भूलभुलैया / अपूर्व भूयाँ

Gadya Kosh से
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मुंबई के छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ा जेट एयरवेज का विमान अपने निर्धारित समय सुबह दस बजे लखनऊ महानगर के समीपवर्ती अमौसी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आ उतरा। विमान से उतरकर बेल्ट से अपना सामान ले पल्लव और निशिता हवाई अड्डे के आगमन द्वार की ओर बढ़े। आगमन द्वार के बाहर बड़े आतुर भाव से आफताब और शबनम उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। निशिता को देखते ही शबनम आगे बढ़ी और उसे अपनी बांहों में भर लिया।

"" लगभग बारह वर्षों बाद हमारी मुलाकात हो रही है न? " -निशिता ने कहा।

"" हाँ भई, तुम बिल्कुल वैसी ही हो। मुझे देखो तो कितनी मोटी हो गई हूँ। तुम ही पहचान पाई। " -शबनम ने बड़े उत्साह से कहा।

"" अच्छे बताओ बेटे की क्या ख़बर है? "

"" बेटे का इस बार चेन्नई के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन कराया है। अब हम दोनों बूढ़ा-बूढ़ी बिल्कुल फ्री। " -पल्लव ने अबकी जवाब दिया।

आफताब दोनों को अपनी गाड़ी की ओर ले चला। हवाई अड्डे से दोपहर की व्यस्त सड़क से होते चारबाग रेल स्टेशन के सामने से आफताब की फॉक्सवैगन गाड़ी महानगर के केंद्र की ओर बढ़ चली। आफताब की बगल वाली सीट पर पल्लव। पिछली सीट पर निशिता और शबनम। आफताब और पल्लव एक ही कंपनी के कर्मचारी हैं। मुंबई के अरब सागर में स्थित तेल और गैस अनुसंधान के एक प्लेटफर्म में पिछले तीन वर्षों से दोनों साथ ही काम कर रहे हैं। इससे पूर्व असम का तेल क्षेत्र पल्लव की कर्मस्थली थी। पल्लव और आफताब की मित्रता निशिता और शबनम की मित्रता के माध्यम से प्रगाढ़ हुई है। कई दिनों तक संपर्कविहीन रहने के पश्चात पल्लव के मुंबई आने पर ही आफताब के जरिए शबनम की ख़बर मिली और निशिता ने फ़ोन तथा फ़ेसबुक के जरिए शबनम से संपर्कों का मधुर सिलसिला आरंभ कर दिया। शबनम से मिलने के लिए लखनऊ आने की योजना भी बनाई। वैसे पल्लव के मन में भी ऐतिहासिक लखनऊ शहर देखने की ललक जाग उठी।

गाड़ी अपनी तय रफ़्तार से गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। निशिता और शबनम में बातों का सिलसिला चल पड़ा था। कई खट्टी-मीठी यादें...खत्म होने का नाम नहीं। बातों ही बातों में निशिता ने शबनम की बेटी सोहिनी की बात छेड़ दी। सोहिनी की ज़िक्र होते ही आफताब ने कहा, "" बेटी दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई कर रही है न। दो साल हो गए। मेडिकल की पढ़ाई इतनी अधिक है कि घर कम ही आना होता है। हम ही बीच-बीच में दिल्ली जाकर उससे मिल आते हैं। मुंबई में चौदह दिनों की नौकरी करने के बाद चौदह दिन घर में रह सकते हैं। इसलिए कोई परेशानी नहीं होती। "

आधे घंटे के सफ़र के बाद पल्लव-निशिता लखनऊ के हजरतगंज अंचल के पार्क रोड में अवस्थित आफताब की आवासीय कॉलोनी "रोज गार्डेन'में आ पहुँचे। आफताब ने दो वर्ष पहले नौ मंजिली" रोज गार्डेन' अट्टालिका कि चौथी मंज़िल पर चार बेडरूम का अपार्टमेंट खरीदा था। इससे पहले लखनऊ के अमीनाबाद अंचल में स्थित पैतृक घर में वे अपनी अम्मा और दो भाइयों के परिवार के साथ रहते थे। अब्बा का इंतकाल हुए दस साल गुजर गए हैं। अब्बा के दिनों में विख्यात हो चुके कशीदाकारी व्यवसाय को अब भाइयों ने दूर-दूर तक फैला रखा है। उनके व्यावसायिक घराने से कढ़ाई किए हुए कपड़े, परिधानों का विदेशों में निर्यात होता है। इस व्यवसाय में आफताब की भी हिस्सेदारी है।

