भेड़िया / गोवर्धन यादव

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"तड़ाक"

उसने एक जोरदार तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया था।

तमाचा जड़ने के साथ ही उसका पूरा शरीर क्रोध में कांप रहा था। आँखों में अंगारे दहक रहे थे। उसकी आवाज़ में बिजली-सी कौंध रही थी। वह किसी भेड़िए की तरह गुर्रा रहा था। अपनी कर्कश आवाज़ में वह लगातार चीख-चिल्ला रहा था-" कहाँ है मेरा शेरु... उसे तुम्हारे हवाले किया था और कहा था कि उसका ध्यान रखना, उसे समय पर खाना खिलाना...पानी पिलाना और उसे बागीचे में टहला लाना। बोलो कहा था न, तुम इतना-सा भी काम नहीं कर सकीं? आख़िर तुम करती क्या हो बैठे-बैठे... मलाईदार माल खा-खाकर मुटिया रही हो। बताओ... कहाँ है मेरा शेरु...और न बतला पाई तो...?

वह "तो" पर आकर अटक गया था। अटक गई थी उसकी जुबान। वह क्या कुछ नहीं कर सकता है? कल्पना मात्र से उसके शरीर में कंपकंपी-सी होने लगी थी। वह जानती है कि वह नीचता कि सारी हदें पार कर सकता है, वह आदमी से हैवान हो सकता है... उसकी दुर्गति कर सकता है। आए दिन वह अपनी नीचता पर उतर आता है और उसकी इतनी जमकर पिटाई कर देता है कि लाख दवा लगाने और सिंकाई करने के बाद भी जिस्म से दर्द नहीं जा पाता।

"जी... मुझे नहीं पता...वह अचानक कहाँ चला गया। ख़ूब ढूँढने की कोशिश की...लेकिन उसे ढूँढ नहीं पायी"

"बकवास करती है साली...हरामी...अगर वह नहीं मिला तो समझ लेना...मुझसे बुरा और कोई नहीं होगा" । कहते हुए वह भारी कदमों से चलता हुआ शीघ्रता से बाहर निकल गया।

वह किसी कटे हुए वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी और देर तक आंसू बहाती रही थी। देर तक रोते रहने के बाद वह उठ बैठी और वाशरुम में धंस गई और दीवार पर टंगे आईने में अपना चेहरा देखने लगी। रो-रोकर उसकी आँखें सूज आयी थीं। एक हसीन चेहरे पर विकृति की परछाईयाँ साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी। गाल पर अब भी पाँचों उंगलियों के निशान मौजूद थे। उसने नल खोला। शीतल जल के छींटे चेहरे पर डाले। दहकते हुए गालों पर शीतल जल की बूंदों के पड़ते ही उसे राहत-सी मिलने लगी थी। वह देर तक ऎसा करती रही।

वाशरुम से निकलकर वह एक सोफ़े में धंस गई. एक विशाल कक्ष में वह थी और उसकी तनहाईयाँ थी। सफ़ेद हंस की तरह उजले बीते दिनों की याद आती, तो उसकी आंखे मुस्कुरा उठती और वर्तमान में बीत रहे कष्टदायी दिनों की याद करते ही, उसकी आंखों से पुनः गरमा-गरम आंसू टप-टपाकर झरने लगते। देर तक अनमनी-सी बैठी रहने के बाद वह उठ खड़ी हुई और छत पर निकल आयी।

शीतल पवन के झंकोरों ने उसे अपने में आलिंगनबद्ध कर लिया। सुखद शीतल हवा के झोंकों में झूलते हुए उसे अच्छा लगने लगा था। दिन भर का थका-हारा सूरज, पहाड़ी के उस पार उतरकर अपने घर जाने की तैयारी में था। शाम को छत पर बैठी कांता सूरज को अस्ताचल में जाता देखती रही थी। ललछौंही किरणॊं से पीपल के पत्ते संवलाने लगे थे। पक्षियों के दल लौटने लगे थे। वे अपने मुँह में दाना-चुग्गा भर लाई थे, अपने शिशुओं के लिए. दाना-चुगा खिला देने के बाद वे आपस में बतियाने लगे। दूर-दूर तक उड़ कर जाते, फिर वापस लौट आते। शायद वे अपना कौशल दिखा रहे थे। सारे पक्षी उसकी बिदाई में सांध्य गीत गा रहे थे। बूढ़े पीपल के देह में झुरझुरी-सी भर आयी थी। वह भी तालियाँ बजा-बजाकर पक्षियों का उत्साहवर्धन कर रहा था...

