ के प्रधान के रूप में फिलिस्तीन, मिश्र और फ़्रांस के युद्धों में सक्रिय हिस्सा लिया । १९०२ में ये प्रिंस ऑफ़ वेल्स के और १९१० में किंग जॉर्ज पंचम के ए डी सी रहे।
महायुद्ध-समाप्ति के बाद बीकानेर रियासत में लौट कर उन्होंने प्रशासनिक सुधारों और विकास की गंगा बहाने के लिए जो-जो काम किये वे किसी भी लिहाज़ से साधारण नहीं कहे जा सकते। १९१३ में उन्होंने एक चुनी हुई जन-प्रतिनिधि सभा का गठन किया, १९२२ में एक मुख्य न्यायाधीश के अधीन अन्य दो न्यायाधीशों का एक उच्च-न्यायालय स्थापित किया और बीकानेर को न्यायिक-सेवा के क्षेत्र में अपनी ऐसी पहल से देश की पहली रियासत बनाया। अपनी सरकार के कर्मचारियों के लिए उन्होंने ‘एंडोमेंट एश्योरेंस स्कीम’ और जीवन-बीमा योजना लागू की, निजी बेंकों की सेवाएं आम नागरिकों को भी मुहैय्या करवाईं, और पूरे राज्य में बाल-विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट कड़ाई से लागू किया! १९१८ में इन्हें पहली बार 19 तोपों की सलामी दी गयी, वहीं १९२१ में दो साल बाद इन्हें अंग्रेज़ी शासन द्वारा स्थाई तौर 19 तोपों की सलामी योग्य शासक माना गया। १९७ में ये ‘सेन्ट्रल रिक्रूटिंग बोर्ड ऑफ़ इण्डिया’ के सदस्य नामांकित हुए और इसी वर्ष उन्होंने ‘इम्पीरियल वार कांफ्रेंस’ में, १९१९ में ‘पेरिस शांति सम्मलेन’ में और ‘इम्पीरियल वार केबिनेट’ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। १९२० से १९२६ के बीच गंगा सिंह ‘इन्डियन चेंबर ऑफ़ प्रिन्सेज़’ के चांसलर बनाये गए। इस बीच १९२४ में ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ के पांचवें अधिवेशन में भी इन्होंने भारतीय प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिया। ये ‘श्री भारत-धर्म महामंडल’ और बनारस हिन्दू विश्वद्यालय के संरक्षक, ‘रॉयल कोलोनियल इंस्टीट्यूट’ और ‘ईस्ट इण्डिया एसोसियेशन’ के उपाध्यक्ष, ‘इन्डियन आर्मी टेम्परेन्स एसोसियेशन’ ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ लन्दन की ‘इन्डियन सोसाइटी’ ‘इन्डियन जिमखाना’ मेयो कॉलेज अजमेर की जनरल कांसिल, ‘इन्डियन सोसाइटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट’ जैसी संस्थाओं के सदस्य और, ‘इन्डियन रेड-क्रॉस के पहले सदस्य थे।
पर सबसे क्रांतिकारी और दूरदृष्टिवान काम जो इनके द्वारा अपने राज्य के लिए किया गया वह था- पंजाब का पानी ‘गंग-केनाल’ के ज़रिये बीकानेर तक लाना और नहरी सिंचित-क्षेत्र में किसानों को बसने के लिए मुफ्त ज़मीनें देना।
उन्होंने १८९९-१९०० के बीच पड़े कुख्यात ‘छप्पनिया काल’ की ह्रदय-विदारक विभीषिका देखी थी, और अपनी रियासत के लिए पानी का इंतजाम एक स्थाई समाधान के रूप में करने का संकल्प लिया था।
श्री गंगानगर शहर के विकास को भी उन्होंने प्राथमिकता दी और बीकानेर में अपने पिता के नाम से ‘लालगढ़’ पैलेस बनवाया। रेलवे के विकास और बिजली लाने की दिशा में भी ये बहुत सक्रिय रहे। जेल और भूमि-सुधारों की दिशा में इन्होंने नए कायदे कानून लागू करवाए, नगरपालिकाओं के स्वायत्त शासन सम्बन्धी चुनावों की प्रक्रिया शुरू की, और राजसी सलाह-मशविरे के लिए एक मंत्रिमंडल का गठन भी किया। १९३३ में लोक देवता रामदेवजी की समाधि पर एक पक्के मंदिर के निर्माण का श्रेय भी इन्हें है!