आफताब ने कढ़ाई किया हुआ एक सुंदर कुर्ता पहन रखा है। शबनम ने भी घर को सुंदरता से सजा दिया है। दोनों बड़े शौकीन हैं। नए घर को अत्याधुनिक रूप-रंग देने में दोनों ने कोई कंजूसी नहीं की है।

आफताब ने पल्लव-निशिता को उनके घर पर ही ठहरने की बात कही। शबनम निशिता से बोली, "" तुम लोग आओगे यही सोचकर गेस्ट रूम को सुंदर से सजा-धजा दिया है। "

निशिता असमंजस में पड़ गई। यह देख पल्लव ने कहा, "" दरअसल, मैंने इंटरनेट से ही होटल बुक करा लिया था। आज रात वहीं ठहरते हैं, कल देखा जाएगा। "

शबनम बोली, "" तो फिर कल सुबह ही होटल छोड़कर आइएगा और दिन भर जहाँ मन जाए घूम-फिर कर रात को हमारे घर ठहरिएगा। अगले दिन सुबह तो आपलोग चले ही जाएंगे। "

पल्लव ने सहमति के तौर पर सिर हिला दिया। आफताब को परेशानी होगी, यह सोचकर पल्लव ने लखनऊ के महात्मा गांधी मार्ग पर स्थित होटल "क्लार्क' में एक कमरा बुक करा लिया था। यह अंचल लखनऊ के बीचों-बीच स्थित है। पौर प्रशासन ने ब्रिटिश राज के स्मृति स्वरूप पंक्ति-दर-पंक्ति विक्टोरियन लैम्पपोस्ट से महात्मा गांधी मार्ग को सुंदरता से सजा रखा है। सड़क के दोनों ओर राहगीरों के बैठने के लिए बेंचों की व्यवस्था भी है। सड़क की दोनों ओर की दुकानों, होटलों, ऑफिस आदि की दीवारों तथा नामपट्टिका में सफेद-काले रंग का इस्तेमाल किया गया है। इस सड़क से थोड़ा आगे बढ़ते ही विधानसभा भवन मिलता है। भारत के राजनीतिक क्षितिज पर हलचल मचाने वाली अनेक घटनाओं का गवाह है यह विधानसभा भवन। लखनऊ के इस प्राणकेंद्र को गहराई से महसूस करने के इरादे से ही पल्लव ने होटल क्लार्क का चयन किया था। पंरतु आफताब-शबनम के अनुरोध को भी नहीं ठुकराया जा सकता था। इसलिए पल्लव ने अगले दिन उनके घर पर ही ठहरने का निर्णय किया। दोपहर को शबनम ने अनेक तरह के आमिष व्यंजनों से पल्लव-निशिता कि खातिरदारी की। पल्लव-निशिता ने खासकर शबनम के परोसे गए कबाब की बड़ी तारीफ की। इस पर आफताब ने कहा," "ठहरिए, आपलोगों को लखनऊ के विख्यात कबाब का स्वाद भी चखाता हूँ, आज ही हम अमीनाबाद चलते हैं।"

