भेद खोलेगी बात ही / साधना अग्रवाल
लेखिका- साधना अग्रवाल (नवम्बर, २००८)
हिन्दी कथा साहित्य में अपने 'छिन्नमस्ता` उपन्यास में प्रिया जैसी बोल्ड नारी पात्र की सृजक डॉ. प्रभा खेतान का १९ सितम्बर, २००८ की आधी रात को कोलकाता के आमरी अस्पताल में आकस्मिक और अप्रत्याशित निधन की दुखद सूचना मुझे २१ सितंबर की सुबह दैनिक हिंदुस्तान में छपी खबर से मिली। जिस पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था जहां मुझे सहसा याद कि जनवरी २००४ में साहित्य अकादेमी की ओर से युवा लेखकों को दिए जाने वाल साहित्यिक यात्रा अनुदान के क्रम में कोलकाता की मेरी पहली यात्रा थी। प्रभा दी के घर पर उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई थी। प्रभा दी के घर जाकर जो पहला अहसास हुआ, वह एक लेखक का सुरुचि संपन्न घर था, जहां तमाम आधुनिक साज-सज्जाओं के बीच विराजमान थे- विश्व के तमाम लेखक, हिन्दी सहित। बातचीत के क्रम में दिल्ली के साहित्यिक जगत की जानकारी ही उन्होंने नहीं ली, बल्कि इस बात की तहकीकात भी की कि भोपाल से प्रकाशित 'दुनिया इन दिनांे` में ब्रह्मराक्षस के नाम से कौन स्तंभ लिखता है?यदि डॉ. प्रभा खेतान ने समकालीन कथा साहित्य में एक तरफ अपनी पहचान कथा-लेखन से बनाई तो दूसरी तरफ सीमोन द बुवाआर की प्रसिद्ध पुस्तक 'द सेकेंड सेक्स` के अनुवाद के साथ सार्त्र और कामू के जीवन दर्शन पर चिंतन से। वे न केवल चर्म उद्योग से जुड़ीं एक उद्योग प्रतिष्ठान की निदेशिका थीं, बल्कि उनका कपड़े के निर्यात का भी व्यवसाय है। उनका अधिकांश लेखन आत्म कथात्मक है। मारवाड़ी समाज की दकियानूसी संकीर्णता के बीच उनके नारी पात्र जिस तरह विद्रोह करते हैं, स्त्री अस्मिता एवं उसकी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते प्रस्तुत हेाता हैं- वह समकालीन हिन्दी उपन्यास जगत में विलक्षण हैं। उनकी विशेषता यह है कि अपने कथ्य में वे कहीं लाउड नहीं होती हैं। बिना शोरगुल मचाए चुपचाप रचनात्मकता की लंबी रेखा खींच देती है।
खासकर 'छिन्नमस्ता` की प्रिया तो हिन्दी उपन्यास की एक ऐसी पात्र है जो अपने वृतांत में न केवल अकेली है, बल्कि स्पृहणीय थी। प्रभा खेतान का पहला उपन्यास 'आओ पेपे घर चलें` (१९८०) छपा तो हिन्दी संसार में खलबली मची- फिर उसके बाद 'छिन्नमस्ता`, 'अपने-अपने चेहरे`, 'पीली आंधी` और पिछले दिनों प्रकाशित आत्मकथा 'अन्या से अनन्या` बेहद चर्चित रही है।प्रभाजी का जन्म १ नवंबर, १९४२ को एक बेहद संकीर्णतावादी हिन्दू सनातनी परिवार में हुआ। माता-पिता की आखिरी संतान थीं और स्वाभाविक है कि लड़की के पैदा होने से ठंडी सांस ही बरक हुई होगी। प्रेसिडेंसी कॉलेज से दर्शन में स्नातक, कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और पटना विश्वविद्यालय बिहार से दर्शन में पीएचडी की। बचपन में जितना अनुशासन उन्हें घर और स्कूल में सिखाया गया, कॉलेज में आकर एक-एक की परतें उधेड़ने लगीं। बगावत करना, बहस खड़ी करना, क्लास से निकल भागना, काफी हाउस में अड्डेबाजी, कुल मिलाकर कॉलेज का जीवन बेहद हलचल भरा और रुचिकर था।उनके लेखन की शुरूआत कविता से हुई। पहली कविता जब 'सुप्रभात` में प्रकाशित हुईं, उस समय सातवीं कक्षा मंे थीं। उनका मानना था,
'औरत को इतनी हिम्मत जुटा लेनी होगी कि वह आचार संहिताओं से सवाल पूछे और स्त्री विरोधी शास्त्रों को जला डाले। इसके लिए स्त्री समाज को एक और बड़े एवं व्यापक स्तर पर प्रतिरोध सीखना होगा। कुल मिलाकर जुम्मा-जुम्मा हम भारतीय स्त्रियों ने पिछले ३०-४० वर्षों से अपने बारे में सोचना और बोलना सीखा है। हम आप जैसे दो-चार विशिष्ट या दो-चार टोकन उदाहरणों से आम औरत की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं होगा। आम औरत की जिंदगी तो तभी बदलेगी, जब वह पितृसत्ता द्वारा अभिव्यक्त संस्थाओं के प्रतिरोध की भाषा सीखेगी।`
