भेड़िया आया / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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भेड़िया आयावाली कहानी हम जानाते हैं और यह भी जानते हैं कि आखिर भेड़िया आया कहनेवाले पर भेड़िया का सफल आक्रमण होकर रहा। हमारे शासकों एवं नेताओं की भी आज वही भेड़िया आयावाले की दशा है। जहाँ देखो , सुनो , पढ़ो वे चीखते हैं , कम्युनिस्ट , कम्युनिस्ट , कम्युनिस्ट! हर काम में , हर मौके पर उन्हें कम्युनिस्टों का ही भूत नजर आता है। जो भी संघर्ष का काम है , हक के लिए लड़ने का काम है उसमें उन्हें कम्युनिस्टों का ही हाथ दीखता है। यहाँ तक कि चोरी-डकैती में भी वही देखते हैं। हथियार बंद चोरी-डकैतियों की भरमार है। उस काम के लिए हथियार जुटाने में लुटेरे लोग व्यस्त हैं। फिर भी ऐसे सभी काम कम्युनिस्टों के ही बताए जाते हैं और ' बदनाम करके लटका दो ' के अनुसार कम्युनिस्टों को पीस डालने में सरकार की सारी ताकत लग रही है। खूबी यह कि आमतौर से उनकी पार्टी गैर कानूनी नहीं की गई है। नेहरू के दमन का यह नया रूप है। जितना जोर कम्युनिस्टों के विरुध्द है चोर-डकैतों के खिलाफ वैसा जेहाद बोला गया है क्या ?

हम कम्युनिस्टों के वकील नहीं। वे अपनी वकालत खुद करते हैं , कर सकते हैं ─ जबान से और कामों से भी। वे दूसरों की वकालत चाहते भी नहीं। वे गलतियाँ भी कर सकते हैं ─ करते हैं। लेकिन क्या नेहरू और उनकी सरकार भूलों पर भूलें नहीं करती ? भूलता कौन नहीं ? तो भी मजलूमों की आवाज बुलंद करनान तो भूल है , न पाप। लेकिन जब अंग्रेजों के शासन के समय यही नेहरू मजलूमों की आहों को ऊँची करते थे तो हमारे आका उसे भूल और जुर्म करार देते थे-कहते थे कि यह उनकी आह नहीं है बनावटी चीज है। नेहरू की सरकार भी वही कर रही है। इतिहास तो दुहराया जाता है न ? दिलों को टटोलने की बात है , न कि गुस्सा करने की। जो नेहरू खुद लंबी तनख्वाह लेते , उनके दूसरे संगी-साथी-केंद्र में और प्रांतों में भी-कांग्रेस के कराची के हुक्म को ठुकराकर लंबे-से-लंबे वेतन और भत्तो लेते , जिनके गवर्नर , गवर्नर जनरल तथा विदेश स्थित दूत न सिर्फ लंबी तनख्वाहें लेते , वरन 20-25 हजार से लेकर 50 हजार की मोटरों पर सैर करने में शर्माते नहीं और जिनके लिए विदेशों से अच्छे-से-अच्छे फर्नीचर मँगाए जाते हैं , सारांश जो भारी वेतन , ठाट-बाट और फिजूलखर्ची में ही शान समझते हैं , वही नेहरू 20 रुपए के मासिक वेतन को 60 रुपए और 100 रुपए के 300 रु. करने-करवाने के संघर्ष को जब जुर्म , राष्ट्रीय अपराध और पाप करार देकर कम्युनिस्ट , कम्युनिस्ट चिल्लाते हैं तो लोगों का जी चाहता है कि कम्युनिस्टों को गले लगा लें। जो हड़ताल नेहरू खुद करवाते रहे वही आज जुर्म हो गई है। ठीक ही है ,' ऊधो बनिआए की बात ' है।

मगर नेहरू और उनके दोस्त एक बात याद रखें। उनने जो कम्युनिज्म और कम्युनिस्ट का हौआ खड़ा किया है उससे कम्युनिस्टों का लाभ और उन्हीं की हानि होगी यह ध्रुव सत्य है। वे इस तरह इन चीजों को जनप्रिय बना रहे हैं। जो कल तक कम्युनिस्टों के घोर शत्रु थे उनके दिलों में भी इस धुआँधार दमन और हौवे के करते उनके प्रति हमदर्दी हो रही है , याद रहे। एक जमाना था जब रूस के किसान-मजदूर बोलशेविक और बोलशेविज्म का नाम भी न जानते थे। फिर भी मजलूमों के हकों के लिए जमकर बोलने-लड़नेवालों को जार के कठमुल्ले और मालदार बार-बार यही कहते थे कि यह तो बोलशेविक है। परिणाम यही हुआ कि सभी धीरे-धीरे बोलशेविकों को बहादुर और अच्छे समझ खुद बोलशेविक बन गए। वही बात जब भारत में हो जाएगी तब नेहरू को पता चलेगा।