दोपहर के बाद आफताब-शबनम, पल्लव-निशिता को लखनऊ के अमीनाबाद अंचल में स्थित आफताब के पुराने घर लेकर गए। नवाबी काल के स्पष्ट छाप वाले अमीनाबाद अंचल में बेतरतीब ढंग से दुकान, व्यावसायिक संस्थान उग आए हैं। सड़कें चौड़ी नहीं होने की वज़ह से मोटरगाड़ियों का जाम बड़ी परेशानी पैदा करता है। फिर भी लोग यहाँ आते हैं, क्योंकि यह कशीदाकारी व्यवसाय का केंद्र है। इसलिए भी आते हैं कि उन्हें लखनऊ के विख्यात टुंडे कबाबी दुकान के कबाब का स्वाद चखना होता है। टुंडे कबाबी का असली नाम था-हाजी मुराद अली। 1897 में एक छोटी दुकान खोलकर हाजी मुराद अली ने कबाब का व्यवसाय आरंभ किया था। उस वक़्त उनकी उम्र यही कोई बीस वर्ष रही होगी। मुराद अली के हाथों का जादू कहें या उनके ख़ास मसालों का कमाल, भला कौन बता सकता है? धीरे-धीरे "टुंडे कबाबी'पर लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। नवाब के परिवार से लेकर आम आदमी तक, हर किसी को टुंडे कबाबी का ठिकाना पता था। अमीनबाद की संकरी गली में" टुंडे कबाबी' की दो मंजिला साधारण-सी दुकान में आज भी बॉलीवुड से लेकर जाने-माने कलाकर और विख्यात हस्तियाँ आती रहती हैं। मुराद अली के पोते-परपोते टुंडे कबाबी के नाम से ही व्यवसाय चला रहे हैं। लखनऊ के अन्य अंचलों में भी इसी नाम से कई दुकानें खोली हैं। आफताब के आग्रह पर पल्लव-निशिता ने बेंच पर बैठकर कई तरह के कबाबों का स्वाद लिया। कबाबी दुकान से निकलकर व्यस्त गली में कतारों में लगीं पान की दुकानों की ओर बढ़े। एक दुकान से मखमली पान बनवा मुंह में भर लिया। पल्लव-निशिता अकल्पनीय तृप्ति भाव से भर उठे।