('मुझे प्रतिरोध अच्छा लगता है। आखिर हम स्त्रियां विरोध क्यों नहीं करें? यदि कोई आपको तोड़ता रहे तो क्या हम सब कुछ खामोशी से स्वीकार लें?)भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच लेखन के लिए समय निकाल लेने के सवाल पर उनका कहना था कि '२४ साल की उम्र में मैंने पैसा कमान शुरू किया। आर्थिक स्वतंत्रता को मैंने अपने जीवन में वेद वाक्य की तरह स्वीकारा है और पैसा कमाने के लिए मैंने कड़ी मेहनत की है।
('गली-गली घूमी हूं, बक्सा उठाये-उठाये देश-विदेश के हर कोने में गई हूं और सफलता-असफलता की द्वंद्वात्मकता से संचालित व्यापारिक दुनिया के सारे तामझाम सीखने-समझने की चेष्टा की है। चमड़े के व्यवसाय के अलावा मद्रास में कपड़े के व्यवसाय के लिए तीन साल चेन्नई में व्यस्त रही। इसे जीवन का अंतिम समय तो नहीं कह सकती, पर मेरे जीवन का बड़ा महत्वपूर्ण पक्ष है।`)
पिछले कुछ सालों से अपने मुंहबोल गोद लिए बेटे संदीप, जो हिन्दी साहित् से बेहद लगाव रखता है, साथ ही प्रभा जी के मिशन में भी सहयोग देता है, के साथ रहते हुए भी वस्तुत: प्रभाजी ने प्रेम करते हुए भी अपमान पूर्ण एकाकी जीवन जिया है और अविवाहित रहकर सामाजिक उपेक्षा तथा यंत्रणा झेली है।प्रभाजी की टिप्पणी है,
'जहां तक एक अविवाहित महिला के प्रेम संबंध का सवाल है, समाज का इस पर आपत्ति करना स्वाभाविक है।
('मैंने कभी समाज के साथ पंगा नहीं लिया। जिन रास्तों पर मैं चली, वे मेरी पंगडंडियां थीं और मुझे पता था कि मेरे लिए वहां कोई स्वागत समारोह नहीं होने वाला।`)
लोगों ने मुझे जान से नहीं मार डाला, यही बहुत है। पारंपरिक-सामाजिक सोच में इतनी जल्दी तो बदलाव आने से रहा,
('ऐसे किस्से अपवाद के बदले जब आए दिन घटने वाली घटनाओं मंे बदल जाते हैं, तभी समाज की आचार संहिताओं में परिवर्तन नजर आता है।`)
समाज ऐसे विहाहेत्तर संबंधों को पूरा नहीं स्वीकारता, मगर कमोबेशी स्वीकारने लगता है।
(खासकर, आर्थिक रूप से स्वावलंबी स्त्री को वह स्वीकृति मिल ही जाती है। स्त्री यदि दमित और शोषित है तो वह चाहे जितनी चेष्टा करे, पर आदर्श पत्नी और मां के रूप में भी इस औपनिवेशिक व्यवस्था में हीन स्थिति में रहेगी।)
जब तक स्त्री खुद अपना स्थान नियत नहीं करेगी, अपने बारे में निर्णय नहीं लेगी, तब तक तयशुदा संबंधों से इतर संबंधों पर समाज ठप्पा लगाता रहेगा। आज जरूरत है कि परिधि पर रहते हुए लोग प्रतिरोध की भाषा ईजाद करें। स्त्री के अपने जीवन में चुनाव के क्षण कम होते हैं, क्योंकि व्यवस्था से संचालित मानस इन क्षणों को देखकर भी अनदेखा करता है।
(यदि कोई स्त्री अपनी तरह से जिंदगी जीना चाहती है तो उसे अपनी तरह के लोगों से ही दोस्ती करनी होगी, अपने समूह का विकास करना होगा। अब मेरी जैसी स्त्री सती-सावित्रियों की तुलना में श्रेष्ठ होने का दावा करे या उनसे टक्कर ले तो स्वाभाविक है कि फिलहाल सती-सावित्रियों की परंपरा ही जीतेगी।)