सूरज अपनी अंतिम किरणॊं का जाल समेटे पहाड के पीछे छिप गया और आसमान में हल्का-सुरमई अंधियारा घिरने लगा, जो क्रमशः धीरे-धीरे गहराता जा रहा था। अपने से बेख़बर कांता दीवार से पीठ टिकाए प्रकृति के नित-नूतन बदलते रूप को देख रही थी। पंछियों का सामुहिक गान और अपने बच्चों के प्रति उमड़ आए स्नेह को देखते ही उसे अपनी दोनों बेटियों प्रभा एवं प्रिती और एकलौते पुत्र अभिजीत की याद हो आई. कहने को तो वे उसके पुत्र और पुत्रियाँ हैं, लेकिन समय की प्रचण्ड गति से चलती आधुनिक हवा उन्हें दूर उड़ा ले गई है। प्रभा अपने बाय-फ़्रेण्ड के साथ डेटिंग पर चली गई है, बिना बतलाए और सूचना दिए. प्रिती का कुछ अता-पता नहीं है, शायद वह भी अपने किसी आशिक के साथ रंग-रेलियाँ मनाने निकल गई हो और अभिजीत अमेरिका कि सड़कों पर गटरमस्ती कर रहा होगा। इन तीनों में से कोई उसके पास होता तो वह उसके कांधे पर सिर टिकाकर रो तो सकती थी...अपना जी हल्का तो कर सकती थी। लेकिन समय की प्रचण्ड आंधी ने उसका सब कुछ उजाड़ दिया था। अब करे भी तो क्या करे कांता...किसे सुनाए अपने दिल का दुखड़ा...किसे दिखाए अपने तन पर लगे जख्मों को...? किसे बतलाए कि राजेश अब पहले जैसा नहीं रह गया है... और बच्चे उससे छिटककर दूर जा चुके है और वह निहायत अकेली नारकीय ज़िन्दगी जी रही है। रेत पर पड़ी मछली की तरह छटपटाती कांता अपने अतीत के गलियारों में उतरकर चक्कर काटने लगी। यादों के पखेरु कभी पकड़ाई में आते तो कभी हाथ आते-आते फ़ुर्र से उड़ जाते।

बहुत खुश थी कांता अपनी छोटी-सी दुनिया में। एक पतली-सी तंग गली में उसका अपना छोटा-सा आशियाना था। वह थी, तीनों बच्चे थे और संग था राजेश, जो उसके सपनों की दुनिया को नए-नए रंगों से रंगीन बनाता था, उसे हंसाता, ख़ुद हंसता, गुदगुदाता और रोम-रोम में तरुणाई जगा जाता था। जीवन के कठोर रास्ते पर चलने के पहले उसने इसी तरह का सपना पाल रखा था कि उसका अपना एक छोटा-सा आशियाना होगा, प्यारे-प्यारे बच्चे होंगे और होगा एक प्यारा-सा राजकुमार, जो उसे अपनी बाहों के हिंडोलों में झुलाता रहेगा।