निशिता ने ग़ौर किया कि उनसे मिलकर शबनम खुश तो है फिर भी लगता है कि जैसे उसके मन-मस्तिष्क में काले बादलों का कोई एक झुंड उमड़-घुमड़ रहा है। बचपन में कितनी चंचल-शरारती थी शबनम। डिब्रूगढ़ में निशिता का घर सरकारी बस अड्डे के लगभग करीब ही था। पिताजी की नौकरी के सिलसिले में तब निशिता डिब्रूगढ़ की अस्थायी बाशिंदा थी। शबनम रेलवे कॉलोनी में रहती थी। उसके अब्बा का घर शिवसागर में था। रेलवे में नौकरी करने वाले उसके अब्बा ने बाद में डिब्रूगढ़ में ही स्थायी रूप से रहने की व्यवस्था कर ली। वह अब्बा कि स्कूटी चला लेती थी और अक्सर निशिता को पीछे बिठाकर घूमती-फिरती रहती थी। हायर सेकेंडरी की पढ़ाई के दौरान एक बार शबनम के बहकावे में निशिता और साथ की दो लड़कियाँ ट्यूशन जाते समय अरोड़ा सिनेमा हॉल में चली गई थीं। इरादा था उस वक़्त की सुपरहिट फ़िल्म "आशिकी'देखने की। लेकिन बाद में घर वालों को इसकी भनक लग गई और निशिता को बड़ी डांट सुननी पड़ी थी। बी.ए. की परीक्षा में शबनम को सेकेंड डिवीजन मिला था। एम.ए. पढ़ने का मन नहीं हुआ सो घर पर बैठ गई। निशिता जब डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय में सोशियोलॉजी की एम.ए. दूसरे वर्ष में थी, तभी अचानक शबनम का निकाह हो गया। दूल्हा लखनऊ का था। नाम था आफताब हुसैन। आफताब ने तब तेल कंपनी में नई-नई नौकरी शुरू की थी और शिवसागर के धाईआली अंचल में शबनम के पुराने घर के पास किराए के मकान में रहता था। सभ्य-सुंदर मुखमंडल वाला आफताब दो बार शबनम से मिला था और अपनी दिल की ख़्वाहिश जाहिर की थी। सुदूर लखनऊ से असम के छोटे शहर नौकरी करने आए आफताब ने शबनम के पुराने घर को ही अपना बना लिया था। शबनम, आफताब के प्रेम में पड़ गई। शबनम ने कहा था," "आफताब के प्रति वह उसका" लव एट फर्स्ट साइट' था और धीर-गंभीर आफताब को प्रेम और निकाह का प्रस्ताव उसी ने ही पहले दिया था। दोनों का निकाह हो गया। इस सम्बंध को लेकर दोनों परिवारों की ओर से कोई विशेष आपत्ति नहीं की गई। हाँ, शबनम की माँ थोड़ा उदास-दुखी ज़रूर थी कि दामाद बड़े दूर का मिला है। विवाह के पश्चात कुछ वर्ष तक आफताब के शिवसागर में ही नौकरी करते उसकी बदली गुजरात के अहमदाबाद हो गई। इस बीच निशिता भी पल्लव के साथ विवाह बंधन में बंध चुकी थी। पल्लव, आफताब की तेल कंपनी में अभियंता था। निशिता-शबनम के जरिए दोनों परिवारों में सम्बंधों की एक मधुर डोर बंधी चुकी थी। मगर आफताब के अहमदाबाद जाते ही कई वर्षों तक दोनों परिवारों के बीच संपर्क टूटा रहा। सांसारिक व्यस्तता भी एक कारण था। लगभग बारह वर्ष पहले अंडमान भ्रमण पर निकली निशिता कि कलकता कि उड़ान भरने के दौरान डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे पर शबनम से मुलाकात हुई थी। शबनम डिब्रूगढ़ अपने मायके आई थी। शबनम को भी वापस आफताब की कर्मस्थली अहमदाबाद जाने के लिए वाया कोलकाता होते डिब्रूगढ़ से विमान पकड़ना था। डिब्रूगढ़ में दोनों एक ही विमान में सवार हुए। उस बार जो दोनों मिले, उसके बाद इतने वर्षों के अंतराल पर यह उनकी मुलाकात है। तब शबनम की बेटी की उम्र आठ वर्ष रही होगी। गोरी, घुंघराले बालों वाली बड़ी प्यारी-सी बिटिया, मानो कोई गुड़िया हो। निशिता को अब भी याद है कि कैसे आंटी... आंटी... कहते वह विमान में उसके पास आ बैठी थी। अब एलबम में उसकी फोटो देखकर उस पुराने चेहरे से निशिता कोई मेल नहीं ढ़ूंढ़ सकी। उसके बारे में पूछने से भी शबनम गंभीर हो उठती है।

अमीनाबाद की तंग गलियों से निकलकर निशिता-पल्लव कुछ ही दूरी पर स्थित ऐतिहासिक बाराद्वारी देखने गए। बारह भारतीय स्थापत्य कला से समृद्ध द्वार या तोरणों से सज्जित यह अंचल किसी ज़माने में नवाबों के शासनकाल के संगीत-नृत्य का प्राणकेंद्र था। यह बाराद्वारी एक महल में जीवंत हुआ था। उमराव जान के ऐतिहासिक चरित्र का गवाह। उर्दू कविता, शायरी, नर्तकियों के मुजरों से एक समय यह अंचल काफ़ी गुलजार था। हैदर अली, आमिर मिनाइ, मिर्ज़ा हादि रौसवा, सफी लखनऊवी, मीर ताकी जैसे अग्रणी मुस्लिम कवियों के साथ ही बृज नारायण, विनय कुमार सरोज आदि हिंदू कवियों ने उर्दू काव्य साहित्य को एक नए शिखर पर पहुँचाया था। ये सब नवाबों का प्रभाव था। बारहवीं सदी में दिल्ली के मुगल शासक कुतुबुद्दिन नासिरुद्दीन मोहम्मद शाह के लखनऊ का गवर्नर बनने के साथ इस अंचल में मुस्लिम शासन का आगाज हुआ। तब से लेकर 1857 यानी ब्रिटिश राज के आरंभ होने तक नवाबों ने लखनऊ को एक नायाब सांस्कृतिक पहचान दे डाली। वह संस्कृति गोमती नदी में आज भी प्रवाहित है। प्राग्ऐतिहासिक कथा के अनुसार गोमती नदी का उपत्यका भगवान श्रीरामचंद्र के भाई लक्ष्मण का राज्य था। पूरब की ओर थोड़ा आगे बढ़ने पर सरयू के किनारे श्रीरामचंद्र की नगरी अयोध्या थी। लक्ष्मणपुर अयोध्या कि उप-नगरी थी। उसके बाद कई हिंदू और बौद्ध धर्मावलंबी शासकों ने इस अंचल पर शासन किया। यह माना जाता है कि लक्ष्मणपुर से ही लखनऊ बना है। पूरा अंचल अवध नाम से जाना जाता था। नवाबों ने उस प्राचीन अध्याय पर जैसे एक काला पर्दा डाल दिया। अब लखनऊ की संस्कृति मुख्यत: नवाबी संस्कृति है।