इन सब चीज़ों के बावजूद कुछ लोग उन्हें “एक निहायत अलोकतांत्रिक, घोर सुधार-विरोधी, शिक्षा-आंदोलनों को कुचलने वाले, अप्रतिम जातिवादी, जनता पर तरह-तरह के ढेरों टेक्स लगाने वाले अंगरेज़ परस्त और बीकानेर राज्य से आर्य समाज और प्रजा परिषद् के सदस्यों को देश निकाला देने वाले गंगासिंह” के रूप में भी याद करते हैं । उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी कुछ लोमहर्षक कहानियां आज भी लोगों को याद हैं!
इनका पहला विवाह प्रतापगढ़ राज्य की बेटी वल्लभ कुंवर से १८९७ में और दूसरा विवाह बीकमकोर की राजकन्या भटियानी जी से हुआ जिनसे इनके दो पुत्रियाँ और चार पुत्र हुए। सन १८८० से १९४३ तक इन्हें 14 से भी ज्यादा कई महत्वपूर्ण सैन्य-सम्मानों के अलावा सन १९०० में ‘केसरेहिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
2 फरवरी १९४३ को बंबई में ६२ साल की उम्र में आधुनिक बीकानेर के निर्माता जनरल गंगासिंह का निधन हुआ।
बीकानेर रेल-संग्रहालय
पश्चिमी-क्षितिज को लाल केसरिया-नारंगी रंग से पोतता हुआ चिलचिलाता सूरज एक क्लांत पेन्टर है जो दिन भर शहर को तपा देने के बाद आखिरकार निस्तेज पड़ता है...शाम घिरती है कि घर के घोंसलों की तरफ लौटना शुरू होता है-परिंदों...कामगारों...मजदूरों...दफ्तरी-लोगों...स्कूल के लड़के-लड़कियों का! आसपास के कस्बों से शहर में दहाड़ी कमाने आते लोग अपने तुड़े-मुड़े मासिक रेलवे पास को जेबों में सहेजते-टटोलते लम्बी-लम्बी रेलों में ‘अनारक्षित’ डिब्बों को खोजते हुए प्लेटफॉर्म पर दौड़ते-भागते नज़र आने लगते हैं..... मुझे पता नहीं, बीकानेर के कितने निवासियों ने स्टेशन के पास ही २०१२ में खोला गया ‘बीकाणा हेरिटेज रेल म्यूजियम’ देखा है। ये आप से २०० साल पुरानी कथाएँ कहता है- कुछ ऐसी चीजें यहाँ प्रदर्शित हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।
यहाँ एक तैलचित्र भी प्रदर्शित है- जिसका शीर्षक है ‘जनाना स्टेशन-बीकानेर’ जो बतलाता है, बीकानेर जंक्शन सन १९२० में एक ‘लेडीज़ स्टेशन’ था। रियासत काल में इंग्लेंड, अमरीका और दूसरे देशों से आयातित करीब ३५० रेल-वस्तुओं का ये संग्रहालय ‘बीकानेर-जोधपुर स्टेट रेलवे’ के विकास की कहानी सुनाता है।