उसके सारे सपने हक़ीक़त में बदलने लगे थे। उसे राजेश जैसा आदर्श पति जो मिल गया था। उसे पाकर वह निहाल हो गई थी। राजेश जंगल विभाग में स्टेनों के पद पर कार्यरत था। एक सीमित आय थी उसकी। बावजूद इसके उसकी घर-गिरस्थी बड़े आराम से चल रही थी। उसके जीवन में वह क्षण भी आ उपस्थित हुआ, जब वह माँ बनने जा रही थी। शीघ्र ही वह एक बेटी की माँ बन गई. राजेश के अनुपस्थिति में उसका सारा समय प्रभा के देखरेख और साज-संभार में निकल जाता। फिर आई दूसरी बेटी प्रिती। जैसा नाम वैसे ही सीरत-सूरत। अपनी प्यारी-प्यारी बेटियों के संग वह जी भर के बतियाती, उन्हें संस्कारित करती और समय-समय पर नेक सीख देना नहीं भूलती। दो-दो बेटियों के होने के बावजूद उसे लगता कि एक पुत्र और हो जाए, तो वह निहाल हो उठेगी। सपना सच हुआ और अभिजात का उसके जीवन में पदार्पण हुआ। इस तरह बहुत खुश थी कांता अपनी इस छोटी-सी गिरस्थी में।

राजेश भी व्यस्त रहता अपने कार्यालयीन कामों में। वह हर काम चुटकी बजाते हल कर ले आता। दिन भर का थका-मांदा होने के बावजूद भी उसके चेहरे पर हंसी खेलती रहती। कार्यालय के सभी अधिकारी, यहाँ तक की स्टाफ़ का हर छोटा-बड़ा कर्मचारी उसके व्यवहार से खुश रहता था। यही सब कारण था कि वह सबका चहेता बना हुआ था। शाम के ठीक छः बजे वह अपना केबिन बंद कर सीधे घर चला आता। कांता और बच्चों के संग हो लेता। बेहद-बेहद खुश थी कांता अपनी छोटी से दुनिया में, जिसमें कई-कई इंद्र्धनुष एक साथ ऊग आए थे। कभी वह एक रंग से खेलती, तो कभी दूसरे से, कभी तीसरे से।

राजेश का भाग्य करवटें ले रहा था। वह अचानक एक ऎसी तिलिस्मी दुनिया में प्रवेश करने जा रहा था जिसकी कि उसने कल्पना तक नहीं की थी। उसके इलाके के आदिवासी नेता के देहावसान के बाद विधायक का पद खाली था। उस स्थान की भरपाई के लिए एक ऎसे योग्य और होनहार व्यक्ति की तलाश थी, जो पढ़ा-लिखा होने के साथ-साथ वाकपटु हो, मिलनसार हो, विनम्र हो और हर छोटी-बड़ी समस्याओं को चुटकी बजाते हल कर लेने वाला हो। प्रदेश के सांसद महोदय भी ऎसे व्यक्ति की तलाश में थे।

एक दिन। जंगल विभाग के बड़े आला अधिकारियों सहित, प्रदेश के सांसद और वन मंत्री वार्षिक अधिवेशन में भाग ले रहे थे। बातों ही बातों में कन्जर्वेटर साहब ने अपने कार्यालय में कार्य कर रहे राजेश के बारे में विस्तार से सांसद महोदय को बतलाते हुए कहा कि उन्होंने अब तक उस जैसा कर्मठ कर्मचारी नहीं देखा है। यदि उससे त्याग-पत्र लेकर विधायक के पद पर चुनाव लड़वा दिया जाए तो आपको एक बेहतर केंडिडेट मिल सकता है। आफ़ीसर की बातों में दम था और उन्हें एक लंबे समय से ऎसे योग्य उम्मीदवार की तलाश भी थी।

सांसद महोदय ने उसे अपने कार्यालय में बुलवाकर अपना मंतव्य सुनाया। सुनते ही राजेश सकते में आ गया था। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वह विधायक भी बन सकता है। सुनते ही उसके शरीर में रोमांच हो आया था। ख़ुशी के मारे वह अन्दर ही अन्दर उछलने लगा था। मन गदगद हो उठा था। चाहतें पंख पसार कर उड़ने लगी थीं पूरे वेग से। उसे इसी क्षण निर्णय लेना था। हाँ कहने मात्र से वह फ़र्श से अर्श तक जा सकता था और ना कहने पर उसे बाबू का बाबू ही बने रहना था। काफ़ी सोचने और विचार करने के बाद उसने हामी भर दी थी।