नवाबों ने हालांकि सर्वप्रथम अयोध्या और लखनऊ के बीच फैजाबाद को अपने शासन का केंद्र बनाया, परंतु बाद में शासन का केंद्र लखनऊ ले आए। मुगल सम्राट बाबर ने 1538 में सेना के साथ इस अंचल में पदार्पण किया था। अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। परंतु अयोध्या कि मस्जिद के बगल में स्थित विशाल हनुमान मंदिर के साथ दूसरे मंदिरों और प्राचीन नगर की स्थापत्य पर विशेष असर नहीं डाल पाया। हालांकि मूल राम मंदिर को तोड़कर उसी स्थान पर मस्जिद निर्माण के दावे के साथ 6 दिसम्बर, 1992 को मस्जिद को ध्वंस कर दिया गया। इस स्थान पर पुन: राम मंदिर निर्माण की कवायद चल रही है और इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया था। यह स्थान अब प्रशासन की कड़ी निगरानी में है। पिछले वर्ष वाराणसी आने पर मौका निकालकर पल्लव अयोध्या के इस विवादित स्थान के दर्शन कर आया था। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक संघर्ष छिड़ गया। हिंसा कि अनेक घटनाएँ हुईं। 2002 में गुजरात में भयावह सांप्रदायिक दंगा हुआ, जिसमें अनेक बेकसूर लोग बेवजह बलि चढ़ गए। 27 फरवरी, 2002 की सुबह गुजरात के सीमांतवर्ती गोधरा रेल स्टेशन पर अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार सेवकों की बोगी में आग लगा दी गई। इसमें 58 कार सेवकों की मौत हो गई। इस आरोप के आधार पर कि 58 कार सेवकों की हत्या मुस्लिम उग्रवादियों ने की है, 28 फरवरी से गुजरात में हिंदू संगठनों के उकसावे पर हिंदू-मुस्लिम संघर्ष शुरू हो गया। पूरा गुजरात जल उठा। राज्य के अलग-अलग अंचलों में हत्या-बलात्कार, लूटपाट और तोड़-फोड़ का दौर चल पड़ा। मानवता कराह उठी। पूरे राज्य में अराजकता फैल गई। बेवजह हत्या, असहाय महिलाओं का बलात्कार, यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी हिंसा के दावानल में मार दिए गए। आदमी, जानवर में तब्दील हो चुका था। इतिहास में ऐसा दंगा विरले ही मिलता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस दंगे में 790 मुसलमान और 254 हिंदू मारे गए। 223 से अधिक लोग लापता हो गए और 2500 से अधिक लोग जख्मी हुए। इस दंगे में अल्पसंख्यक मुसलमानों को सबसे अधिक नुक़सान पहुँचा। ऐसे भयावह हालात के चलते अहमदाबाद में स्थायी तौर पर रहने के लिए खरीदा गया घर आफताब ने बेच डाली और लखनऊ लौट आया। कंपनी के शीर्ष अधिकारियों से गुजारिश-पैरवी कर अपनी बदली अहमदाबाद से मुंबई करा ली। अहमदाबाद महानगर आफताब के लिए दु: स्वप्न का नगर बन गया, पल्लव से अक्सर यह बात कहते आफताब सुबक पड़ता। अब लखनऊ आफताब के लिए उसके प्राणों का नगर है। बड़े उत्साह के साथ आफताब ने पल्लव को लखनऊ का परिचय कराया।