सन १८८९ की इंग्लेंड में निर्मित एक क्रेन देखने लायक है- जिसकी मदद से भाप के इंजनों में कोयले भरे जाते थे। इसी तरह १९४० में बना एक ‘क्रू-रेस्ट वान’ पुराने हेंडपम्प, पानी ऊँचा उठाने के लिए पम्प, ड्रिल मशीन, ग्राउंड-लाइट फिटिंग्स, वजन तोलने की मशीन, टेलीकम्युनिकेशन संयंत्र, टूलबाक्स, और हाथ से सिग्नल देने के प्राचीन उपकरण प्रदर्शित हैं।
व्यंग्य की कला : एक परंपरा
बीकानेर के साहित्य परिदृश्य पर कुछ लिखूं उस से पहले कुछ सूचनात्मक जानकारी यहाँ के गोस्वामी चौक के व्यंग्यकारों के बारे में भी! व्यंग्यचित्र-कला को विस्तार देने में बीकानेर में अकेले तैलंग समाज के कुछ व्यंग्य चित्रकारों का हिंदी की व्यंग्यचित्र कला के विकास में अनूठा योगदान रहा है
एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में पचासों कार्टूनिस्ट एक साथ सक्रिय हों, ये बात सुनने में अजीब तो है पर सच है
अकेले बीकानेर शहर के 'गोस्वामी चौक' ने हिन्दी पत्रकारिता को शताधिक व्यंग्यकार दिए हैं जिनके व्यंग्यचित्र अक्सर समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों का ध्यानाकर्षित करते आ रहे हैं। कार्टून के क्षेत्र में (पद्मश्री) स्व. सुधीर तैलंग, पंकज गोस्वामी, सुधीर गोस्वामी ‘इन्जी’, सुशील गोस्वामी, शंकर रामचन्द्र राव तैलंग, संकेत, अनूप गोस्वामी आदि अनेकानेक कलाकार रहे हैं-जिन्होंने न केवल इस कला को परवान चढ़ाया अपितु, अपनी लगन से वैयक्तिक लोकप्रियता भी अर्जित की। हिंदी क्रिकेट कमेंटेटर प्रभात गोस्वामी तक के कार्टून्स विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। आज भी राहुल गोस्वामी, अवनीश, अलंकार जैसे अनेक युवा व किशोर कलाकार लगभग अविज्ञप्त रह कर बतौर अभिरुचि व्यंग्यचित्र के मैदान में तूलिका चला रहे हैं
एक समय वह भी था जब संभवतः कार्टूनिस्ट पंकज गोस्वामी के प्रभाव और प्रेरणा से व्यंग्यचित्र कला को ले कर बीकानेर के प्रसिद्ध गोस्वामी चौक में एक तूफानी उत्साह का दौर आ गया था, जब वहां का हर दूसरा तीसरा युवा व्यंग्यचित्र बनाता और छपवाता रहा था। इसी बात से प्रभावित हो कर एक प्रसारक- विनोद दुआ ने बीकानेर के गोस्वामी चौक में बनाए जा रहे कार्टूनों और उनके कलाकारों पर केन्द्रित एक वृत्तचित्र का निर्माण किया था- जिसका प्रसारण दूरदर्शन पर हुआ था। व्यंग्य चित्रकारों में सबसे ज्यादा जिस कलाकर्मी से लोग परिचित हैं वे थे सुधीर!