आज वह विधायक ही नहीं अपितु एक ख़ास विभाग का मंत्री भी बन गया था। बाबू से मंत्री बना राजेश अपने भाग्य पर इतराने लगा था। जिसके पास कभी दो लोग इकठ्ठा नहीं होते थे, आज उसके इर्द-गिर्द भीड़ जमी रहती है। फ़टीचर सायकिल में चलने वाले राजेश के पास उसकी अपनी बेशकीमती फ़ोरव्हील गाड़ी है। अब वह टपरेनुमा कमरे में नहीं रहता। आज उसके पास एक आलीशान बंगला है और नौकर-चाकरों की भीड़। जब वह सफ़र में होता है तो पांच-दस गाड़ियाँ उसके आगे-पीछे चलती है। उसका अपना बाडिगार्ड है। आज क्या नहीं है राजेश के पास? धन-दौलत, रुतबा, पैसे-धेले, नौकर-चाकर। किसी चीज की कमी नहीं है उसके पास। सफ़लता के नशे में मदहोश रहने लगा था वह।

बहुत खुश थी कांता भी। उसने कभी अनुमान तक नहीं लगाया था कि वह आम से ख़ास बन जाएगी। आम से ख़ास बनी कांता नित नूतन सपने देखती और राजेश उन सपनों में रंग भर देता। टपरा टाईप स्कूल में पढ़ने वाली उसकी बेटियाँ और बेटे अब शहर के नामी-गिरामी स्कूल में पढ़ने जाते है। सभी के पास अपने-अपने व्हिकल हैं। सबके अपने रौब हैं, रुतबें हैं।

समय कभी एक-सी चाल में नहीं चलता। वह सीधी चाल में चलता हुआ कब उलटी चाल में चलने लगेगा, कोई नहीं जानता। एक मनहूस क्षण, बिल्ली की-सी दबी चाल में चलता हुआ कांता के घर में कब घुस आया, पता ही नहीं चल पाया। छोटी-बड़ी खुशियों के तिनकों को जोड़कर बनाया घोंसला अब बिल्ली की उछाल में ज़मीन पर आ गिरा था और घोंसलें में सिर छिपाए खुशियों के पखेरु, चिंचियाते हुए फ़ुर्र से दूर जा उड़े थे।

एक दिन की बात है। राजेश अपने दल-बल के साथ एक बिहड़ में से गुजर रहा था। तभी उसकी नज़र एक कुतिया पर पड़ी जो आराम से सो रही थी और उसका नन्हा पिल्ला दूध चूस रहा था। गाड़ी की आवाज़ सुनकर कुतिया उठ खडी हुई और जंगल में समा गई. राजेश के इशारे पर गाड़ी रोक दी गई. नवजात शिशु भाग नहीं पाया। राजेश ने उस पिल्ले को ग़ौर से देखा। उस पिल्ले को देखते ही उसके मन में दया आ गई. पिल्ला था भी बड़ा सुन्दर। चमकीला रंग, भूरी-भूरी आंखें और जबड़े से झांकते नुकिले दांत। उसके मन में आया कि इसे अपने बंगले पर होना चाहिए. इसके रहते उसका घर सुरक्षित रहेगा, ऎसा विचार करते हुए उसने उसे अपने साथ ले आया।

राजेश के पी.ए. ने बतलाया कि वह कुतिया का बच्चा नहीं बल्कि भेडिया का बच्चा है। लेकिन राजेश ने उसके तर्क को बोथरा करते हुए, यह मानने से इनकार कर दिया कि वह भेड़िया का वशंज है।