पल्लव-निशिता को लखनऊ के विभिन्न गली-मोहल्लो में घुमाते-फिराते आफताब उन्हें देर रात होटल छोड़ आया। दूसरे दिन सुबह ही शबनम होटल आ पहुँची और निशिता-पल्लव को साथ ले लिया। इस बार इरादा था नवाबी प्रतीकों से भरे लखनऊ के हुसैनाबाद का भ्रमण करना। विख्यात बड़ा इमामबाड़ा और छोटा इमामबाड़ा हुसैनाबाद में ही हैं। सत्य और मानवता के नाम पर करबाला कि मरुभूमि में प्राणों की आहुति देने वाले हजरत मोहम्मद के पोते इमाम हुसैन की पवित्र स्मृति में दुनिया के विभिन्न स्थानों पर निर्मित इमामबाड़ों में बड़ा इमामबाड़ा प्रमुख है। भूलभुलैया इस इमामबाड़ा का मुख्य आकर्षण है। 162 फुट लंबा, 53 फुट चौड़ा और 50 फुट ऊंचे इस इमामबाड़ा में प्रवेश के लिए एक शानदार रास्ता है। दो दीवारों के बीच यह रास्ता एक सुरंग है। इमारत की छत तक जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं, जो ऐसे रास्ते से जाती हैं, जो अनजान व्यक्ति को भ्रम में डाल देती हैं। गाइड न हो तो अनजान व्यक्ति यहाँ भटक जाए और बाहर न निकल सके। इसलिए इसे भूलभुलैया कहा जाता है। भूलभुलैया के दीवारों में मुँह लगाकर यदि कोई फुसफुसाकर भी बात करे तो तीस फीट दूर तक वह आवाज़ साफ़ सुनाई पड़ती है।

आफताब उत्साह के साथ बताता है, "" जानते हो उच्च तकनीक और ईरानी निर्माण शैली की इस भूलभुलैया का निर्माण 1784 में नवाब आसफउद्दौला ने राज्य में पड़े अकाल से निपटने के लिए करवाया था। अकाल ने गरीब-अमीर किसी को भी नहीं बख्शा था। नवाब के दिए भोजन के बदले गरीबों के साथ ही धनी-अभिजात्य वर्ग के लोगों ने भी रात के अंधेरे में बतौर मज़दूर का काम किया और यह भूलभुलैया हमारे जीवन की तरह ही रहस्यमय है। जीवन की राह में कितना अँधेरा है। " आफताब अचानक दार्शनिक हो उठता है।

आफताब पल्लव-निशिता को भूलभुलैया कि सुरंग में रास्ता दिखाते इमामबाड़ा कि छत पर जब पहुँचा तब दोपहर की चिलचिलाती धूप में कहीं दूर से आती सूखी हवा दीवारों से टकराकर ऐसा सुर उत्पन्न करती, मानो कहीं दूर से आ रहे किसी के क्रंदन का स्वर हो। इमामबाड़ा कि छत से दिख रहा था पास ही स्थित छोटा इमामबाड़ा, ब्रिटिश काल का क्लॉकटावर, तुर्की शैली में निर्मित " रुमी दरवाजा'-तोरण, तकनीकी कौशल का नायाब नमूना जलमहल और सफेद रंगों से रंगे गए अनगिनत घर, मीनार, मस्जिद आदि से युक्त पुराना लखनऊ नगर। निशिता के आग्रह पर सभी एक सुसज्जित बग्घी पर सवार हुए और लखनऊ के महत्त्वपूर्ण स्मारकों का भ्रमण किया। संकरी गलियाँ, प्राचीन मोहल्लों की दीवारों से लटकते नवाबी दिनों के अभिजात्य प्रतीकों को देख प्राचीन नगर को समझने, महसूस करने की चेष्टा की।

