भेंट एक लेखक से/गिरिराज शरण अग्रवाल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नित नए लोगों से भेंट करना और भेंट के दौरान उनकी छठी तक के दूध का हिसाब-किताब मालूम करना हम भारतवासियों की राष्ट्रीय हॉबी है। बिल्कुल इसी तरह जैसे दरिद्रता हमारा राष्ट्रीय गुण है और इस राष्ट्रीय गुण को स्थायी बनाए रखने के लिए विदेशी वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेना हमारे वित्तमंत्रियों की हॉबी है।

सो, उस दिन एक साहब से मुलाक़ात हुई. हमने आदत के अनुसार उनका नाम पूछा। नाम था पं। श्यामबिहारी लाल शर्मा। बताया गया 'लेखक हैं।' सच मानो, सुनकर बड़ी निराशा हुई. अगले सारे सवाल जैसे 'वेतन कितना मिलता है?' या 'उ पर की आमदनी कितनी हो जाती है?' आदि मन-ही-मन में घुटकर रह गए. दरअसल, हम भारतीय पहली भेंटवार्ता में ही व्यक्ति के स्टेंडर्ड का पता लगा लेते हैं और क्षण-भर में यह निर्णय भी कर लेते हैं कि नवपरिचित सम्बंध बनाए रखने के योग्य है या नहीं! वैसे हम जानते हैं कि संपन्न व्यक्ति भी समय पड़ने पर चावल के चार दाने उधार देने से कतरा जाता है, पर आदमी को यह गर्व तो रहता ही है कि उसकी मित्रमंडली में नंगे-बूचे लोग ही नहीं हैं, खाते-पीते संपन्न लोग भी हैं। पराए पैसे पर इतराना हमारी दूसरी राष्ट्रीय हॉबी है।

'लेखक हैं।' यह सुनना था कि हम भुन-से गए. क्रोध हमें इस बात पर था कि होश सँभालते ही लेखकों की जिस भीड़ ने हमारा घेराव शुरू किया था, उसका सिलसिला आज तक जारी है। प्राइमरी स्कूल से लेकर एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने तक ये लेखक लोग हमारी छाती पर कुछ इस तरह सवार रहे, जैसे वह हमारी छाती न हो, उनका अपना बैडरूम हो। वैसे हमें शक है कि लेखकों के घर में बैडरूम नाम की कोई चीज़ होती होगी।

तो साहब, होश सँभालते ही हम विद्यार्थी बन गए या यूँ कहिए कि बना दिए गए. रात-रात भर लेखकों की जीवनियाँ रटते। कब पैदा हुए, कब वीरगति को प्राप्त हुए, कौन-कौनसी पुस्तकें लिखीं और क्या-क्या तीर मारे? उनकी रचनाओं का अर्थ याद करते। लेकिन सुबह होते ही लगता कि दिमाग़ का मैदान जो है, वह सारा साफ़ है। बहुत सोचते और बहुत देर तक सोचते लेकिन दिमाग़ में कुछ होता, तभी तो सामने आता। आख़िर सब्र करना हम भारतीयों की तीसरी हॉबी है।

परीक्षा होती तो प्रश्न-पत्र देखकर हमारा ख़ून खौल जाता। लिखा होता-नीचे लिखे गद्यांश का संदर्भ-सहित अर्थ लिखो और यह भी लिखो (या बताओ) कि लेखक द्वारा लिखी गई इन पंक्तियों से तुम्हें क्या शिक्षा मिलती है? अथवा निम्नलिखित पद्यांश का अर्थ अपने शब्दों में विस्तार से लिखो और यह भी बताओ कि इसका लेखक कौन है और यह अंश उसकी किस पुस्तक से लिया गया है? अथवा प्रेमचंद की जीवनी कम-से-कम एक हज़ार शब्दों में लिखो।

हद हो गई हमारा क्या लेना-देना इन व्यर्थ के सवालों से? यहाँ तो 'करे कोई और भरे कोई' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। यानी 'करनेवाला कवि और भरनेवाला रवि'।

मरता क्या न करता! हम भी एक ही काइयाँ थे। लेखकों के चंगुल से बच निकलने का रास्ता ढूँढ़ ही निकाला। वह नव़्ा ल मारनी शुरू की कि बस इस कला में पूरे दक्ष हो गए. छोटी-छोटी पर्चियाँ जेब में रखकर परीक्षा-कक्ष में जाते। यह अमुक लेखक की जीवनी है, यह अमुक की। यह अमुक पद्यांश का भावार्थ है, यह अमुक का। अब यह बात अलग है कि अक्सर एक लेखक की जीवनी दूसरे के और दूसरे की तीसरे के नाम लिखी जाती और सारा गुड़ गोबर हो जाता। वैसे गोबर करना भी तो हमारी राष्ट्रीय हॉबी है। है कि नहीं?