वर्ष 2004 में भारत सरकार से ‘पद्मश्री’ सम्मानप्राप्त चित्रकार सुधीर तैलंग का जन्म 1960 में बीकानेर के ‘गोस्वामी चौक’ में हुआ था, कौलेजी शिक्षा-दीक्षा भी यहीं हुई- राजकीय डूंगर कॉलेज से उन्होंने पहले बी एससी एवं बाद में अंग्रेजी साहित्य में एम ए किया।
पंकज गोस्वामी चौक के बड़े ‘संक्रामक किस्म’ के कार्टूनिस्ट हैं। अपनी किशोरावस्था में उनसे प्रेरणा ले कर सुधीर ने ‘राजस्थान पत्रिका’ जैसे अखबार में थोड़े से समय उन्होंने व्यंग्यचित्र बनाये पर जल्दी ही वे दिल्ली चले गए।
उन्होंने ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’,’ इंडियन एक्सप्रेस’ एवं ‘एशियन एज’ में बतौर कार्टूनिस्ट नौकरी की या इन में नियमित व्यंग्य-चित्र बनाये । अपने कार्टून की बदौलत उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में जनसमस्याओं को प्रमुखता से उठाया।
दिल्ली में ऑटो चालकों की समस्याओं को अपने कार्टून के माध्यम से लोगों के सामने रखना चर्चा का विषय रहा था
तैलंग के चचेरे भाई प्रतिभाशाली सरोद-वादक और उर्दू-अदब-प्रेमी मेरे मित्र अमित गोस्वामी के अनुसार बीकानेर से दिल्ली सीधी रेल सेवा में योगदान के लिए भी सुधीर तैलंग को याद किया जाएगा।
हुआ यों था कि तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी के समय उन्होंने दिल्ली के प्रमुख स्थानों पर कुछ ऐसे हॉर्डिंग्स लगवाए थे, जिसमें उकेरे गए कार्टून में उन्होंने दिल्ली से बीकानेर के लिए काफी समय से बंद पड़ी सीधी रेल सेवा नहीं होने की पीड़़ा को कई चुटीले व्यंग्यचित्रों के ज़रिये दर्शाया था। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बनाए कार्टूनों की शृंखला पुस्तक “नो प्राइम मिनिस्टर” भी लांच की। इसके बाद ही शायद रेल-मंत्रालय को शर्म आयी होगी और एक साल में रेल बजट में दिल्ली से बीकानेर के लिए सीधी रेल सेवा की घोषणा कर दी गयी। लोग बतलाते थे- भले ही वे दिल्ली निवासी हो गए हों, लेकिन उनकी धड़कनें बीकानेर की नब्ज़ जानने को धड़कती रहीं।
कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग से जब भी कोई ‘बीकानेरी’ मिलता तो उनका एक ही सवाल होता, क्या हैं बीकानेर के हालचाल ? अंतिम दिनों में उन्होंने अपनी बातचीत में किसी से कहा भी था कि वे जब अगली बार बीकानेर आएंगे तो बीकानेर की गलियों और चौक में लगे ‘पाटों’ की संस्कृति को एक बार फिर देखना चाहेंगे। ब्रेन-ट्यूमर की बीमारी से गत साल दिवंगत सुधीर तैलंग का दुबारा बीकानेर आना अब कभी संभव न होगा।
श्रीगोपाल पुरोहित : सांस्कृतिक-अखबारनवीसी के कीर्तिस्तंभ
श्रीगोपाल जी को सबसे पहले मैंने ‘राजस्थान पत्रिका’ के दफ्तर में देखा था । बात शायद सत्तर के दशक की ही रही होगी, मैं बस एक स्कूली विद्यार्थी था और ‘राजस्थान पत्रिका’ का नियमित पाठक। तब भी मेरी बहुत गहरी रुचि चित्रकला में थी और विश्व के कला-इतिहास को विधिवत जानने-पढ़ने के लिए मुझे जो जगहें जयपुर में सब से उपयुक्त नजर आती थीं- वे बस तीन थीं- बापूनगर में राजस्थान यूनिवर्सिटी की बहुत समृद्ध लाइब्रेरी, हिन्द होटल के सामने त्रिपोलिया दरवाज़े पर बना चौड़े रास्ते का रियासतकालिक सार्वजनिक पुस्तकालय और रामनिवास बाग़ में रवींद्र मंच पर स्थित राजस्थान ललित कला अकादमी का उनका कला-पुस्तकों का संग्रह! उन दिनों मेरी प्रायः हर शाम इन्हीं जगहों में कला-संबंधी नयी-पुरानी किताबें टटोलते गुज़रा करती।