बग्घी के चालक सिकंदर की उम्र हो चली है, उसके बग्घी और दोनों घोड़े भी उम्रदराज हो चुके हैं। बात बनाने में माहिर सिकंदर ने कहा कि बग्घी चलाना उसका शौक भर ही नहीं है, बल्कि नवाबी गौरव और कौम के प्रति फ़र्ज़ अदा करने का धर्म भी है। सिकंदर के बेटे दूसरे व्यवसाय में लग गए हैं। कम आमदनी की वज़ह से अधिकतर ने बग्घी चलाना छोड़ दिया है। परंतु सिकंदर जब तक देह में जान है, बग्घी चलाना नहीं छोड़ेगा। वाह! क्या अनुराग-समर्पण है।

थके-हारे शरीर और तृप्त मन से पल्लव-निशिता जब आफताब के घर पहुँचे, तब सूरज लगभग अस्त होने को था। दिन में गन्ने का रस, कुल्फी और ये-वो खाते रहने तथा गर्मी की वज़ह से निशिता-पल्लव ने शायद कुछ और खाने की ज़रूरत नहीं समझी। शबनम ने झटपट कुछ नाश्ता और फल-मूल परोसा और फिर पल्लव-आफताब बैठकखाने में टीवी के सामने बैठ गए। शुरू हो गईं नौकरी, राजनीति और वर्तमान लखनऊ की बातें। शबनम और निशिता पीछे की बैल्कोनी में जा बैठीं। रात के भोजन में अभी देर है। घर की सेविका कुछ जोर-जुगाड़ में लगी है। बैल्कनी के बगल में ही सहजन के पेड़ के डालियों पर सहजन लगे हैं। गुच्छे के गुच्छे सहजन, हवा के झोंके से लगता है कोई राग छेड़ रहे हैं। निशिता ने सोचा था कि वह शबनम से बीतों दिनों की बातें करेगी। भूले-बिसरे तहों को खोलकर पुराने दिनों के विषाद-आनंद देखेगी। परंतु शबनम कुछ अन्यमनस्क है। हृदय में दबी-छिपी अनेक बातों को बाहर करने का जैसे उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। क्या कहेगी वह। हृदय में कौन-सा दुख घुमड़ रहा है।

अपनी पीड़ा को आख़िर कब तक सीने में दबाए रखती और किस-किस से? अंतत: शबनम ने कहना शुरू कर दिया- "" जानती हो निशिता, जीवन में एक बहुत बड़ी पीड़ा मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ेगी। तुम लोग तो जानते ही हो कि किन हालात में हमें अहमदाबाद छोड़ना पड़ा। परंतु अहमदाबाद के सांप्रदायिक दंगों के भयावह दिनों में मैंने जो खोया, वह मेरे जीवन का अभिशाप ही बन गया। लगता है, मैं कभी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाऊंगी...निशिता। "

निशिता कि देह पर हाथ रख सिसकती शबनम अपनी करुण कथा कहती गई। 28 फरवरी, 2002. उस अभिशप्त दिन आफताब दफ्तर निकल चुका था। जाते-जाते रास्ते में पड़ने वाले स्कूल में आठ वर्षीय बेटी सोहिनी को छोड़ गया था। उनके निकलने के कुछ ही देर बाद अफरा-तफरी मच गई थी। आफताब ने दफ्तर से फ़ोन कर कहा था-हालात बहुत खराब हैं। ऑफिस से निकल नहीं पा रहा हूँ।