हाँ, तो हम बता रहे थे कि लेखकों ने बचपन से ही जो हमारी गुद्दी ऐंठनी शुरू की सो अब तक ऐंठ रहे हैं। परीक्षा-कक्ष में यह सोचकर ग़ुस्सा आता था कि अमुक लेखक की जीवनी लिखें और कम-से-कम एक हज़ार शब्दों में लिखें। क्या धाँधली है? यानी हम आम भी आपको खाने को दें और गुठलियाँ भी गिनें। सो, हम जब तक विद्यालय में रहे, आम भी खिलाते रहे और गुठलियाँ भी गिनते रहे।

विद्यालय-जीवन से निकलकर जब यथार्थ के जीवन में आए, तब भी क्रम टूटा नहीं, क्योंकि कान पकडक़र बैठकें लगाने के अलावा जीवन का और कोई अर्थ हमारे लिए है ही नहीं। लेकिन इस त्रासदी के पीछे भी हाथ भाँति-भाँति के लेखकों का ही है। न हम इनकी जीवनियाँ रटते, न मेहनत से काम करके खाने की आदत डालते और न इस हालत में पहुँचते। सीधे-सीधे हाज़ी मस्तान बनकर मौज़ उड़ाते। नोट कीजिए कि जनाब हाज़ी मस्तान को किसी भी छोटे-बड़े लेखक की जीवनी याद नहीं है, यह अलग बात है कि वह जीवित लेखकों के अब तक एक सौ एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की अध्यक्षता कर चुके हैं। हाज़ी साहब इस रहस्य से परिचित हैं कि लेखक बनने से ज़्यादा लेखकों के सम्मेलन की अध्यक्षता करना सम्मानजनक होता है।

बात काफी दूर निकल गई. हम पं। श्यामबिहारीलाल शर्मा की बात कर रहे थे। हमने उन्हें सिर से पाँव तक घूरकर देखा। कहीं-से-कहीं तक कोई निशानी ऐसी नहीं मिली, जिससे प्रमाणित होता कि वे लेखक हैं। सूटेड-बूटेड, मोटे-ताज़े, हँसते-खेलते। न तो उलझे हुए लंबे बाल, न बढ़ी हुई लंबी दाढ़ी। लेखक तो बेचारा समाज में इंकलाब लाने के लिए जीवन-भर क़लम घसीटता है, पर इंकलाब तो आता नहीं, लेखक का 'जिंदाबाद' अवश्य हो जाता है। लगता है, यह लेखक-वेखक कुछ नहीं है। यदि है तो डुप्लीकेट। लेखक तो मंटो था, घंटों उकडँू बैठकर क़लम घिसता रहता था और जो समय बाकी रहता था उसमें एडि़याँ रगड़ता था, कभी फ़र्श पर तो कभी खाट पर। तब कहीं जाकर एक कहानी पूरी होती थी। कहानी पूरी होते ही मंटो भागता बाज़ार की ओर, जहाँ किसी प्रकाशक के हाथ घास के भाव कहानी बेचता और मंटो से एकदम 'मंटो साहब' हो जाता।

लेखक तो मुंशी प्रेमचंद थे। समाज उन्हें उस वक़्त तक यह याद दिलाता रहा, जब तक वे जीवित रहे कि लेखक होने की तुलना में मुंशी होना अधिक सम्मानसूचक है। इसलिए जीते-जी ही नहीं, वरन् मरने के बाद भी 'मुंशी' का शब्द उनके नाम का दुमछल्ला बना रहा। मरने के बाद सचमुच बहुत शोधकार्य हुआ मुंशी प्रेमचंद पर, पर शोध इस बात पर भी होनी चाहिए थी कि प्रेमचंद के व्यक्तित्व में लेखक अधिक था या मुंशी और यदि उनमें लेखक अधिक था तो मुंशी उपाधि उन्हें किस कारण दी गई?

गिनती के क्षणों में दर्जनों लेखकों के चेहरे हमारे मन-मस्तिष्क पर उभरे और ग़ायब हो गए, किंतु पं। श्यामबिहारी लाल शर्मा जैसे साफ़-सुथरा, चमकदार, ख़ुशहाल चेहरा उनमें से किसी का नहीं था। सारे के सारे फक्कड़, सारे घनचक्कर, सबके सब खल्लास। संदेह हुआ कि हम भारत में हैं या किसी और देश में। क्या सचुमुच हमारे देश में लेखकों की कायापलट हो गई है? लेकिन विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि कल तक तो हमने अपने ही शहर में कई लेखकों को जूतियाँ चटखाते और सडक़ नापते देखा था। हमने एक बार फिर अपनी पैनी दृष्टि उन पर डाली। फिर पूछा-'कितना कमा लेते हो भाई, लेखन-कार्य से?'