घर में प्रवेश करते हुए उसने कांता को बुला भेजा और हिदायत देते हुए कहा कि वह इस नवजात पिल्ले का विशेष ध्यान रखेगी। उसे समय पर दूध पिलवाया करेगी और उसका समूचित रख-रखाव भी करती रहेगी। कांता ने उस पिल्ले को ग़ौर से देखा। लम्बा मुँह, झब्बेदार पूँछ, आँखों से टपकती चालाकी। देखते ही समझ गई कि वह कुतिया का नहीं बल्कि भेड़िया का बच्चा है। उसने अपनी ओर से राजेश को समझाने की बहुतेरी कोशिश की कि जैसा वह समझ रहा हैं, वैसा नहीं है। उसने सलाह देते हुए कहा भी कि उस पिल्ले को फिर से जंगल में छुड़वा देना चाहिए. राजेश किसी भी तरह उसके तर्कों से सहमत नहीं था। उसका एक ही कहना था कि वह कुतिया का पिल्ला है, अतः उसे वह किसी भी क़ीमत पर अपने बंगले पर ही रखेगा।

दिन के शुरुआत भी बड़ी अजीब तरीके से होती। दिन निकलते ही उसके चमचों की भीड़ बंगले पर जमा हो जाती। चाय-पानी-नाश्ते के बाद वह अपने क्षेत्र के दौरे पर निकल जाता। वह घर कब लौटेगा, कोई नहीं जानता। कभी रात के दस, तो कभी बारह बजे वह घर लौटता। उसके लौटने का वह बेसब्री से इन्तजार करती रहती। इन्तजार करते-करते कभी-कभार उसकी आँख लग जाती, तो वह तूफ़ान उठा लेता और अर्र-सर्र बकने लगता। उसकी बहकी-बहकी चाल देखकर वह समझ जाती कि श्रीमान महुआ चढ़ाकर घर लौटे हैं। शराब और कबाब से दूर रहने वाला उसका राजेश अब पूरी तरह बदल गया था। एक दिन वह भी था जब वह आफ़िस से थका-हारा घर लौटता था। थका-मांदा होने के बावजूद वह उसे अपनी बाहों के घेरों में कस लेता और जी भर के प्यार-दुलार दिया करता था। लेकिन अब ऎसा नहीं होता। प्यार के दो शब्दों की जगह अब घिनौनी गालियों ने ले ली थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि इस बदलाव का क्या कारण है?

। पिल्ला अब धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। जैसे-जैसे वह बढ़ता गया, उसकी खुराक भी बढ़ती चली गई. उसे अब दिन में दो बार मीट खिलाया जाता। मीट खा-खाकर वह मुटियाने लगा था। उसके शरीर का भूरा-काला रंग और चटख हो आया था। पूंछ और झबरीली घनी हो गई थी। उसके नूकुले दातॊं को देखकर भय लगता। कूं...कां करने वाला युवा होता पिल्ला अब गुर्राने लगा था। उसके गले से निकलने वाली आवाज़ भी दिल को दहला देने के लिए काफ़ी थी। लेकिन इन सब बातों से बेफ़िकर राजेश उससे चिपका रहता। ऎसा करते देख उसे घिन होने लगती। वह समझाने की कोशिश करती लेकिन राजेश की घूरती आंखों को देखकर वह सहमी रह जाती। शब्द गले में अटके रह जाते।

राजेश के इस बदले रूप को देखकर वह सहम जाती। वह समझ रही थी कि इस तरह का बदलाव अचानक नहीं आया है। यह बदलाव उस भेड़िए के आने के बाद से ही शुरु हुआ है। नशे में चूर राजेश भेड़िए के साथ खेलता, ख़ुद मीट खाता और उसे भी खिलाता जाता। खेल-खेल में उसका झूठा खाना भी खा लेता। ऎसा करते हुए देखकर उसे घिन आने लगती। लेकिन वह कर भी क्या सकती थी, सिवाय देखते रहने के. राजेश के व्यव्हार में आए परिवर्तन की वज़ह वह पूरी तरह समझ चुकी थी कि नार्मल रहते हुए वह अचानक क्यों भड़क उठता है, उसकी आवाज़ में कर्कशपन क्यों उतर आता है, उसके लक्षणॊं को देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राजेश के शरीर में भेड़िए का प्रवेश हो चुका है, तभी तो वह इतना आक्रमक हो उठता है।

सुबह से ही घर में काफ़ी चहल-पहल थी। शायद कहीं टूर पर जाने का प्रोग्राम बन चुका था। राजेश के चमचों की उपस्थिति देखकर तो यही कहा जा सकता था। बाद में पता चला कि उसे मुख्यमंत्रीजी का बुलावा आया है और वह दो-चार दिन के लिए शहर से बाहर रहेगा। सारी तामझाम के बाद उसका काफ़िला रवाना हुआ। जाने से पहले उसने कांता के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा कि वह दो-चार दिन के लिए बाहर जा रहा है। उसकी अनुपस्थिति में शेरु का ध्यान रखना। उसको समय पर खिलाया-पिलाया करना। उसके रख-रखाव में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रहनी चाहिए.

