भेड़िया धसान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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साहित्य, राजनीति, अर्थनीति के साथ एक और नीति (अनीति भी कह सकते हैं) या परम्परा भी निरन्तर पनपती जा रही है, जिसे भेड़िया धसान भी कह सकते हैं, जिसका अनुगमन बढ़ता जा रहा है। जैसे एक भेड़ के पीछे -पीछे चलती हुई भेड़ें किसी भी दलदल में धँसती जाती हैं, वे भी वैसा ही करते जाते हैं। प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद , दिनकर या अज्ञेय के समय साहित्यकार या लेखक ही हुआ करते थे। अब आप किसी गोष्ठी या सम्मेलन के कार्यक्रम का पत्र देखिए, तो उसमें कई तरह के साहित्यकार मिलेंगे, जिनके सिर पर वरिष्ठ, अतिविशिष्ट, विशिष्ट आदि विशेषणों का मुकुट टँगा मिलेगा। इसके कई कारण हैं, जिनमें से एक है- किसी भी तरह मंच पर चिपकना। अध्यक्ष, विशिष्ट वक्ता, विशिष्ट अतिथि से लेकर अन्य कोई भी भारी भरकम विशेषण। एक विशेषण ‘प्रसिद्ध’ भी हो सकता है, भले उसे उसके नुक्कड़ वाला हलवाई भी न जानता हो। कुछ लोग तो प्रमुख, विशिष्ट , प्रसिद्ध विशेषण के न लगाने पर कार्यक्रम में आने से भी मना कर देते हैं। वे पहला सवाल दागेंगे- “कार्यक्रम में मेरी क्या भूमिका रहेगी? अध्यक्षता कौन कर रहे हैं, अन्य मंचस्थ जीव कौन -कौन हैं?” अनुकूल नाम न होने पर, वे अपनी अति व्यस्तता का बहाना तलाश लेंगे। इन सबमें एक और प्रजाति है, उसे आप गरिष्ठ, अतिथि, वक्ता आदि के नाम की संज्ञा दे सकते हैं। उनके सिर पर कोई न कोई इस तरह की पगड़ी होना ज़रूरी है। इन संस्थाओं में फोकटिया सलाहकार, गर्दभज्ञानी जैसे संस्थाध्यक्ष भी होते हैं, जो कार्यक्रमों के लिए चन्दा उगाही करने में माहिर होते हैं।

साहित्य में एक वर्ग असन्तुष्ट और ईर्ष्यालु साहित्यकारों का भी है। जिन पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ न छपें, वे कूड़ा, जिस कार्यक्रम में इनको अध्यक्ष आदि न बनाया जाए, वे कार्यक्रम स्तरहीन घोषित कर दिए जाते हैं। इनमें वे साहित्यकार अधिकतर हैं , जिनका लेखन बहुत पहले काल-कवलित हो चुका है। बस वे जीवित हैं, अपनी ईर्ष्या के ईंधन के साथ, भीगे कोयले की तरह सिंधड़ते हुए। कुछ ईर्ष्यालु साहित्यकार तो इतने भाव-विमूढ़ होते हैं कि वे निदेशक से कम स्तर वाले से बात करना ही पसन्द नहीं करते। कोई बात भी करना चाहे, तो मुँह घुमाकर इधर-उधर पेड़ पर बैठे कौवे या गली में भौंकते कुत्ते पर ही नज़रें गड़ा देंगे। इस अन्यत्र अवलोकन में उनका अहं सन्तुष्ट हो जाता होगा।

ऑनलाइन कार्यक्रम का अपना अलग ही मज़ा है। कोरोना -काल में इस तकनीक का कोरोना से भी अधिक प्रभावशाली प्रसार हुआ है। बड़े और गम्भीर कार्यक्रमों में बड़े-बड़े विद्वानों और उच्च पदस्थ अध्यक्षों को मुख्य वक्ता के मैटर का जूस निकालकर अन्त में समापन करते देखा है। उन्होंने जो कभी पढ़ा था , उसे कभी का भूल चुके हैं। नया पढ़ने की उनकी इच्छा सेवामुक्त होने से पहले ही काल-कवलित हो चुकी है। इस तरह के अध्यक्ष अत्यन्त विनम्र होते हैं। अपना काम निकालने के लिए, वे सभी के वक्तव्यों की सराहना करना नहीं भूलते। एक अन्य किस्म है -छिद्रान्वेषी अध्यक्षों की। यदि कोई नई उम्र का वक्ता अच्छा बोल जाए, तो उनके चेहरे के हाव -भाव बदल जाते हैं। लगता है, उन्हें भरी महफिल में किसी से सौ जूते मार दिए हों। वे कोई भी विषयान्तर मुद्दा उठाकर विष-वमन करने से नहीं चूकते। इनकी बात का कोई विरोध नहीं कर सकता। कोई अगर विरोध करेगा, तो अन्य बहुत से कार्यक्रमों से छुट्टी करा देंगे। अगर उत्तर न देने की स्थिति में होंगे या अन्य का प्रभाव श्रोताओं पर देखेंगे, तो नाराज़ होकर कार्यक्रम से ही पलायन कर जाएँगे।