शबनम को पास ही स्थित स्कूल से सोहिनी को जल्द घर ले आना था। शबनम तुरंत स्कूल को निकल पड़ी थी। सोहिनी के स्कूल, यानी स्कूल के सामने पहुँचते ही देखा कि हड़कंप मचा था। अपने-अपने बच्चों को खोजते मां-पिता काफ़ी बेचैन-परेशान। भीड़ में शबनम अपनी बच्ची को खोज पाती कि उससे पहले सोहिनी आकर उससे लिपट गई। उनके आवासीय अंचल में मुसलमान समुदाय के लोगों की बहुतायत थी। उन दोनों के घर पहुँचते-पहुँचते उन्मादियों का तांडव आरंभ हो गया था। हाथों-हाथ तलवार, लाठी, भाला लेकर जिस-तिस पर उन्मादी हमला कर रहे थे। इस भयंकर हालात में शबनम सोहिनी का हाथ पकड़ एक ओर दौड़ने लगी। अचानक पीछे से किसी वस्तु के तेज प्रहार से शबनम रास्ते पर गिर पड़ी। वह बेहोश हो गई। शाम को आफताब पागलों की तरह उन्हें खोजते-खोजते एक अस्पताल में पहुँचा। देखा अस्पताल के बरामदे में शबनम सोई पड़ी थी। सिर पर बैंडेज। उसे थोड़ा होश आ गया था। उसने सोहिनी के बारे में पूछा। परंतु आफताब को सोहिनी का कहीं अता-पता नहीं चल पाया था। कई स्थानीय अस्पताल, शरणार्थी शिविरों का चक्कर लगाया, परंतु सोहिनी की कोई ख़बर नहीं। दोनों पागल-सा हो गए। इस तरह देखते-देखते तीन महीने बीत गए।

दंगा थमने के बाद उन्हें ख़बर मिली की एक संस्था ने अपने पास कुछ अनाथ बच्चों को शरण दे रखा है। दोनों अविलंब संस्था पहुँचे। परंतु उन अनाथ बच्चों में भी सोहिनी नहीं थी। पता नहीं उस दिन शबनम को क्या हो गया था, सोहिनी की उम्र की एक बच्ची अचानक उसके सीने से लग गई। उस बच्ची के माता-पिता कि मौत हो चुकी थी। पता चला कि जख्मी अवस्था में बच्ची अपने माता-पिता कि लाश के पास मिली थी। हिंदू परिवार था। बच्ची के गले में माँ अंबाजी का एक लॉकेट था। शबनम उस बच्ची को सीने से चिपकाए दहाड़े मारने लगी थी। उस दिन घर लौटने पर शबनम ने आफताब से उस बच्ची को अपने घर लाने की बात कही। शबनम की मन: स्थिति देख आफताब ने कोई आपत्ति नहीं की। शायद उस अनाथ बच्ची का चेहरा देख शबनम सोहिनी के खोने का दुख भूली रहेगी। इस घटना के एक वर्ष बाद आफताब-शबनम लखनऊ चले आए और तब से लेकर आज तक दोनों कभी उस अभिशप्त नगर में अपने क़दम नहीं रखे हैं। गोद ली हुई बच्ची का नाम भी उन लोगों ने सोहिनी रखा। वह अब मेडिकल की पढ़ाई कर रही है। उसे भी अपने भयंकर अतीत के बारे में पता है। शबनम को कभी परेशान-उदास होता देख वह कहती है, "" मैंने तो तुम लोगों को अपना अब्बा-अम्मी मान लिया है, तुम लोग भी मुझे अपनी सोहिनी मान लो। "

थोड़ी देर मौन रहने के पश्चात शबनम बोली, "" जानती हो निशिता, मेरी सोहिनी कहीं ज़िंदा है भी या नहीं, नहीं जानती...अब इस सोहिनी का चेहरा देखकर ही हम दोनों जी रहे हैं। "

शबनम का हृदय भेदकर निकले शब्द भूलभुलैया कि दीवारों से टकराकर निकलने वाले शब्द जैसे लगे, जिसने निशिता के हृदय को झकझोर दिया। सहजन के पत्तों के बीच से दिखता सतरंगी आसमान जैसे विषाद के सुरों से भर गया। निशिता कि भी आंखें भर आईं और टपक पड़े दो बूंद।