वैसे मैं नहीं सोचती कि मैंने ऐसा कोई अनोखा और नया कुछ किया है, ऐसे संबंध पहले भी होते थे। लेकिन आज औरत अपनी कमियों के साथ अपनी पहचान हासिल करती है। वह न किसी के लिए सती होती है और न अपनी जिंदगी हवन करती है, बल्कि वह जिंदगी जीने की कोशिश करती है। विवाह व्यवस्था तो आज एक टूटती हुई व्यवस्था है, पारंपरिक समाज इसे आवश्यकता से अधिक महत्त्व देना चाहता है, इसे टिकाये रखने की चेष्टा भी करता है। यह तो हम स्त्रियों को सोचना है कि हम समाज को किस हद तक बदलना चाहेंगी।`प्रभाजी की पुस्तक 'उपनिवेश में स्त्री` काफी चर्चित रही है। स्त्री को उन्होंने अंतिम उपनिवेश क्यों माना, के जवाब में वह बताती हैं,
'मर्दवादी समाज ने स्त्री को हजारों सालों से दोयम स्तर पर ही रखा है। इसे हम-आप सभी जानते हैं। बल्कि इस उपनिवेश में औरत ही नहीं, मर्द भी मौजूद हैं। वही मर्द जिसने इस उपनिवेश की रचना की थी। पहले उसे यकीन था कि उपनिवेश की बागडोर उसके हाथ में हैं। पर आज मालिकाने का उसका एहसास दुविधाग्रस्त हो चुका है। बात यह है कि इस उपनिवेश की कोई भू-क्षेत्रीय या टेरीटोरियल सीमाएं तो हैं नहीं। यह १९वीं सदी और २०वीं सदी के पहले पचास सालों के उस उपनिवेश से अलग हैं जिसके खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम लड़े गये थे। पुरुष इसलिए दुविधाग्रस्त है क्योंकि स्त्री के साथ वो भी आधा-अधूरा रह गया।
(आखिर कुछ पुरुष नारी के हकों का समर्थन क्यों करते हैं? क्या केवल उदारतावादी और बहुलतावादी विचारधाराओं के कारण? मानव मुक्ति की कामना से प्रेरित होकर? ये सभी कारण तो हैं ही, पर असली और अहम कारण है पितृसत्ता ने अपने हाथों जो उपनिवेश खड़ा किया है, उससे स्त्रियों को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ उसकी बागडोर संभालने वाले हाथों की मानवीयता का भी क्षय कर दिया।)
आज के विचारवान पुरुष अपने पौरुष की रक्षा के लिए स्त्री का समर्थन करने के लिए मजबूर हैं। जाहिर हैं, इस लिहाज से आज का मर्द रेनेसां के उस मर्द से अलग हो चुका है जिसने स्वतंत्रता, मैत्री, समता और बुद्धिसंगत चिंतन और आचरण का नारा बुलंद करते हुए भी स्त्रियों पर पाबंदी लगाना जरूरी समझा था।स्त्री जानती है जो उपनिवेश उसके खिलाफ है, वह उपनिवेश अपनी ताकत स्त्री के समर्थन से ही हासिल करता है। पुरुष भी जानता है कि स्त्री की तरह अगर वह भी संघर्ष चेतना से लैस नहीं हुआ तो यह उपनिवेश उसे हमेशा के लिए खत्म कर देगा।
(जरा ऐसे पुरुष की व्यथा का अंदाजा लगाइये, उसके भीषण अपराधबोध को समझने की चेष्टा कीजिये कि किस दारुण वेदना से वो छटपटा रहा है। पुरुष जितना छटपटाएगा, औरत को अपनी लड़ाई में उतनी ही मदद मिलेगी। यह पुरुष औरत की आजादी का हमसफर है। मगर नारीवाद को अपनी उन सीमाओं का भी अतिक्रमण करना होगा जो उसने अपने अतिवादी दृष्टिकोण के कारण स्वयं पर लागू की हैं। मार्क्सवाद की भांति नारीवादी को भी आत्मलोचना की जरूरता है। हमें सोचना होगा आखिर क्यों स्त्री अधिकारों के प्रवक्ताओं का स्वर दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों के स्वर से मेल खाने लगता है? ऐसा क्यों होता है कि कामनाओं पर लगाई गई शुद्धतावादी पाबंदियों की पैरोकारी करते हुए नारीवाद भी कैथरिन मैकिनॅन और एण्ड्रिया डॉरकिन जैसे सिद्धांतकारों का नजरिया अपना लेता है।)
सीमोन द बुवाआर से काफी हद तक प्रभावित प्रभाजी मुक्ति की पहली शर्त स्त्री के आर्थिक स्वावलंबन को मानती थीं। यही कारण था कि वे रात-दिन भागदौड़ करतीं अपने काम में डूबे रहीं। बल्कि यह कहना सही होगा कि वे व्यावसायिक सफलताओं की सीढ़ियां चढ़ती हुईं भी अपने एकांत और अकेलेपन से लगातार जूझती रहीं। अचानक बिना किसी को बताये चुपचाप उन्होंने इस संसार से विदा ले लिी। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।
- ऊना इन्क्लेव, मयूर विहार, दिल्ली-११००९१