तुरंत उत्तर मिला-'कभी हज़ार, कभी पाँच सौ रुपए प्रतिदिन।'

प्रतिदिन शब्द आश्चर्य भरी चीख़ बनकर हमारे होंठों से फूट पड़ा। मन ही मन दुहराया-'हज़ार रुपए प्रतिदिन। यानी कि तीस हज़ार रुपए महीना। बाप रे बाप! दाता दे और बंदा ले। काश, हम भी लेखक होते और इसी टाइप के होते।' मन-ही-मन सोचा कि ये या तो पि ल्मी-जगत के लेखक हैं अथवा कवि-सम्मेलनों के चुटकुलेबाज़ कवि। वैसे लेखक तो हरगिज नहीं हो सकते, जैसे मुंशी प्रेमचंद जी थे, निराला जी थे या जैसे। हमने नामों की सूची आगे नहीं बढ़ाई. क्योंकि हमें ख़तरा था कि किसी एक नाम पर पहुँचते-पहुँचते हमारा हार्ट फेल हो जाने की नौबत आ सकती थी। हम स्वयं तो फेल हो जाने को हँसी-ख़ुशी सहन करने के आदी थे, किंतु हार्ट फ़ेल हो जाने की बात तो सोच भी नहीं सकते थे। असमंजस के गहरे सागर से अपना सिर उभारते हुए हमने पूछा-'क्यों लेखक जी, यह तो बताओ कि आप लिखते क्या हैं? प् ल्मिी कहानियाँ लिखते हैं आप? (यह बात नोट करने की है, हम उन्हें श्यामबिहारी लाल कहते-कहते एकदम' लेखक जी'कहने पर उतर आए थे। क्योंकि अच्छे पैसे वाला या अच्छे पैसे कमानेवाला हो तो हम जैसे टटपूँजिए पर उसका रुआब तो पड़ता ही है। सम्मान भी वह अपना हम जैसे लोगों से करवा ही लेता है।) लेखक साहब ने हमारा सवाल सुना तो तिरस्कार-भरे भाव से बोले-' नहीं साहब। प् ल्मिी-इल्मी कहानियों से क्या लेना-देना है हमें? हम कोई उल्लू या उसके पट्ठे नहीं है, जो रात-रात भर जाग कर पि ल्मी कहानियाँ लिखें और बॉक्स ऑपि स पर उनके फ़्लाप होने का तमाशा भी देखें। '

भाई श्यामबिहारीलाल ने पि ल्मी-लेखकों पर इतना लंबा लेक्चर दिया कि हम अपनी सुध-बुध भूल गए. हमें विश्वास हो गया कि पि ल्मी लेखकों से अधिक अस्वीकार्य प्राणी शायद ही दुनिया में हो। हमने साहस जुटाकर पूछा-'तो आप क्या गीतकार हैं?'

लेखक जी बोले-'नहीं जी.' और 'जी' पर उन्होंने इतनी दूर तक साँस खींची कि उनकी 'जी' हमारे जी का जंजाल बन गई. हमने फिर पूछा-'तो क्या आप कहानीकार हैं?'

इस बार उनकी त्योरी पर बल पड़ गए. झुँझलाकर बोले-'अरे साहब, कह तो दिया कि हम कहानीकार नहीं हैं और गीतकार भी नहीं हैं।'

'हो न हो, आप अवश्य ही व्यंग्यकार होंगे।' लेकिन लेखक जी ने इस 'कार' को भी अस्वीकार कर दिया और हम बेकार के संकट में पड़ गए. सोच रहे थे कि ये कैसे लेखक हैं, कहानी यह लिखते नहीं, कविता यह करते नहीं, व्यंग्य यह सुनते नहीं। तो क्या कोई और विधा प्रचलित हो गई है इन दिनों साहित्य के क्षेत्र में, जो हज़ार-पाँच सौ रुपए रोज़ ही रायल्टी दिला देती है। इच्छा हुई कि पूछें, 'वह कौनसी विधा है, जिसमें आप लिखते हैं और इतनी मोटी रक़म लेते हैं।'

कुछ पल दोनों के बीच चुप का परदा तना रहा। हमारे मन में जिज्ञासा बिजली की तेज़ी से दौड़ रही थी और हम सोच रहे थे कि इस नई विधा का पता चले तो इस पर पुस्तक ही संपादित कर दें।

साहस करके पूछा-'भाई साहब, यह तो बताइए कि आप लिखते क्या हैं?'

लेखक साहब ने झट उत्तर दिया-'दस्तावेज़।'

सारी बात समझ में आ गई. रजिस्ट्री कार्यालय का नक़्शा आँखों में घूम गया। ज़मीन, मकानों के बयनामे कल्पना में उलट-पुलट होने लगे, 'अमुक पुत्र, अमुक निवासी, अमुक स्थान का हूँ।'

जी चाहा, हास्य-व्यंग्य का यह पुलिंदा बगल में दबाए फिरने की जगह और कलम जेब में अटकाकर गली-गली घटनाओं की खोज में भटकने की बजाय काश हम ऐसे ही एक दस्तावेज़-लेखक होते और हज़ार पाँच सौ रुपए रोज़ ऐंठकर मौज़ की वंशी बजा रहे होते। हमारे मुँह से निकला-'भारत का एक महान् लेखक श्यामबिहारी लाल दस्तावेज़ लेखक।'