कांता के मन में आया कि पलटकर जवाब देना चाहिए और यह पूछना चाहिए कि एक हिंसक पशु की इतनी ज़्यादा चिंता करने के बजाय उसे अपने बेटा-बेटी की भी तो सुध लेनी चाहिए. उसे इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि वे कहाँ है और कब घर लौटेगें? लेकिन नहीं, केवल उसे तो सिर्फ़ फ़िक्र है बस शेरु की। मन में उमड़ते-घुमड़ते सवाल होंठॊं तक आकर रुक जाते। वह हिम्मत नहीं जुटा पायी थी कि पलटकर जवाब दे दे। इससे पहले भी उसने इस बात का ज़िक्र किया था तो उसने टका-सा जवाब देते हुए कहा था कि बेचारे अभी बच्चे हैं, उम्र के कच्चे हैं। यही तो दिन है उनके खाने-खेलने के. एक मंत्री के बेटा-बेटी को किस तरह से रहना...घूमना...फ़िरना चाहिए, तुम देहाती औरत क्या समझोगी। आ जाएंगे, जहाँ भी गए होंगे, तुम्हें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। उसकी सपाटबयानी सुनकर हक्का-बक्का रह गई थी वह। चुप रहने के अलावा और कर भी क्या सकती थी बेचारी। एक आंधी-सी गुजरने लगी थी उसके भीतर।

शेरु के लिए एक आदमी अलग से तैनात कर रखा था राजेश ने। वह ही उसे नहलाता-धुलाता, खिलाता-पिलाता और घुमाने ले जाता। घुट्टा शेरु कभी बकरी पर हमला कर देता तो कभी मुर्गियों के बाड़े में घुस कर दो-चार मुर्गियाँ चट कर जाता। उसकी इस हरकतों से परेशान होकर उसके गले में एक मोटी-सी जंजीर बाँध दी गई थी। जीभ लपलपता शेरु जब दड़बे से बाहर लाया जाता, तो संभाले नहीं संभलता था। वह उसे खींचकर संभालने की कोशिश करता, लेकिन शेरु उसे घसीटता हुआ दूर तक चला जाता था। कई बार तो ऎसा भी हुआ है कि उसने जंजीर तोड़कर भाग जाने की कोशिश भी की थी।

एक सुबह। शेरु के अटैण्डेंट ने उसे बाहर घुमाने के लिए दड़बे के बाहर निकाला। गुर्राहट के साथ, जीभ लपलपाता शेरु जैसे ही दरवाजे की चौखट से बाहर निकला, पूरी ताकत के साथ उसने चेन छुड़ा ली और जंगल की ओर भाग खड़ा हुआ। अटैण्डेंट चिल्लाता रहा, उसे पुकारता रहा लेकिन उसने पलट कर नहीं देखा। जब शेरु उसकी पकड़ से बाहर हो गया तो उसने कांता से अपना दुखड़ा रोते हुए उसके भाग जाने की सूचना दी। कांता जानती थी कि राजेश लौटने के बाद पहले शेरु के बारे में ही पूछताछ करेगा। जब उसे यह सुनने को मिलेगा कि उसका प्रिय पात्र शेरु भाग गया है, तो उस पर कितना ज़ुल्म ढाया जाएगा, जिसकी कल्पना मात्र से उसके शरीर में सिहरन होने लगी थी। दिल बैठने लगा था। उसने अटैण्डॆंट को आज्ञा दी कि वह उसकी खोजबीन में तत्काल निकल जाए.