विश्व-कला पर कुछ सैद्धांतिक और बुनियादी बातें ठीक तरह पढ़ चुकने और विश्व-कला के श्रेष्ठतर नमूने किताबों में देखने के बाद मुझे राजस्थान पत्रिका में बतौर एक किशोर पाठक, सबसे पहले जिन स्तंभों की सामग्री में सबसे ज्यादा दिलचस्पी पैदा हुई थी- वे थे “रंगनाथ” “रंगश्री” या “तूलिका” या “ कलाश्री ” के नाम से छपती कला-समीक्षाओं में और नंदकिशोर पारीक द्वारा अपने छद्मनाम “नागरिक” के नाम से लिखे जाते ‘नगर-परिक्रमा’ स्तम्भ में।
‘कलाश्री’ और कोई नहीं, तब ‘कुलिश’ जी के सहयोगी- उपसंपादक श्रीगोपाल पुरोहित ही थे, जो जैम सिनेमा के पड़ौस “गुलाब-बाग” में (स्थूलकाय उदर वाले भूतपूर्व मंच-कवि और तेज़ी से अपने अखबार का विस्तार करते) पत्रकार कर्पूरचंद ‘कुलिश’ के साथ हार्डबोर्ड से बने एक छोटे से केबिन में ठुंस कर अपने एक दो और सहयोगियों समेत बैठते थे। चारों तरफ अखबारी कागजों के बड़े-बड़े रोल्स का पहाड़नुमा अम्बार था और दफ्तर में हर तरफ आवाजों का बेतरह शोर-शराबा....
बहरहाल मैं वहां पहुंचा और जब बोला- “मैं कला पर आपके अखबार में नियमित तौर पर कुछ लिखने की इच्छा रखता हूँ” तो किसी खबर के प्रूफ देखते हुए पुरोहित जी ने मुझे थोड़े गौर और दिलचस्पी से देखा । वह खुद और कभी कदास राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट के प्रवक्ता सुप्रसिद्ध चित्रकार मोहन शर्मा भी “रंगश्री” या ‘कलाश्री’ के नाम से चलताऊ सी कला-समीक्षाएं किया करते थे और तब पत्रिका के अलावा किसी और स्थानीय दैनिक अखबार- ‘राष्ट्रदूत’, नवज्योति’ आदि में चित्रकला-प्रदर्शनियों के बारे में कोई सामग्री नहीं छपा करती थी।
‘कुलिश’ जी आगे बातचीत में ने जब ये जाना – मैं ‘गुरु कमलाकर कमल’ की संस्था “साहित्य-सदावर्त’ में उनकी एक समय शिष्या रही “जया” का बेटा हूँ, बहुत खुश हुए और मुझे श्रीगोपाल जी से इस बारे में आगे बात करने की राय देते हुए खुद सामने पड़े कागजों के ढेर में मशगूल हो गए।
हमेशा घर में ही धुला सूती सफ़ेद कुरता और पायजामा, पैरों में साधारण सी चर्म-चप्पलें, सर पर हिम-धवल केश राशि, आँखों पर नज़र का चश्मा, एक दो- उखड़े हुए दांत, लगातार पान सेवन से होठों पर जमा स्थाई लाल रंग, लगातार धूप में पैदल चलने से सांवला हो गया रंग...कुछ-कुछ ऐसा था उनका हुलिया।
श्रीगोपाल जी ने मेरा पहले लिखा एक लफ्ज़ कभी नहीं पढ़ा था, न हम पहले से एक दूसरे से वाकिफ ही थे, पर चित्रकला पर लगभग पांच-दस मिनिट की मुख़्तसर और औपचारिक सी बातचीत के बाद अद्वितीय फुर्ती से उन्होंने मेरे प्रस्ताव पर उत्साहपूर्वक अपनी मौखिक स्वीकृति देते हुए एकमात्र मुझे ‘पत्रिका’ के कला-स्तम्भकार के बतौर जयपुर की चित्रकला प्रदर्शनियों की ‘रिपोर्टिंग’ का अधिकार दे दिया।
‘कुलिश’ जी ने तभी ये भी तय किया हर लेख या समीक्षा के 25 रुपये नकद मुझे बतौर पारिश्रमिक दिए जाएंगे! १०० रुपया महीने की रकम तब सत्तर के आरंभिक सालों में एक अनाम स्कूली छात्र-लेखक के लिए पर्याप्त नहीं, ‘बहुत बड़ी’ रकम थी। ज़र्दा-पान समेत दूसरे ऊटपटांग खर्चे आराम से किये जा सकने लायक ये पारिश्रमिक मेरे निकट जैसे आकाश से टपके खजाने की चाबी था!
