भूलन कांदा : ग्रामीण क्राइम एंड पनिशमेंट / जयप्रकाश चौकसे

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भूलन कांदा : ग्रामीण क्राइम एंड पनिशमेंट

प्रकाशन तिथि : 18 सितम्बर 2012


संजीव बख्शी के उपन्यास 'भूलन कांदा' पर पटकथा लिखने का प्रयास हो रहा है और फिल्म बनने की संभावना भी है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में मान्यता है कि धरती के भीतर जड़ों वाले भूलन कांदा पर पैर पडऩे से व्यक्ति रास्ता भूल जाता है, समय के फ्रेम में जड़ हो जाता है और किसी के स्पर्श मात्र से सबकुछ पहले की तरह हो जाता है। समालोचक विष्णु खरे इसे भारत के भीतर 'सभ्यताओं के टकराव' का आख्यान मानते हैं। जो लोग इस पर फिल्म रचने का विचार कर रहे हैं, उनके लिए विष्णु खरे की यह नसीहत है कि 'सत्यजीत राय की-सी जीवन दृष्टि को पुनर्जाग्रत करता संजीव बख्शी का यह उपन्यास अपनी गहरी मानवता में हमें कहीं मनुष्येतर छोड़ता है।'

इस उपन्यास में एक आदिवासी गांव में दुर्घटनावश एक व्यक्ति की किसी के हाथों मौत हो जाती है। मामूली से आपसी विवाद में हल फिसल जाता है। उस छोटे-से गांव का मुखिया जानता है कि गांव द्वारा पोषित भकला को सजा होने पर उसकी पत्नी प्रेमिन के लिए दो बच्चों को पालना कठिन हो जाएगा। मृत व्यक्ति का कोई परिवार नहीं था। भकला का पड़ोसी गंजहा बीमार है और उसकी बेटी व पत्नी की मृत्यु के बाद वह नितांत अकेला है। उसकी जीने की इच्छा मर गई है। गंजहा अपराध अपने सिर लेना चाहता है और प्रेमिन में वह अपनी बेटी देख रहा है। अत: उसे बेटी-दामाद का नया रिश्ता मिलता है और अब जेल में मरने तक का उसके पास पवित्र उद्देश्य है। मुखिया निर्णय लेते हैं कि गंजहा जेल जाए। यह दया आधारित न्याय है। हालांकि अपराधी को बचाना उचित नहीं है।

गंजहा का जेल में आदर्श आचरण अधिकारी को प्रेरित करता है कि केस पर पुनर्विचार हो और पूरा गांव ही जेल ऐसे जाता है, जैसे उत्सव में भाग लेने मडिय़ा जा रहे हैं। उन्होंने जीवन में पहली बार दाल, रोटी और सब्जी खाई है। यहां तक कि जमानत पर रिहा होने का उन्हें अफसोस होता है।

आजादी के बाद ऐसी दारुण दशा मुझे 'आवारा' (१९५१) के एक दृश्य की याद दिलाती है, जिसमें अपराधी कहता है कि यह रोटी बाइज्जत बाहर मिल जाती, तो वह बार-बार जेल के अंदर क्यों आता। गांव का भूखा बीमारा गंजहा जेल में स्वस्थ हो जाता है। लेखक गांव की सरल पंचायत और उसके सहज मानवीय दया से ओत-प्रोत फैसले को शहर की अदालत के मुकाबले बेहतर पाता है। शहरी अदालतों में वकील हैं, बिचौलिए हैं और कानून की किताब में निर्जीव अंधे नियम हैं। शहरी अदालत गंजहा को आजाद करते हुए भकला को सजा देती है। यह सब नियमानुसार है और शिकायत नहीं की जा सकती।

राजेश खन्ना अभिनीत दुलाल गुहा की फिल्म 'दुश्मन' में ट्रक ड्राइवर की गलती से एक व्यक्ति की जान चली जाती है और जज महोदय अपराधी को यह सजा देते हैं कि वह मृत व्यक्ति के परिवार की सेवा करे। न्याय के इस प्रकरण में मानवीय दया और जीवन की व्यवहारिकता के तत्व हैं। देश को भूलन कांदा पर खड़ा करके कुछ लोग लोकपाल कानून से भ्रष्टाचार उन्मूलन का ख्वाब देख रहे हैं, जबकि वह मामला सांस्कृतिक शून्य और जीवन-मूल्यों के पतन का है, जो कानून और न्यायालय से परे है।

गांधी युग के महान मुंशी प्रेमचंद ने भी ग्रामीण पंचायत के न्याय की महिमा पर अपने युग के माहौल के अनुरूप आदर्श न्याय की कथा लिखी है, परंतु वर्तमान में पंचायत राज उतना ही अन्याय आधारित और भ्रष्ट है, जितनी शहरी संस्थाएं हैं। दरअसल वर्तमान की हृदयहीनता और कमीनापन शहर और गांव की पुरानी सरहदों में नहीं बंटता हुआ सर्वत्र व्याप्त है। संभवत: आदिवासी क्षेत्र के गांव अपवाद हैं। इस बात का संकेत भी उपन्यास में है। इसमें भारत का पुरातन सामंतवाद भी है, क्योंकि मुखिया का पिता भी मुखिया था। प्राय: गांवों में ऐसा ही होता रहा है, परंतु अब ग्राम पंचायत के चुनाव होते हैं और भारतीय गणतंत्र व्यवस्था में शामिल सामंतवादी नतीजे ही सामने आते हैं। वर्तमान में महानगरों में गांव पसर आए हैं और गांवों पर महानगरों का साया पडऩे लगा है। अन्याय और असमानता ने सबको बराबर कर दिया है।

बहरहाल, कानून और दंड विधान सदियों की छलनी से गुजरे हैं, परंतु उनमें आज भी दोष कायम हैं क्योंकि मनुष्य संचालित व्यवस्था में संपूर्णता कैसे हो सकती है? हमारे आख्यानों में भी अपराधी को मामूली दंड और अहिल्या को पत्थर होने का श्राप दिया जाता है। इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने अपने दोषी बेटे को मृत्युदंड दिया था। जहांगीर ने अपनी बेगम को दंडित किया था।

रूस के महान उपन्यासकार दोस्तोयव्स्की की अनेक सतहों पर चलने वाली अमर कृति 'क्राइम एंड पनिशमेंट' पर अनेक देशों में फिल्में बनी हैं और भारत में भी रमेश सहगल ने 'फिर सुबह होगी' जैसी फिल्म बनाई। उपन्यास का मूल स्वर तो दंड भोगकर मुक्ति पाना है, परंतु एक अन्य सतह पर समाज में इज्जत की हैसियत की पोल खोली है। उपन्यास में अपराध और दंड के सभी पहलुओं का विवेचन है। नायक कानून का विद्यार्थी है और बिना सबूत छोड़े एक महाजन का कत्ल करता है। पोरफ्री नामक इंस्पेक्टर अपराधी पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाता है, परंतु समाज-कल्याण के कार्य करने वाली एक तवायफ जो अपने व्यवसाय में निहित गलती को जानते हुए अपना काम करते हुए स्वयं को महान नहीं मानते हुए त्याग का रास्ता नायक को सुझाती है। इस जटिल उपन्यास की व्याख्या संभव नहीं है।

बहरहाल, संजीव बख्शी का 'भूलन कांदा' एक रास्ता बताता है, जो छत्तीसगढ़ के घने जंगल से गुजरकर गांधीजी का स्मरण कराता है।