दो दिन की खोज-खबर के बाद भी शेरु पकड़ा नहीं गया था। राजेश घर लौट रहा है, इस बात की ख़बर उसे मिल गई थी। यदि इस बीच शेरु पकड़ा नहीं गया तो वह क्या जवाब देगी? इस चिंता में उसका दिल बैठा जा रहा था। उसने अपने नौकरों को आज्ञा दी के वे अपने साथ जाल साथ लेकर जायें। साथ ही उसने सक्त हिदायत भी दी कि उसे हर हाल में पकड़कर ले आना है।

बाहर गेट पर हो-हल्ला सुनकर वह बाहर निकली। उसने देखा। रस्सी के जाल में बंधा शेरु, जिसे एक लठ्ठ के सहारे दो आदमी टांगकर अन्दर आ रहे है और उनके पीछे पच्चीसों लोगों की भीड़ भी चली आ रही है। शेरु मिल गया, यह जानकर उसने राहत की सांस ली। लेकिन अटैण्डॆंट को देखते ही सारा माजरा उसकी समझ में आ गया कि शेरु ने उस पर भयानक तरीके से हमला किया होगा जिससे उसके कपड़े जगह-जगह से फ़टे हुए थे और खून रिसकर उसके पूरे कपड़ों में फ़ैल रहा था। वह बुरी तरह से जख्मी हो गया था और थर-थर कांप भी रहा था। उसे तत्काल मेडिकल ऎड दिए जाने की ज़रूरत है। अगर समय पर ऎसा नहीं किया गया तो उस बेचारे की जान भी जा सकती है। उसने आगे बढ़कर मेडिकल कालेज के डाक्टर को फ़ोन किया और तत्काल एम्बुलेंस भेजने का अनुरोध किया।

जाल में फ़ंसा शेरु पूरी ताकत के साथ ज़ोर लगाकर आजाद होना चाहता था। पूरी ज़ोर अजमाईश के साथ वह बुरी-बुरी आवाज़ निकालते हुए जोरों से गुर्रा रहा था। कोई भी आदमी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। शायद कोई ऎसा कर पाता तो निश्चित ही वह उसके चीथड़े मचा देता।

कांता के मन में खलबली मची थी कि ऎसी विकट परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए? । एक मन हुआ कि इसे तत्काल गोली मार दी जानी चाहिए. यदि वह ऎसा कर सकी तो निश्चित ही एक भेड़िए से छुटकारा पाया जा सकता है, जो उसकी जान का दुश्मन बना बैठा है। परिणाम से भी वह वाकिफ़ थी कि इसका अन्जाम क्या हो सकता है। उसका मन घड़ी के पेण्डुलम की तरह दोलायमान हो रहा था। वह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए.

दोलायमान होते मन को उसने किसी तरह काबु में किया और निर्णय लिया कि शेरु के अभी तत्काल गोली मार देनी चाहिए.

निर्णय लेने के साथ ही उसने अपने कमरे में टंगी रिवाल्वर उठा लायी और धड़कते दिल से फ़ायर कर दिया। एक के बाद एक उसने तीन गोलियाँ उसके जिस्म में उतार दी। गोली लगने के साथ ही वह जाल सहित काफ़ी ऊपर तक उछला, जोरों से गुर्राया और निर्जीव होकर धरती पर आ गिरा।

उसके धरती पर गिरने के साथ ही राजेश ने प्रवेश किया। आंगन में जमा भीड़ देखकर सारा माजरा उसकी समझ में आ गया था कि उसका शेरु मारा गया है। कभी वह आंखें तरेर कर अपने मरे हुए शेरु को देखता तो कभी साक्षात दुर्गा बनी कांता को। देर तक घूरते रहने के बाद वह भारी कदमों से चलता हुआ बंगले में घुस गया।

कांता के मन में अपरिमेय संतोष उतर आया था कि उसने अपने जीवन को नरक बना देने वाले एक भेड़िए को तो मार गिराया है और अब उसे यह देखना है कि दूसरा भेड़िया उसके साथ किस तरह का व्यवहार करता है?