श्रीगोपाल जी ने बरसों तक अपने संपादन के दौरान मेरी कला-समीक्षाओं को ‘राजस्थान पत्रिका’ और बाद में निकली ‘इतवारी पत्रिका’ में मेरे दोस्त रवि जैन के फोटोग्राफ्स समेत प्रमुखता से छापा, बल्कि इस बात का व्यक्तिशः ध्यान रखा कि मेरी पच्चीस रूपए की साप्ताहिक किन्तु प्रायः नियमित आमदनी में कहीं कोई व्यवधान न हो! तब और कोई कहीं से कला पर कुछ लिख भेजता तो पुरोहित जी, इस अज्ञानी की राय ज़रूर लेते, ज़्यादातर तथाकथित कला-मर्मज्ञों के लिखे कला-संबंधी अधकचरे आलेख सीधे रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिए जाते । जिस सप्ताह कोई चित्र प्रदर्शनी आयोजित नहीं होती, फोन कर पुरोहित जी मुझे अलग नाम से कुछ और लिख कर दे देने की आज्ञा प्रसारित कर देते। मैं कला के किसी भी पक्ष पर कहीं भी बैठ कर, कभी रवि-स्टूडियो में बैठे, कभी किसी छोटे से चायखाने में बैठे अनाप-शनाप कुछ घसीट देता, पर श्रीगोपाल जी ने हमेशा मेरे पीछे मित्रों से उस लिखे की खुले दिल से तारीफ़ ही की, कभी भी मेरे लिखे लेखों टिप्पणियों और समीक्षाओं का ‘संपादन’ नहीं किया, मेरा लिखा एक शब्द भी कभी नहीं काटा, भले ही मेरी उस टिप्पणी से उनकी कितनी ही निजी असहमति रही हो! वह अपने समय के सबसे बड़े ‘जनतांत्रिक’ संपादक थे और लेखकीय ‘स्वायत्तता’ और स्तंभकार की स्वाधीनता के सच्चे हिमायती।
मैंने “निशाचर” के छद्मनाम से कुछ कला से इतर दूसरे विषयों के डिस्पेच उन्हीं के आदेश पर लिखे तो समय-समय पर कई पुस्तक-समीक्षाएं, जयपुर आये कई विदेशी-सैलानियों से बातचीत और कुछेक नाटक-समीक्षाएं भी। एम. ए. का छात्र होने के दौरान ही अगर मैं १९७६-७७ की प्रशासनिक सेवा में चयनित न हो जाता, तो मैं आज शायद पूर्णकालिक पत्रकार या प्राध्यापक ही बना होता और इसमें भी श्रीगोपाल जी जैसे सुहृदय संरक्षक का हाथ ही प्रमुख हुआ होता!
वह हम सब में सबसे बड़े थे- उम्र, अनुभव, प्रतिष्ठा और ज्ञान में, किन्तु ‘बहुपठित’ होने का या एक बड़े अखबार के ‘संपादक’ होने का घमंड उन्हें छू तक न गया था! बातचीत में किसी के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं, अपनी उपलब्धियों का बखान या किसी भी तरह ‘अहम्-भाव ’ तो उनमें कभी भी नहीं झलकता था।
विजयशंकर व्यास, फणिनाथ चक्रवर्ती, कलानाथ शास्त्री, विजयशंकर श्रीवास्तव, डॉ. सत्यप्रकाश, इंदुशेखर, चंद्रमणि सिंह, नंदकिशोर पारीक, असीम कुमार राय, गोपाल नारायण बहुरा, विजय वर्मा, और इसी किस्म के अन्य लोगों; खास कर भारत भर के संगीतज्ञों- संस्कृतिकर्मियों के प्रति उनके मन में बड़ा आदर भाव था...