इन कार्यक्रमों का एक सुविधाजनक और सराहनीय पक्ष भी है-आप ऑनलाइन कार्यक्रम में सुड़क-सुड़ककर चाय पी सकते हैं। कुछ कार्यक्रमों में तो इतनी छूट है कि परिवार के सदस्य अनाहूत होने पर भी चिप्स चबाकर खुद को कालाहाँडी से आया हुआ सिद्ध कर सकते हैं। कुछ बनियान पहनकर भी हाजिर हो सकते हैं। अपने शेरू को भौंकने की छूट दे सकते हैं।

हमारी हिन्दी का भार ऐसे ही सुविज्ञजन उठा रहे हैं। हिन्दी का हित करने के लिए प्रचार ज़रूरी है। प्रचार के लिए मुख्य नेतृत्व ऐसे लोगों के पास होना चाहिए, जो सरकार को करोड़ों का चूना लगाकर पोस्टरबाजी से हवा बनाने में सक्षम हों। यह अलग बात है कि वे अभी तक स्वयं चार वाक्य देवनागरी में टंकित नही कर पाते। वे अगर बड़े पद पर बैठे हैं , तो प्रयासरत रहते हैं कि किस स्रोत को कितना दुहा जा सकता है! उन्हें प्रत्येक विभाग एक दुधारू गाय नज़र आता है। ऑफ़िस के पर्दे से लेकर स्टेशनरी तक, कहीं कुछ भी आशा दिख जाए , तो अपनी बगुला भक्ति ज़रूर दिखा देंगे।

राजनीति किसी भी समाज का प्राण-तत्त्व है। राजनीति का अर्थशास्त्र से सीधा सम्बन्ध है। यह शब्द राज और नीति दो शब्दों से मिलकर बना है। राज का अर्थ है-राज्य न होने पर भी राज करना या स्वयं को राजा समझना और ‘नीति’ का अर्थ है-‘न -इति’ अर्थात् राज करना हमारा पोतड़ों से सिद्ध अधिकार है। इस काम में उन्हें 'न' सुनने की आदत नहीं ; क्योंकि वे ‘न’ की इति( समाप्ति) कर चुके हैं। इनका सिद्धान्त है कि ककड़ी चोर को फाँसी दी जाए ; क्योंकि वह चोरी जैसे पावन-कर्म को लांछित करता है। कारण -अर्थशास्त्र के व्यावहारिक रूप में यह स्वीकार्य नहीं। अगर चोरी ही करना है , तो इतना तो किया ही जाए कि आने वाली सात पीढ़ियाँ निठल्ले बैठकर भी खाती रहें। मैंने बचपन में देखा है कि चोर को पकड़ने के लिए एक ही आवाज़ पर पूरा गाँव उमड़ पड़ता था। आज इसका स्वरूप बदल गया। आज जब चोर पकड़ में आता है, तो कुछ भीषण लज्जाशील चोर इकट्ठे होकर ‘खो-खो’ खेलने लगते हैं। इस खेल को प्रेमपूर्वक देखने वाली संस्थाएँ भी इस ‘खो-खो’ में ‘हो-हो-हो’ करने लगती हैं। सब शान्त रहें, इसके लिए ‘जियो और जीने दो’ को बचाना है , तो ‘खाओ और खाने दो’ का सिद्धान्त अपनाना पड़ेगा। हमें समझ लेना चाहिए कि ‘खो-खो’ खेलने वालों को और ‘हो-हो-हो’ करके चिल्लाने वालों को बुरा-भला कहना असहिष्णुता है।