वह हमेशा पैदल चलते और फुर्सत मिलने पर अक्सर खुद किसी खबर या समीक्षा की फोटो लेने खुद रवि जैन के स्टूडियो तक भी आ जाते। हाँ, बात उसी सत्तर के दशक की ‘रवि स्टूडियो’ की है....जो किशनपोल बाज़ार के पोस्ट ऑफिस के एन पडौस में हमारा ‘अड्डा’ था ....यों कहने को ही वह ‘फ़ोटो-स्टूडियो’ था, पर स्टूडियो कम–जयपुर के बहुतेरे रचनात्मक लोगों से अनायास मिलने-जुलने बैठने की जगह ज्यादा!
जयपुर के किशनपोल बाज़ार में घुसते ही बाएं हाथ को ‘हिंदुस्तान टेंट हाउस’ के पड़ौस में झंडेवालों की हवेली में एक दो कमरों की वह अनूठी जगह थी- जहाँ न ‘रवि स्टूडियो’ का कोई बोर्ड टंगा था, न कोई राहगीर ही जान सकता था कि वह हम सब के पक्के दोस्त कमाल के आदमी–फोटोग्राफर रवि जैन के कब्जे में है! हर शाम अलग अलग मिजाज़ और पृष्ठभूमि के लोग वहां बेनागा आते और एक दो पुराने से सोफों और कुछ टूटी-फूटी कुर्सियों पर लम्बी गप्प-गोष्ठी जमती....अच्छी-बुरी सब तरह की बातें होतीं....अश्लीलता से ले कर अस्तित्ववाद तक! तब हम कई दोस्त रवि जैन द्वारा संचालित ‘रवि-स्टूडियो’ के सदस्य थे- श्रीगोपाल पुरोहित, ज्योतिस्वरूप, विद्यासागर उपाध्याय, अशोक आत्रेय, डॉ. पी. के. श्रीवास्तव (मजाज़ जयपुरी), विनय गोस्वामी, प्रदीप दास, उमेश पारीक, अक्षय भंसाली, एन के जैन, प्रभाकर गोस्वामी, चित्रकार सुभाष मेहता, बृजमोहन, नाट्यकर्मी राजेश सेठ, रवि झाँकल... और न जाने कितने नए-नए अभिनेता यशःप्रार्थी चित्रकार अज्ञात-कुल-शील लेखक और पत्रकार इस जगह रवि जैन के अज्ञात आकर्षण में बंधे मंडराते रहते थे!
बहुत जल्दी होती तभी श्रीगोपाल जी घर या दफ्तर जाने को कोई टेम्पू पकड़ते! हम दोनों ही कई बार बातें करते न्यू-कॉलोनी के इनके घर से चलते, मोहन पान वाले की छोटी सी दुकान पर १२० नंबर का बावा ज़र्दे का मीठा-बंगला पान मुंह में जमाते और एकाध पीक थूक कर मिर्ज़ा इस्माइल रोड के कोने- सांगानेरी दरवाज़े तक दुनिया भर की गप्पें हांकते पैदल-पैदल चले आते। पारिवारिक रूप से एक पुष्टिमार्गीय- संस्कारित धार्मिक परिवार के होते हुए भी वह मानवेंन्द्र नाथ राय के ‘रेडिकल ह्यूमेनिज्म’ के सिद्धांतों और लोहियावादी समाजवाद के गुप्त हिमायती थे, अंग्रेज़ी अखबारों समेत कई जगह उन्होंने पत्रकारिता की थी बीकानेर से निकल कर उन्होंने दिल्ली में अपनी खुद की एक न्यूज़ और फीचर एजेंसी खोल कर अपनी सब जमा पूँजी होम कर दी थी और इस तरह असफलता के गले में स्थाई वरमाला डाल कर, जयपुर लौट कर अंततः वह ‘कुलिश’ जी के प्रख्यात अखबार से जुड़ गए थे।
तब उनकी अभिरुचि का एक ही प्रमुख केंद्र था- संगीत...भारतीय शास्त्रीय संगीत के वह बड़े मार्मिक ज्ञाता थे और रवींद्र मंच पर होने वाला कोई कार्यक्रम न छोड़ते थे... शास्त्रीय संगीत के अधिकांश धुरंधर अपने कार्यक्रमों के बाद श्रीगोपाल जी की राय और टिप्पणी के मुन्तजिर होते थे, कौशल भार्गव, शेष नारायण रेड्डी, और अनिरुद्ध गोस्वामी आदि जैसे कई ‘कानसेनों’ के साथ जुड़ कर उन्होंने प्रकाश सुराणा जैसे एक धनाढ्य आभूषणकार से बहुत अच्छी सांगीतिक इकाई ‘श्रुति-मंडल’ का गठन करवाया था, रवींद्र मंच के ऊपर वाले रिहर्सल हॉल में अपनी तीसरी, एक समय नृत्यांगना रही बेटी प्रेमलता पुरोहित की शादी फलौदी के विद्वान संपादक ‘शिविरा’ शिवरतन थानवी के पुत्र ओम थानवी से करवाने के बाद जो ‘रिसेप्शन’ आयोजित किया था....उसमें मैं भी एक सहभागी था!
श्रीगोपाल पुरोहित जी के साथ मैं उस शाम रवींद्र मंच पर पंडित शिव कुमार शर्मा के संतूर वादन में बैठा था। पंडितजी ने राग रागेश्वरी में आलाप बजाया कोई 35-40 मिनिट श्रीगोपाल जी वाद्यवादन की सुर-लहरियों में दीन दुनिया से दूर पूरी तरह डूबे रहे... ‘आलाप’ ख़त्म होने और ‘जोड़’ शुरू होने पर मुझ से बोले- " हेमंत जी, क्या आप जानते हैं जयपुर की महारानी कॉलेज की लड़कियां इन्हें क्या कहती हैं? वे शिव कुमार जी को कहती हैं- "सम्पूर्ण-संपूर्ण!" मुझे पंडित शिव कुमार शर्मा जैसे एक पूर्ण कलाकार और एक सुदर्शन पुरुष के लिए ये नाम बिलकुल ठीक लगा!
बाद में पान की दूकान पर खुद ही पुरोहित जी हँसते हुए बोले- "जयपुर की महारानी कॉलेज की लड़कियां तो क्या बोलेंगी- उनकी की तरफ से मैं आज प्रोग्राम के दौरान वैसा अनुभव कर रहा था! "
मुझे जब कई साल पूर्व प्रेस क्लब परिसर में श्रीगोपाल जी के परिवार द्वारा उनकी याद में संस्थापित (शायद सबसे पहला) ‘स्मृति सम्मान’ मिला- मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई थी- और कुछ न कह कर मैंने अपने भाषण में पुरोहित जी की यादों पर लिखा अपना बस एक श्रृद्धांजलि-लेख पढ़ा था (दुर्भाग्य से उस प्रकाशित आलेख की प्रति अब सुलभ नहीं) पर उस शाम में एक ऐसे ‘सुहृदय’ संपादक की स्मृति-यात्रा में शामिल होने की खुशी थी, जो एक ऊँघते हुए शहर बीकानेर से चला था- दुनिया भर की ख़ाक छानने के बाद जो तब जयपुर का गौरव था, अध्ययनशील और अध्यवसायी, स्नेही, सांस्कृतिक-पत्रकार, हम सबके लिए सुलभ एक ऐसी शख्सियत, जैसा श्रीगोपाल पुरोहित के सिवा बीकानेर-जयपुर में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता था!